श्रीमद्भागवतमहापुराण – अष्टम स्कन्ध – अध्याय ६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
छठा अध्याय
देवताओं और दैत्यों का मिलकर समुद्रमन्थन के लिये उद्योग करना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! जब देवताओं ने सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनके बीच में ही प्रकट हो गये । उनके शरीर की प्रभा ऐसी थी, मानो हजारों सूर्य एक साथ ही उग गये हों ॥ १ ॥ भगवान् की उस प्रभा से सभी देवताओं की आँखें चौंधिया गयीं । वे भगवान् को तो क्या-आकाश, दिशाएँ, पृथ्वी और अपने शरीर को भी न देख सके ॥ २ ॥ केवल भगवान् शङ्कर और ब्रह्माजी ने उस छवि का दर्शन किया । बड़ी ही सुन्दर झाँकी थी । मरकतमणि (पन्ने) के समान स्वच्छ श्यामल शरीर, कमल के भीतरी भाग के समान सुकुमार नेत्रों में लाल-लाल डोरियाँ और चमकते हुए सुनहले रंग का रेशमीं पीताम्बर ! सर्वाङ्ग सुन्दर शरीर के रोम-रोम से प्रसन्नता फूटी पड़ती थी । धनुष के समान टेढ़ी भाँहें और बड़ा ही सुन्दर मुख । सिर पर महामणिमय किरीट और भुजाओं में बाजूबंद । कानों के झलकते हुए कुण्डलों की चमक पड़ने से कपोल और भी सुन्दर हो उठते थे, जिससे मुखकमल खिल उठता था । कमर में करधनी की लड़ियाँ, हाथों में कंगन, गले में हार और चरणों में नूपुर शोभायमान थे । वक्षःस्थल पर लक्ष्मी और गले में कौस्तुभमणि तथा वनमाला सुशोभित थी ॥ ३-६ ॥

भगवान् के निज अस्त्र सुदर्शन चक्र आदि मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रहे थे । सभी देवताओं ने पृथ्वी पर गिरकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया फिर सारे देवताओं को साथ ले शङ्करजी तथा ब्रह्माजी परम पुरुष भगवान् की स्तुति करने लगे ॥ ७ ॥

ब्रह्माजी ने कहा — जो जन्म, स्थिति और प्रलय से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, जो प्राकृत गुणों से रहित एवं मोक्षस्वरूप परमानन्द के महान् समुद्र हैं, जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं और जिनका स्वरूप अनन्त हैं — उन परम ऐश्वर्यशाली प्रभु को हमलोग बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ ८ ॥ पुरुषोत्तम ! अपना कल्याण चाहनेवाले साधक वेदोक्त एवं पाञ्चरात्रोक्त विधि से आपके इसी स्वरूप की उपासना करते हैं । मुझे भी रचनेवाले प्रभो ! आपके इस विश्वमय स्वरूप में मुझे समस्त देवगणों के सहित तीनों लोक दिखायी दे रहे हैं ॥ ९ ॥ आपमें ही पहले यह जगत् लीन था, मध्य में भी यह आपमें ही स्थित है और अन्त में भी यह पुनः आपमें ही लीन हो जायगा । आप स्वयं कार्य कारण से परे परम स्वतन्त्र हैं । आप ही इस जगत् के आदि, अन्त और मध्य हैं — वैसे ही जैसे घड़े का आदि, मध्य और अन्त मिट्टी है ॥ १० ॥

आप अपने ही आश्रय रहनेवाली अपनी माया से इस संसार की रचना करते हैं । और इसमें फिर से प्रवेश करके अन्तर्यामी के रूप में विराजमान होते हैं । इसीलिये विवेकी और शास्त्रज्ञ पुरुष बड़ी सावधानी से अपने मन को एकाग्र करके इन गुणों की, विषयों की भीड़ में भी आपके निर्गुण स्वरूप का ही साक्षात्कार करते हैं ॥ ११ ॥ जैसे मनुष्य युक्ति के द्वारा लकड़ी से आग, गौ से अमृत के समान दुध, पृथ्वी से अन्न तथा जल और व्यापार से अपनी आजीविका प्राप्त कर लेते हैं — वैसे ही विवेक से पुरुष भी अपनी शुद्ध वृद्धि से भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि के द्वारा आपको इन विषयों में ही प्राप्त कर लेते हैं और अपनी अनुभूति के अनुसार आपका वर्णन भी करते हैं ॥ १२ ॥ कमलनाभ ! जिस प्रकार दावाग्नि से झुलसता हुआ हाथी गङ्गाजल में डुबकी लगाकर सुख और शान्ति का अनुभव करने लगता है, वैसे ही आपके आविर्भाव से हमलोग परम सुखी और शान्त हो गये हैं । स्वामी ! हमलोग बहुत दिनों से आपके दर्शनों के लिये अत्यन्त लालायित हो रहे थे ॥ १३ ॥ आप ही हमारे बाहर और भीतर के आत्मा हैं । हम सब लोकपाल जिस उद्देश्य से आपके चरणों की शरण में आये हैं, उसे आप कृपा करके पूर्ण कीजिये । आप सबके साक्षी है, अतः इस विषय में हमलोग आपसे और क्या निवेदन करें ॥ १४ ॥ प्रभो ! मैं, शङ्करजी, अन्य देवता, ऋषि और दक्ष आदि प्रजापति — सब-के-सब अग्नि से अलग हुई चिनगारी की तरह आपके ही अंश हैं और अपने को आपसे अलग मानते हैं । ऐसी स्थिति में प्रभो ! हमलोग समझ ही क्या सकते हैं । ब्राह्मण और देवताओं के कल्याण के लिये जो कुछ करना आवश्यक हो, उसका आदेश आप ही दीजिये और आप वैसा स्वयं कर भी लीजिये ॥ १५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — ब्रह्मा आदि देवताओं ने इस प्रकार स्तुति करके अपनी सारी इन्द्रियाँ रोक ली और सब बड़ी सावधानी के साथ हाथ जोड़कर खड़े हो गये । उनकी स्तुति सुनकर और उसी प्रकार उनके हृदय की बात जानकर भगवान् मेघ के समान गम्भीर वाणी से बोले ॥ १६ ॥ परीक्षित् ! समस्त देवताओं के तथा जगत् के एकमात्र स्वामी भगवान् अकेले ही उनका सब कार्य करने में समर्थ थे, फिर भी समुद्र-मन्थन आदि लीलाओं के द्वारा विहार करने की इच्छा से वे देवताओं को सम्बोधित करके इस प्रकार कहने लगे ॥ १७ ॥

श्रीभगवान् ने कहा — ब्रह्मा, शङ्कर और देवताओ ! तुमलोग सावधान होकर मेरी सलाह सुनो । तुम्हारे कल्याण का यही उपाय हैं ॥ १८ ॥ इस समय असुरों पर काल की कृपा है । इसलिये जब तक तुम्हारे अभ्युदय और उन्नति का समय नहीं आता, तब तक तुम दैत्य और दानवों के पास जाकर उनसे सन्धि कर लो ॥ १९ ॥ देवताओ ! कोई बड़ा कार्य करना हो तो शत्रुओं से भी मेल-मिलाप कर लेना चाहिये । यह बात अवश्य है कि काम बन जाने पर उनके साथ साँप और चूहेवाला बर्ताव कर सकते हैं (किसी मदारी की पिटारी में साँप तो पह लेसे था ही, संयोगवश उसमें एक चूहा भी जा घुसा । चूहे के भयभीत होने पर सांप ने उसे प्रेम से समझाया कि तुम पिटारी में छेद कर दो, फिर हम दोनों भाग निकलेंगे । पहले तो साँप की इस बात पर चूहे को विश्वास न हुआ, परन्तु पीछे उसने पिटारी में छेद कर दिया । इस प्रकार काम बन जाने पर साँप चूहे को निगल गया और पिटारी से निकल भागा।)॥ २२ ॥ तुम लोग बिना विलम्ब के अमृत निकालने का प्रयत्न करो । उसे पी लेने पर मरनेवाला प्राणी भी अमर हो जाता है ॥ २१ ॥ पहले क्षीरसागर में सब प्रकार के घास, तिनके, लताएँ और ओषधियाँ डाल दो । फिर तुम लोग मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग की नेती बनाकर मेरी सहायता से समुद्र को मन्थन करो । अब आलस्य और प्रमाद का समय नहीं है । देवताओ ! विश्वास रखो-दैत्यों को तो मिलेगा केवल श्रम और क्लेश, परन्तु फल मिलेगा तुम्हीं लोगों को ॥ २२-२३ ॥ देवताओ ! असुर लोग तुमसे जो जो चाहें, सब स्वीकार कर लो । शान्ति से सब काम बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता ॥ २४ ॥ पहले समुद्र से कालकूट विष निकलेगा, उससे डरना नहीं और किसी भी वस्तु के लिये कभी भी लोभ न करना । पहले तो किसी वस्तु की कामना ही नहीं करनी चाहिये, परन्तु यदि कामना हो और वह पूरी न हो, तो क्रोध तो करना ही नहीं चाहिये ॥ २५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! देवताओं को यह आदेश देकर पुरुषोत्तम भगवान् उनके बीच में ही अन्तर्धान हो गये । वे सर्वशक्तिमान् एवं परम स्वतन्त्र जो ठहरे । उनकी लीला का रहस्य कौन समझे ॥ २६ ॥ उनके चले जाने पर ब्रह्मा और शङ्कर ने फिर से भगवान् को नमस्कार किया और वे अपने-अपने लोकों को चले गये, तदनन्तर इन्द्रादि देवता राजा बलि के पास गये ॥ २७ ॥ देवताओं को बिना अस्त्र-शस्त्र के सामने आते देख दैत्यसेनापतियों के मन में बड़ा क्षोभ हुआ । उन्होंने देवताओं को पकड़ लेना चाहा । परन्तु दैत्यराज बलि सन्धि और विरोध के अवसर को जानने वाले एवं पवित्र कीर्ति से सम्पन्न थे । उन्होंने दैत्यों को वैसा करने से रोक दिया ॥ २८ ॥ इसके बाद देवता लोग बलि के पास पहुँचे । बलि ने तीनों लोको को जीत लिया था । वे समस्त सम्पत्तियों से सेवित एवं असुर-सेनापतियों से सुरक्षित होकर अपने राजसिंहासन पर बैठे हुए थे ॥ २९ ॥ बुद्धिमान् इन्द्र ने बड़ी मधुर वाणी से समझाते हुए राजा बलि से वे सब बातें कहीं, जिनकी शिक्षा स्वयं भगवान् ने उन्हें दी थी ॥ ३० ॥ वह बात दैत्यराज बलि को जँच गयी । वहाँ बैठे हुए दूसरे सेनापति शम्बर, अरिष्टनेमि और त्रिपुरनिवासी असुरों को भी यह बात बहुत अच्छी लगी ॥ ३१ ॥ तब देवता और असुरों ने आपस में सन्धि समझौता करके मित्रता कर ली और परीक्षित् ! वे सब मिलकर अमृतमन्थन के लिये पूर्ण उद्योग करने लगे ॥ ३२ ॥ इसके बाद उन्होंने अपनी शक्ति से मन्दराचल को उखाड़ लिया और ललकारते तथा गरजते हुए उसे समुद्रतट की ओर ले चले । उनकी भुजाएँ परिघ के समान थीं, शरीर में शक्ति थी और अपने-अपने बल का घमंड तो था ही ॥ ३३ ॥ परन्तु एक तो वह मन्दर पर्वत ही बहुत भारी था और दूसरे उसे ले जाना भी बहुत दूर था । इससे इन्द्र, बलि आदि सब के सब हार गये । जब ये किसी प्रकार भी मन्दराचल को आगे न ले जा सके, तब विवश होकर उन्होंने उसे रास्ते में ही पटक दिया ॥ ३४ ॥ वह सोने का पर्वत मन्दराचल बड़ा भारी था । गिरते समय उसने बहुत-से देवता और दानवों को चकनाचूर कर डाला ॥ ३५ ॥

उन देवताओं और असुरों के हाथ, कमर और कंधे टूट ही गये थे, मन भी टूट गया । उनका उत्साह भंग हुआ देख गरुड़ पर चढ़े हुए भगवान् सहसा वहीं प्रकट हो गये ॥ ३६ ॥ उन्होंने देखा कि देवता और असुर पर्वत के गिरनेसे पिस गये हैं। अतः उन्होंने अपनी अमृतमयी दृष्टि से देवताओं को इस प्रकार जीवित कर दिया, मानों उनके शरीर में बिल्कुल चोट ही न लगी हो ॥ ३७ ॥ इसके बाद उन्होंने खेल-ही-खेल में एक हाथ से उस पर्वत को उठाकर गरुड़ पर रख लिया और स्वयं भी सवार हो गये । फिर देवताओं और असुरों के साथ उन्होंने समुद्रतट की यात्रा की ॥ ३८ ॥ पक्षिराज गरुड़ ने समुद्र तट पर पर्वत को उतार दिया । फिर भगवान् के विदा करने पर गरुड़जी वहाँ से चले गये ॥ ३९ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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