April 4, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – अष्टम स्कन्ध – अध्याय ८ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय आठवाँ अध्याय समुद्र से अमृत का प्रकट होना और भगवान् का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना श्रीशुकदेवजी कहते हैं — इस प्रकार जब भगवान् शङ्कर ने विष पी लिया, तब देवता और असुरों को बड़ी प्रसन्नता हुई । वे फिर नये उत्साह से समुद्र मथने लगे । तब समुद्र से कामधेनु प्रकट हुई ॥ १ ॥ वह अग्निहोत्र की सामग्री उत्पन्न करनेवाली थी । इसलिये ब्रह्मलोक तक पहुँचानेवाले यज्ञ के लिये उपयोगी पवित्र घी, दूध आदि प्राप्त करने के लिये ब्रह्मवादी ऋषियों ने उसे ग्रहण किया ॥ २ ॥ उसके बाद उच्चैःश्रवा नाम का घोड़ा निकला । वह चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण का था । बलि ने उसे लेने की इच्छा प्रकट की । इन्द्र ने उसे नहीं चाहा; क्योंकि भगवान् ने उन्हें पहले से ही सिखा रखा था ॥ ३ ॥ तदनन्तर ऐरावत नाम का श्रेष्ठ हाथी निकला । उसके बड़े-बड़े चार दाँत थे, जो उज्ज्वलवर्ण कैलास की शोभा को भी मात करते थे ॥ ४ ॥ तत्पश्चात् कौस्तुभ नामक पद्मराग मणि समुद्र से निकली । उस मणि को अपने हृदय पर धारण करने के लिये अजित भगवान् ने लेना चाहा ॥ ५ ॥ परीक्षित् ! इसके बाद स्वर्गलोक की शोभा बढ़ानेवाला कल्पवृक्ष निकला । वह याचकों की इच्छाएँ उनकी इच्छित वस्तु देकर वैसे ही पूर्ण करता रहता है, जैसे पृथ्वी पर तुम सबकी इच्छाएँ पूर्ण करते हो ॥ ६ ॥ तत्पश्चात् अप्सराएँ प्रकट हुई । वे सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित एवं गले में स्वर्ण-हार पहने हुए थीं । वे अपनी मनोहर चाल और विलासभरी चितवन से देवताओं को सुख पहुँचानेवाली हुई ॥ ७ ॥ इसके बाद शोभा की मूर्ति स्वयं भगवती लक्ष्मीदेवी प्रकट हुई । वे भगवान् की नित्यशक्ति हैं । उनकी बिजली के समान चमकीली छटा से दिशाएँ जगमगा उठीं ॥ ८ ॥ उनके सौन्दर्य, औदार्य, यौवन, रूप-रंग और महिमा से सबका चित्त खिंच गया । देवता, असुर, मनुष्य-सभी ने चाहा कि ये हमें मिल जायें ॥ ९ ॥ स्वयं इन्द्र अपने हाथों उनके बैठने के लिये बड़ा विचित्र आसन ले आये । श्रेष्ठ नदियों ने मूर्तिमान् होकर उनके अभिषेक के लिये सोने के घड़ों में भर-भरकर पवित्र जल ला दिया ॥ १० ॥ पृथ्वी ने अभिषेक के योग्य सब ओषधियाँ दीं । गौओं ने पञ्चगव्य और वसन्त ऋतु ने चैत्र-वैशाख में होनेवाले सब फूल फल उपस्थित कर दिये ॥ ११ ॥ इन सामग्रियों से ऋषियों ने विधिपूर्वक उनका अभिषेक सम्पन्न किया । गन्धर्वों ने मङ्गलमय संगीत की तान छेड़ दी । नर्तकियों नाच-नाचकर गाने लगीं ॥ १२ ॥ बादल सदेह होकर मृदङ्ग, डमरू, ढोल, नगारे, नरसिंगे, शङ्ख, वेणु और वीणा बड़े जोर से बजाने लगे ॥ १३ ॥ तब भगवती लक्ष्मीदेवी हाथ में कमल लेकर सिंहासन पर विराजमान हो गयी । दिग्गजों ने जल से भरे कलशों से उनको स्नान कराया । उस समय ब्राह्मणगण वेदमन्त्रों का पाठ कर रहे थे ॥ १४ ॥ समुद्र ने पीले रेशमी वस्त्र उनको पहनने के लिये दिये । वरुण ने ऐसी वैजयंती माला समर्पित की, जिसकी मधुमय सुगन्ध से भौंरे मतवाले हो रहे थे ॥ १५ ॥ प्रजापति विश्वकर्मा ने भाँति-भांति के गहने, सरस्वती ने मोतियों का हार, ब्रह्माजी ने कमल और नाग ने दो कुण्डल समर्पित किये ॥ १६ ॥ इसके बाद लक्ष्मीजी ब्राह्मणों के स्वस्त्ययन-पाठ कर चुकने पर अपने हाथों में कमल की माला लेकर उसे सर्वगुणसम्पन्न पुरुष के गले में डालने चली । माला के आसपास उसकी सुगन्ध से मतवाले हुए भौरे गुंजार कर रहे थे । उस समय लक्ष्मीजी के मुख की शोभा अवर्णनीय हो रहीं थी । सुन्दर कपोलों पर कुण्डल लटक रहे थे । लक्ष्मीजी कुछ लज्जा के साथ मन्द-मन्द मुसकरा रही थी ॥ १७ ॥ उनकी कमर बहुत पतली थी । दोनों स्तन बिल्कुल सटे हुए और सुन्दर थे । उन पर चन्दन और केसर का लेप किया हुआ था । जब वे इधर-उधर चलती थीं, तब उनके पायजेब से बड़ी मधुर झनकार निकलती थी । ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई सोने की लता इधर उधर घूम-फिर रही हैं ॥ १४. ॥ वे चाहती थी कि मुझे कोई निर्दोष और समस्त उत्तम गुणों से नित्ययुक्त अविनाशी पुरुष मिले तो मैं उसे अपना आश्रय बनाऊँ, वरण करूँ । परन्तु गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध, चारण, देवता आदि में कोई भी वैसा पुरुष उन्हें न मिला ॥ १९ ॥ (वे मन-ही-मन सोचने लगी कि कोई तपस्वी तो हैं, परन्तु उन्होंने क्रोध पर विजय नहीं प्राप्त की है । किन्हीं में ज्ञान तो है, परन्तु वे पूरे अनासक्त नहीं हैं । कोई-कोई हैं तो बड़े महत्त्वशाली, परन्तु वे काम को नहीं जीत सके हैं । किन्हीं में ऐश्वर्य भी बहुत है; परन्तु वह ऐश्वर्य ही किस काम का, जब उन्हें दूसरों का आश्रय लेना पड़ता हैं ॥ २० ॥ किन्हीं में धर्माचरण तो है, परन्तु प्राणियों के प्रति वे प्रेम का पुरा बर्ताव नहीं करते । त्याग तो है, परन्तु केवल त्याग ही तो मुक्ति का कारण नहीं हैं । किन्हीं-किन्हीं मे वीरता तो अवश्य हैं, परन्तु वे भी काल के पंजे से बाहर नहीं हैं । अवश्य ही कुछ महात्माओं में विषयासक्ति नहीं है, परन्तु वे तो निरन्तर अद्वैत-समाधि में ही तल्लीन रहते हैं ॥ २१ ॥ किसी-किसी ऋषि ने आयु तो बहुत लंबी प्राप्त कर ली है, परन्तु उनका शील-मङ्गल भी मेरे योग्य नहीं है । किन्हीं में शील-मङ्गल भी है परन्तु उनकी आयु का कुछ ठिकाना नहीं । अवश्य ही किन्हीं में दोनों ही बातें हैं, परन्तु वे अमङ्गल-वेष में रहते हैं । रहे एक भगवान् विष्णु । उनमें सभी मङ्गलमय गुण नित्य निवास करते हैं, परन्तु वे मुझे चाहते ही नहीं ॥ २२ ॥ इस प्रकार सोच-विचारकर अन्त में श्रीलक्ष्मीजी ने अपने चिर अभीष्ट भगवान् को ही वर के रूप में चुना; क्योंकि उनमें समस्त सद्गुण नित्य निवास करते हैं । प्राकृत गुण उनका स्पर्श नहीं कर सकते और अणिमा आदि समस्त गुण उनको चाहा करते हैं; परन्तु वे किसी की भी अपेक्षा नहीं रखते । वास्तव में लक्ष्मीजी के एकमात्र आश्रय भगवान् ही हैं । इससे उन्होंने उन्हीं को वरण किया ॥ २३ ॥ लक्ष्मीजी ने भगवान् के गले में वह नवीन कमलों की सुन्दर माला पहना दी, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड मतवाले मधुकर गुंजार कर रहे थे । इसके बाद लज्जापूर्ण मुसकान और प्रेमपूर्ण चितवन से अपने निवासस्थान उनके वक्षःस्थल को देखती हुईं वे उनके पास ही खड़ी हो गयी ॥ २४ ॥ जगत्पिता भगवान् ने जगज्जननी, समस्त सम्पत्तियों की अधिष्ठातृ-देवता श्रीलक्ष्मीजी को अपने वक्षःस्थल पर ही सर्वदा निवास करने का स्थान दिया । लक्ष्मीजी ने वहाँ विराजमान होकर अपनी करुणाभरी चितवन से तीनों लोक, लोकपति और अपनी प्यारी प्रजा की अभिवृद्धि की ॥ २५ ॥ उस समय शङ्ख तुरही, मृदङ्ग आदि बाजे बजने लगे । गन्धर्व अप्सराओं के साथ नाचने-गाने लगे । इससे बड़ा भारी शब्द होने लगा ॥ २६ ॥ ब्रह्मा, रुद्र, अङ्गिरा आदि सब प्रजापति पुष्पवर्षा करते हुए भगवान् के गुण, स्वरूप और लीला आदि के यथार्थ वर्णन करनेवाले मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे ॥ २७ ॥ देवता, प्रजापति और प्रजा सभी लक्ष्मीजी की कृपादृष्टि से शील आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न होकर बहुल सुखी हो गये ॥ २८ ॥ परीक्षित् ! इधर जब लक्ष्मीजी ने दैत्य और दानवों की उपेक्षा कर दी, तब वे लोग निर्बल, उद्योगरहित, निर्लज्ज और लोभी हो गये ॥ २९ ॥ इसके बाद समुद्रमन्थन करने पर कमलनयनी कन्या के रूप में वारुणी देवी प्रकट हुई । भगवान् की अनुमति से दैत्यों ने उसे ले लिया ॥ ३० ॥ तदनन्तर महाराज ! देवता और असुरों ने अमृत की इच्छा से जब और भी समुद्रमन्थन किया, तब उससे एक अत्यन्त अलौकिक पुरुष प्रकट हुआ ॥ ३१ ॥ उसकी भुजाएँ लंबी एवं मोटी थी । उसका गला शङ्ख के समान उतार-चढ़ाववाला था और आँखों में लालिमा थी । शरीर का रंग बड़ा सुन्दर साँवला-साँवला था । गले में माला, अङ्ग-अङ्ग सब प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित, शरीर पर पीताम्बर, कानों में चमकीले मणियों के कुण्डल, चौड़ी छाती, तरुण अवस्था, सिंह के समान पराक्रम, अनुपम सौन्दर्य, चिकने और घुँघराले बाल लहराते हुए उस पुरुष की छवि बड़ी अनोखी थी ॥ ३२-३३ ॥ उसके हाथों में कंगन और अमृत से भरा हुआ कलश था । वह साक्षात् विष्णुभगवान् के अंशांश अवतार थे ॥ ३४ ॥ वे ही आयुर्वेद के प्रवर्तक और यज्ञभोक्ता धन्वन्तरि के नाम से सुप्रसिद्ध हुए । जब दैत्यों की दृष्टि उन पर तथा उनके हाथ में अमृत से भरे हुए कलश पर पड़ी, तब उन्होंने शीघ्रता से बलात् उस अमृत कलश को छीन लिया । वे तो पहले से ही इस ताक में थे कि किसी तरह समुद्रमन्थन से निकली हुई सभी वस्तुएँ हमें मिल जायें । जब असुर उस अमृत से भरे कलश को छीन ले गये, तब देवताओं का मन विषाद से भर गया । अब वे भगवान् की शरण में आये । उनकी दीन दशा देखकर भक्तवाञ्छाकल्पतरु भगवान् ने कहा — ‘देवताओ ! तुमलोग खेद मत करो । मैं अपनी माया से उनमें आपस की फूट डालकर अभी तुम्हारा काम बना देता हूँ ॥ ३५-३७ ॥ परीक्षित् ! अमृतलोलुप दैत्यों में उसके लिये आपस में झगड़ा खड़ा हो गया । सभी कहने लगे ‘पहले में पीऊँगा, पहले मैं; तुम नहीं, तुम नहीं’ ॥ ३८ ॥ उनमें जो दुर्बल थे, वे उन बलवान् दैत्यों का विरोध करने लगे, जिन्होंने कलश छीनकर अपने हाथ में कर लिया था, वे ईर्ष्यावश धर्म की दुहाई देकर उनको रोकने और बार-बार कहने लगे कि ‘भाई ! देवताओं ने भी हमारे बराबर ही परिश्रम किया है, उनको भी यज्ञभाग के समान इसका भाग मिलना ही चाहिये । यहीं सनातनधर्म है’ ॥ ३९-४० ॥ इस प्रकार इधर दैत्यों में ‘तू-तू, मैं-मैं हो रही थी और उधर सभी उपाय जाननेवालों के स्वामी चतुरशिरोमणि भगवान् ने अत्यन्त अद्भुत और अवर्णनीय स्त्री का रूप धारण किया ॥ ४१ ॥ शरीर का रंग नील कमल के समान श्याम एवं देखने ही योग्य था । अङ्ग-प्रत्यङ्ग बड़े ही आकर्षक थे । दोनों कान बराबर और कर्णफूल से सुशोभित थे । सुन्दर कपोल, ऊँची नासिका और रमणीय मुख ॥ ४२ ॥ नयी जवानी के कारण स्तन उभरे हुए थे और उन्हीं के भार से कमर पतली हो गयी थी । मुख से निकलती हुई सुगन्ध के प्रेम से गुनगुनाते हुए भौरे उसपर टूटे पड़ते थे, जिससे नेत्रों में कुछ घबराहट का भाव आ जाता था ॥ ४३ ॥ अपने लंबे केशपाशों में उन्होंने खिले हुए बेले के पुष्पों की माला गूंथ रखी थी । सुन्दर गले में कण्ठ के आभूषण और सुन्दर भुजाओं में बाजूबंद सुशोभित थे ॥ ४४ ॥ इनके चरणों के नूपुर मधुर ध्वनि से रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे और स्वच्छ साड़ी से ढके नितम्ब-द्वीप पर शोभायमान करधनी अपनी अनूठी छटा छिटका रही थी ॥ ४५ ॥ अपनी सलज्ज मुसकान, नाचती हुई तिरछी भौहें और विलासभरी चितवन से मोहिनीरूपधारी भगवान् दैत्यसेनापतियों के चित्त में बार-बार कामोद्दीपन करने लगे ॥ ४६ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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