April 4, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – अष्टम स्कन्ध – अध्याय ९ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नवाँ अध्याय मोहिनी रूप से भगवान् के द्वारा अमृत बाँटा जाना श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! असुर आपस के सद्भाव और प्रेम को छोड़कर एक-दूसरे की निन्दा कर रहे थे और डाकू की तरह एक-दूसरे के हाथ से अमृत का कलश छीन रहे थे । इसी बीच में उन्होंने देखा कि एक बड़ी सुन्दरी स्त्री उनकी ओर चली आ रही हैं ॥ १ ॥ वे सोचने लगे — कैसा अनुपम सौन्दर्य है । शरीर में से कितनी अद्भुत छटा छिटक रही हैं ! तनिक इसकी नयी उम्र तो देखो !’ बस, अब वे आपस की लाग-डाँट भूलकर उसके पास दौड़ गये । उन लोगों ने काममोहित होकर उससे पूछा — ॥ २ ॥ ‘कमलनयन ! तुम कौन हो ? कहाँ से आ रही हो ? क्या करना चाहती हो ? सुन्दरी ! तुम किसकी कन्या हो ? तुम्हें देखकर हमारे मन में खलबली मच गयी है ॥ ३ ॥ हम समझते हैं कि अब तक देवता, दैत्य, सिद्ध, गन्धर्व, चारण और लोकपालों ने भी तुम्हें स्पर्श तक न किया होगा । फिर मनुष्य तो तुम्हें कैसे छू पाते ? ॥ ४ ॥ सुन्दरी ! अवश्य ही विधाता ने दया करके शरीरधारियों की सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं मन को तृप्त करने के लिये तुम्हें यहाँ भेजा है ॥ ५ ॥ मानिनी ! वैसे हमलोग एक ही जाति के हैं । फिर भी हम सब एक ही वस्तु चाह रहे हैं, इसलिये हममें डाह और वैर की गाँठ पड़ गयीं है ! सुन्दरी ! तुम हमारा झगड़ा मिटा दो ॥ ६ ॥ हम सभी कश्यपजी के पुत्र होने के नाते सगे भाई हैं । हमलोगों ने अमृत के लिये बड़ा पुरुषार्थ किया है । तुम न्याय के अनुसार निष्पक्षभाव से इसे बाँट दो, जिससे फिर हमलोगों में किसी प्रकार का झगड़ा न हो’ ॥ ७ ॥ असुरों ने जब इस प्रकार प्रार्थना की, तब लीला से स्त्री-वेष धारण करनेवाले ‘भगवान् ने तनिक हँसकर और तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते हुए कहा ॥ ८ ॥ श्रीभगवान् ने कहा — आपलोग महर्षि कश्यप के पुत्र हैं और मैं हूँ कुलटा । आपलोग मुझ पर न्याय का भार क्यों डाल रहे हैं ? विवेकी पुरुष स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों का कभी विश्वास नहीं करते ॥ ९ ॥ दैत्यो ! कुत्ते और व्यभिचारिणी स्त्रियों की मित्रता स्थायी नहीं होती । वे दोनों ही सदा नये-नये शिकार ढूँढ़ा करते हैं ॥ १० ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! मोहिनी की परिहासभरी वाणी से दैत्यों के मन में और भी विश्वास हो गया । उन लोगों ने रहस्यपूर्ण भाव से हँसकर अमृत का कलश मोहिनी के हाथ में दे दिया ॥ ११ ॥ भगवान् ने अमृत का कलश अपने हाथ में लेकर तनिक मुस्कराते हुए मीठी वाणी से कहा — ‘मैं उचित या अनुचित जो कुछ भी कहूँ, वह सब यदि तुमलोगों को स्वीकार हो तो मैं यह अमृत बाँट सकती हूँ ॥ १२ ॥ बड़े-बड़े दैत्यों ने मोहिनी की यह मीठी बात सुनकर उसकी बारीकी नहीं समझी, इसलिये सबने एक स्वर से कह दिया ‘स्वीकार है ।’ इसका कारण यह था कि उन्हें मोहिनी के वास्तविक स्वरूप का पता नहीं था ॥ १३ ॥ इसके बाद एक दिन का उपवास करके सबने स्नान किया । हविष्य से अग्नि में हवन किया । गौ, ब्राह्मण और समस्त प्राणियों को घास-चारा, अन्न-धनादि का यथायोग्य दान दिया तथा ब्राह्मणों से स्वस्त्ययन कराया ॥ १४ ॥ अपनी-अपनी रुचि के अनुसार सबने नये-नये वस्त्र धारण किये और इसके बाद सुन्दर-सुन्दर आभूषण धारण करके सब-के-सब उन कुशासनों पर बैठ गये, जिनका अगला हिस्सा पूर्व की ओर था ॥ १५ ॥ जब देवता और दैत्य दोनों ही धूप से सुगन्धित, मालाओं और दीपकों से सजे-सजाये भव्य भवन में पूर्व की ओर मुँह करके बैठ गये, तब हाथ में अमृत का कलश लेकर मोहिनी सभा मण्डप में आयी । वह एक बड़ी सुन्दर साड़ी पहने हुए थी । नितम्बों के भार के कारण वह धीरे-धीरे चल रहीं थी । आँखे मद से विह्वल हो रही थी । कलश के समान स्तन और गज़शावक की सूँड़ के समान जङ्घाएँ थीं । उसके स्वर्णनूपुर अपनी झनकार से सभा-भवन को मुखरित कर रहे थे ॥ १६-१७ ॥ सुन्दर कानों में सोने के कुण्डल थे और उसकी नासिका, कपोल तथा मुख बड़े ही सुन्दर थे । स्वयं परदेवता भगवान् मोहिनी के रूप में ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मीजी की कोई श्रेष्ठ सखी वहाँ आ गयी हो । मोहिनी ने अपनी मुसकान भरी चितवन से देवता और दैत्यों की ओर देखा, तो वे सब-के-सब मोहित हो गये । उस समय उनके स्तनों पर से अञ्चल कुछ खिसक गया था ॥ १८ ॥ भगवान् ने मोहिनी रूप में यह विचार किया कि असुर तो जन्म से ही क्रूर स्वभाववाले हैं । इनको अमृत पिलाना साँप को दूध पिलाने के समान बड़ा अन्याय होगा । इसलिये उन्होंने असुरों को अमृत में भाग नहीं दिया ॥ १९ ॥ भगवान् ने देवता और असुरों की अलग-अलग पंक्तियाँ बना दी और फिर दोनों को कतार बाँधकर अपने-अपने दल में बैठा दिया ॥ २० ॥ इसके बाद अमृत का कलश हाथ में लेकर भगवान् दैत्यों के पास चले गये । उन्हें हाव-भाव और कटाक्ष से मोहित करके दूर बैठे हुए देवताओं के पास आ गये तथा उन्हें वह अमृत पिलाने लगे, जिसे पी लेने पर बुढ़ापे और मृत्यु का नाश हो जाता है ॥ २१ ॥ परीक्षित् ! असुर अपनी की हुई प्रतिज्ञा का पालन कर रहे थे । उनका स्नेह भी हो गया था और वे स्त्री से झगड़ने में अपनी निन्दा भी समझते थे । इसलिये वे चुपचाप बैठे रहे ॥ २२ ॥ मोहिनी में उनका अत्यन्त प्रेम हो गया था । वे डर रहे थे कि उससे हमारा प्रेम-सम्बन्ध टूट न जाय । मोहिनी ने भी पहले उन लोगों का बड़ा सम्मान किया था, इससे वे और भी बँध गये थे । यही कारण है कि उन्होंने मोहिनी को कोई अप्रिय बात नहीं कही ॥ २३ ॥ जिस समय भगवान् देवताओं को अमृत पिला रहे थे, उसी समय राहु दैत्य देवताओं का वेष बनाकर उनके बीच में आ बैठा और देवताओं के साथ उसने भी अमृत पी लिया । परन्तु तत्क्षण चन्द्रमा और सूर्य ने उसकी पोल खोल दी ॥ २४ ॥ अमृत पिलाते-पिलाते ही भगवान् ने अपने तीखी धारवाले चक्र से उसका सिर काट डाला । अमृत का संसर्ग न होने से उसका धड़ नीचे गिर गया ॥ २५ ॥ परन्तु सिर अमर हो गया और ब्रह्माजी ने उसे ‘ग्रह बना दिया । वहीं राहु पर्व के दिन (पूर्णिमा और अमावस्या को) वैर-भाव से बदला लेने के लिये चन्द्रमा तथा सूर्य पर आक्रमण किया करता है ॥ २६ ॥ जब देवताओं ने अमृत पी लिया, तब समस्त लोक को जीवनदान करनेवाले भगवान् ने बड़े-बड़े दैत्यों के सामने ही मोहिनीरूप त्याग कर अपना वास्तविक रूप धारण कर लिया ॥ २७ ॥ परीक्षित् ! देखो— देवता और दैत्य दोनों ने एक ही समय एक स्थान पर एक प्रयोजन तथा एक वस्तु के लिये एक विचार से एक ही कर्म किया था, परन्तु फल में बड़ा भेद हो गया । उनमें से देवताओं ने बड़ी सुगमता से अपने परिश्रम का फल-अमृत प्राप्त कर लिया, क्योंकि उन्होंने भगवान् के चरणकमलों की रज का आश्रय लिया था । परन्तु उससे विमुख होने के कारण परिश्रम करने पर भी असुरगण अमृत से वञ्चित हो रहे ॥ २८ ॥ मनुष्य अपने प्राण, धन, कर्म, मन और वाणी आदि से शरीर एवं पुत्र आदि के लिये जो कुछ करता है वह व्यर्थ ही होता है; क्योंकि उसके मूल में भेदबुद्धि बनी रहती हैं । परन्तु उन्हीं प्राण आदि वस्तुओं के द्वारा भगवान् के लिये जो कुछ किया जाता है, वह सब भेदभाव से रहित होने के कारण अपने शरीर, पुत्र और समस्त संसार के लिये सफल हो जाता है । जैसे वृक्ष की जड़ में पानी देने से उसका तना, टहनियाँ और पत्ते — सब-के-सब सिंच जाते हैं, वैसे ही भगवान् के लिये कर्म करने से वे सबके लिये हो जाते हैं ॥ २९ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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