श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय १४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
चौदहवाँ अध्याय
भक्तियोग की महिमा तथा ध्यानविधि का वर्णन

उद्धवजी ने पूछा — श्रीकृष्ण ! ब्रह्मवादी महात्मा आत्मकल्याण के अनेकों साधन बतलाते हैं । उनमें अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार सभी श्रेष्ठ अथवा किसी एक की प्रधानता है ? ॥ १ ॥ मेरे स्वामी ! आपने तो अभी-अभी भक्तियोग को ही निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र साधन बतलाया है, क्योंकि इसी से सब ओर से आसक्ति छोड़कर मन आपमें ही तन्मय हो जाता है ॥ २ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — प्रिय उद्धव ! यह वेदवाणी समय के फेर से प्रलय के अवसर पर लुप्त हो गयी श्री; फिर जब सृष्टि का समय आया, तब मैंने अपने सङ्कल्प से ही इसे ब्रह्मा को उपदेश किया, इसमें मेरे भागवतधर्म का ही वर्णन है ॥ ३ ॥ ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्वायम्भुव मनु को उपदेश किया और उनसे भृगु, अङ्गिरा, मरीचि, पुलह, अत्रि, पुलस्त्य और क्रतु — इन सात प्रजापति-महर्षियों ने ग्रहण किया ॥ ४ ॥ तदनन्तर इन ब्रह्मर्षियों की सन्तान देवता, दानव, गुह्यक, मनुष्य, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण, किन्देव, किन्नर, नाग, राक्षस और किम्पुरुष आदि ने इसे अपने पूर्वज इन्हीं ब्रह्मर्षियों से प्राप्त किया । सभी जातियों और व्यक्तियों के स्वभाव उनकी वासनाएँ सत्त्व, रज और तमोगुण के कारण भिन्न-भिन्न हैं; इसलिये उनमें और उनकी बुद्धिवृत्तियों में भी अनेकों भेद हैं । इसलिये वे सभी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार उस वेदवाणी का भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं । वह वाणी ही ऐसी अलौकिक हैं कि उससे विभिन्न अर्थ निकलना स्वाभाविक ही हैं ॥ ५-७ ॥ इसी प्रकार स्वभावभेद तथा परम्परागत उपदेश के भेद से मनुष्यों की बुद्धि में भिन्नता आ जाती है और कुछ लोग तो बिना किसी विचार के वेदविरुद्ध पाखण्ड-मतावलम्वी हो जाते हैं ॥ ८ ॥

प्रिय उद्धव ! सभी की बुद्धि मेरी माया से मोहित हो रही है, इसी से वे अपने-अपने कर्म संस्कार और अपनी-अपनी रुचि के अनुसार आत्मकल्याण के साधन भी एक नहीं अनेकों बतलाते हैं ॥ ९ ॥ पूर्वमीमांसक धर्म को, साहित्याचार्य यश को, कामशास्त्री काम को, योगवेत्ता सत्य और शमदमादि को, दण्डनीतिकार ऐश्वर्य को, त्यागी त्याग को और लोकायतिक भोग को ही मनुष्य-जीवन का स्वार्थ — परम लाभ बतलाते हैं ॥ १० ॥ कर्मयोगी लोग यज्ञ, तप, दान, व्रत तथा यम-नियम आदि को पुरुषार्थ बतलाते हैं । परन्तु ये सभी कर्म हैं; इनके फलस्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाशवाले हैं । कर्मों का फल समाप्त हो जाने पर उनसे दुःख ही मिलता है और सच पूछो, तो उनकी अन्तिम गति घोर अज्ञान ही हैं । उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ है — नगण्य है और वे लोक भोग के समय भी असूया आदि दोषों के कारण शोक से परिपूर्ण हैं । (इसलिये इन विभिन्न साधनों के फेर में न पड़ना चाहिये) ॥ ११ ॥

प्रिय उद्धव ! जो सब ओर से निरपेक्ष–बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म या फल आदि की आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्तःकरण को सब प्रकार से मुझे ही समर्पित कर चुका है, परमानन्द-स्वरूप मैं उसकी आत्मा के रूप में स्फुरित होने लगता हूँ । इससे वह जिस सुख का अनुभव करता है, वह विषय-लोलुप प्राणियों को किसी प्रकार मिल नहीं सकता ॥ १२ ॥ जो सब प्रकार के संग्रह-परिग्रह से रहित-अकिञ्चन है, जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके शान्त और समदर्शी हो गया हैं, जो मेरी प्राप्ति से ही मेरे सान्निध्य का अनुभव करके ही सदा-सर्वदा पूर्ण सन्तोष का अनुभव करता है, उसके लिये आकाश का एक-एक कोना आनन्द से भरा हुआ है ॥ १३ ॥ जिसने अपने को मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्मा का पद चाहता है और न देवराज इन्द्र का, उसके मन में न तो सार्वभौम सम्राट् बनने की इच्छा होती है और न वह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ रसातल का ही स्वामी होना चाहता है । वह योग की बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्ष तक की अभिलाषा नहीं करता ॥ १४ ॥

उद्धव ! मुझे तुम्हारे-जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रियतम हैं, उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रह्मा, आत्मा शङ्कर, सगे भाई बलरामजी, स्वयं अर्धाङ्गिनी लक्ष्मीजी और मेरा अपना आत्मा भी नहीं है ॥ १५ ॥ जिसे किसी की अपेक्षा नहीं, जो जगत् के चिन्तन से सर्वथा उपरत होकर मेरे ही मनन-चिन्तन में तल्लीन रहता हैं और राग-द्वेष न रखकर सबके प्रति समान दृष्टि रखता है, उस महात्मा के पीछे-पीछे मैं निरन्तर यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसके चरणों की धूल उडकर मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ ॥ १६ ॥ जो सब प्रकार के संग्रह-परिग्रह से रहित हैं — यहाँ तक कि शरीर आदि में भी अहंता-ममता नहीं रखते, जिनका चित्त मेरे ही प्रेम के रंग में रंग गया है, जो संसार की वासनाओं से शान्त-उपरत हो चुके हैं और जो अपनी महत्ता–उदारता के कारण स्वभाव से ही समस्त प्राणियों के प्रति दया और प्रेम का भाव रखते हैं, किसी प्रकार की कामना जिनकी बुद्धि का स्पर्श नहीं कर पाती, उन्हें मेरे जिस परमानन्द-स्वरूप का अनुभव होता है, उसे और कोई नहीं जान सकता; क्योंकि वह परमानन्द तो केवल निरपेक्षता से ही प्राप्त होता है ॥ १७ ॥

उद्धवजी ! मेरा जो भक्त अभी जितेन्द्रिय नहीं हो सका है और संसार के विषय बार-बार उसे बाधा पहुँचाते रहते हैं — अपनी ओर खींच लिया करते हैं, वह भी । क्षण-क्षण में बढ़नेवाली मेरी प्रगल्भ भक्ति के प्रभाव से प्रायः विषयों से पराजित नहीं होता ॥ १८ ॥ उद्धव ! जैसे धधकती हुई आग लकड़ियों के बड़े ढेर को भी जलाकर । खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पाप-राशि को पूर्णतया जला डालती है ॥ १९ ॥ उद्भव ! योग-साधन, ज्ञान-विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप-पाठ और तप-त्याग मुझे प्राप्त कराने में उतने समर्थ नहीं हैं, जितनी दिनों-दिन बढ़नेवाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति ॥ २० ॥ मैं संतों का प्रियतम आत्मा हूँ, मैं अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्ति से ही पकड़ में आता हूँ । मुझे प्राप्त करने का यह एक ही उपाय है । मेरी अनन्य भक्ति उन लोगों को भी पवित्र — जाति-दोष से मुक्त कर देती है, जो जन्म से ही चाण्डाल हैं ॥ २१ ॥ इसके विपरीत जो मेरी भक्ति से वञ्चित हैं, उनके चित्त को सत्य और दया से युक्त, धर्म और तपस्या से युक्त विद्या भी भली-भाँति पवित्र करने में असमर्थ हैं ॥ २२ ॥

जब तक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता, चित्त पिघलकर गद्गद नहीं हो जाता, आनन्द के आँसू आँखों से छलकने नहीं लगते तथा अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग भक्ति की बाढ़ में चित्त डूबने-उतराने नहीं लगता, तब तक इसके शुद्ध होने की कोई सम्भावना नहीं है ॥ २३ ॥ जिसकी वाणी प्रेम से गदगद हो रही है, चित्त पिघलकर एक ओर बहता रहता है, एक क्षण के लिये भी रोने का तांता नहीं टूटता, परन्तु जो कभी-कभी. खिलखिलाकर हँसने भी लगता है, कहीं लाज छोड़कर ऊँचे स्वर से गाने लगता है, तो कहीं नाचने लगता है, भैया उद्धव ! मेरा वह भक्त न केवल अपने को बल्कि सारे संसार को पवित्र कर देता हैं ॥ २४ ॥ जैसे आग में तपाने पर सोना मैल छोड़ देता है — निखर जाता है और अपने असली शुद्ध रूप में स्थित हो जाता है, वैसे ही मेरे भक्तियोग के द्वारा आत्मा कर्म-वासनाओं से मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त हो जाता है; क्योंकि मैं ही उसका वास्तविक स्वरूप हूँ ॥ २५ ॥

उद्धवजी ! मेरी परमपावन लीला-कथा के श्रवण-कीर्तन से ज्यों-ज्यों चित्त का मैल धुलता जाता है, त्यों-त्यों उसे सूक्ष्म-वस्तु के — वास्तविक तत्त्व के दर्शन होने लगते हैं — जैसे अंजन के द्वारा नेत्रों का दोष मिटने पर उनमें सूक्ष्म वस्तुओं को देखने की शक्ति आने लगती है ॥ २६ ॥ जो पुरुष निरन्तर विषय-चिन्तन किया करता है, उसका चित्त विषयों में फँस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित्त मुझमें तल्लीन हो जाता है ॥ २७ ॥ इसलिये तुम दूसरे साधनों और फलों का चिन्तन छोड़ दो । अरे भाई ! मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जो कुछ जान पड़ता है, वह ठीक वैसा ही है जैसे स्वप्न अथवा मनोरथ का राज्य । इसलिये मेरे चिन्तन से तुम अपना चित्त शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरह से एकाग्रता से मुझमें ही लगा दो ॥ २८ ॥ संयमी पुरुष स्त्रियों और उनके प्रेमियों का सङ्ग दूर से ही छोड़कर, पवित्र एकान्त स्थान में बैठकर बड़ी सावधानी से मेरा ही चिन्तन करे ॥ २९ ॥

प्यारे उद्धव ! स्त्रियों के सङ्ग से और स्त्री-सङ्गियों के — लम्पटों के सङ्ग से पुरुष को जैसे क्लेश और बन्धन में पड़ना पड़ता है, वैसा क्लेश और फँसावट और किसी के भी सङ्गसे नहीं होती ॥ ३० ॥

उद्धवजी ने पूछा — कमलनयन श्यामसुन्दर ! आप कृपा करके यह बतलाइये कि मुमुक्षु पुरुष आपका किस रूप से, किस प्रकार और किस भाव से ध्यान करे ? ॥ ३१ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — प्रिय उद्धव ! जो न तो बहुत ऊँचा हो और न बहुत नीचा ही — ऐसे आसन पर शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठ जाय, हाथों को अपनी गोद में रख ले और दृष्टि अपनी नासिका के अग्रभाग पर जमावे ॥ ३२ ॥ इसके बाद पूरक, कुम्भक और रेचक तथा रेचक, कुम्भक और पूरक — इन प्राणायामों के द्वारा नाड़ियों का शोधन करे । प्राणायाम का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये और उसके साथ-साथ इन्द्रियों को जीतने का भी अभ्यास करना चाहिये ॥ ३३ ॥ हृदय में कमलनालगत पतले सूत के समान ॐ-कार का चिन्तन करे, प्राण के द्वारा उसे ऊपर ले जाय और उसमें घण्टानाद के समान स्वर स्थिर करे । उस स्वर का ताँता टूटने न पावे ॥ ३४ ॥ इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ॐकार सहित प्राणायाम का अभ्यास करे । ऐसा करने से एक महीने के अंदर ही प्राणवायु वश में हो जाता है ॥ ३५ ॥

इसके बाद ऐसा चिन्तन करे कि हृदय एक कमल हैं, वह शरीर के भीतर इस प्रकार स्थित है मानो उसकी डंडी तो ऊपर की ओर हैं और मुँह नीचे की ओर । अब ध्यान करना चाहिये कि उसका मुख ऊपर की ओर होकर खिल गया है, उसके आठ दल (पँखुड़ियाँ) हैं और उनके बीचों-बीच पीली-पीली अत्यन्त सुकुमार कर्णिका (गद्दी) है ॥ ३६ ॥ कर्णिका पर क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि का न्यास करना चाहिये । तदनन्तर अग्नि के अंदर मेरे इस रूप का स्मरण करना चाहिये । मेरा यह स्वरूप ध्यान के लिये बड़ा ही मङ्गलमय है ॥ ३७ ॥

मेरे अवयवों की गठन बड़ी ही सुडौल है । रोम-रोम से शान्ति टपकती है । मुखकमल अत्यन्त प्रफुल्लित और सुन्दर है । घुटनों तक लंबी मनोहर चार भुजाएँ हैं । बड़ी ही सुन्दर और मनोहर गरदन है । मरकतमणि के समान सुस्निग्ध कपोल हैं । मुख पर मन्द-मन्द मुसकान की अनोखी ही छटा है । दोनों ओर के कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल कर रहे हैं । वर्षा-कालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर पीताम्बर फहरा रहा है । श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजी का चिह्न वक्षःस्थल पर दायें-बायें विराजमान है । हाथों में क्रमशः शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुए हैं । गले में वनमाला लटक रही है । चरणों में नूपुर शोभा दे रहे हैं, गले में कौस्तुभमणि जगमगा रही हैं । अपने-अपने स्थान पर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद शोभायमान हो रहे हैं । मेरा एक-एक अङ्ग अत्यन्त सुन्दर एवं हृदयहारी है । सुन्दर मुख और प्यारभरी चितवन कृपा-प्रसाद की वर्षा कर रही हैं । उद्धव ! मेरे इस सुकुमार रूप का ध्यान करना चाहिये और अपने मन को एक-एक अङ्ग में लगाना चाहिये ॥ ३८-४१ ॥

बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींच ले और मन को बुद्धिरूप सारथि की सहायता से मुझमें ही लगा दे, चाहे मेरे किसी भी अङ्ग में क्यों न लगे ॥ ४२ ॥ जब सारे शरीर का ध्यान होने लगे, तब अपने चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और अन्य अङ्गों का चिन्तन न करके केवल मन्द-मन्द मुसकान की छटा से युक्त मेरे मुख का ही ध्यान करे ॥ ४३ ॥ जब चित्त मुखारविन्द में ठहर जाय, तब उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे । तदनन्तर आकाश का चिन्तन भी त्याग कर मेरे स्वरूप में आरूढ़ हो जाय और मेरे सिवा किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे ॥ ४४ ॥ जब इस प्रकार चित्त समाहित हो जाता है, तब जैसे एक ज्योति दूसरी ज्योति से मिलकर एक हो जाती हैं, वैसे ही अपने में मुझे और मुझ सर्वात्मा में अपने को अनुभव करने लगता है ॥ ४५ ॥

जो योगी इस प्रकार तीव्र ध्यानयोग के द्वारा मुझमें ही अपने चित्त का संयम करता है, उसके चित्त से वस्तु की अनेकता, तत्सम्बन्धी ज्ञान और उनकी प्राप्ति के लिये होनेवाले कर्मों का भ्रम शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है ॥ ४६ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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