श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय १७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
सत्रहवाँ अध्याय
वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण

उद्धवजी ने कहा — कमलनयन श्रीकृष्ण ! आपने पहले वर्णाश्रम-धर्म का पालन करनेवालों के लिये और सामान्यतः मनुष्यमात्र के लिये इस धर्म का उपदेश किया था, जिससे आपकी भक्ति प्राप्त होती है । अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि मनुष्य किस प्रकार से अपने धर्म का अनुष्ठान करे, जिससे आपके चरणों में उसे भक्ति प्राप्त हो जाय ॥ १-२ ॥ प्रभो ! महाबाहु माधव ! पहले आपने हंसरूप से अवतार ग्रहण करके ब्रह्माजी को अपने परमधर्म का उपदेश किया था ॥ ३ ॥ रिपुदमन ! बहुत समय बीत जाने के कारण वह इस समय मर्त्यलोक में प्रायः नहीं-सा रह गया है, क्योंकि आपको उसका उपदेश किये बहुत दिन हो गये हैं ॥ ४ ॥ अच्युत ! पृथ्वी में तथा ब्रह्मा की उस सभा में भी, जहाँ सम्पूर्ण वेद मूर्तिमान् होकर विराजमान रहते हैं, आपके अतिरिक्त ऐसा कोई भी नहीं है, जो आपके इस धर्म का प्रवचन, प्रवर्तन अथवा संरक्षण कर सके ॥ ५ ॥ इस धर्म के प्रवर्तक, रक्षक और उपदेशक आप ही हैं । आपने पहले जैसे मधु दैत्य को मारकर वेदों की रक्षा की थी, वैसे ही अपने धर्म की भी रक्षा कीजिये । स्वयंप्रकाश परमात्मन् ! जब आप पृथ्वीतल से अपनी लीला संवरण कर लेंगे, तब तो इस धर्म का लोप ही हो जायगा तो फिर उसे कौन बतावेगा ? ॥ ६ ॥ आप समस्त धर्मों के मर्मज्ञ है; इसलिये प्रभो ! आप उस धर्म का वर्णन कीजिये, जो आपकी भक्ति प्राप्त करानेवाला है और यह भी बतलाइये कि किसके लिये उसका कैसा विधान है ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! जब इस प्रकार भक्तशिरोमणि उद्धवजी ने प्रश्न किया, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अत्यन्त प्रसन्न होकर प्राणियों के कल्याण के लिये उन्हें सनातन धर्मों का उपदेश दिया ॥ ८ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — प्रिय उद्भव ! तुम्हारा प्रश्न धर्ममय हैं, क्योंकि इससे वर्णाश्रमधर्मी मनुष्यों को परमकल्याणस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है । अतः मैं तुम्हें उन धर्मों का उपदेश करता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ ९ ॥ जिस समय इस कल्प का प्रारम्भ हुआ था और पहला सत्ययुग चल रहा था, उस समय सभी मनुष्यों का ‘हंस’ नामक एक ही वर्ण था । उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे; इसीलिये उसका एक नाम कृतयुग भी है ॥ १० ॥ उस समय केवल प्रणव ही वेद था और तपस्या, शौच, दया एवं सत्यरूप चार चरणों से युक्त मैं ही वृषभरूपधारी धर्म था । उस समय के निष्पाप एवं परमतपस्वी भक्तजन मुझ हंस-स्वरूप शुद्ध परमात्मा की उपासना करते थे ॥ ११ ॥ परम भाग्यवान् उद्धव ! सत्ययुग के वाद त्रेतायुग का आरम्भ होने पर मेरे हृदय से श्वास-प्रश्वास के द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयविद्या प्रकट हुई और उस त्रयीविद्या से होता, अध्वर्यु और उद्गाता के कर्मरूप तीन भेदोंवाले यज्ञ के रूप से में प्रकट हुआ ॥ १२ ॥ विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई । उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है ॥ १३ ॥

उद्धवजी ! विराट् पुरुष भी मैं ही हूँ । इसलिये मेरे ही ऊरुस्थल से गृहस्थाश्रम, हृदय से ब्रह्मचर्याश्रम, वक्षःस्थल से वानप्रस्थाश्रम और मस्तक से संन्यासाश्रम की उत्पत्ति हुई है ॥ १४ ॥ इन वर्ण और आश्रमों के पुरुषों के स्वभाव भी इनके जन्मस्थानों के अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम हो गये । अर्थात् उत्तम स्थानों से उत्पन्न होनेवाले वर्ण और आश्रमों के स्वभाव उत्तम और अधम स्थानों से उत्पन्न होनेवालों के अधम हुए ॥ १५ ॥ शम, दम, तपस्या, पवित्रता, सन्तोष, क्षमाशीलता, सीधापन, मेरी भक्ति, दया और सत्य — ये ब्राह्मण वर्ण के स्वभाव हैं ॥ १६ ॥ तेज, बल, धैर्य, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उद्योगशीलता, स्थिरता, ब्राह्मण-भक्ति और ऐश्वर्य — ये क्षत्रिय वर्ण के स्वभाव हैं ॥ १७ ॥ आस्तिकता, दानशीलता, दम्भहीनता, ब्राह्मणों की सेवा करना और धन-सञ्चय से सन्तुष्ट न होना — ये वैश्य वर्ण के स्वभाव हैं ॥ १८ ॥ ब्राह्मण, गौ और देवताओं की निष्कपटभाव से सेवा करना और उससे जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहना — ये शूद्र वर्ण के स्वभाव है ॥ १९ ॥ अपवित्रता, झूठ बोलना, चोरी करना, ईश्वर और परलोक की परवा न करना, झूठ-मूठ झगड़ना और काम, क्रोध एवं तृष्णा के वश में रहना — ये अन्त्यजों के स्वभाव हैं ॥ २० ॥

उद्धवजी ! चारों वर्णों और चारों आश्रमों के लिये साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीर से किसी की हिंसा न करें; सत्य पर दृढ़ रहें; चोरी न करें; काम, क्रोध तथा लोभ से बचें और जिन कामों के करने से समस्त प्राणियों की प्रसन्नता और उनका भला हो, वही करें ॥ २१ ॥

ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य गर्भाधान आदि संस्कारों के क्रम से यज्ञोपवीत संस्काररूप द्वितीय जन्म प्राप्त करके गुरुकुल में रहे और अपनी इन्द्रियों को वश में रखे । आचार्य के बुलाने पर वेद का अध्ययन करे और उसके अर्थ का भी विचार करे ॥ २३ ॥ मेखला, मृगचर्म, वर्ण के अनुसार दण्ड, रुद्राक्ष की माला, यज्ञोपवीत और कमण्डलु धारण करे । सिर पर जटा रक्खे, शौकीनी के लिये दाँत और वस्त्र न धोये, रंगीन आसन पर न बैठे और कुश धारण करे ॥ २३ ॥ स्नान, भोजन, हवन, जप और मल-मूत्र त्याग के समय मौन रहे और कक्ष तथा गुप्तेन्द्रिय के बाल और नाखुनों को कभी न काटे ॥ २४ ॥ पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे । स्वयं तो कभी वीर्यपात करे ही नहीं । यदि स्वप्न आदि में वीर्य स्खलित हो जाय, तो जल में स्नान करके प्राणायाम करे एवं गायत्री का जप करे ॥ २५ ॥ ब्रह्मचारी को पवित्रता के साथ एकाग्रचित्त होकर अग्नि, सूर्य, आचार्य, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धजन और देवताओं की उपासना करनी चाहिये तथा सायङ्काल और प्रातःकाल मौन होकर सन्ध्योपासन एवं गायत्री का जप करना चाहिये ॥ २६ ॥

आचार्य को मेरा ही स्वरूप समझे, कभी उनका तिरस्कार न करे । उन्हें साधारण मनुष्य समझकर दोषदृष्टि न करे; क्योंकि गुरु सर्वदेवमय होता हैं ॥ २७ ॥ सायङ्काल और प्रातःकाल दोनों समय जो कुछ भिक्षा में मिले वह लाकर गुरुदेव के आगे रख दे — केवल भोजन ही नहीं, जो कुछ हो सब । तदनन्तर उनके आज्ञानुसार बड़े संयम से भिक्षा आदि का यथोचित उपयोग करे ॥ २८ ॥ आचार्य यदि जाते हों तो उनके पीछे-पीछे चले, उनके सो जाने के बाद बड़ी सावधानी से उनसे थोड़ी दूर पर सोवे । थके हों, तो पास बैठकर चरण दबाये और बैठे हों, तो उनके आदेश की प्रतीक्षा में हाथ जोड़कर पास में ही खड़ा रहे । इस प्रकार अत्यन्त छोटे व्यक्ति की भाँति सेवा-शुश्रूषा के द्वारा सदा-सर्वदा आचार्य की आज्ञा में तत्पर रहे ॥ २९ ॥ जब तक विद्याध्ययन समाप्त न हो जाय, तब तक सब प्रकार के भोगों से दूर रहकर इसी प्रकार गुरुकुल में निवास करे और कभी अपना ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित न होने दे ॥ ३० ॥

यदि ब्रह्मचारी का विचार हो कि मैं मूर्तिमान् वेदों के निवासस्थान ब्रह्मलोक में जाऊँ, तो उसे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-व्रत ग्रहण कर लेना चाहिये और वेदों के स्वाध्याय के लिये अपना सारा जीवन आचार्य की सेवा में ही समर्पित कर देना चाहिये ॥ ३१ ॥ ऐसा ब्रह्मचारी सचमुच ब्रह्मतेज से सम्पन्न हो जाता है और उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । उसे चाहिये कि अग्नि, गुरु, अपने शरीर और समस्त प्राणियों में मेरी ही उपासना करे और यह भाव रक्खे कि मेरे तथा सबके हृदय में एक ही परमात्मा विराजमान हैं ॥ ३२ ॥ ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, और संन्यासियों को चाहिये कि वे स्त्रियों को देखना, स्पर्श करना, उनसे बातचीत या हँसी-मसखरी आदि करना दूर से ही त्याग दें; मैथुन करते हुए प्राणियों पर तो दृष्टिपात तक न करें ॥ ३३ ॥ प्रिय उद्धव ! शौच, आचमन, स्नान, सन्ध्योपासन, सरलता, तीर्थसेवन, जप, समस्त प्राणियों में मुझे ही देखना, मन, वाणी और शरीर का संयम — यह ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी — सभी के लिये एक-सा नियम है । अस्पृश्य को न छूना, अभक्ष्य वस्तुओं को न खाना और जिनसे बोलना नहीं चाहिये — उनसे न बोलना — ये नियम भी सबके लिये हैं ॥ ३४-३५ ॥ नैष्ठिक ब्रह्मचारी ब्राह्मण इन नियमों का पालन करने से अग्नि के समान तेजस्वी हो जाता है । तीव्र तपस्या के कारण उसके कर्म-संस्कार भस्म हो जाते हैं, अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वह मेरा भक्त होकर मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ३६ ॥

प्यारे उद्धव ! यदि नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहण करने की इच्छा न हो — गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहता हो, तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करके आचार्य को दक्षिणा देकर और उनकी अनुमति लेकर समावर्तन-संस्कार करावे — स्नातक बनकर ब्रह्मचर्याश्रम छोड़ दे ॥ ३७ ॥ ब्रह्मचारी को चाहिये कि ब्रह्मचर्य-आश्रम के बाद गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश करे । यदि ब्राह्मण हो तो संन्यास भी ले सकता है अथवा उसे चाहिये कि क्रमशः एक आश्रम से दूसरे आश्रम में प्रवेश करे । किन्तु मेरा आज्ञाकारी भक्त बिना आश्रम के रहकर अथवा विपरीत क्रम से आश्रम-परिवर्तन कर स्वेच्छाचार में न प्रवृत्त हो ॥ ३८ ॥

प्रिय उद्धव ! यदि ब्रह्मचर्याश्रम के बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करना हो तो ब्रह्मचारी को चाहिये कि अपने अनुरूप एवं शास्त्रोक्त लक्षणों से सम्पन्न कुलीन कन्या से विवाह करे । वह अवस्था में अपने से छोटी और अपने ही वर्ण की होनी चाहिये । यदि कामवश अन्य वर्ण की कन्या से और विवाह करना हो, तो क्रमशः अपने से निम्न वर्ण की कन्या से विवाह कर सकता है ॥ ३९ ॥ यज्ञ-यागादि, अध्ययन और दान करने का अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों को समानरूप से है । परन्तु दान लेने, पढ़ाने और यज्ञ कराने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही है ॥ ४० ॥ ब्राह्मण को चाहिये कि इन तीनों वृत्तियों में प्रतिग्रह अर्थात् दान लेने की वृत्ति को तपस्या, तेज और यश का नाश करनेवाली समझकर पढ़ाने और यज्ञ कराने के द्वारा ही अपना जीवननिर्वाह करे और यदि इन दोनों वृत्तियों में भी दोषदृष्टि हो — परावलम्बन, दीनता आदि दोष दीखते हों तो अन्न कटने के बाद खेतों में पड़े हुए दाने बीनकर ही अपने जीवन का निर्वाह कर ले ॥ ४१ ॥ उद्धव ! ब्राह्मण का शरीर अत्यन्त दुर्लभ है । यह इसलिये नहीं है कि इसके द्वारा तुच्छ विषय-भोग ही भोगे जायें । यह तो जीवन-पर्यन्त कष्ट भोगने, तपस्या करने और अन्त में अनन्त आनन्दस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति करने के लिये है ॥ ४२ ॥

जो ब्राह्मण घर में रहकर अपने महान् धर्म का निष्कामभाव से पालन करता है और खेतों में तथा बाजारों में गिरे-पड़े दाने चुनकर सन्तोषपूर्वक अपने जीवन का निर्वाह करता है, साथ ही अपना शरीर, प्राण, अन्तःकरण और आत्मा मुझे समर्पित कर देता है और कहीं भी अत्यन्त आसक्ति नहीं करता, वह बिना संन्यास लिये ही परम-शान्ति-स्वरूप परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ४३ ॥ जो लोग विपत्ति में पड़े कष्ट पा रहे मेरे भक्त ब्राह्मण को विपत्तियों से बचा लेते हैं, उन्हें मैं शीघ्र ही समस्त आपत्तियों से उसी प्रकार बचा लेता हूँ, जैसे समुद्र में डूबते हुए प्राणी को नौका बचा लेती है ॥ ४४ ॥ राजा पिता के समान सारी प्रजा का कष्ट से उद्धार करे — उन्हें बचावे, जैसे गजराज दूसरे गजों की रक्षा करता है और धीर होकर स्वयं अपने आपसे अपना उद्धार करे ॥ ४५ ॥ जो राजा इस प्रकार प्रजा की रक्षा करता है, वह सारे पापों से मुक्त होकर अन्त समय में सूर्य के समान तेजस्वी विमान पर चढ़कर स्वर्गलोक में जाता है और इन्द्र के साथ सुख भोगता है ॥ ४६ ॥ यदि ब्राह्मण अध्यापन अथवा यज्ञ-यागादि से अपनी जीविका न चला सके, तो वैश्यवृत्ति का आश्रय ले ले, और जब तक विपत्ति दूर न हो जाय तब तक करे । यदि बहुत बड़ी आपत्ति का सामना करना पड़े तो तलवार उठाकर क्षत्रियों की वृत्ति से भी अपना काम चला ले, परन्तु किसी भी अवस्था में नीचों की सेवा-जिसे ‘श्वानवृत्ति कहते हैं — न करे ॥ ४७ ॥

इसी प्रकार यदि क्षत्रिय भी प्रजापालन आदि के द्वारा अपने जीवन का निर्वाह न कर सके तो वैश्यवृत्ति-व्यापार आदि कर ले । बहुत बड़ी आपत्ति हो तो शिकार के द्वारा अथवा विद्यार्थियों को पढ़ाकर अपनी आपत्ति के दिन काट दे, परन्तु नीचों की सेवा, ‘श्वानवृत्ति’ का आश्रय कभी न ले ॥ ४८ ॥ वैश्य भी आपत्ति के समय शूद्रों की वृत्ति सेवा से अपना जीवन-निर्वाह कर ले और शूद्र चटाई बुनने आदि कारुवृत्ति का आश्रय ले ले; परन्तु उद्धव ! ये सारी बातें आपत्तिकाल के लिये ही हैं । आपत्ति का समय बीत जाने पर निम्नवर्णों की वृत्ति से जीविकोपार्जन करने का लोभ न करे ॥ ४९ ॥ गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि वेदाध्ययनरूप ब्रह्मयज्ञ, तर्पणरूप पितृयज्ञ, हवनरूप देवयज्ञ, काकबलि आदि भूतयज्ञ और अन्नदानरूप अतिथियज्ञ आदि के द्वारा मेरे स्वरूपभूत ऋषि, देवता, पितर, मनुष्य एवं अन्य समस्त प्राणियों की यथाशक्ति प्रतिदिन पूजा करता रहे ॥ ५० ॥ गृहस्थ पुरुष अनायास प्राप्त अथवा शास्त्रोक्त रीति से उपार्जित अपने शुद्ध धन से अपने भृत्य, आश्रित प्रजाजन को किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचाते हुए न्याय और विधि के साथ ही यज्ञ करे ॥ ५१ ॥

प्रिय उद्धव ! गृहस्थ पुरुष कुटुम्ब में आसक्त न हो । बड़ा कुटुम्ब होने पर भी भजन में प्रमाद न करे । बुद्धिमान् पुरुष को यह बात भी समझ लेनी चाहिये कि जैसे इस लोक की सभी वस्तुएँ नाशवान् हैं, वैसे ही स्वर्गादि परलोक के भोग भी नाशवान् ही हैं ॥ ५२ ॥ यह जो स्त्री-पुत्र, भाई-बन्धु और गुरुजनों का मिलना जुलना है, यह वैसा ही है, जैसे किसी प्याऊ पर कुछ बटोही इकट्टे हो गये हों । सबको अलग-अलग रास्ते जाना है । जैसे स्वप्न नींद टूटने तक ही रहता है, वैसे ही इन मिलने-जुलनेवालों का सम्बन्ध ही बस, शरीर के रहने तक ही रहता है; फिर तो कौन किसको पूछता है ॥ ५३ ॥ गृहस्थ को चाहिये कि इस प्रकार विचार करके घर-गृहस्थी में फँसे नहीं, उसमें इस प्रकार अनासक्तभाव से रहे, मानो कोई अतिथि निवास कर रहा हो । जो शरीर आदि में अहंकार और घर आदि में ममता नहीं करता, उसे घर-गृहस्थी के फंदे बाँध नहीं सकते ॥ ५४ ॥ भक्तिमान् पुरुष गृहस्थोचित शास्त्रोक्त कर्मों के द्वारा मेरी आराधना करता हुआ घर में ही रहे, अथवा यदि पुत्रवान् हो तो वानप्रस्थ आश्रम में चला जाय या संन्यासाश्रम स्वीकार कर ले ॥ ५५ ॥

प्रिय उद्धव ! जो लोग इस प्रकार का गृहस्थजीवन न बिताकर घर-गृहस्थी में ही आसक्त हो जाते हैं, स्त्री, पुत्र और ध नकी कामनाओं में फंसकर ‘हाय-हाय’ करते रहते और मूढ़तावश स्त्रीलम्पट और कृपण होकर मैं-मेरे के फेर में पड़ जाते हैं, वे बँध जाते हैं ॥ ५६ ॥ वे सोचते रहते हैं-‘हाय ! हाय! मेरे माँ-बाप बूढ़े हो गये; पत्नी के बाल-बच्चे अभी छोटे-छोटे हैं, मेरे न रहने पर ये दीन, अनाथ और दुखी हो जायेंगे; फिर इनका जीवन कैसे रहेगा ?’ ॥ ५७ ॥ इस प्रकार घर-गृहस्थी की वासना से जिसका चित्त विक्षिप्त हो रहा है, वह मूढ़बुद्धि पुरुष विषयभोगों से कभी तृप्त नहीं होता, उन्हीं में उलझकर अपना जीवन खो बैठता है और मरकर घोर तमोमय नरक में जाता है ॥ ५८ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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