श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय २१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इक्कीसवाँ अध्याय
गुण-दोष-व्यवस्था का स्वरूप और रहस्य

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — प्रिय उद्धव ! मेरी प्राप्ति के तीन मार्ग हैं — भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग । जो इन्हें छोड़कर चञ्चल इन्द्रियों के द्वारा क्षुद्र भोग भोगते रहते हैं, वे बार-बार जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर में भटकते रहते हैं ॥ १ ॥ अपने-अपने अधिकार के अनुसार धर्म में दृढ़ निष्ठा रखना ही गुण कहा गया है और इसके विपरीत अनधिकार चेष्टा करना दोष है । तात्पर्य यह कि गुण और दोष दोनों की व्यवस्था अधिकार के अनुसार की जाती है, किसी वस्तु के अनुसार नहीं ॥ २ ॥ वस्तुओं के समान होने पर भी शुद्धि-अशुद्धि, गुण-दोष और शुभ-अशुभ आदि का जो विधान किया जाता है, उसका अभिप्राय यह है कि पदार्थ को ठीक-ठीक निरीक्षण-परीक्षण हो सके और उनमें सन्देह उत्पन्न करके ही यह योग्य है कि अयोग्य, स्वाभाविक प्रवृत्ति को नियन्त्रित — संकुचित किया जा सके ॥ ३ ॥ उनके द्वारा धर्म-सम्पादन कर सके, समाज का व्यवहार ठीक-ठीक चला सके और अपने व्यक्तिगत जीवन के निर्वाह में भी सुविधा हो । इससे यह लाभ भी है कि मनुष्य अपनी वासनामूलक सहज प्रवृत्तियों के द्वारा इनके जाल में न फँसकर शास्त्रानुसार अपने जीवन को नियन्त्रित और मन को वशीभूत कर लेता हैं । निष्पाप उद्धव ! यह आचार मैंने ही मनु आदि का रूप धारण करके धर्म का भार ढोनेवाले कर्म-जडों के लिये उपदेश किया है ॥ ४ ॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश — ये पञ्चभूत ही ब्रह्मा से लेकर पर्वत-वृक्षपर्यन्त सभी प्राणियों के शरीरों के मूलकारण हैं । इस तरह वे सब शरीर की दृष्टि से तो समान हैं ही, सबका आत्मा भी एक ही है ॥ ५ ॥

प्रिय उद्धव ! यद्यपि सबके शरीरों के पञ्चभूत समान हैं, फिर भी वेदों ने इनके वर्णाश्रम आदि अलग-अलग नाम और रूप इसलिये बना दिये हैं कि ये अपनी वासना-मूलक प्रवृत्तियों को संकुचित करके — नियन्त्रित करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष — इन चारों पुरुषार्थों को सिद्ध कर सकें ॥ ६ ॥ साधुश्रेष्ठ ! देश, काल, फल, निमित्त, अधिकारी और धान्य आदि वस्तुओं के गुण-दोषों का विधान भी मेरे द्वारा इसीलिये किया गया है कि कर्मों में लोगों की उच्छृङ्खल प्रवृत्ति न हो, मर्यादा का भङ्ग न होने पावे ॥ ७ ॥ देशों में वह देश अपवित्र है, जिसमें कृष्णसार मृग न हों और जिसके निवासी ब्राह्मणभक्त न हों । कृष्णसार मृग के होने पर भी, केवल उन प्रदेशों को छोड़कर जहाँ संत पुरुष रहते हैं, कीकट देश अपवित्र ही है । संस्काररहित और ऊसर आदि स्थान भी अपवित्र ही होते हैं ॥ ८ ॥ समय वही पवित्र है, जिसमें कर्म करनेयोग्य सामग्री मिल सके तथा कर्म भी हो सके । जिसमें कर्म करने की सामग्री न मिले, आगन्तुक दोषों से अथवा स्वाभाविक दोष के कारण जिसमें कर्म ही न हो सके, वह समय अशुद्ध है ॥ ९ ॥ पदार्थों की शुद्धि और अशुद्धि द्रव्य, वचन, संस्कार, काल, महत्त्व अथवा अल्पत्व से भी होती हैं । (जैसे कोई पात्र जल से शुद्ध और मूत्रादि से अशुद्ध हो जाता हैं । किसी वस्तु की शुद्धि अथवा अशुद्धि में शंका होने पर ब्राह्मणों के वचन से वह शुद्ध हो जाती है अन्यथा अशुद्ध रहती है । पुष्पादि जल छिड़कने से शुद्ध और सूँघने से अशुद्ध माने जाते हैं । तत्काल का पकाया हुआ अन्न शुद्ध और बासी अशुद्ध माना जाता है । बड़े सरोवर और नदी आदि का जल शुद्ध और छोटे गड्ढे का अशुद्ध माना जाता है । इस प्रकार क्रम से समझ लेना चाहिये ।) ॥ १० ॥

शक्ति, अशक्ति, बुद्धि और वैभव के अनुसार भी पवित्रता और अपवित्रता की व्यवस्था होती हैं । उसमें भी स्थान और उपयोग करनेवाले की आयु का विचार करते हुए ही अशुद्ध वस्तुओं के व्यवहार का दोष ठीक तरह से आँका जाता हैं । (जैसे धनी-दरिद्र, बलवान्-निर्बल, बुद्धिमान्-मूर्ख, उपद्रवपूर्ण और सुखद देश तथा तरुण एवं वृद्धावस्था के भेद से शुद्धि और अशुद्धि की व्यवस्था में अन्तर पड़ जाता हैं।) ॥ ११ ॥ अनाज, लकड़ी, हाथीदांत आदि हड्डी, सूत, मधु, नमक, तेल, घी आदि रस, सोना-पारा आदि तैजस पदार्थ, चाम और घड़ा आदि मिट्टी के बने पदार्थ समय पर अपने आप हवा लगने से, आग में जलाने से, मिट्टी लगाने से अथवा जल में धोने से शुद्ध हो जाते हैं । देश, काल और अवस्था के अनुसार कहीं जल-मिट्टी आदि शोधक सामग्री के संयोग से शुद्धि करनी पड़ती हैं तो कहीं-कहीं एक-एक से भी शुद्धि हो जाती है ॥ १२ ॥ यदि किसी वस्तु में कोई अशुद्ध पदार्थ लग गया हो तो छीलने से या मिट्टी आदि मलने से जब उस पदार्थ की गन्ध और लेप न रहे और वह वस्तु अपने पूर्वरूप में आ जाय, तब उसको शुद्ध समझना चाहिये ॥ १३ ॥ स्नान, दान, तपस्या, वय, सामर्थ्य, संस्कार, कर्म और मेरे स्मरण से चित्त की शुद्धि होती है । इनके द्वारा शुद्ध होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को विहित कर्मों का आचरण करना चाहिये ॥ १४ ॥

गुरुमुख से सुनकर भली-भाँति हृदयङ्गम कर लेने से मन्त्र की और मुझे समर्पित कर देने से कर्म की शुद्धि होती है । उद्धवजी ! इस प्रकार देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मन्त्र और कर्म — इन छहों के शुद्ध होने से धर्म और अशुद्ध होने से अधर्म होता हैं ॥ १५ ॥ कहीं-कहीं शास्त्र-विधि से गुण दोष हो जाता है और दोष गुण । (जैसे ब्राहाण के लिये सन्ध्या-वन्दन, गायत्री-जप आदि गुण हैं; परन्तु शूद्र के लिये दोष हैं । और दूध आदि का व्यापार वैश्य के लिये विहित है; परन्तु ब्राह्मण के लिये अत्यन्त निषिद्ध है।) एक ही वस्तु के विषय में किसी के लिये गुण और किसी के लिये दोष का विधान गुण और दोषों की वास्तविकता का खण्डन कर देता है और इससे यह निश्चय होता है कि गुण-दोष का यह भेद कल्पित हैं ॥ १६ ॥ जो लोग पतित हैं, वे पतितका-सा आचरण करते हैं तो उन्हें पाप नहीं लगता, जब कि श्रेष्ठ पुरुषों के लिये वह सर्वथा त्याज्य होता है । जैसे गृहस्थों के लिये स्वाभाविक होने के कारण अपनी पत्नी का सङ्ग पाप नहीं है, परन्तु संन्यासी के लिये घोर पाप है । उद्धवजी ! बात तो यह है कि जो नीचे सोया हुआ है, वह गिरेगा कहाँ ? वैसे ही जो पहले से ही पतित हैं, उनका अब और पतन क्या होगा ? ॥ १७ ॥ जिन-जिन दोषों और गुणों से मनुष्य का चित्त उपरत हो जाता है, उन्हीं वस्तुओं के बन्धन से वह मुक्त हो जाता हैं । मनुष्यों के लिये यह निवृत्तिरूप धर्म ही परम कल्याण का साधन है; क्योंकि यही शोक, मोह और भय को मिटानेवाला है ॥ १८ ॥

उद्धवजी ! विषयों में कहीं भी गुणों का आरोप करने से उस वस्तु के प्रति आसक्ति हो जाती है । आसक्ति होने से उसे अपने पास रखने की कामना हो जाती है और इस कामना की पूर्ति में किसी प्रकार की बाधा पड़ने पर लोगों में परस्पर कलह होने लगता है ॥ १९ ॥ कलह से असह्य क्रोध की उत्पत्ति होती हैं और क्रोध के समय अपने हित-अहित का बोध नहीं रहता, अज्ञान छा जाता हैं । इस अज्ञान से शीघ्र ही मनुष्य को कार्याकार्य का निर्णय करनेवाली व्यापक चेतनाशक्ति लुप्त हो जाती है ॥ २० ॥ साधो ! चेतनाशक्ति अर्थात् स्मृति के लुप्त हो जाने पर मनुष्य में मनुष्यता नहीं रह जाती, पशुता आ जाती है और वह शून्य के समान अस्तित्वहीन हो जाता है । अब उसकी अवस्था वैसी ही हो जाती है, जैसे कोई मूर्च्छित या मुर्दा हो । ऐसी स्थिति में न तो उसका स्वार्थ बनता है और न तो परमार्थ ॥ २१ ॥ विषयों का चिन्तन करते-करते वह विषयरूप हो जाता है । उसका जीवन वृक्षों के समान जड हो जाता है । उसके शरीर में उसी प्रकार व्यर्थ श्वास चलता रहता है, जैसे लुहार की धौंकनी की हवा । उसे न अपना ज्ञान रहता है और न किसी दूसरे का । वह सर्वथा आत्मवञ्चित हो जाता हैं ॥ २२ ॥

उद्धवजी ! यह स्वर्गादिरूप फल का वर्णन करनेवाली श्रुति मनुष्यों के लिये उन-उन लोकों को परम पुरुषार्थ नहीं बतलाती; परन्तु बहिर्मुख पुरुषों के लिये अन्तःकरणशुद्धि के द्वारा परम कल्याणमय मोक्ष की विवक्षा (अभिप्राय) से ही कर्मों में रुचि उत्पन्न करने के लिये वैसा वर्णन करती है । जैसे बच्चों से ओषधि में रुचि उत्पन्न करने के लिये रोचक वाक्य कहे जाते हैं । (बेटा ! प्रेम से गिलोय का काढ़ा पी लो तो तुम्हारी चोटी बढ़ जायगी) ॥ २३ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि संसार के विषयभोगों में, प्राणों में और सगे-सम्बन्धियों में सभी मनुष्य जन्म से ही आसक्त हैं और उन वस्तुओं की आसक्ति उनकी आत्मोन्नति में बाधक एवं अनर्थ का कारण हैं ॥ २४ ॥ वे अपने परम पुरुषार्थ को नहीं जानते, इसलिये स्वर्गादि का जो वर्णन मिलता है, वह ज्यों-का-त्यों सत्य हैं — ऐसा विश्वास करके देवादि योनियों में भटकते रहते हैं और फिर वृक्ष आदि योनियों के घोर अन्धकार में आ पड़ते हैं । ऐसी अवस्था में कोई भी विद्वान् अथवा वेद फिर से उन्हें उन्हीं विषयों में क्यों प्रवृत्त करेगा ? ॥ २५ ॥ दुर्बुद्धिलोग (कर्मवादी) वेदों का यह अभिप्राय न समझकर कर्मासक्तिवश पुष्पों के समान स्वर्गादि लोकों का वर्णन देखते हैं और उन्हीं को परम फल मानकर भटक जाते हैं । परन्तु वेदवेत्ता लोग श्रुतियों का ऐसा तात्पर्य नहीं बतलाते ॥ २६ ॥

विषय-वासनाओं में फँसे हुए दीन-हीन, लोभी पुरुष रंग-बिरंगे पुष्पों के समान स्वर्गादि लोकों को ही सब कुछ समझ बैठते हैं, अग्नि के द्वारा सिद्ध होनेवाले यज्ञ-यागादि कर्मों में ही मुग्ध हो जाते हैं । उन्हें अन्त में देवलोक, पितृलोक आदि की ही प्राप्ति होती हैं । दूसरी ओर भटक जाने के कारण उन्हें अपने निजधाम आत्मपद का पता नहीं लगता ॥ २७ ॥ प्यारे उद्धव ! उनके पास साधना है तो केवल कर्म की और उसका कोई फल है तो इन्द्रियों की तृप्ति । उनकी आँखें धुँधली हो गयी हैं । इसीसे वे यह बात नहीं जानते कि जिससे इस जगत् की उत्पत्ति हुई है, जो स्वयं इस जगत् के रूप में है, वह परमात्मा मैं उनके हृदय में ही हूँ ॥ २८ ॥ यदि हिंसा और उसके फल मांस-भक्षण में राग ही हो, उसका त्याग न किया जा सकता हो, तो यज्ञ में ही करे — यह परिसंख्या विधि है, स्वाभाविक प्रवृत्ति का संकोच है, सन्ध्यावन्दनादि के समान अपूर्व विधि नहीं है । इस प्रकार मेरे परोक्ष अभिप्राय को न जानकर विषयलोलुप पुरुष हिंसा का खिलवाड़ खेलते हैं और दुष्टतावश अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिये वध किये हुए पशुओं के मांस से यज्ञ करके देवता, पितर तथा भूतपतियों के यजन का ढोंग करते हैं ॥ २९-३० ॥

उद्धवजी ! स्वर्गादि परलोक स्वप्न के दृश्यों के समान है, वास्तव में वे असत् है, केवल उनकी बातें सुनने में बहुत मीठी लगती हैं । सकाम पुरुष वहाँ के भोगों के लिये मन-ही-मन अनेकों प्रकार के संकल्प कर लेते हैं और जैसे व्यापारी अधिक लाभ की आशा से मूलधन को भी खो बैठता है, वैसे ही वे सकाम यज्ञों द्वारा अपने धन का नाश करते हैं ॥ ३१ ॥ वे स्वयं रजोगुण, सत्त्वगुण या तमोगुण में स्थित रहते हैं और रजोगुणी, सत्त्वगुणी अथवा तमोगुणों इन्द्रादि देवताओं की उपासना करते हैं । वे उन्हीं सामग्रियों से उतने ही परिश्रम से मेरी पूजा नहीं करते ॥ ३२ ॥ वे जब इस प्रकार की पुष्पिता वाणी — रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें सुनते हैं कि ‘हमलोग इस लोक में यज्ञों के द्वारा देवताओं का यजन करके स्वर्ग में जायेंगे और वहाँ दिव्य आनन्द भोगेंगे, उसके बाद जब फिर हमारा जन्म होगा, तब हम बड़े कुलीन परिवार में पैदा होंगे, हमारे बड़े-बड़े महल होंगे और हमारा कुटुम्ब बहुत सुखी और बहुत बड़ा होगा’, तब उनका चित्त क्षुब्ध हो जाता है और उन हेकड़ी जतानेवाले घमंडियो को मेरे सम्बन्ध की बातचीत भी अच्छी नहीं लगती ॥ ३३-३४ ॥

उद्धवजी ! वेदों में तीन काण्ड हैं — कर्म, उपासना और ज्ञान । इन तीनों काण्डों के द्वारा प्रतिपादित विषय है — ब्रह्म और आत्मा की एकता, सभी मन्त्र और मन्त्रद्रष्टा ऋषि इस विषय को खोलकर नहीं, गुप्तभाव से बतलाते हैं और मुझे भी इस बात को गुप्तरूप से कहना ही अभीष्ट हैं ॥ ३५ ॥ वेदों का नाम है शब्दब्रह्म । वे मेरी मूर्ति हैं, इससे उनका रहस्य समझना अत्यन्त कठिन है । वह शब्दब्रह्म परा, पश्यन्ती और मध्यमा वाणी के रूप में प्राण, मन और इन्द्रियमय हैं । समुद्र के समान सीमारहित और गहरा है । उसकी थाह लगाना अत्यन्त कठिन है । (इससे जैमिनि आदि बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके तात्पर्य को ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते) ॥ ३६ ॥ उद्धव ! मैं अनन्त-शक्ति-सम्पन्न एवं स्वयं अनन्त ब्रह्म हूँ । मैंने ही वेदवाणी का विस्तार किया है । जैसे कमलनाल में पतला-सा सूत होता है, वैसे ही वह वेदवाणी प्राणियों के अन्तःकरण में अनाहतनाद के रूप में प्रकट होती हैं ॥ ३७ ॥ भगवान् हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं । उनकी उपाधि हैं प्राण और स्वयं अनाहत शब्द के द्वारा ही उनकी अभिव्यक्ति हुई हैं । जैसे मकड़ी अपने हृदय से मुख द्वारा जाला उगलती और फिर निगल लेती है, वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णों का संकल्प करनेवाले मनरूप निमित्तकारण के द्वारा हृदयाकाश से अनन्त अपार अनेकों मार्गोंवाली वैखरीरूप वेदवाणी को स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं । वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकार के द्वारा अभिव्यक्त स्पर्श (‘क’ से लेकर ‘म’ तक-२५), स्वर (‘अ’ से औ” तक-९), ऊष्मा (श, ष, स, ह) और अन्तःस्थ (य, र, ल, ३) —इन वर्णों से विभूषित है । उसमें ऐसे छन्द हैं, जिनमें उत्तरोत्तर चार-चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा विचित्र भाषा के रूप में वह विस्तृत हुई हैं ॥ ३८-४० ॥

(चार-चार अधिक वर्णोंवाले छन्दों में से कुछ ये हैं—) गायत्री, उष्णि, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती, अतिच्छन्द्, अत्यष्टि, अतिजगती और विराट् ॥ ४१ ॥ वह वेदवाणी कर्मकाण्ड में क्या विधान करती है, उपासनाकाण्ड में किन देवताओं का वर्णन करती है और ज्ञानकाण्ड में किन प्रतीतियों का अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकार के विकल्प करती है — इन बातों को इस सम्बन्ध में श्रुति के रहस्य को मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता ॥ ४२ ॥ मैं तुम्हें स्पष्ट बतला देता हूँ, सभी श्रुतियाँ कर्मकाण्ड में मेरा ही विधान करती हैं, उपासना काण्ड में उपास्य देवताओं के रूपमें वे मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञानकाण्ड में आकाशादिरूप से मुझमें ही अन्य वस्तुओं का आरोप करके उनका निषेध कर देती हैं । सम्पूर्ण श्रुतियों का बस, इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुझमें भेद का आरोप करती हैं, मायामात्र कहकर उसका अनुवाद करती हैं और अन्त में सबका निषेध करके मुझमें ही शान्त हो जाती हैं और केवल अधिष्ठानरूप से मैं ही शेष रह जाता हूँ ॥ ४३ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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