May 9, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय २२ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय बाईसवाँ अध्याय तत्त्वों की संख्या और पुरुष-प्रकृति-विवेक उद्धवजी ने कहा — प्रभो ! विश्वेश्वर ! ऋषियों ने तत्त्वों की संख्या कितनी बतलायी है ? आपने तो अभी ( उन्नीसवें अध्याय में) नौ, ग्यारह, पाँच और तीन अर्थात् कुल अट्ठाईस तत्व गिनाये हैं । यह तो हम सुन चुके हैं ॥ १ ॥ किन्तु कुछ लोग छब्बीस तत्त्व बतलाते हैं तो कुछ पचीस, कोई सात, नौ अथवा छः स्वीकार करते हैं, कोई चार बतलाते हैं तो कोई ग्यारह ॥ २॥ इसी प्रकार किन्हीं-किन्हीं ऋषि-मुनियों के मत में उनकी संख्या सत्रह है, कोई सोलह और कोई तेरह बतलाते हैं । सनातन श्रीकृष्ण ! ऋषि-मुनि इतनी भिन्न संख्याएँ किस अभिप्राय से बतलाते हैं ? आप कृपा करके हमें बतलाइये ॥ ३ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — उद्धवजी ! वेदज्ञ ब्राह्मण इस विषय में जो कुछ कहते हैं, वह सभी ठीक हैं; क्योंकि सभी तत्त्व सबमें अन्तर्भूत हैं । मेरी माया को स्वीकार करके क्या कहना असम्भव है ? ॥ ४ ॥ जैसा तुम कहते हो, वह ठीक नहीं हैं, जो मैं कहता हूँ, वहीं यथार्थ हैं — इस प्रकार जगत् के कारण सम्बन्ध में विवाद इसलिये होता हैं कि मेरी शक्तियों सत्त्व, रज आदि गुणों और उनकी वृत्तियों का रहस्य लोग समझ नहीं पाते; इसलिये वे अपनी-अपनी मनोवृत्ति पर ही आग्रह कर बैठते हैं ॥ ५ ॥ सत्त्व आदि गुणों के क्षोभ से ही यह विविध कल्पनारूप प्रपञ्च — जो वस्तु नहीं केवल नाम हैं — उठ खड़ा हुआ है । यही वाद-विवाद करनेवालों के विवाद का विषय हैं । जब इन्द्रियाँ अपने वश में हो जाती हैं तथा चित्त शान्त हो जाता है, तब यह प्रपञ्च भी निवृत्त हो जाता है और उसकी निवृत्ति के साथ ही सारे वाद-विवाद भी मिट जाते हैं ॥ ६ ॥ पुरुषशिरोमणे ! तत्त्वों का एक-दूसरे में अनुप्रवेश है, इसलिये वक्ता तत्त्वों की जितनी संख्या बतलाना चाहता है, उसके अनुसार कारण को कार्य में अथवा कार्य को कारण में मिलाकर अपनी इच्छित संख्या सिद्ध कर लेता है ॥ ७ ॥ ऐसा देखा जाता है कि एक ही तत्त्व में बहुत-से दूसरे तत्वों का अन्तर्भाव हो गया है । इसका कोई बन्धन नहीं है कि किसका किसमें अन्तर्भाव हो । कभी घट-पट आदि कार्य वस्तुओं का उनके कारण मिट्टी-सूत आदि में, तो कभी मिट्टी-सूत आदि का घट-पट आदि कार्यों में अन्तर्भाव हो जाता हैं ॥ ८ ॥ इसलिये वादी-प्रतिवादियों में से जिसकी वाणी ने जिस कार्य से जिस कारण में अथवा जिस कारण को जिस कार्य में अन्तर्भूत करके तत्वों की जितनी संख्या स्वीकार की हैं, वह हम निश्चय ही स्वीकार करते हैं; क्योंकि उनका वह उपपादन युक्तिसङ्गन ही है ॥ ९ ॥ उद्धवजी ! जिन लोगों ने छबीस संख्या स्वीकार की हैं, वे ऐसा कहते हैं कि जीव अनादि काल से अविद्या से ग्रस्त हो रहा है । वह स्वयं अपने-आपको नहीं जान सकता । उसे आत्मज्ञान कराने के लिये किसी अन्य सर्वज्ञ की आवश्यकता हैं । (इसलिये प्रकृति के कार्यकारणरूप चौबीस तत्त्व, पचीसवाँ पुरुष और बीसवाँ ईश्वर — इस प्रकार कुल छब्बीस तत्त्व स्वीकार करने चाहिये) ॥ १० ॥ पचीस तत्त्व माननेवाले कहते हैं कि इस शरीर में जीव और ईश्वर का अणुमात्र भी अन्तर या भेद नहीं हैं, इसलिये उनमें भेद की कल्पना व्यर्थ है । रही ज्ञान की बात, सो तो सत्त्वात्मि का प्रकृति का गुण है ॥ ११ ॥ तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है; इसलिये सत्त्व, रज आदि गुण आत्मा के नहीं, प्रकृति के ही हैं । इन्हीं के द्वारा जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय हुआ करते हैं । इसलिये ज्ञान आत्मा का गुण नहीं, प्रकृति का ही गुण सिद्ध होता हैं ॥ १२ ॥ इस प्रसङ्ग में सत्त्वगुण ही ज्ञान हैं, रजोगुण ही कर्म हैं और तमोगुण ही अज्ञान कहा गया हैं और गुणों में क्षोभ उत्पन्न करनेवाला ईश्वर ही काल है और सुत्र अर्थात् महत्तत्त्व ही स्वभाव हैं । (इसलिये पचीस और छब्बीस तत्त्वों की — दोनों ही संख्या युक्तिसंगत हैं) ॥ १३ ॥ | उद्धवजी ! (यदि तीनों गुणों को प्रकृति से अलग मान लिया जाय, जैसा कि उनकी उत्पत्ति और प्रलय को देखते हुए मानना चाहिये, तो तत्त्वों की संख्या स्वयं ही अट्ठाईस हो जाती हैं । उन तीनों के अतिरिक्त पचीस ये हैं-) पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी — ये नौ तत्त्व मैं पहले ही गिना चुका हूँ ॥ १४ ॥ श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, नासिका और रसना — ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ; वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ — ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ, तथा मन, जो कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों ही हैं । इस प्रकार कुल ग्यारह इन्द्रियों तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध — ये ज्ञानेन्द्रियो के पाँच विषय । इस प्रकार तीन, नौ, ग्यारह और पाँच सब मिलाकर अट्ठाईस तत्त्व होते हैं । कर्मेन्द्रियों के द्वारा होनेवाले पाँच कर्म — चलना, बोलना, मल त्यागना, पेशाब करना और काम करना — इनके द्वारा तत्त्वों की संख्या नहीं बढ़ती । इन्हें कर्मेन्द्रियस्वरूप ही मानना चाहिये ॥ १५-१६ ॥ सृष्टि के आरम्भ में कार्य (ग्यारह इन्द्रिय और पञ्चभूत) और कारण (महत्तत्त्व आदि) के रूप में प्रकृति ही रहती है । वहीं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की सहायता से जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और संहारसम्बन्धी अवस्थाएँ धारण करती हैं । अव्यक्त पुरुष तो प्रकृति और उसकी अवस्थाओं का केवल साक्षीमात्र बना रहता है ॥ १७ ॥ महत्तत्त्व आदि कारण धातुएँ विकार को प्राप्त होते हुए पुरुष के ईक्षण से शक्ति प्राप्त करके परस्पर मिल जाते हैं और प्रकृति का आश्रय लेकर उसी के बल से ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं ॥ १८ ॥ उद्धवजी ! जो लोग तत्त्वों की संख्या सात स्वीकार करते हैं, उनके विचार से आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी — ये पाँच भूत, छठा जीव और सातवाँ परमात्मा| जो साक्षी जीव और साक्ष्य जगत् दोनों का अधिष्ठान हैं — ये ही तत्त्व हैं । देह, इन्द्रिय और प्राणादि की उत्पत्ति तो पञ्चभूतों से ही हुई हैं [ इसलिये वे इन्हें अलग नहीं गिनते ] ॥ १९ ॥ जो लोग केवल छः तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि पाँच भूत हैं और छठा है परमपुरुष परमात्मा । वह परमात्मा अपने बनाये हुए पञ्चभूतों से युक्त होकर देह आदि की सृष्टि करता हैं और उनमें जीवरूप से प्रवेश करता है । (इस मत के अनुसार जीव का परमात्मा में और शरीर आदि का पञ्चभूतों में समावेश हो जाता हैं) ॥ २० ॥ जो लोग कारण के रूप में चार ही तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि आत्मा से तेज, जल और पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है और जगत् में जितने पदार्थ हैं, सब इन्हीं से उत्पन्न होते हैं । वे सभी कार्यों का इन्हीं में समावेश कर लेते हैं ॥ २१ ॥ जो लोग तत्त्वों की संख्या सत्रह बतलाते हैं, वे इस प्रकार गणना करते हैं — पाँच भूत, पाँच तन्मात्राएँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एक मन और एक आत्मा ॥ २२ ॥ जो लोग तत्त्वों की संख्या सोलह बतलाते हैं, उनकी गणना भी इसी प्रकार हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि वे आत्मा में मन का भी समावेश कर लेते हैं और इस प्रकार उनकी तत्त्वसंख्या सोलह रह जाती हैं । जो लोग तेरह तत्त्व मानते हैं, वे कहते हैं कि आकाशादि पाँच भूत, श्रोत्रादि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एक मन, एक जीवात्मा और परमात्मा — ये तेरह तत्त्व हैं ॥ २३ ॥ ग्यारह संख्या माननेवालोने पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और इनके अतिरिक्त एक आत्मा का अस्तित्व स्वीकार किया है । जो लोग नौ तत्व मानते हैं, वे आकाशादि पाँच भूत और मन-बुद्धि अहंकार — ये आठ प्रकृतियाँ और नवाँ पुरुष — इन्हीं को तत्त्व मानते हैं ॥ २४ ॥ उद्धवजी ! इस प्रकार ऋषि-मुनियों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से तत्त्वों की गणना की है । सबका कहना उचित ही है, क्योंकि सबकी संख्या युक्तियुक्त है । जो लोग तत्त्वज्ञानी हैं, उन्हें किसी भी मत में बुराई नहीं दीखती । उनके लिये तो सब कुछ ठीक ही है ॥ २५ ॥ उद्धवजी ने कहा — श्यामसुन्दर ! यद्यपि स्वरूपतः प्रकृति और पुरुष दोनों एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं, तथापि वे आपस में इतने घुल-मिल गये हैं कि साधारणतः उनका भेद नहीं जान पड़ता । प्रकृति में पुरुष और पुरुष में प्रकृति अभिन्न-से प्रतीत होते हैं । इनकी भिन्नता स्पष्ट कैसे हो ? ॥ २६ ॥ कमलनयन श्रीकृष्ण ! मेरे हृदय में इनकी भिन्नता और अभिन्नता को लेकर बहुत बड़ा सन्देह है । आप तो सर्वज्ञ है, अपनी युक्तियुक्त वाणी से मेरे सन्देह का निवारण कर दीजिये ॥ २३ ॥ भगवन् ! आपकी ही कृपा से जीवों को ज्ञान होता है और आपकी मायाशक्ति से ही उनके ज्ञान का नाश होता हैं । अपनी आत्मस्वरूपिणी माया की विचित्र गति आप ही जानते हैं और कोई नहीं जानता । अतएव आप ही मेरा सन्देह मिटाने में समर्थ हैं ॥ २८ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — उद्धवजी ! प्रकृति और पुरुष, शरीर और आत्मा — इन दोनों में अत्यन्त भेद है । इस प्राकृत जगत् में जन्म-मरण एवं वृद्धि-ह्रास आदि विकार लगे ही रहते हैं । इसका कारण यह है कि यह गुणों के क्षोभ से ही बना है ॥ २९ ॥ प्रिय मित्र ! मेरी माया त्रिगुणात्मिका है । वही अपने सत्त्व, रज आदि गुणों से अनेक प्रकार की भेदवृत्तियाँ पैदा कर देती है । यद्यपि इसका विस्तार असीम हैं, फिर भी इस विकारात्मक सृष्टि को तीन भागों में बाँट सकते हैं । वे तीन भाग हैं — अध्यात्म, अधिदेव और अधिभूत ॥ ३० ॥ उदाहरणार्थ — नेत्रेन्द्रिय अध्यात्म हैं, उसका विषय रूप अधिभूत हैं और नेत्रगोलक में स्थित सूर्यदेवता का अंश अधिदैव है । ये तीनों परस्पर एक दूसरे के आश्रय से सिद्ध होते हैं और इसलिये अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत — ये तीनों ही परस्पर सापेक्ष हैं । परन्तु आकाश में स्थित सूर्यमण्डल इन तीनों की अपेक्षा से मुक्त है, क्योंकि वह स्वतःसिद्ध है । इसी प्रकार आत्मा भी उपर्युक्त तीनों भेदों का मूलकारण, उनका साक्षी और उनसे परे है । वही अपने स्वयंसिद्ध प्रकाश से समस्त सिद्ध पदार्थों की मूलसिद्धि है । उसके द्वारा सबका प्रकाश होता है । जिस प्रकार चक्षु के तीन भेद बताये गये, उसी प्रकार त्वचा, श्रोत्र, जिह्वा, नासिका और चित्त आदि के भी तीन-तीन भेद हैं ॥ ३१ ॥ प्रकृति से महत्त्व बनता है और महतत्त्व से अहङ्कार । इस प्रकार यह अहङ्कार गुणों के क्षोभ से उत्पन्न हुआ प्रकृति का ही एक विकार है । अहङ्कार के तीन भेद हैं — सात्विक, तामस और राजस । यह अहङ्कार ही अज्ञान और सृष्टि की विविधता का मूलकारण है ॥ ३२ ॥ आत्मा ज्ञानस्वरूप है; उसका इन पदार्थों से न तो कोई सम्बन्ध है और न उसमें कोई विवाद की ही बात है ! अस्ति-नास्ति ( है-नहीं), सगुण-निर्गुण, भाव-अभाव, सत्य-मिथ्या आदि रूपसे जितने भी वाद-विवाद हैं, सबका मूलकारण भेददृष्टि ही है । इसमें सन्देह नहीं कि इस विवाद का कोई प्रयोजन नहीं हैं; यह सर्वथा व्यर्थ है तथापि जो लोग मुझसे-अपने वास्तविक स्वरूप से विमुख हैं, वे इस विवाद से मुक्त नहीं हो सकते ॥ ३३ ॥ उद्धवजी ने पूछा — भगवन् ! आपसे विमुख जीव अपने किये हुए पुण्य-पापों के फलस्वरूप ऊँच-नीची योनियों में जाते-आते रहते हैं । अब प्रश्न यह है कि व्यापक आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना, अकर्ता का कर्म करना और नित्य-वस्तु का जन्म-मरण कैसे सम्भव है ? ॥ ३४ ॥ गोविन्द ! जो लोग आत्मज्ञान से रहित हैं, वे तो इस विषय को ठीक-ठीक सोच भी नहीं सकते और इस विषय के विद्वान् संसार में प्रायः मिलते नहीं, क्योंकि सभी लोग आपकी माया की भूल-भुलैया में पड़े हुए हैं । इसलिये आप ही कृपा करके मुझे इसका रहस्य समझाइये ॥ ३५ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — प्रिय उद्धव ! मनुष्यों का मन कर्म-संस्कारों का पुञ्ज है । उन संस्कारों के अनुसार भोग प्राप्त करने के लिये उसके साथ पाँच इन्द्रियाँ भी लगी हुई हैं । इसी का नाम है लिङ्गशरीर । वहीं कर्मों के अनुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक लोक से दूसरे लोक में आता-जाता रहता है । आत्मा इस लिङ्गशरीर से सर्वथा पृथक् है । उसका आना-जाना नहीं होता; परन्तु जब वह अपने को लिङ्गशरीर ही समझ बैठता है, उसी में अहङ्कार कर लेता है, तब उसे भी अपना जाना-आना प्रतीत होने लगता है ॥ ३६ ॥ मन कर्मों के अधीन हैं । वह देखे हुए या सुने हुए विषयों का चिन्तन करने लगता है और क्षणभर में ही उनमें तदाकार हो जाता है तथा उन्हीं पूर्वचिन्तित विषयों में लीन हो जाता है । धीरे-धीरे उसकी स्मृति, पूर्वापर का अनुसन्धान भी नष्ट हो जाता है ॥ ३७ ॥ उन देवादि शरीरों में इसका इतना अभिनिवेश, इतनी तल्लीनता हो जाती है कि जीव को अपने पूर्व शरीर का स्मरण भी नहीं रहता । किसी भी कारण से शरीर को सर्वथा भूल जाना ही मृत्यु है ॥ ३८ ॥ उदार उद्धव ! जब यह जीव किसी भी शरीर को अभेद-भाव से मैं’ के रूप में स्वीकार कर लेता है, तब उसे ही जन्म कहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे स्वप्नकालीन और मनोरथकालीन शरीर में अभिमान करना ही स्वप्न और मनोरथ कहा जाता है ॥ ३९ ॥ यह वर्तमान देह में स्थित जीव जैसे पूर्व-देह का स्मरण नहीं करता, वैसे ही स्वप्न या मनोरथ में स्थित जीव भी पहले स्वप्न और मनोरथ को स्मरण नहीं करता, प्रत्युत उस वर्तमान स्वप्न और मनोरथ में पूर्व-सिद्ध होने पर भी अपने को नवीन-सा ही समझता है ॥ ४० ॥ इन्द्रियों के आश्रय मन या शरीर की सृष्टि से आत्मवस्तु में यह उत्तम, मध्यम और अधम की त्रिविधता भासती हैं । उनमें अभिमान करने से ही आत्मा बाह्य और आभ्यन्तर भेदों का हेतु मालूम पड़ने लगता है, जैसे दुष्ट पुत्र को उत्पन्न करनेवाला पिता पुत्र के शत्रु-मित्र आदि के लिये भेद का हेतु हो जाता हैं ॥ ४१ ॥ प्यारे उद्धव ! काल की गति सूक्ष्म है । उसे साधारणतः देखा नहीं जा सकता । उसके द्वारा प्रतिक्षण ही शरीरों की उत्पत्ति और नाश होते रहते हैं । सूक्ष्म होने के कारण ही प्रतिक्षण होनेवाले जन्म-मरण नहीं दीख पड़ते ॥ ४२ ॥ जैसे काल के प्रभाव से दिये की लौ, नदियों के प्रवाह अथवा वृक्ष के फलों को विशेष-विशेष अवस्थाएँ बदलती रहती है, वैसे ही समस्त प्राणियों के शरीर की आयु, अवस्था आदि भी बदलती रहती है ॥ ४३ ॥ जैसे यह उन्हीं ज्योतियों का वहीं दीपक है, प्रवाह का यह वही जल है — ऐसा समझना और कहना मिथ्या है, वैसे ही विषय-चिन्तन में व्यर्थ आयु बितानेवाले अविवेकी पुरुषों का ऐसा कहना और समझना कि यह वही पुरुष है, सर्वथा मिथ्या है ॥ ४४ ॥ यद्यपि वह भ्रान्त पुरुष भी अपने कर्मों के बीजद्वारा न पैदा होता है और न तो मरता ही है, वह भी अजन्मा और अमर ही है, फिर भी भ्रान्ति से वह उत्पन्न होता है और मरता-सा भी है, जैसे कि काष्ठ से युक्त अग्नि पैदा होता और नष्ट होता दिखायी पड़ता है ॥ ४५ ॥ उद्धवजी ! गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी, अधेड़ अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यु — ये नौ अवस्थाएँ शरीर की ही हैं ॥ ४६ ॥ यह शरीर जीव से भिन्न है और ये ऊँच-नीची अवस्थाएँ उसके मनोरथ के अनुसार ही हैं, परन्तु वह अज्ञानवश गुणों के सङ्ग से इन्हें अपनी मानकर भटकने लगता है और कभी-कभी विवेक हो जानेपर इन्हें छोड़ भी देता हैं ॥ ४५ ॥ पिता को पुत्र के जन्म से और पुत्र को पिता की मृत्यु से अपने-अपने जन्म-मरण का अनुमान कर लेना चाहिये । जन्म-मृत्यु से युक्त देहों का द्रष्टा जन्म और मृत्यु से युक्त शरीर नहीं है ॥ ४८ ॥ जैसे जौ-गेहूँ आदि की फसल बोने पर उग आती हैं और पक जाने पर काट दी जाती है, किन्तु जो पुरुष उनके उगने और काटने का जाननेवाला साक्षी हैं, वह उनसे सर्वथा पृथक् है, वैसे ही जो शरीर और उसकी अवस्थाओं का साक्षी है, वह शरीर से सर्वथा पृथक् है ॥ ४९ ॥ अज्ञानी पुरुष इस प्रकार प्रकृति और शरीर से आत्मा का विवेचन नहीं करते । वे उसे उनसे तत्त्वतः अलग अनुभव नहीं करते और विषयभोग में सच्चा सुख मानने लगते हैं तथा उसमें मोहित हो जाते हैं । इससे उन्हें जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकना पड़ता है ॥ ५० ॥ जब अविवेकी जीव अपने कर्मों के अनुसार जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकने लगता है, तब सात्त्विक कर्मों की आसक्ति से वह ऋषिलोक और देवलोक में, राजसिक कर्मों की आसक्ति से मनुष्य और असुरयोनियों में तथा तामसी कर्मों की आसक्ति से भूत-प्रेत एवं पशु-पक्षी आदि योनियों में जाता है ॥ ५१ ॥ जब मनुष्य किसी को नाचते-गाते देखता है, तब वह स्वयं भी उसका अनुकरण करने — तान तोड़ने लगता है । वैसे ही जब जीव बुद्धि के गुण को देखता है, तब स्वयं निष्क्रिय होने पर भी उसका अनुकरण करने के लिये याध्य हो जाता है ॥ ५२ ॥ जैसे नदी-तालाब आदि के जल के हिलने या चंचल होने पर उसमें प्रतिबिम्बित तट के वृक्ष भी उसके साथ हिलते-डोलते-से जान पड़ते हैं, जैसे घुमाये जानेवाले नेत्र के साथ-साथ पृथ्वी भी घूमती हुई-सी दिखायी देती है, जैसे मन के द्वारा सोचे गये तथा स्वप्न में देखे गये भोग-पदार्थ सर्वथा अलोक ही होते हैं, वैसे ही हे दाशार्ह ! आत्मा का विषयानुभवरूप संसार भी सर्वथा असत्य है । आत्मा तो नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव ही हैं ॥ ५३-५४ ॥ विषयों के सत्य न होनेपर भी जो जीव विषयों का ही चिन्तन करता रहता है, उसका यह जन्म-मृत्युरूप संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता, जैसे स्वप्न में प्राप्त अनर्थ-परम्परा जागे बिना निवृत नहीं होती ॥ ५५ ॥ प्रिय उद्धव ! इसलिये इन दुष्ट (कभी तृप्त न होनेवाली) इन्द्रियों से विषयों को मत भोगो । आत्मविषयक अज्ञान से प्रतीत होनेवाला सांसारिक भेदभाव श्रममूलक ही है, ऐसा समझो ॥ ५६ ॥ असाधु पुरुष गर्दन पकड़कर बाहर निकाल दें, वाणी द्वारा अपमान करें, उपहास करें, निन्दा करें, मारे-पीटें, बाँधे, आजीविका छीन लें, ऊपर थूक दें, मूत दे अथवा तरह-तरह से विचलित करें, निष्ठा से डिगाने की चेष्टा करें; उनके किसी भी उपद्रव से क्षुब्ध न होना चाहिये; क्योंकि वे तो बेचारे अज्ञानी हैं, उन्हें परमार्थ का तो पता ही नहीं है । अतः जो अपने कल्याण का इच्छुक है, उसे सभी कठिनाइयों से अपनी विवेक-बुद्धि द्वारा ही किसी बाह्य साधन से नहीं — अपने को बचा लेना चाहिये । वस्तुतः आत्मदृष्टि ही समस्त विपत्तियों से बचने का एकमात्र साधन हैं ॥ ५७-५८ ॥ उद्धवजी ने कहा — भगवन् ! आप समस्त वक्ताओं के शिरोमणि हैं । मैं इस दुर्जनों से किये गये तिरस्कार को अपने मन में अत्यन्त असह्य समझता हूँ । अतः जैसे मैं इसको समझ सकूँ, आपका उपदेश जीवन में धारण कर सकूँ, वैसे हमें बतलाइये ॥ ५९ ॥ विश्वात्मन् ! जो आपके भागवतधर्म के आचरण में प्रेमपूर्वक संलग्न हैं, जिन्होंने आपके चरण-कमलों का ही आश्रय ले लिया हैं, न शान्त पुरुषों के अतिरिक्त बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी दुष्टों के द्वारा किया हुआ तिरस्कार सह लेना अत्यन्त कठिन हैं, क्योंकि प्रकृति अत्यन्त बलवती हैं ॥ ६० ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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