श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय २३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
तेईसवाँ अध्याय
एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! वास्तव में भगवान् की लीला-कथा ही श्रवण करने योग्य है । वे ही प्रेम और मुक्ति के दाता हैं । जब उनके परमप्रेमी भक्त उद्धवजी ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब यदुवंशविभूषण श्रीभगवान् ने उनके प्रश्न की प्रशंसा करके उनसे इस प्रकार कहा — ॥ १ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — देवगुरु बृहस्पति के शिष्य उद्धवजी ! इस संसार में प्रायः ऐसे संत पुरुष नहीं मिलते, जो दुर्जनों की कटुवाणी से बिंधे हुए अपने हृदय को सँभाल सकें ॥ २ ॥ मनुष्य का हृदय मर्मभेदी बाणों से बिंधने पर भी उतनी पीडा का अनुभव नहीं करता, जितनी पीड़ा उसे दुष्टजनों के मर्मान्तक एवं कठोर वाग्बाण पहुँचाते हैं ॥ ३ ॥ उद्धवजी ! इस विषय में महात्मालोग एक बड़ा पवित्र प्राचीन इतिहास कहा करते हैं; मैं वही तुम्हें सुनाऊँगा, तुम मन लगाकर उसे सुनो ॥ ४ ॥ एक भिक्षुक को दुष्टों ने बहुत सताया था । उस समय भी उसने अपना धैर्य न छोड़ा और उसे अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल समझकर कुछ अपने मानसिक उद्गार प्रकट किये थे । उन्हीं का इस इतिहास में वर्णन है ॥ ५ ॥

प्राचीन समय की बात है, उज्जैन में एक ब्राह्मण रहता था । उसने खेती-व्यापार आदि करके बहुत-सी धन-सम्पति इकट्ठी कर ली थी । वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था । क्रोध तो उसे बात-बात में आ जाया करता था ॥ ६ ॥ उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियों को कभी मीठी बात से भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिलाने की तो बात ही क्या है । वह धर्म-कर्म से रीते घर में रहता और स्वयं भी अपनी धन-सम्पत्ति के द्वारा समय पर अपने शरीर को भी सुखी नहीं करता था ॥ ५ ॥ उसकी कृपणता और बुरे स्वभाव के कारण उसके बेटे-बेटी, भाई-बन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुःखी रहते और मन-ही-मन उसका अनिष्ट चिन्तन किया करते थे । कोई भी उसके मन को प्रिय लगनेवाला व्यवहार नहीं करता था ॥ ८ ॥ वह लोक-परलोक दोनों से ही गिर गया था । बस, यक्षों के समान धन की रखवाली करता रहता था । उस धन से वह न तो धर्म कमाता था और न भोग ही भोगता था । बहुत दिनों तक इस प्रकार जीवन बिताने से उस पर पञ्च-महायज्ञ के भागी देवता बिगड़ उठे ॥ ९ ॥

उदार उद्धवजी ! पञ्चमहायज्ञ के भागियों के तिरस्कार से उसके पूर्व-पुण्यों का सहारा — जिसके बल से अब तक धन टिका हुआ था — जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रम से इकट्ठा किया था, वह धन उसकी आँखों के सामने ही नष्ट-भ्रष्ट हो गया ॥ १० ॥ उस नीच ब्राह्मण का कुछ धन तो उसके कुटुम्बियों ने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गये । कुछ आग लग जाने आदि दैवी कोप से नष्ट हो गया, कुछ समय के फेर से मारा गया । कुछ साधारण मनुष्यों ने ले लिया और बचा-खुचा कर और दण्ड के रूप में शासकों ने हड़प लिया ॥ ११ ॥ उद्धवजी ! इस प्रकार उसकी सारी सम्पत्ति जाती रही । न तो उसने धर्म ही कमाया और न भोग ही भोगे । इधर उसके सगे-सम्बन्धियों ने भी उसकी ओर से मुँह मोड़ लिया । अब उसे बड़ी भयानक चिन्ता ने घेर लिया ॥ १२ ॥ धन के नाश से उसके हृदय में बड़ी जलन हुई । उसका मन खेद से भर गया । आँसुओं के कारण गला रुँध गया । परन्तु इस तरह चिन्ता करते-करते ही उसके मन में संसार के प्रति महान् दुःखबुद्धि और उत्कट वैराग्य का उदय हो गया ॥ १३ ॥

अब वह ब्राह्मण मन-ही-मन कहने लगा — ‘हाय ! हाय !! बड़े खेद की बात है, मैंने इतने दिनों तक अपने को व्यर्थ ही इस प्रकार सताया । जिस धन के लिये मैंने सरतोड़ परिश्रम किया, वह न तो धर्म-कर्म में लगा और न मेरे सुख-भोग के ही काम आया ॥ १४ ॥ प्रायः देखा जाता हैं कि कृपण पुरुषों को धन से कभी सुख नहीं मिलता । इस लोक में तो वे धन कमाने और रक्षा की चिन्ता से जलते रहते है और मरने पर धर्म न करने के कारण नरक में जाते हैं ॥ १५ ॥ जैसे थोड़ा-सा भी कोढ़ सर्वाङ्ग-सुन्दर स्वरूप को बिगाड़ देता है, वैसे ही तनिक-सा भी लोभ यशस्वियों के शुद्ध यश और गुणियों के प्रशंसनीय गुणों पर पानी फेर देता हैं ॥ १६ ॥ धन कमाने में, कमा लेने पर उसको बढ़ाने, रखने एवं खर्च करने में तथा उसके नाश और उपभोग में — जहाँ देखो वहीं निरन्तर परिश्रम, भय, चिन्ता और भ्रम का ही सामना करना पड़ता है ॥ १७ ॥ चोरी, हिंसा, झूठ बोलना, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, अहङ्कार, भेदबुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पर्धा, लम्पटता, जुआ और शराब — ये पन्द्रह अनर्थ मनुष्यों में धन के कारण ही माने गये हैं । इसलिये कल्याणकामी पुरुष को चाहिये कि स्वार्थ एवं परमार्थ के विरोधी अर्धनामधारी अनर्थ को दूर से ही छोड़ दे ॥ १८-१९ ॥

भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र, माता-पिता, सगे-सम्बन्धी — जो स्नेहबन्धन से बँधकर बिल्कुल एक हुए रहते हैं — सब-के-सब कौड़ी के कारण इतने फट जाते हैं कि तुरंत एक-दूसरे के शत्रु बन जाते हैं ॥ २० ॥ ये लोग थोड़े-से धन के लिये भी क्षुब्ध और क्रुद्ध हो जाते हैं । बात-की-बात में सौहार्द-सम्बन्ध छोड़ देते हैं, लाग-डाँट रखने लगते हैं और एकाएक प्राण लेने-देने पर उतारू हो जाते हैं । यहाँ तक कि एक-दूसरे का सर्वनाश कर डालते हैं ॥ २१ ॥ देवताओं के भी प्रार्थनीय मनुष्य जन्म को और उसमें भी श्रेष्ठ ब्राह्मण शरीर प्राप्त करके जो उसका अनादर करते हैं और अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थ का नाश करते हैं, वे अशुभ गति को प्राप्त होते हैं ॥ २२ ॥ यह मनुष्य शरीर मोक्ष और स्वर्ग का द्वार है, इसको पाकर भी ऐसा कौन बुद्धिमान् मनुष्य है, जो अनर्थों के धाम धन के चक्कर में फँसा रहे ॥ २३ ॥ जो मनुष्य देवता, ऋषि, पितर, प्राणी, जाति-भाई, कुटुम्बी और उनके दूसरे भागीदारों को उनका भाग देकर सन्तुष्ट नहीं रखता और न स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह यक्ष के समान धन की रखवाली करनेवाला कृपण तो अवश्य ही अधोगति को प्राप्त होता है ॥ २४ ॥

मैं अपने कर्तव्य से च्युत हो गया हूँ । मैंने प्रमाद में अपनी आयु, धन और बल-पौरुष खो दिये । विवेकीलोग जिन साधनों से मोक्ष तक प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं को मैंने धन इकट्ठा करने की व्यर्थ चेष्टा में खो दिया । अब बुढ़ापे में मैं कौन-सा साधन करूँगा ॥ २५ ॥ मुझे मालूम नहीं होता कि बड़े-बड़े विद्वान् भी धन की व्यर्थ तृष्णा से निरन्तर क्यों दुखी रहते हैं ? हो-न-हो, अवश्य ही यह संसार किसी की माया से अत्यन्त मोहित हो रहा है ॥ २६ ॥ यह मनुष्य-शरीर काल के विकराल गाल में पड़ा हुआ है । इसको धन से, धन देनेवाले देवताओं और लोगों से, भोगवासनाओं और उनको पूर्ण करनेवालों से तथा पुनः-पुनः जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालनेवाले सकाम कर्मों से लाभ ही क्या हैं ? ॥ २७ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि सर्वदेवस्वरूप भगवान् मुझपर प्रसन्न हैं । तभी तो उन्होंने मुझे इस दशा में पहुँचाया है और मुझे जगत् के प्रति यह दुःख-बुद्धि और वैराग्य दिया है । वस्तुतः वैराग्य ही इस संसार-सागर से पार होने के लिये नौका के समान है ॥ २८ ॥ मैं अब ऐसी अवस्था में पहुँच गया हूँ । यदि मेरी आयु शेष हो तो मैं आत्मलाभ में ही सन्तुष्ट रहकर अपने परमार्थ के सम्बन्ध में सावधान हो जाऊँगा और अब जो समय बच रहा है, उसमें अपने शरीर को तपस्या के द्वारा सुखा डालूँगा ॥ २९ ॥ तीनों लोकों के स्वामी देवगण मेरे इस सङ्कल्प का अनुमोदन करें । अभी निराश होने की कोई बात नहीं है, क्योंकि राजा खट्वाङ्ग ने तो दों घड़ी में ही भगवद्धाम की प्राप्ति कर ली थी ॥ ३० ||

भगवान् श्रीकृष्णा कहते हैं — उद्धवजी ! उस उज्जैन-निवासी ब्राह्मण ने मन-ही-मन इस प्रकार निश्चय करके ‘मैं’ और ‘मेरे’ पन की गाँठ खोल दी । इसके बाद वह शान्त होकर मौनी संन्यासी हो गया ॥ ३१ ॥ अब उसके चित्त में किसी भी स्थान, वस्तु या व्यक्ति के प्रति आसक्ति न रही । उसने अपने मन, इन्द्रिय और प्राणों को वश में कर लिया । वह पृथ्वी पर स्वच्छन्दरूप से विचरने लगा । वह भिक्षा के लिये नगर और गाँवों में जाता अवश्य था, परन्तु इस प्रकार जाता था कि कोई उसे पहचान न पाता था ॥ ३२ ॥ उद्धवजी ! वह भिक्षुक अवधूत बहुत बूढ़ा हो गया था । दुष्ट उसे देखते ही टूट पड़ते और तरह-तरह से उसका तिरस्कार करके उसे तंग करते ॥ ३३ ॥ कोई उसका दण्ड छीन लेता, तो कोई भिक्षापात्र ही झटक ले जाता । कोई कमण्डलु उठा ले ज्ञाता तो कोई आसन, रुद्राक्षमाला और कन्था ही लेकर भाग जाता । कोई तो उसकी लँगोटी और वस्त्र को ही इधर-उधर डाल देते ॥ ३४ ॥ कोई-कोई वे वस्तुएँ देकर और कोई दिखला-दिखलाकर फिर छीन लेते । जब वह अवधूत मधुकरी माँगकर लाता और बाहर नदी-तट पर भोजन करने बैठता, तो पापी लोग कभी उसके सिर पर मूत देते, तो कभी थूक देते । वे लोग उस मौनी अवधूत को तरह-तरह से बोलने के लिये विवश करते और जब वह इस पर भी न बोलता तो उसे पीटते ॥ ३५-३६ ॥

कोई उसे चोर कहकर डाँटने-डपटने लगता । कोई कहता ‘इसे बांध लो, बाँध लो’ और फिर उसे रस्सी से बाँधने लगते ॥ ३७ ॥ कोई उसका तिरस्कार करके इस प्रकार ताना कसते कि देखो-देखो, अब इस कृपण ने धर्म का ढोंग रचा है । धन-सम्पत्ति जाती रही, स्त्री-पुत्रों ने घर से निकाल दिया; तब इसने भीख माँगने का रोजगार लिया हैं ॥ ३८ ॥ ओहो ! देखो तो सही, यह मोटा-तगड़ा भिखारी धैर्य में बड़े भारी पर्वत के समान है । यह मौन रहकर अपना काम बनाना चाहता है । सचमुच यह बगुले से भी बढ़कर ढोंगी और दृढ़निश्चयी हैं ॥ ३१ ॥ कोई उस अवधूत की हँसी उड़ाता, तो कोई उस पर अधोवायु छोड़ता । जैसे लोग तोता-मैना आदि पालतू पक्षियों को बाँध लेते या पिंजड़े में बंद कर लेते हैं, वैसे ही उसे भी वे लोग बाँध देते और घरों में बंद कर देते ॥ ४० ॥ किन्तु वह सब कुछ चुपचाप सह लेता । उसे कभी ज्वर आदि के कारण दैहिक पीड़ा सहनी पड़ती, कभी गरमी-सर्दी आदि से दैवीं कष्ट उठाना पड़ता और कभी दुर्जन लोग अपमान आदि के द्वारा उसे भौतिक पीड़ा पहुँचाते; परन्तु भिक्षुक के मन में इससे कोई विकार न होता । वह समझता कि यह सब मेरे पूर्वजन्म के कर्मों का फल है और इसे मुझे अवश्य भोगना पड़ेगा ॥ ४१ ॥ यद्यपि नौच मनुष्य तरह-तरह के तिरस्कार करके उसे उसके धर्म से गिराने की चेष्टा किया करते, फिर भी वह बड़ी दृढ़ता से अपने धर्म में स्थिर रहता और सात्त्विक धेर्य का आश्रय लेकर कभी-कभी ऐसे उद्गार प्रकट किया करता ॥ ४२ ॥

ब्राह्मण कहता — मेरे सुख अथवा दुःख का कारण न ये मनुष्य हैं, न देवता हैं, न शरीर है और न ग्रह, कर्म एवं काल आदि ही हैं । श्रुतियाँ और महात्माजन मन को ही इसका परम कारण बताते हैं और मन ही इस सारे संसारचक्र को चला रहा है ॥ ४३ ॥ सचमुच यह मन बहुत बलवान् है । इसीने विषयों, उनके कारण गुणों और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली वृत्तियों की सृष्टि की हैं । उन वृत्तियों के अनुसार ही सात्त्विक, राजस और तामस — अनेक प्रकार के कर्म होते है और कर्मों के अनुसार ही जीव की विविध गतियाँ होती हैं ॥ ४४ ॥ मन ही समस्त चेष्टाएँ करता है । उसके साथ रहने पर भी आत्मा निष्क्रिय ही हैं । वह ज्ञानशक्तिप्रधान है, मुझ जीव का सनातन सखा है और अपने अलुप्त ज्ञान से सब कुछ देखता रहता है । मन के द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति होती हैं । जब वह मन को स्वीकार करके उसके द्वारा विषयों का भोक्ता बन बैंठता है, तब कर्मों के साथ आसक्ति होने के कारण वह उनसे बँध जाता है ॥ ४५ ॥

दान, अपने धर्म पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत — इन सबका अन्तिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाय, भगवान् में लग जाय । मन का समाहित हो जाना ही परम योग है ॥ ४६ ॥ जिसका मन शान्त और समाहित है, उसे दान आदि समस्त सत्कर्मों का फल प्राप्त हो चुका है । अब उनसे कुछ लेना बाकी नहीं है । और जिसका मन चञ्चल है अथवा आलस्य से अभिभूत हो रहा हैं, उसको इन दानादि शुभकर्मों से अब तक कोई लाभ नहीं हुआ ॥ ४७ ॥ सभी इन्द्रियाँ मन के वश में हैं । मन किसी भी इन्द्रिय के वश में नहीं है । यह मन बलवान् से भी बलवान्, अत्यन्त भयङ्कर देव है । जो इसको अपने वश में कर लेता है, वही देव-देव-इन्द्रियों का विजेता है ॥ ४८ ॥ सचमुच मन बहुत बड़ा शत्रु है । इसका आक्रमण असह्य है । यह बाहरी शरीर को ही नहीं, हृदयादि मर्मस्थानों को भी बेधता रहता है । इसे जीतना बहुत ही कठिन है । मनुष्यों को चाहिये कि सबसे पहले इसी शत्रु पर विजय प्राप्त करे; परन्तु होता है यह कि मूर्ख लोग इसे तो जीतने का प्रयत्न करते नहीं, दूसरे मनुष्यों से झूठ-मूठ झगड़ा-बखेड़ा करते रहते हैं और इस जगत् के लोगों को ही मित्र-शत्रु-उदासीन बना लेते हैं ॥ ४९ ॥ साधारणतः मनुष्यों की बुद्धि अंधी हो रहीं हैं । तभी तो वे इस मनःकल्पित शरीर को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान बैठते हैं और फिर इस भ्रम के फंदे में फँस जाते हैं कि यह मैं हूँ और यह दूसरा ।’ इसका परिणाम यह होता है कि वे इस अनन्त अज्ञानान्धकार में ही भटकते रहते हैं ॥ ५० ॥

यदि मान लें कि मनुष्य ही सुख-दुःख का कारण है, तो भी उनसे आत्मा का क्या सम्बन्ध ? क्योंकि सुख-दुःख पहुँचानेवाला भी मिट्टी का शरीर है और भोगनेवाला भी । कभी भोजन आदि के समय यदि अपने दाँतों से ही अपनी जीभ कट जाय और उससे पीड़ा होने लगे, तो मनुष्य किस पर क्रोध करेगा ? ॥ ५१ ॥ यदि ऐसा मान लें कि देवता ही दुःख के कारण है, तो भी इस दुःख से आत्मा की क्या हानि ? क्योंकि यदि टुःख के कारण देवता हैं, तो इन्द्रियाभिमानी देवताओं के रूप में उनके भोक्ता भी तो वे ही हैं । और देवता सभी शरीरों में एक हैं; जो देवता एक शरीर में हैं; वे ही दूसरे में भी हैं । ऐसी दशा में यदि अपने ही शरीर के किसी एक अङ्ग से दूसरे को चोट लग जाय तो भला, किस पर क्रोध किया जायगा ? ॥ ५२ ॥ यदि ऐसा मार्ने कि आत्मा ही सुख-दुःख का कारण हैं तो वह तो अपना आप ही हैं, कोई दूसरा नहीं; क्योंकि आत्मा से भिन्न कुछ और हैं ही नहीं । यदि दूसरा कुछ प्रतीत होता है, तो वह मिथ्या है । इसलिये न सुख है, न दुःख फिर क्रोध कैसा ? क्रोध का निमित्त ही क्या ? ॥ ५३ ॥ यदि ग्रहों को सुख-दुःख का निमित्त माने, तो उनसे भी अजन्मा आत्मा की क्या हानि ? उनका प्रभाव भी जन्म-मृत्युशील शरीर पर ही होता हैं । ग्रहों की पीड़ा तो उनका प्रभाव ग्रहण करनेवाले शरीर को ही होती है और आत्मा उन ग्रहों और शरीरों से सर्वथा परे है । तब भला वह किस पर क्रोध करे ? ॥ ५४ ॥

यदि कर्मों को ही सुख-दुःख का कारण मानें तो उनसे आत्मा का क्या प्रयोजन ? क्योंकि वे तो एक पदार्थ के जड़ और चेतन-उभयरूप होने पर ही हो सकते हैं ।(जो वस्तु विकारयुक्त और अपना हिताहित जाननेवाली होती हैं, उससे कर्म हो सकते हैं; अतः वह विकारयुक्त होने के कारण जड होनी चाहिये और हिताहित का ज्ञान रखने के कारण चेतन ।) किन्तु देह तो अचेतन हैं और उसमें पक्षीरूप से रहनेवाला आत्मा सर्वथा निर्विकार और साक्षीमात्र है । इस प्रकार कर्मों का तो कोई आधार ही सिद्ध नहीं होता । फिर क्रोध किसपर करें ? ॥ ५५ ॥ यदि ऐसा माने कि काल ही सुख-दुःख का कारण है, तो आत्मा पर उसका क्या प्रभाव ? क्योंकि काल तो आत्मस्वरूप ही हैं । जैसे आग आग को नहीं जला सकती और बर्फ बर्फ को नहीं गला सकता, वैसे ही आत्मस्वरूप काल अपने आत्मा को ही सुख-दुःख नहीं पहुँचा सकता । फिर किस पर क्रोध किया जाय ? आत्मा शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि द्वन्द्व को सर्वथा अतीत है ॥ ५६ ॥ आत्मा प्रकृति के स्वरूप, धर्म, क्रार्य, लेश, सम्बन्ध और गन्ध से भी रहित है । उसे कभी कहीं किसके द्वारा किसी भी प्रकार से द्वन्द्व का स्पर्श ही नहीं होता । वह तो जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकनेवाले अहङ्कार को ही होता हैं । जो इस बात को जान लेता हैं, वह फिर किसी भी भय के निमित्त से भयभीत नहीं होता ॥ ५७ ॥ बड़े-बड़े प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इस परमात्मनिष्ठा का आश्रय ग्रहण किया है । मैं भी इसका आश्रय ग्रहण करूँगा और मुक्ति तथा प्रेम के दाता भगवान् के चरणकमलों की सेवा के द्वारा हीं इस दुरन्त अज्ञान-सागर को अनायास ही पार कर लूँगा ॥ ५८ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — उद्धवजी ! उस ब्राह्मण का धन क्या नष्ट हुआ, उसका सारा क्लेश हीं दूर हो गया । अब वह संसार से विरक्त हो गया था और संन्यास लेकर पृथ्वी में स्वच्छन्द विचर रहा था । यद्यपि दुष्टों ने उसे बहुत सताया, फिर भी वह अपने धर्म में अटल रहा, तनिक भी विचलित न हुआ । उस समय वह मौनी अवधूत मन-ही-मन इस प्रकार का गीत गाया करता था ॥ ५९ ॥ उद्धवजी ! इस संसार में मनुष्य को कोई दूसरा सुख या दुःख नहीं देता, यह तो उसके चित्त का भ्रममात्र है । यह सारा संसार और इसके भीतर मित्र, उदासीन और शत्रु के भेद अज्ञानकल्पित हैं ॥ ६० ॥ इसलिये प्यारे उद्धव ! अपनी वृत्तियों को मुझमें तन्मय कर दो और इस प्रकार अपनी सारी शक्ति लगाकर मन को वश में कर लो और फिर मुझमें ही नित्ययुक्त होकर स्थित हो जाओ । बस, सारे योगसाधन का इतना ही सार-संग्रह है ॥ ६१ ॥ यह भिक्षुक गीत क्या है, मूर्तिमान् ब्रह्मज्ञान-निष्ठा ही है । जो पुरुष एकाग्रचित्त से इसे सुनता, सुनाता और धारण करता है, वह कभी सुख-दुःखादि द्वन्द्वों के वश में नहीं होता । उनके बीच में भी वह सिंह समान दहाड़ता रहता है ॥ ६२ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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