May 9, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय २४ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय चौबीसवाँ अध्याय सांख्ययोग भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — प्यारे उद्धव ! अब मैं तुम्हें सांख्यशास्त्र का निर्णय सुनाता हूँ । प्रचीन काल के बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने इसका निश्चय किया है । जब जीव इसे भलीभाँति समझ लेता है, तो वह भेदबुद्धिमूलक सुख-दुःखादिरूप भ्रम का तत्काल त्याग कर देता हैं ॥ १ ॥ युगों से पूर्व प्रलयकाल में आदिसत्ययुग में और जब कभी मनुष्य विवेकनिपुण होते हैं इन सभी अवस्थाओं में यह सम्पूर्ण दृश्य और द्रष्टा, जगत् और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकार के भेदभाव से रहित केवल ब्रह्म ही होते हैं ॥ २ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्म में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है, वह केवल-अद्वितीय सत्य हैं; मन और वाणी को उसमें गति नहीं है । वह ब्रह्म ही माया और उसमें प्रतिबिम्बित जीव के रूप में — दृश्य और द्रष्टा के रूप में दो भागों में विभक्त-सा हो गया ॥ ३ ॥ उनमें से एक वस्तु को प्रकृति कहते हैं । उसने जगत् में कार्य और कारण का रूप धारण किया है । दूसरी वस्तु को, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरुष कहते हैं ॥ ४ ॥ उद्धवजी ! मैंने ही जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृति को क्षुब्ध किया । तब उससे सत्त्व, रज और तम — ये तीन गुण प्रकट हुए ॥ ५ ॥ उनसे क्रिया-शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञानशक्तिप्रधान महत्तत्त्व प्रकट हुए । वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं । महत्तत्त्व में विकार होने पर अहङ्कार व्यक्त हुआ । यह अहङ्कार ही जीवों को मोह में डालनेवाला हैं ॥ ६ ॥ वह तीन प्रकार का है — सात्त्विक, राजस और तामस । अहङ्कार पञ्चतन्मात्रा, इन्द्रिय और मन का कारण है; इसलिये वह जड़-चेतन — उभयात्मक है ॥ ७ ॥ तामस अहङ्कार से पञ्चतन्मात्राएँ और उनसे पाँच भूतों की उत्पत्ति हुई तथा राजस अहङ्कार से इन्द्रियाँ और सात्त्विक अहङ्कार से इन्द्रियों के अधिष्ठाता ग्यारह देवता प्रकट हुए ॥ ८ ॥ ये सभी पदार्थ मेरी प्रेरणा से एकत्र होकर परस्पर मिल गये और इन्होंने यह ब्रह्माण्डरूप अण्ड उत्पन्न किया । यह अण्ड मेरा उत्तम निवासस्थान है ॥ ९ ॥ जब वह अण्ड जल में स्थित हो गया, तब मैं नारायणरूप से इसमें विराजमान हो गया । मेरी नाभि से विश्वकमल की उत्पत्ति हुई । उसी पर ब्रह्मा का आविर्भाव हुआ ॥ १० ॥ विश्वसमष्टि के अन्तःकरण ब्रह्मा ने पहले बहुत बड़ी तपस्या की । उसके बाद मेरा कृपा-प्रसाद प्राप्त करके रजोगुण के द्वारा भूः, भुवः स्वः अर्थात् पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग — इन तीन लोकों की और इनके लोकपालों की रचना की ॥ ११ ॥ देवताओं के निवास के लिये स्वलोक, भूत-प्रेतादि के लिये भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और मनुष्य आदि के लिये भूलक (पृथ्वीलोक) का निश्चय किया गया । इन तीनों लोकों से ऊपर महर्लोक, तपलोक आदि सिद्धों के निवासस्थान हुए ॥ १२ ॥ सृष्टिकार्य में समर्थ ब्रह्माजी ने असुर और नाग के लिये पृथ्वी के नीचे अतल, वितल, सुतल आदि सात पाताल बनाये । इन्हीं तीनों लोकों में त्रिगुणात्मक कर्मों के अनुसार विविध गतियाँ प्राप्त होती हैं ॥ १३ ॥ योग, तपस्या और संन्यास के द्वारा महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोकरूप उत्तम गति प्राप्त होती है तथा भक्तियोग से मेरा परम धाम मिलता है ॥ १४ ॥ यह सारा जगत् कर्म और उनके संस्कारों से युक्त है । मैं ही कालरूप से कर्मों के अनुसार उनके फल का विधान करता हूँ । इस गुणप्रवाह में पड़कर जीव कभी डूब जाता है और कभी ऊपर आ जाता है — कभी उसकी अधोगति होती है और कभी उसे पुण्यगति — उच्चगति प्राप्त हो जाती हैं ॥ १५ ॥ जगत् में छोटे-बड़े मोटे-पतले — जितने भी पदार्थ बनते हैं, सब प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से ही सिद्ध होते हैं ॥ १६ ॥ जिसके आदि और अन्त में जो है, वहीं बीच में भी है और वहीं सत्य है । विकार तो केवल व्यवहार के लिये की हुई कल्पनामात्र हैं । जैसे कंगन-कुण्डल आदि सोने के विकार और घड़े-कोरे आदि मिट्टी के विकार पहले सोना या मिट्टी ही थे, बाद में भी सोना या मिट्टी ही रहेंगे । अतः बीच में भी वे सोना या मिट्टी ही हैं । पूर्ववत कारण (महत्तत्त्व आदि) भी जिस परम कारण को उपादान बनाकर अपर (अहंकार आदि) कार्य-वर्ग की सृष्टि करते हैं, वहीं उनकी अपेक्षा भी परम सत्य हैं । तात्पर्य यह कि जब जो जिस किसी भी कार्य के आदि और अन्त में विद्यमान रहता है, वही सत्य हैं ॥ १७-१८ ॥ इस प्रपञ्च का उपादान-कारण प्रकृति है, परमात्मा अधिष्ठान है और इसको प्रकट करनेवाला काल हैं । व्यवहार-काल की यह त्रिविधता वस्तुतः ब्रह्म-स्वरूप है और में वही शुद्ध ब्रह्म हूँ ॥ ११ ॥ जब तक परमात्मा की ईक्षणशक्ति अपना काम करती रहती है, जबतक उनको पालन-प्रवृत्ति बनी रहती है, तबतक जीवों के कर्मभोग के लिये कारणकार्यरूप से अथवा पिता-पुत्रादि के रूप से यह सृष्टिचक्र निरन्तर चलता रहता है ॥ २० ॥ यह विराट् ही विविध लोकों की सृष्टि, स्थिति और संहार की लीलाभूमि है । जब मैं कालरूप से इसमें व्याप्त होता हूँ, प्रलय का संकल्प करता हूँ, तब यह भुवन के साथ विनाशरूप विभाग के योग्य हो जाता है ॥ २१ ॥ उसके लीन होने की प्रक्रिया यह है कि प्राणियों के शरीर अन्न में, अन्न बीज में, बीज भूमि में और भूमि गन्ध-तन्मात्रा में लीन हो जाती है ॥ २२ ॥ गन्ध जल में, जल अपने गुण रस में , रस तेज में और तेज रूप में लीन हो जाता है ॥ २३ ॥ रूप वायु में, वायु स्पर्श में, स्पर्श आकाश में तथा आकाश शब्दतन्मात्रा में लीन हो जाता हैं । इन्द्रियाँ अपने कारण देवताओं में और अन्ततः राजस अहङ्कार में समा जाती हैं ॥ २४ ॥ हे सौम्य ! राजस अहङ्कार अपने नियन्त्ता सात्त्विक अहङ्कनररूप मन में, शब्दतन्मात्रा पञ्चभूतों के कारण तामस अहङ्कार में और सारे जगत् को मोहित करने में समर्थ त्रिविध अहङ्कार महत्त्व में लीन हो जाता है ॥ २५ ॥ ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्तिप्रधान महत्तत्व अपने कारण गुणों में लीन हो जाता है । गुण अव्यक्त प्रकृति में और प्रकृति अपने प्रेरक अविनाशी काल में लीन हो जाती है ॥ २६ ॥ काल मायामय जीव में और जीव मुझ अजन्मा आत्मा में लीन हो जाता है । आत्मा किसी में लीन नहीं होता, वह उपाधिरहित अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है । वह जगत् की सृष्टि और लय का अधिष्ठान एवं अवधि हैं ॥ २७ ॥ उद्धवजी ! जो इस प्रकार विवेकदृष्टि से देखता है, उसके चित्त में यह प्रपञ्च का भ्रम हो ही नहीं सकता। यदि कदाचित् उसकी स्फूर्ति हो भी जाय, तो वह अधिक काल तक हृदय में ठहर कैसे सकता है ? क्या सूर्योदय होने पर भी आकाश में अन्धकार ठहर सकता है ॥ २८ ॥ उद्धवजी ! मैं कार्य और कारण दोनों का ही साक्षी हूँ । मैंने तुम्हें सृष्टि से प्रलय और प्रलय से सृष्टि तक की सांख्यविधि बतला दी । इससे सन्देह की गाँठ कट जाती हैं और पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो जाता हैं ॥ २९ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related