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श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय २५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
पचीसवाँ अध्याय
तीनों गुणों की वृत्तियों का निरूपण

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — पुरुषप्रवर उद्धवजी ! प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग गुणों का प्रकाश होता है । उनके कारण प्राणियों के स्वभाव में भी भेद हो जाता है । अब में बतलाता हूँ कि किस गुण से कैसा कैसा स्वभाव बनता है । तुम सावधानी से सुनो ॥ १ ॥ सत्वगुण की वृत्तियाँ हैं — शम (मनःसंयम), दम (इन्द्रियनिग्रह), तितिक्षा (सहिष्णुता), विवेक, तप, सत्य, दया, स्मृति, सन्तोष, त्याग, विषयों के प्रति अनिच्छा, श्रद्धा, लजा (पाप करने में स्वाभाविक सङ्कोच), आत्मरति, दान, विनय और सरलता आदि ॥ २ ॥ रजोगुण की वृत्तियाँ हैं — इच्छा, प्रयत्न, घमंड, तृष्णा (असन्तोष), ऐंठ या अकड़, देवताओं से धन आदि की याचना, भेद-बुद्धि, विषयभोग, युद्धादि के लिये मदजनित उत्साह, अपने यश में प्रेम, हास्य, पराक्रम और हठपूर्वक उद्योग करना आदि ॥ ३ ॥ तमोगुण की वृत्तियाँ हैं — क्रोध (असहिष्णुता), लोभ, मिथ्याभाषण, हिंसा, याचना, पाखण्ड, श्रम, कलह, शोक, मोह, विषाद, दीनता, निद्रा, आशा, भय और अकर्मण्यता आदि ॥ ४ ॥ इस प्रकार क्रम से सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की अधिकांश वृत्तियों का पृथक्-पृथक् वर्णन किया गया । अब उनके मेल से होनेवाली वृत्तियों का वर्णन सुनो ॥ ५ ॥

उद्धवजी ! ‘मैं हूँ और यह मेरा हैं’ इस प्रकार की बुद्धि में तीनों गुणों का मिश्रण हैं । जिन मन, शब्दादि विषय, इन्द्रिय और प्राणों के कारण पूर्वोक्त वृत्तियों का उदय होता हैं, वे सब-के-सब सात्विक, राजस और तामस हैं ॥ ६ ॥ जब मनुष्य धर्म, अर्थ और काम में संलग्न रहता है, तब उसे सत्त्वगुण से श्रद्धा, रजोगुण से रति और तमोगुण से धन की प्राप्ति होती हैं । यह भी गुणों का मिश्रण ही है ॥ ७ ॥ जिस समय मनुष्य सकाम कर्म, गृहस्थाश्रम और स्वधर्माचरण में अधिक प्रीति रखता है, उस समय भी उसमें तीनों गुणों का मेल ही समझना चाहिये ॥ ८ ॥

मानसिक शान्ति और जितेन्द्रियता आदि गुणों से सत्त्वगुणी पुरुष की, कामना आदि से रजोगुणी पुरुष की और क्रोध-हिंसा आदि से तमोगुणी पुरुष की पहचान करे ॥ ९ ॥ पुरुष हो, चाहे स्त्री-जब वह निष्काम होकर अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मों द्वारा मेरी आराधना करे, तब उसे सत्त्वगुणी जानना चाहिये ॥ १० ॥ सकामभाव से अपने कर्मों के द्वारा मेरा भजन-पूजन करनेवाला रजोगुणी है और जो अपने शत्रु को मृत्यु आदि के लिये मेरा भजन-पूजन करे, उसे तमोगुणी समझना चाहिये ॥ ११ ॥ सत्त्व, रज और तम — इन तीनों गुणों का कारण जीव का चित है । उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है । इन्हीं गुणों के द्वारा जीव शरीर अथवा धन आदि में आसक्त होकर बन्धन में पड़ जाता है ॥ १२ ॥ सत्त्वगुण — प्रकाशक, निर्मल और शान्त है । जिस समय वह रजोगुण और तमोगुण को दबाकर बढ़ता है, उस समय पुरुष सुख, धर्म और ज्ञान आदि का भाजन हो जाता है ॥ १३ ॥ रजोगुण भेद-बुद्धि का कारण है । उसका स्वभाव हैं — आसक्ति और प्रवृत्ति । जिस समय तमोगुण और सत्त्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है, उस समय मनुष्य दुःख, कर्म, यश और लक्ष्मी से सम्पन्न होता है ॥ १४ ॥ तमोगुण का स्वरूप है — अज्ञान । उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धि की मूढ़ता । जब वह बढ़कर सत्त्वगुण और रजोगुण को दबा लेता है, तब प्राणी तरह-तरह की आशाएँ करता है, शोक-मोह में पड़ जाता है, हिंसा करने लगता है अथवा निद्रा-आलस्य के वशीभूत होकर पड़ रहता है ॥ १५ ॥

जब चित्त प्रसन्न हो, इन्द्रियाँ शान्त हो, देह निर्भय हो और मन में आसक्ति न हो, तब सत्त्वगुण की वृद्धि समझनी चाहिये । सत्त्वगुण मेरी प्राप्ति का साधन है ॥ १६ ॥ जब काम करते-करते जीव की बुद्धि चञ्चल, ज्ञानेन्द्रियाँ असन्तुष्ट, कर्मेंद्रियाँ विकारयुक्त, मन भ्रान्त और शरीर अस्वस्थ हो जाय, तब समझना चाहिये कि रजोगुण जोर पकड़ रहा है ॥ १७ ॥ जब चित्त ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा शब्दादि विषयों को ठीक-ठीक समझने में असमर्थ हो जाय और खिन्न होकर लीन होने लगे, मन सूना-सा हो जाय तथा अज्ञान और विषाद की वृद्धि हो, तब समझना चाहिये कि तमोगुण वृद्धि पर है ॥ १८ ॥

उद्धवजी ! सत्वगुण के बढ़ने पर देवताओं का, रजोगुण के बढ़ने पर असुरों का और तमोगुण के बढ़ने पर राक्षसों का बल बढ़ जाता है । (वृत्तियों में भी क्रमशः सत्त्वादि गुणों की अधिकता होने पर देवत्व, असुरत्व और राक्षसत्वप्रधान निवृत्ति, प्रवृत्ति अथवा मोह की प्रधानता हो जाती हैं) ॥ १९ ॥ सत्त्वगुण से जाग्रत्-अवस्था, रजोगुण से स्वप्नावस्था और तमोगुण से सुषुप्ति-अवस्था होती है । तुरीय इन तीनों में एक-सा व्याप्त रहता है । वहीं शुद्ध और एकरस आत्मा है ॥ २० ॥ वैदों के अभ्यास में तत्पर ब्राह्मण सत्त्वगुण के द्वारा उत्तरोत्तर ऊपर के लोकों में जाते हैं । तमोगुण से जीवों को वृक्षादिपर्यन्त अधोगति प्राप्त होती है और रजोगुण से मनुष्य शरीर मिलता है ॥ २१ ॥ जिसकी मृत्यु सत्त्वगुणों की वृद्धि के समय होती है, उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है, जिसकी रजोगुण की वृद्धि के समय होती है, उसे मनुष्यलोक मिलता हैं और जो तमोगुण की वृद्धि के समय मरता है, उसे नरक की प्राप्ति होती है । परन्तु जो पुरुष त्रिगुणातीत–जीवन्मुक्त हो गये हैं, उन्हें मेरी ही प्राप्ति होती है ॥ २२ ॥ जब अपने धर्म का आचरण मुझे समर्पित करके अथवा निष्कामभाव से किया जाता है, तब वह सात्त्विक होता है । जिस कर्म के अनुष्ठान में किसी फल की कामना रहती हैं, वह राजसिक होता है और जिस कर्म में किसी को सताने अथवा दिखाने आदि का भाव रहता है, वह तामसिक होता है ॥ २३ ॥

शुद्ध आत्मा का ज्ञान सात्त्विक हैं । उसको कर्ता-भोक्ता समझना राजस ज्ञान है और उसे शरीर समझना तो सर्वथा तामसिक है । इन तीनों से विलक्षण — मेरे स्वरूप का वास्तविक ज्ञान निर्गुण ज्ञान है ॥ २४ ॥ वन में रहना सात्त्विक निवास हैं, गाँव में रहना राजस हैं और जुआघर में रहना तामसिक हैं । इन सबसे बढ़कर मेरे मन्दिर में रहना निर्गुण निवास है ॥ २५ ॥ अनासक्तभाव से कर्म करनेवाला सात्त्विक हैं, रागान्ध होकर कर्म करनेवाला राजसिक है और पूर्वापरविचार से रहित होकर करनेवाला तामसिक हैं । इनके अतिरिक्त जो पुरुष केवल मेरी शरण में रहकर बिना अहङ्कार के कर्म करता हैं, वह निर्गुण कर्ता हैं ॥ २६ ॥ आत्मज्ञानविषयक श्रद्धा सात्त्विक श्रद्धा है, कर्मविषयक श्रद्धा राजस हैं और जो श्रद्धा अधर्म में होती है, वह तामस हैं तथा मेरी सेवा में जो श्रद्धा है, वह निर्गुण श्रद्धा है ॥ २७ ॥ आरोग्यदायक, पवित्र और अनायास प्राप्त भोजन सात्त्विक है । रसनेन्द्रिय को रुचिकर और स्वाद की दृष्टि से युक्त आहार राजस है तथा दुःखदायी और अपवित्र आहार तामस हैं ॥ २८ ॥ अन्तर्मुखता से-आत्मचिन्तन से प्राप्त होनेवाला सुख सात्त्विक है । बहिर्मुखता से—विषयों से प्राप्त होनेवाला राजस है तथा अज्ञान और दीनता से प्राप्त होनेवाला सुख तामस है और जो सुख मुझसे मिलता है, वह तो गुणातीत और अप्राकृत है ॥ २९ ॥

उद्धवजी ! द्रव्य (वस्तु), देश (स्थान), फल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्ता, श्रद्धा, अवस्था, देव-मनुष्यतिर्यगादि शरीर और निष्ठा — सभी त्रिगुणात्मक हैं ॥ ३० ॥ नररत्न ! पुरुष और प्रकृति के आश्रित जितने भी भाव हैं, सभी गुणमय हैं — वे चाहे नेत्रादि इन्द्रियों से अनुभव किये हुए हों, शास्त्रों के द्वारा लोक-लोकान्तरों के सम्बन्ध में सुने गये हों अथवा बुद्धि के द्वारा सोचे-विचारे गये हों ॥ ३१ ॥ जीव की जितनी भी योनियाँ अथवा गतियाँ प्राप्त होती हैं, वे सब उनके गुणों और कर्मों के अनुसार ही होती हैं । हे सौम्य ! सब-के-सब गुण चित्त से ही सम्बन्ध रखते हैं (इसलिये जीव उन्हें अनायास ही जीत सकता हैं)। जो जीव उनपर विजय प्राप्त कर लेता है, वह भक्तियोग के द्वारा मुझमें ही परिनिष्ठित हो जाता है और अन्ततः मेरा वास्तविक स्वरूप, जिसे मोक्ष भी कहते हैं, प्राप्त कर लेता है ॥ ३२ ॥ यह मनुष्यशरीर बहुत ही दुर्लभ है । इसी शरीर में तत्त्वज्ञान और उसमें निष्ठारूप विज्ञान की प्राप्ति सम्भव है; इसलिये इसे पाकर बुद्धिमान् पुरुषों को गुणों की आसक्ति हटाकर मेरा भजन करना चाहिये ॥ ३३ ॥ विचारशील पुरुष को चाहिये कि बड़ी सावधानी से सत्त्वगुण के सेवन से रजोगुण और तमोगुण को जीत ले, इन्द्रियों को वश में कर ले और मेरे स्वरूप को समझकर मेरे भजन में लग जाय । आसक्ति का लेशमात्र भी न रहने दे ॥ ३४ ॥ योगयुक्ति से चित्तवृत्तियों को शान्त करके निरपेक्षता के द्वारा सत्त्वगुण पर भी विजय प्राप्त कर ले । इस प्रकार गुणों से मुक्त होकर जीव अपने जीवभाव को छोड़ देता है और मुझसे एक हो जाता है ॥ ३५ ॥ जीव लिङ्गशरीररूप अपनी उपाधि जीवत्व से तथा अन्तःकरण में उदय होनेवाली सत्त्वादि गुणों की वृत्तियों से मुक्त होकर मुझ ब्रह्म की अनुभूति से एकत्व दर्शन से पूर्ण हो जाता है और वह फिर बाह्य अथवा आन्तरिक किसी भी विषय में नहीं जाता ॥ ३६ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे पञ्चविंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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