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श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय २६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
छब्बीसवाँ अध्याय
पुरूरवा की वैराग्योक्ति

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — उद्धवजी ! यह मनुष्य शरीर मेरे स्वरूपज्ञान की प्राप्ति का — मेरी प्राप्ति का मुख्य साधन है । इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेम से मेरी भक्ति करता है, वह अतःकरण में स्थित मुझ आनन्दस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ॥ १ ॥ जीवों की सभी योनियाँ, सभी गतियाँ त्रिगुणमयीं हैं । जीव ज्ञान-निष्ठा के द्वारा उनसे सदा के लिये मुक्त हो जाता है । सत्त्व-रज आदि गुण जो दीख रहे हैं, वे वास्तविक नहीं हैं, मायामात्र हैं । ज्ञान हो जाने के बाद पुरुष उनके बीच में रहने पर भी उनके द्वारा व्यवहार करने पर भी उनसे बँधता नहीं । इसका कारण यह है कि उन गुणों की वास्तविक सत्ता ही नहीं है ॥ २ ॥ साधारण लोगों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जो लोग विषयों के सेवन और उदर-पोषण में ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुष का सङ्ग कभी न करें, क्योंकि उनका अनुगमन करनेवाले पुरुष की वैसी ही दुर्दशा होती है, जैसे अंधे के सहारे चलनेवाले अंधे की । उसे तो घोर अन्धकार में ही भटकना पड़ता हैं ॥ ३ ॥ उद्धवजी ! पहले तो परम यशस्वी सम्राट् इलानन्दन पुरूरवा उर्वशी के विरह से अत्यन्त बेसुध हो गया था । पीछे शोक हट जाने पर उसे बड़ा वैराग्य हुआ और तब उसने यह गाथा गायी ॥ ४ ॥

राजा पुरूरवा नग्न होकर पागल की भाँति अपने को छोड़कर भागती हुई उर्वशी के पीछे अत्यन्त विह्वल होकर दौड़ने लगा और कहने लगा — ‘देवि ! निष्ठुर हृदये ! थोड़ी देर ठहर जा, भाग मत’ ॥ ५ ॥ उर्वशी ने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था । उन्हें तृप्ति नहीं हुई थी । वे क्षुद्र विषयों के सेवन में इतने डूब गये थे कि उन्हें वर्षों की रात्रियाँ न जाती मालूम पड़ीं और न तो आती ॥ ६ ॥

पुरूरवा ने कहा — हाय-हाय ! भला, मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासना ने मेरे चित्त को कितना कलुषित कर दिया ! उर्वशी ने अपनी बाहुओं से मेरा ऐसा गला पकड़ा कि मैंने आयु के न जाने कितने वर्ष खो दिये । ओह ! विस्मृति की भी एक सीमा होती है ॥ ७ ॥ हाय-हाय ! इसने मुझे लूट लिया । सूर्य अस्त हो गया या उदित हुआ — यह भी मैं न जान सका । बड़े खेद की बात है कि बहुत-से वर्षों के दिन-पर-दिन बीतते गये और मुझे मालूम तक न पड़ा ॥ ८ ॥ अहो ! आश्चर्य है ! मेरे मन में इतना मोह बढ़ गया, जिसने नरदेव-शिखामणि चक्रवर्ती सम्राट् मुझ पुरूरवा को भी स्त्रियों का क्रीडामृग (खिलौना) बना दिया ॥ ९ ॥ देखो, मैं प्रजा को मर्यादा में रखनेवाला सम्राट् हूँ । वह मुझे और मेरे राजपाट को तिनके की तरह छोड़कर जाने लगी और मैं पागल होकर नंग-धडंग रोता-बिलखता उस स्त्री के पीछे दौड़ पड़ा । हाय ! हाय ! यह भी कोई जीवन है ॥ १० ॥ मैं गधे की तरह दुलत्तियाँ सहकर भी स्त्री के पीछे-पीछे दौड़ता रहा; फिर मुझमें प्रभाव, तेज और स्वामित्व भला कैसे रह सकता है ॥ ११ ॥ स्त्री ने जिसका मन चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है । उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं और इसमें सन्देह नहीं कि उसका एकान्तसेवन और मौन भी निष्फल है ॥ १२ ॥ मुझे अपने ही हानि-लाभ का पता नहीं, फिर भी अपने को बहुत बड़ा पण्डित मानता हूँ । मुझ मूर्ख को धिक्कार है । हाय ! हाय ! मैं चक्रवर्ती सम्राट् होकर भी गधे और बैल की तरह स्त्री के फंदे में फँस गया ॥ १३ ॥

मैं वर्षों तक उर्वशी के होठों की मादक मदिरा पीता रहा, पर मेरी कामवासना तृप्त न हुई । सच है, कहीं आहुतियों से अग्नि की तृप्ति हुई है ?॥ १४ ॥ उस कुलटा ने मेरा चित्त चुरा लिया । आत्माराम जीवन्मुक्तों के स्वामी इन्द्रियातीत भगवान् को छोड़कर और ऐसा कौन है, जो मुझे उसके फंदे से निकाल सके ॥ १५ ॥ उर्वशी ने तो मुझे वैदिक सूक्त के वचनों द्वारा यथार्थ बात कहकर समझाया भी था; परन्तु मेरी बुद्धि ऐसी मारी गयी कि मेरे मन का वह भयङ्कर मोह तब भी मिटा नहीं । जब मेरी इन्द्रियाँ ही मेरे हाथ के बाहर हो गयीं, तब मैं समझता भी कैसे ॥ १६ ॥ जो रस्सी के स्वरूप को न जानकर उसमें सर्प की कल्पना कर रहा है और दुखी हो रहा है, रस्सी ने उसका क्या बिगाड़ा है । इसी प्रकार इस उर्वशी ने भी हमारा क्या बिगाड़ा ? क्योंकि स्वयं मैं ही अजितेन्द्रिय होने के कारण अपराधी हूँ ॥ १७ ॥ कहाँ तो यह मैला-कुचैला, दुर्गन्ध से भरा अपवित्र शरीर और कहाँ सुकुमारता, पवित्रता, सुगन्ध आदि पुष्पोचित गुण ! परन्तु मैंने अज्ञानवश असुन्दर में सुन्दर का आरोप कर लिया ॥ १८ ॥ यह शरीर माता-पिता का सर्वस्व है अथवा पतनी की सम्पति ? यह स्वामी की मोल ली हुई वस्तु हैं, आग का ईधन है अथवा कुत्ते और गधों का भोजन ? इसे अपना कहें अथवा सुहृद्-सम्बन्धियों का ? बहुत सोचने-विचारने पर भी कोई निश्चय नहीं होता ॥ १९ ॥

यह शरीर मल-मूत्र से भरा हुआ अत्यन्त अपवित्र हैं । इसका अन्त यही है कि पक्षी खाकर विष्ठा कर दें, इसके सड़ जाने पर इसमें कीड़े पड़ जायें अथवा जला देने पर यह राख का ढेर हो जाय । ऐसे शरीर पर लोग लट्टू हो जाते हैं और कहने लगते हैं — ‘अहो ! इस स्त्री का मुखड़ा कितना सुन्दर है । नाक कितनी सुघड़ हैं और मन्द-मन्द मुसकान कितनी मनोहर हैं ॥ २० ॥ यह शरीर त्वचा, मांस, रुधिर, स्नायु, मेदा, मज्जा और हड्डियों का ढेर और मल-मूत्र तथा पीब से भरा हुआ हैं । यदि मनुष्य इसमें रमता है, तो मल-मूत्र के कीड़ों में और उसमें अन्तर ही क्या हैं ॥ २१ ॥ इसलिये अपनी भलाई समझनेवाले विवेकी मनुष्य को चाहिये कि स्त्रियों और स्त्रीलम्पट पुरुष का सङ्ग न करे । विषय और इन्द्रियों के संयोग से ही मन में विकार होता है; अन्यथा विकार का कोई अवसर ही नहीं है ॥ २२ ॥ जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गयी है, इसके लिये मन में विकार नहीं होता । जो लोग विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपने-आप निश्चल होकर शान्त हो जाता हैं ॥ २३ ॥ अतः वाणी, कान और मन आदि इन्द्रियों से स्त्रियों और स्त्रीलम्पटों का सङ्ग कभी नहीं करना चाहिये । मेरे जैसे लोगों की तो बात ही क्या, बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी अपनी इन्द्रियाँ और मन विश्वसनीय नहीं हैं ॥ २४ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — उद्धवजी ! राजराजेश्वर पुरूरवा के मन में जब इस तरह के उद्गार उठने लगे, तब उसने उर्वशीलोक का परित्याग कर दिया । अब ज्ञानोदय होने के कारण उसका मोह जाता रहा और उसने अपने हृदय में ही आत्मस्वरूप से मेरा साक्षात्कार कर लिया और वह शान्तभाव में स्थित हो गया ॥ २५ ॥ इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि पुरूरवा की भाँति कुसङ्ग छोड़कर सत्पुरुषों का सङ्ग करे । संत पुरूष अपने सदुपदेशों से उसके मन की आसक्ति नष्ट कर देंगे ॥ २६ ॥ संत पुरुषों का लक्षण यह है कि उन्हें कभी किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं होती । उनका चित्त मुझमें लगा रहता हैं । उनके हृदय में शान्ति का अगाध समुद्र लहराता रहता है । सदा-सर्वदा सर्वत्र सबमें सब रूप से स्थित भगवान् का ही दर्शन करते हैं । उनमें अहङ्कार का लेश भी नहीं होता, फिर ममता की तो सम्भावना ही कहाँ है । वे सर्दी-गरमी, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में एकरस रहते हैं तथा बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक और पदार्थ-सम्बन्धी किसी प्रकार का भी परिग्रह नहीं रखते ॥ २७ ॥

परमभाग्यवान् उद्धवजी ! संतों के सौभाग्य की महिमा कौन कहे ? उनके पास सदा-सर्वदा मेरी लीला-कथाएँ हुआ करती हैं । मेरी कथाएँ मनुष्यों के लिये परम हितकर हैं; जो उनका सेवन करते हैं, उनके सारे पाप-ताप को वे धो डालती हैं ॥ २८ ॥ जो लोग आदर और श्रद्धा से मेरी लीला-कथाओं का श्रवण, गान और अनुमोदन करते हैं, मेरे परायण हो जाते हैं और मेरी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त कर लेते हैं ॥ २९ ॥ उद्धवजी ! मैं अनन्त अचिन्त्य कल्याणमय गुणगणोंका आश्रय हूँ । मेरा स्वरूप है — केवल आनन्द, केवल अनुभव, विशुद्ध आत्मा । मैं साक्षात् परब्रह्म हूँ । जिसे मेरी भक्ति मिल गयी, वह तो संत हो गया । अब उसे कुछ भी पाना शेष नहीं है ॥ ३० ॥ उनकी तो बात ही क्या — जिसने उन संत पुरुषों की शरण ग्रहण कर ली, उसकी भी कर्म-जडता, संसार-भय और अज्ञान आदि सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं । भला, जिसने अग्निभगवान् का आश्रय ले लिया उसे शीत, भय अथवा अन्धकार का दुःख हो सकता हैं ?॥ ३१ ॥ जो इस घोर संसार-सागर में डूब-उतरा रहे हैं, उनके लिये ब्रह्मवेत्ता और शान्त संत ही एकमात्र आश्रय हैं, जैसे जल में डूब रहे लोगों के लिये दृढ़ नौका ॥ ३२ ॥ जैसे अन्न से प्राणियों के प्राण की रक्षा होती हैं, जैसे मैं ही दीन-दुखियों का परम रक्षक हूँ, जैसे मनुष्य के लिये परलोक में धर्म ही एकमात्र पूँजी है — वैसे ही जो लोग संसार से भयभीत हैं, उनके लिये संतजन ही परम आश्रय हैं ॥ ३३ ॥ जैसे सूर्य आकाश में उदय होकर लोगों को जगत् तथा अपने को देखने के लिये नेत्रदान करता है, वैसे ही संत पुरुष अपने को तथा भगवान् को देखने के लिये अन्तर्दृष्टि देते हैं । संत अनुग्रहशील देवता हैं । संत अपने हितैषी सुहृद् हैं । संत अपने प्रियतम आत्मा हैं और अधिक क्या कहूँ, स्वयं मैं हीं संत के रूप में विद्यमान हूँ ॥ ३४ ॥ प्रिय उद्धव ! आत्मसाक्षात्कार होते ही इलानन्दन पुरूरवा को उर्वशी के लोक की स्पृहा न रही । उसकी सारी आसक्तियाँ मिट गयी और वह आत्माराम होकर स्वच्छन्दरूप से इस पृथ्वी पर विचरण करने लगा ॥ ३५ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे षड्विंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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