श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय २७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
सत्ताईसवाँ अध्याय
क्रियायोग का वर्णन

उद्धवजी ने पूछा — भक्तवत्सल श्रीकृष्ण ! जिस क्रियायोग का आश्रय ले जो भजन जिस प्रकार से जिस उद्देश्य से आपकी अर्चा-पूजा करते हैं, आप अपने उस आराधनरूप क्रियायोग का वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ देवर्षि नारद, भगवान् व्यासदेव और आचार्य बृहस्पति आदि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यह बात बार-बार कहते हैं कि क्रियायोग के द्वारा आपकी आराधना ही मनुष्यों के परम कल्याण की साधना है ॥ २ ॥ यह क्रियायोग पहले-पहल आपके मुखारविन्द से ही निकला था । आपसे ही ग्रहण करके इसे ब्रह्माजी ने अपने पुत्र भृगु आदि महर्षियों और भगवान् शङ्कर ने अपनी अद्भङ्गिनी भगवती पार्वतीजी को उपदेश किया था ॥ ३ ॥ मर्यादारक्षक प्रभो ! यह क्रियायोग ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि वर्गों और ब्रह्मचारी, गृहस्थ आदि आश्रमों के लिये भी परम कल्याणकारी है । मैं तो ऐसा समझता हूँ कि स्त्री—शूद्रादि के लिये भी यही सबसे श्रेष्ठ साधना-पद्धति हैं ॥ ४ ॥ कमलनयन श्यामसुन्दर ! आप शङ्कर आदि जगदीश्वरों के भी ईश्वर हैं और मैं आपके चरणों का प्रेमी भक्त हूँ । आप कृपा करके मुझे यह कर्मबन्धन से मुक्त करनेवाली विधि बतलाइये ॥ ५ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — उद्धवजी ! कर्मकाण्ड का इतना विस्तार हैं कि उसकी कोई सीमा नहीं हैं, इसलिये मैं उसे थोडे में ही पूर्वापर-क्रम से विधिपूर्वक वर्णन करता हूँ ॥ ६ ॥ मेरी पूजा की तीन विधियां हैं — वैदिक, तान्त्रिक और मिश्रित । इन तीनों में से मेरे भक्त को जो भी अपने अनुकूल जान पड़े, उसी विधि से मेरी आराधना करनी चाहिये ॥ ७ ॥ पहले अपने अधिकारानुसार शास्त्रोक्त विधि से समय पर यज्ञोपवीत-संस्कार के द्वारा संस्कृत होकर द्विजत्व प्राप्त करे, फिर श्रद्धा और भक्ति के साथ वह किस प्रकार मेरी पूजा करे, इसकी विधि तुम मुझसे सुनो ॥ ८ ॥ भक्तिपूर्वक निष्कपट भाव से अपने पिता एवं गुरुरूप मुझ परमात्मा का पूजा की सामग्रियों द्वारा मूर्ति में, वेदी में, अग्नि में, सूर्य में, जल में, हदय में अथवा ब्राह्मणों में — चाहे किसी में भी आराधना करे ॥ ९ ॥ उपासक को चाहिये कि प्रातःकाल दतुअन करके पहले शरीर-शुद्धि के लिये स्नान करे और फिर वैदिक और तान्त्रिक दोनों प्रकार के मन्त्रों से मिट्टी और भस्म आदि का लेप करके पुनः स्नान करे ॥ १० ॥ इसके पश्चात् वेदोक्त सन्ध्या-वन्दनादि नित्यकर्म करने चाहिये । उसके बाद मेरी आराधना का ही सुदृढ़ सङ्कल्प करके वैदिक और तान्त्रिक विधियों से कर्मबन्धनों से छुड़ानेवाली मेरी पूजा करे ॥ ११ ॥

मेरी मूर्ति आठ प्रकार की होती है — पत्थर की, लकड़ी की, धातु की , मिट्टी और चन्दन आदि की, चित्रमयी, बालुकामयी, मनोमयी और मणिमयी ॥ १२ ॥ चल और अचल भेद से दो प्रकार की प्रतिमा ही मुझ भगवान् का मन्दिर हैं । उद्धवजी ! अचल प्रतिमा के पूजन में प्रतिदिन आवाहन और विसर्जन नहीं करना चाहिये ॥ १३ ॥ चल प्रतिमा के सम्बन्ध में विकल्प है । चाहे करे और चाहे न करे । परन्तु बालुकामयी प्रतिमा में तो आवाहन और विसर्जन प्रतिदिन करना ही चाहिये । मिट्टी और चन्दन की तथा चित्रमयी प्रतिमाओं को स्नान न करावे, केवल मार्जन कर दे; परन्तु और सबको स्नान कराना चाहिये ॥ १४ ॥ प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पदार्थों से प्रतिमा आदि में मेरी पूजा की जाती हैं, परन्तु जो निष्काम भक्त है, वह अनायास प्राप्त पदार्थों से और भावनामात्र से ही हृदय में मेरी पूजा कर ले ॥ १५ ॥ उद्धवजी ! स्नान, वस्त्र, आभूषण आदि तो पाषाण अथवा धातु की प्रतिमा के पूजन में ही उपयोगी हैं । बालुकामयी मूर्ति अथवा मिट्टी की वेदी में पूजा करनी हो, तो उसमें मन्त्रों के द्वारा अङ्ग और उसके प्रधान देवताओं की यथास्थान पूजा करनी चाहिये तथा अग्नि में पूजा करनी हो, तो घृतमिश्रित हवन-सामग्रियों से आहुति देनी चाहिये ॥ १६ ॥

सूर्य को प्रतीक मानकर की जानेवाली उपासना में मुख्यतः अर्घ्यदान एवं उपस्थान ही प्रिय है और जल में तर्पण आदि से मेरी उपासना करनी चाहिये । जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धा से जल भी चढ़ाता है, तब मैं उसे बड़े प्रेम से स्वीकार करता हूँ ॥ १७ ॥ यदि कोई अभक्त मुझे बहुत-सी सामग्री निवेदन करे, तो भी मैं उससे सन्तुष्ट नहीं होता । जब मैं भक्ति-श्रद्धापूर्वक समर्पित जल से ही प्रसन्न हो जाता हूँ, तब गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि वस्तुओं के समर्पण से तो कहना हीं क्या है ॥ १८ ॥ उपासक पहले पूजा की सामग्री इकट्ठी कर ले । फिर इस प्रकार कुश बिछाये कि उनके अगले भाग पूर्व की ओर रहें । तदनन्तर पूर्व या उत्तर की ओर मुँह करके पवित्रता से उन कुशों के आसन पर बैठ जाय । यदि प्रतिमा अचल हो तो उसके सामने ही बैठना चाहिये । इसके बाद पूजाकार्य प्रारम्भ करे ॥ १९ ॥ पहले विधिपूर्वक अङ्गन्यास और करन्यास कर ले । इसके बाद मूर्ति में मन्त्र-न्यास करे और हाथ से प्रतिमा पर से पूर्व-समर्पित सामग्री हटाकर उसे पोंछ दे । इसके बाद जल से भरे हुए कलश और प्रोक्षण-पात्र आदि की पूजा गन्ध-पुष्प आदि से करे ॥ २० ॥

प्रोक्षणपात्र के जल से पूजासामग्री और अपने शरीर का प्रोक्षण कर ले । तदनन्तर पाद्य, अर्घ्य और आचमन के लिये तीन पात्रों में कलश में से जल भरकर रख ले और उनमें पूजा-पद्धति के अनुसार सामग्री डाले । (पाद्यपात्र में श्यामाक-साँव के दाने, दूब, कमल, विष्णुक्रान्ता और चन्दन, तुलसीदल आदि; अर्घ्यपात्र में गन्ध, पुष्प, अक्षत, जौ, कुश, तिल, सरसों और दूब तथा आचमनपात्र में जायफल, लौंग आदि डाले ।) इसके बाद पूजा करनेवाले को चाहिये कि तीनों पात्रों को क्रमशः हृदय-मन्त्र, शिरो-मन्त्र और शिखा-मन्त्र से अभिमन्त्रित करके अन्त में गायत्री-मन्त्र से तीनों अभिमन्त्रित करे ॥ २१-२२ ॥ इसके बाद प्राणायाम के द्वारा प्राणवायु और भावनाओं द्वारा शरीरस्थ अग्नि के शुद्ध हो जाने पर हृदयकमल में परम सूक्ष्म और श्रेष्ठ दीपशिखा के समान मेरी जीवकला का ध्यान करे । बड़े-बड़े सिद्ध ऋषि-मुनि ॐ-कार के अकार, उकार, मकार, बिन्दु और नाद — इन पाँच कलाओं के अन्त में उसी जीवकला का ध्यान करते हैं ॥ २३ ॥ वह जीवकला आत्मस्वरूपिणी हैं । जब उसके तेज से सारा अतःकरण और शरीर भर जाय, तब मानसिक उपचारों से मन-ही-मन उसकी पूजा करनी चाहिये । तदनन्तर तन्मय होकर मेरा आवाहन करे और प्रतिमा आदि में स्थापना करे । फिर मन्त्रों द्वारा अङ्गन्यास के उसमें मेरी पूजा करे ॥ २४ ॥

उद्धवजी ! मेरे आसन में धर्म आदि गुणों और विमला आदि शक्तियों की भावना करे । अर्थात् आसन के चारों कोनों में धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यरूप चार पाये हैं; अधर्म, अज्ञान, अवैशम्य और अनैश्वर्य — ये चार चारों दिशाओ में डंडे हैं; सत्त्व-रज-तम-रूप तीन पटरियों की बनी हुई पीठ है; उसपर विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा — ये नौ शक्तियाँ विराजमान हैं । उस आसन पर एक अष्टदल कमल है, उसकी कर्णिका अत्यन्त प्रकाशमान हैं और पीली-पीली केसरों की छटा निराली ही है । आसन के सम्बन्ध में ऐसी भावना करके पाद्य, आचमनीय और अर्घ्य आदि उपचार प्रस्तुत करे । तदनन्तर भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये वैदिक और तान्त्रिक विधि से मेरी पूजा करे ॥ २५-२६ ॥ सुदर्शनचक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, कौमोदकी गदा, खड्ग, बाण, धनुष, हल, मूसल — इन आठ आयुधों की पूजा आठ दिशाओं में करे और कौस्तुभमणि, वैजयन्तीमाला तथा श्रीवत्सचिह्न की वक्षःस्थल पर यथास्थान पूजा करे ॥ २७ ॥ नन्द, सुनन्द, प्रचण्ड, चण्ड, महाबल, बल, कुमुद और कुमुदेक्षण — इन आठ पार्षदों की आठ दिशाओं में; गरुड़ की सामने, दुर्गा, विनायक व्यास और विष्वक्सेन की चारों कोनों में स्थापना करके पूजन करे । बायीं ओर गुरु की और यथाक्रम पूर्वादि दिशाओं में इन्द्रादि आठ लोकपालों की स्थापना करके प्रोक्षण, अर्घ्यदान आदि क्रम से उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ २८-२९ ॥

प्रिय उद्भव ! यदि सामर्थ्य हो तो प्रतिदिन चन्दन, खस, कपूर, केसर और अरगजा आदि सुगन्धित वस्तुओं द्वारा सुवासित जल से मुझे स्नान कराये और उस समय ‘सुवर्ण घर्म’, इत्यादि स्वर्णधर्मानुवाक, ‘जितं ते पुण्डरीकाक्ष’ इत्यादि महापुरुषविद्या, ‘सहस्रशीर्षा पुरुषः’ इत्यादि पुरुषसूक्त और ‘इन्द्रं नरो नेमधिता हवन्त’ इत्यादि मन्त्रोक्त राजनादि सामगायन का पाठ भी करता रहे ॥ ३०-३१॥ मेरा भक्त वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पत्र, माला, गन्ध और चन्दनादि से प्रेमपूर्वक यथावत् मेरा शृङ्गार करे ॥ ३२ ॥ उपासक श्रद्धा के साथ मुझे पाद्य, आचमन, चन्दन, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप आदि सामग्रियों समर्पित करे ॥ ३३ ॥ यदि हो सके तो गुड़, खीर, घृत, पूड़ी, पूए, लड्डू, हलुआ दही और दाल आदि विविध व्यञ्जन का नैवेद्य लगावे ॥ ३४ ॥ भगवान् के विग्रह को दतुअन कराये, उबटन लगाये, पञ्चामृत आदि से स्नान कराये, सुगन्धित पदार्थों का लेप करे, दर्पण दिखाये, भोग लगाये और शक्ति हो तो प्रतिदिन अथवा पर्वों के अवसर पर नाचने-गाने आदि का भी प्रबन्ध करे ॥ ३५ ॥

उद्धवजी ! तदनन्तर पूजा के बाद शास्त्रोक्त विधि से बने हुए कुण्ड में अग्नि की स्थापना करे । वह कुण्ड मेखला, गर्त और वेदी से शोभायमान हो । उसमें हाथ की हवा से अग्नि प्रज्वलित करके उसका परिसमूहन करे, अर्थात् उसे एकत्र कर दे ॥ ३६ ॥ वेदी के चारों ओर कुशकण्डिका करके अर्थात् चारों ओर बीस-बीस कुश बिछाकर मन्त्र पढ़ता हुआ उन पर जल छिड़के । इसके बाद विधिपूर्वक समिधाओं का आधानरूप अन्वाधान कर्म करके अग्नि के उत्तर भाग में होमोपयोगी सामग्री रक्खे और प्रोक्षणीपात्र के जल से प्रोक्षण करे । तदनन्तर अग्नि में मेरा इस प्रकार ध्यान करे ॥ ३७ ॥ ‘मेरी मूर्ति तपाये हुए सोने के समान दम-दम दमक रही है । रोम-रोम से शान्ति की वर्षा हो रही है । लंबी और विशाल चार भुजाएँ शोभायमान हैं । उनमें शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म विराजमान हैं । कमल की केसर के समान पीला-पीला वस्त्र फहरा रहा है ॥ ३८ ॥ सिर पर मुकुट, कलाइयों में कंगन, कमर में करधनी और बाँहों में बाजूबंद झिलमिला रहे हैं । वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न हैं । गले में कौस्तुभमणि जगमगा रही है । घुटनों तक वनमाला लटक रही हैं ॥ ३९ ॥ अग्नि में मेरी इस मूर्ति का ध्यान करके पूजा करनी चाहिये । इसके बाद सूखी समिधाओं को घृत में डुबोकर आहुति दे और आज्यभाग और आधार नामक दो-दो आहुतियों से और भी हवन करे । तदनन्तर घी से भिगोकर अन्य हवन-सामग्रियों से आहुति दे ॥ ४० ॥ इसके बाद अपने इष्टमन्त्र से अथवा ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्र से तथा पुरुषसूक्त के सोलह मन्त्रों से हवन करे । बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि धर्मादि देवताओं के लिये भी विधिपूर्वक मन्त्रों से हवन करे और स्विष्टकृत् आहुति भी दे ॥ ४१ ॥

इस प्रकार अग्नि में अन्तर्यामीरूप से स्थित भगवान् की पूजा करके उन्हें नमस्कार करे और नन्द-सुनन्द आदि पार्षदों को आठों दिशाओं में हवनकर्माङ्ग बलि दे । तदनन्तर प्रतिमा के सम्मुख बैठकर परब्रह्मस्वरूप भगवान् नारायण का स्मरण करे और भगवत्स्वरूप मूलमन्त्र ‘ॐ नमो नारायणाय’ का जप करे ॥ ४२ ॥ इसके बाद भगवान् को आचमन करावे और उनका प्रसाद विष्वक्सेन को निवेदन करे । इसके पश्चात् अपने इष्टदेव की सेवा में सुगन्धित ताम्बूल आदि मुखवास उपस्थित करे तथा पुष्पाञ्जलि समर्पित करे ॥ ४३ ॥ मेरी लीलाओं को गावे, उनका वर्णन करे और मेरी ही लीलाओं का अभिनय करे । यह सब करते समय प्रेमोन्मत्त होकर नाचने लगे । मेरी लीला-कथाएँ स्वयं सुने और दूसरों को सुनावे । कुछ समय तक संसार और उसके रगड़ों-झगड़ों को भूलकर मुझमें ही तन्मय हो जाय ॥ ४४ ॥ प्राचीन ऋषियों के द्वारा अथवा प्राकृत भक्तों के द्वारा बनाये हुए छोटे-बड़े स्तव और स्तोत्रों से मेरी स्तुति करके प्रार्थना करे — ‘भगवन् ! आप मुझपर प्रसन्न हों । मुझे अपने कृपाप्रसाद से सराबोर कर दें ।’ तदनन्तर दण्डवत् प्रणाम करे ॥ ४५ ॥ अपना सिर मेरे चरणों पर रख दे और अपने दोनों हाथों से — दायें से दाहिना और बायें से बायाँ चरण पकड़कर कहे — ‘भगवन् ! इस संसार-सागर में मैं डूब रहा हूँ । मृत्युरूप मगर मेरा पीछा कर रहा है । मैं डरकर आपकी शरण में आया हूँ । प्रभो ! आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ ४६ ॥ इस प्रकार स्तुति करके मुझे समर्पित की हुई माला आदर के साथ अपने सिर पर रक्खे और उसे मेरा दिया हुआ प्रसाद समझे । यदि विसर्जन करना हो तो ऐसी भावना करनी चाहिये कि प्रतिमा में से एक दिव्य ज्योति निकली है और वह मेरी हृदयस्थ ज्योति में लीन हो गयी है । बस, यही विसर्जन है ॥ ४७ ॥

उद्धवजीं ! प्रतिमा आदि में जब जहाँ श्रद्धा हो, तब तहाँ मेरी पूजा करनी चाहिये, क्योंकि मैं सर्वात्मा हूँ और समस्त प्राणियों में तथा अपने हृदय में भी स्थित हूँ ॥ ४८ ॥ उद्धवजी ! जो मनुष्य इस प्रकार वैदिक, तान्त्रिक क्रियायोग के द्वारा मेरी पूजा करता है, वह इस लोक और परलोक में मुझसे अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करता है ॥ ४९ ॥ यदि शक्ति हो, तो उपासक सुन्दर और सुदृढ़ मन्दिर बनवाये और उसमें मेरी प्रतिमा स्थापित करे । सुन्दर-सुन्दर फूलों के बगीचे लगवा दे; नित्य की पूजा, पर्व की यात्रा और बड़े-बड़े उत्सवों की व्यवस्था कर दे ॥ ५० ॥ जो मनुष्य पर्वों के उत्सव और प्रतिदिन की पूजा लगातार चलने के लिये खेत, बाजार, नगर अथवा गाँव मेरे नाम पर समर्पित कर देते हैं, उन्हें मेरे समान ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ॥ ५१ ॥ मेरी मूर्ति प्रतिष्ठा करने से पृथ्वी का एकछत्र राज्य, मन्दिर-निर्माण से त्रिलोकी का राज्य, पूजा आदि की व्यवस्था करने से ब्रह्मलोक और तीनों के द्वारा मेरी समानता प्राप्त होती है ॥ ५२ ॥ जो निष्कामभाव से मेरी पूजा करता है, उसे मेरा भक्तियोग प्राप्त हो जाता है और उस निरपेक्ष भक्तियोग के द्वारा वह स्वयं मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ५३ ॥ जो अपनी दी हुई या दूसरों की दी हुई देवता और ब्राह्मण की जीविका हरण कर लेता है, वह करोड़ों वर्षों तक विष्ठा का कीड़ा होता है ॥ ५४ ॥ जो लोग ऐसे कामों में सहायता, प्रेरणा अथवा अनुमोदन करते हैं, वे भी मरने के बाद प्राप्त करनेवाले के समान ही फल के भागीदार होते हैं । यदि इनका हाथ अधिक रहा तो फल भी उन्हें अधिक ही मिलता है ॥ ५५ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे सप्तविंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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