श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय २८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
अट्ठाईसवाँ अध्याय
परमार्थ-निरूपण

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — उद्धवजी ! यद्यपि व्यवहार में पुरुष और प्रकृति-द्रष्टा और दृश्य के भेद से दो प्रकार का जगत् जान पड़ता है, तथापि परमार्थ-दृष्टि से देखने पर यह सब एक अधिष्ठान-स्वरूप ही है; इसलिये किसी के शान्त, घोर और मूढ़ स्वभाव तथा उनके अनुसार कर्मों की न स्तुति करनी चाहिये और न निन्दा । सर्वदा अद्वैत दृष्टि रखनी चाहिये ॥ १ ॥ जो पुरुष दूसरों के स्वभाव और उनके कर्मों की प्रशंसा अथवा निन्दा करते हैं, वे शीघ्र ही अपने यथार्थ परमार्थ-साधन से च्युत हो जाते हैं, क्योंकि साधन तो द्वैत के अभिनिवेश का — उसके प्रति सत्यत्व-बुद्धि का निषेध करता है और प्रशंसा तथा निन्दा उसकी सत्यता के भ्रम को और भी दृढ़ करती हैं ॥ २ ॥ उद्धवजी ! सभी इन्द्रियाँ राजस अहङ्कार के कार्य हैं । जब वे निद्रित हो जाती हैं, तब शरीर का अभिमानी जीव चेतनाशून्य हो जाता है अर्थात् उसे बाहरी शरीर की स्मृति नहीं रहती । उस समय यदि मन बच रहा, तब तो वह सपने के झूठे दृश्यों में भटकने लगता है और वह भी लीन हो गया, तब तो जीव मृत्यु के समान गाढ़ निद्रा — सुषुप्ति में लीन हो जाता है । वैसे ही जब जीव अपने अद्वितीय आत्मस्वरूप को भूलकर नाना वस्तुओं के दर्शन करने लगता है, तब वह स्वप्न के समान झूठे दृश्यों में फँस जाता है अथवा मृत्यु के समान अज्ञान में लीन हो जाता है ॥ ३ ॥

उद्धवजी ! जब द्वैत नाम की कोई वस्तु ही नहीं है, तब उसमें अमुक वस्तु भली हैं और अमुक बुरी, अथवा इतनी भली और इतनी बुरी है — यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता । विश्व की सभी वस्तुएँ वाणी से कही जा सकती हैं अथवा मन से सोची जा सकती हैं; इसलिये दृश्य एवं अनित्य होने के कारण उनका मिथ्यात्व तो स्पष्ट ही हैं ॥ ४ ॥ परछाई, प्रतिध्वनि और सीपी आदि में चाँदी आदि के आभास यद्यपि हैं तो सर्वथा मिथ्या, परन्तु उनके द्वारा मनुष्य के हृदय में भय-कम्प आदि का सञ्चार हो जाता हैं । वैसे ही देहादि सभी वस्तुएँ हैं तो सर्वथा मिथ्या ही, परन्तु जब तक ज्ञान के द्वारा इनकी असत्यता का बोध नहीं हो जाता, इनकी आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो जाती, तब तक ये भी अज्ञानियों को भयभीत करती रहती हैं ॥ ५ ॥ उद्धवजी ! जो कुछ प्रत्यक्ष या परोक्ष वस्तु है, वह आत्मा ही है । वहीं सर्वशक्तिमान् भी है । जो कुछ विश्व-सृष्टि प्रतीत हो रही है, इसका वह निमित्त-कारण तो है ही, उपादान-कारण भी है । अर्थात् वहीं विश्व बनता है और वही बनाता भी है, वही रक्षक हैं और रक्षित भी नहीं है । सर्वात्मा भगवान् ही इसका संहार करते हैं और जिसका संहार होता है, वह भी वे ही हैं ॥ ६ ॥ अवश्य ही व्यवहार दृष्टि से देखने पर आत्मा इस विश्व से भित्र है; परन्तु आत्मदृष्टि से उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु ही नहीं हैं । उसके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका किसी भी प्रकार निर्वचन नहीं किया जा सकता और अनिर्वचनीय तो केवल आत्मस्वरूप ही हैं, इसलिये आत्मा में सृष्टि-स्थिति-संहार अथवा अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत — ये तीन-तीन प्रकार की प्रतीतियां सर्वथा निर्मूल ही हैं । न होने पर भी यों ही प्रतीत हो रही हैं । यह सत्त्व, रज और तम के कारण प्रतीत होनेवाली द्रष्टादर्शन — दृश्य आदि की विविधता माया का खेल है ॥ ७ ॥

उद्धवजी ! तुमसे मैने ज्ञान और विज्ञान की उत्तम स्थिति का वर्णन किया है । जो पुरुष मेरे इन वचनों का रहस्य जान लेता है, वह न तो किसो की प्रशंसा करता है और न निन्दा । वह जगत् में सूर्य के समान समभाव से विचरता रहता है ॥ ८ ॥ प्रत्यक्ष, अनुमान, शास्त्र और आत्मानुभूति आदि सभी प्रमाणों से यह सिद्ध है कि यह जगत् उत्पत्ति-विनाशशील होने के कारण अनित्य एवं असत्य हैं । यह बात जानकर जगत् में असङ्गभाव से विचरना चाहिये ॥ ९ ॥

उद्धवजी ने पूछा — भगवन् ! आत्मा है द्रष्टा और देह है दृश्य । आत्मा स्वयंप्रकाश है और देह है जड । ऐसी स्थिति में जन्म-मृत्युरूप संसार न शरीर को हो सकता है और न आत्मा को । परन्तु इसका होना भी उपलब्ध होता है । तब यह होता किसे हैं ? ॥ १० ॥ आत्मा तो अविनाशी, प्राकृत-अप्राकृत गुणों से रहित, शुद्ध, स्वयंप्रकाश और सभी प्रकार के आवरणों से रहित है; तथा शरीर विनाशी, सगुण, अशुद्ध, प्रकाश्य और आवृत है । आत्मा अग्नि के समान प्रकाशमान है, तो शरीर काठ की तरह अचेतन । फिर यह जन्म-मृत्युरूप संसार है किसे ?॥ ११ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — वस्तुतः प्रिय उद्धव ! संसार का अस्तित्व नहीं हैं तथापि जब तक देह, इन्द्रिय और प्राणों के साथ आत्मा का सम्बन्ध-भ्रान्ति है, तब तक अविवेकी पुरुष को वह सत्य-सा स्फुरित होता है ॥ १२ ॥ जैसे स्वप्न में अनेकों विपत्तियाँ आती हैं पर वास्तव में वे हैं नहीं, फिर भी स्वप्न टूटने तक उनका अस्तित्व नहीं मिटता, वैसे ही संसार के न होने पर भी जो उसमें प्रतीत होनेवाले विषयों का चिन्तन करते रहते हैं, उनके जन्म-मृत्युरूप संसार की निवृत्ति नहीं होती ॥ १३ ॥ जब मनुष्य स्वप्न देखता रहता है, तब नींद टूटने के पहले उसे बड़ी-बड़ी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है; परन्तु जब उसकी नींद टूट जाती हैं, वह जग पड़ता है, तब न तो स्वप्न की विपत्तियाँ रहती हैं और न उनके कारण होनेवाले मोह आदि विकार ॥ १४ ॥ उद्धवजी ! अहङ्कार ही शोक, हर्ष, भय,, क्रोध, लोभ, मोह, स्पृहा और जन्म-मृत्यु का शिकार बनता है । आत्मा से तो इनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है ॥ १५ ॥

उद्धवजी ! देह, इन्द्रिय, प्राण और मन में स्थित आत्मा ही जब उनका अभिमान कर बैठता है उन्हें अपना स्वरूप मान लेता है तब उसका नाम ‘जीव’ हो जाता है । उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्मा की मूर्ति हैं — गुण और कर्मों का बना हुआ लिङ्गशरीर । उसे ही कहीं सूत्रात्मा कहा जाता हैं और कहीं महत्तत्त्व । उसके और भी बहुत-से नाम हैं । वहीं कालरूप परमेश्वर के अधीन होकर जन्म-मृत्युरूप संसार में इधर-उधर भटकता रहता है ॥ १६ ॥ वास्तव में मन, वाणी, प्राण और शरीर अहङ्कार के ही कार्य हैं । यह हैं तो निर्मूल, परन्तु देवता, मनुष्य आदि अनेक रूपों में इसकी प्रतीति होती हैं । मननशील पुरुष उपासना की शान पर चढ़ाकर ज्ञान की तलवार को अत्यन्त तीखी बना लेता है और उसके द्वारा देहाभिमान का — अहङ्कार का मूलोच्छेद करके पृथ्वी में निर्द्वन्द्व होकर विचरता है । फिर उसमें किसी प्रकार की आशा-तृष्णा नहीं रहती ॥ १५ ॥ आत्मा और अनात्मा के स्वरूप को पृथक्-पृथक् भली-भाँति समझ लेना ही ज्ञान हैं, क्योंकि विवेक होते ही द्वैत का अस्तित्व मिट जाता है । उसका साधन हैं तपस्या के द्वारा हृदय को शुद्ध करके वेदादि शास्त्रों का श्रवण करना । इनके अतिरिक्त श्रवणानुकूल युक्तियाँ, महापुरुषों के उपदेश और इन दोनो से अविरुद्ध स्वानुभूति भी प्रमाण हैं । सबका सार यही निकलता है कि इस संसार के आदि में जो था तथा अन्त में जो रहेगा, जो इसका मूल कारण और प्रकाशक है, वहीं अद्वितीय, उपाधिशून्य परमात्मा बीच में भी है । उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है ॥ १८ ॥

उद्धवजी ! सोने से कंगन, कुण्डल आदि बहुत-से आभूषण बनते हैं, परन्तु जब वे गहने नहीं बने थे, तब भी सोना था और जब नहीं रहेंगे, तब भी सोना रहेगा । इसलिये जब बीच में उसके कंगन-कुण्डल आदि अनेकों नाम रखकर व्यवहार करते हैं, तब भी वह सोना ही है । ठीक ऐसे ही जगत् का आदि, अन्त और मध्य मैं ही हूँ । वास्तव में मैं ही सत्य तत्त्व हूँ ॥ १९ ॥ भाई उद्धव ! मन की तीन अवस्थाएँ होती हैं — जाग्रत्, स्वप्न और सुप्ति; इन अवस्था के कारण तीन ही गुण हैं — सत्त्व, रज़ और तम, और जगत् के तीन भेद हैं — अध्यात्म (इन्द्रियाँ), अधिभूत (पृथिव्यादि) और अधिदैव (कर्ता) । ये सभी विविधताएँ जिसकी सत्ता से सत्य के समान प्रतीत होती हैं और समाधि आदि में यह त्रिविधता न रहने पर भी जिसकी सत्ता बनी रहती है, वह तुरीयतत्त्व — इन तीनों से परे और इनमें अनुगत चौथा ब्रह्मतत्व ही सत्य है ॥ २० ॥ जो उत्पत्ति से पहले नहीं था और प्रलय के पश्चात् भी नहीं रहेगा, ऐसा समझना चाहिये कि बीच में भी वह है नहीं — केवल कल्पनामात्र, नाममात्र ही है । यह निश्चित सत्य है कि जो पदार्थ जिससे बनता है और जिसके द्वारा प्रकाशित होता है, वही उसका वास्तविक स्वरूप है, वही उसकी परमार्थ-सत्ता है — यह मेरा दृढ़ निश्चय है ॥ २१ ॥

यह जो विकारमयी राजस सृष्टि है, यह न होने पर भी दीख रहीं हैं । यह स्वयंप्रकाश ब्रह्म ही है । इसलिये इन्द्रिय, विषय, मन और पञ्चभूतादि जितने चित्र-विचित्र नामरूप हैं उनके रूपमें ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है ॥ २२ ॥ ब्रह्मविचार के साधन हैं — श्रवण, मनन, निदिध्यासन और स्वानुभूति । उनमें सहायक हैं — आत्मज्ञानी गुरूदेव ! इनके द्वारा विचार करके स्पष्टरूप से देहादि अनात्म पदार्थों का निषेध कर देना चाहिये । इस प्रकार निषेध के द्वारा आत्मविषयक सन्देहों को छिन्न-भिन्न करके अपने आनन्दस्वरूप आत्मा में ही मग्न हो जाय और सब प्रकार की विषय-वासनाओं से रहित हो जाय ॥ २३ ॥ निषेध करने की प्रक्रिया यह है कि पृथ्वी का विकार होने के कारण शरीर आत्मा नहीं हैं । इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ-देवता, प्राण, वायु, जल, अग्नि एवं मन भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि इनका धारण-पोषण शरीर के समान ही अन्न के द्वारा होता हैं । बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, आकाश, पृथ्वी, शब्दादि विषय और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति भी आत्मा नहीं हैं, क्योंकि ये सब-के-सब दृश्य एवं जड़ हैं ॥ २४ ॥

उद्धवजी ! जिसे मेरे स्वरूप का भली-भाँति ज्ञान हो गया है, उसकी वृत्तियाँ और इन्द्रियाँ यदि समाहित रहती हैं तो उसे उनसे लाभ क्या है ? और यदि वे विक्षिप्त रहती हैं, तो उनसे हानि भी क्या है ? क्योंकि अन्तःकरण और बाह्यकरण — सभी गुणमय हैं और आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं हैं । भला, आकाश में बादलों के छा जाने अथवा तितर-बितर हो जाने से सूर्य का क्या बनता-बिगड़ता है ? ॥ २५ ॥ जैसे वायु आकाश को सुखा नहीं सकती, आग जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, धूल-धुएँ मटमैला नहीं कर सकते और ऋतुओं के गुण गरमी-सर्दी आदि उसे प्रभावित नहीं कर सकते क्योंकि ये सब आने-जानेवाले क्षणिक भाव हैं और आकाश इन सबका एकरस अधिष्ठान हैं — वैसे ही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की वृत्तियाँ तथा कर्म अविनाशी आत्मा को स्पर्श नहीं कर पाते; वह तो इनसे सर्वथा परे है । इनके द्वारा तो केवल वही संसार में भटकता है, जो इनमें अहङ्कार कर बैठता है ॥ २६ ॥ उद्धवजी ! ऐसा होने पर भी तब तक इन मायानिर्मित गुणों और उनके कार्यों का सङ्ग सर्वथा त्याग देना चाहिये, जब तक मेरे सुदृढ़ भक्तियोग के द्वारा मन का रजोगुणरूप मल एकदम निकल न जाय ॥ २७ ॥

उद्धवजी ! जैसे भली-भाँति चिकित्सा न करने पर रोग का समूल नाश नहीं होता, वह बार-बार उभरकर मनुष्य को सताया करता है, वैसे ही जिस मन की वासनाएँ और कर्मों के संस्कार मिट नहीं गये हैं, जो स्त्री-पुत्र आदि में आसक्त है, वह बार-बार अधूरे योगी को बेधता रहता है । और उसे कई बार योग-भ्रष्ट भी कर देता हैं ॥ २८ ॥ देवताओं के द्वारा प्रेरित शिष्य-पुत्र आदि के द्वारा किये हुए विघ्नों से यदि कदाचित् अधूरा योगी मार्गच्युत हो जाय तो भी वह अपने पूर्वाभ्यास के कारण पुनः योगाभ्यास में ही लग जाता हैं । कर्म आदि में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती ॥ २९ ॥ उद्धवजी ! जीव संस्कार आदि से प्रेरित होकर जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त कर्म में ही लगा रहता है और उनमें इष्ट-अनिष्ट-बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारों को प्राप्त होता रहता है । परन्तु जो तत्त्व का साक्षात्कार कर लेता है, वह प्रकृति में स्थित रहने पर भी, संस्कारानुसार कर्म होते रहने पर भी उनमें इष्ट-अनिष्टबुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारों से युक्त नहीं होता; क्योंकि आनन्दस्वरूप आत्मा के साक्षात्कार से उसकी संसार-सम्बन्धी सभी आशा-तृष्णाएँ पहले ही नष्ट हो चुकी होती हैं ॥ ३० ॥

जो अपने स्वरूप में स्थित हो गया है, उसे इस बात का भी पता नहीं रहता कि शरीर खड़ा है या बैठा, चल रहा है या सो रहा है, मल-मूत्र त्याग रहा है, भोजन कर रहा हैं अथवा और कोई स्वाभाविक कर्म कर रहा है; क्योंकि उसकी वृत्ति तो आत्मस्वरूप में स्थित ब्रह्माकार रहती है ॥ ३१ ॥ यदि ज्ञानी पुरुष की दृष्टि में इन्द्रियों के विविध बाह्य विषय, जो कि असत् है, आते भी हैं तो वह उन्हें अपने आत्मा से भिन्न नहीं मानता, क्योंकि वे युक्तियों, प्रमाणों और स्वानुभूति से सिद्ध नहीं होते । जैसे नींद टूट जाने पर स्वप्न में देखे हुए और जागने पर तिरोहित हुए पदार्थों को कोई सत्य नहीं मानता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष भी अपने से भिन्न प्रतीयमान पदार्थों को सत्य नहीं मानते ॥ ३२ ॥ उद्धवजी ! (इसका यह अर्थ नहीं है कि अज्ञानी ने आत्मा का त्याग कर दिया है और ज्ञानी उसको ग्रहण करता है । इसका तात्पर्य केवल इतना ही हैं कि) अनेकों प्रकार के गुण और कर्मों से युक्त देह, इन्द्रिय आदि पदार्थ पहले अज्ञान के कारण आत्मा से अभिन्न मान लिये गये थे, उनका विवेक नहीं था । अब आत्मदृष्टि होने पर अज्ञान और उसके कार्यों की निवृत्ति हो जाती है । इसलिये अज्ञान की निवृत्ति ही अभीष्ट है । निवृत्तियों के द्वारा न तो आत्मा का ग्रहण हो सकता है और न त्याग ॥ ३३ ॥

जैसे सूर्य उदय होकर मनुष्यों के नेत्रों के सामने से अन्धकार का परदा हटा देते हैं, किसी नयी वस्तु का निर्माण नहीं करते, वैसे ही मेरे स्वरूप का दृढ़ अपरोक्षज्ञान पुरुष के बुद्धिगत अज्ञान का आवरण नष्ट कर देता है । वह इदंरूप से किसी वस्तु का अनुभव नहीं कराता ॥ ३४ ॥ उद्धवजी ! आत्मा नित्य अपरोक्ष हैं, उसकी प्राप्ति नहीं करनी पड़ती । वह स्वयंप्रकाश है । उसमें अज्ञान आदि किसी प्रकार के विकार नहीं हैं । वह जन्महित है अर्थात् कभी किसी प्रकार भी वृत्ति में आरूढ़ नहीं होता । इसलिये अप्रमेय है । ज्ञान आदि के द्वारा उसका संस्कार भी नहीं किया जा सकता । आत्मा में देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेद न होने के कारण अस्तित्व, वृद्धि, परिवर्तन, ह्रास और विनाश उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते । सबकी और सब प्रकार की अनुभूतियाँ आत्मस्वरूप ही हैं । जब मन और वाणी आत्मा को अपना अविषय समझकर निवृत्त हो जाते हैं, तब वही सजातीय, विजातीय और स्वगत भेद से शुन्य एक अद्वितीय रह जाता है । व्यवहारदृष्टि से उसके स्वरूप का वाणी और प्राण आदि के प्रवर्तक के रूप में निरूपण किया जाता है ॥ ३५ ॥

उद्धवजी ! अद्वितीय आत्मतत्त्व में अर्थहीन नामों के द्वारा विविधता मान लेना ही मन का भ्रम है, अज्ञान है । सचमुच यह बहुत बड़ा मोह है, क्योंकि अपने आत्मा के अतिरिक्त उस भ्रम का भी और कोई अधिष्ठान नहीं हैं । अधिष्ठान-सत्ता में अध्यस्त की सत्ता है ही नहीं । इसलिये सब कुछ आत्मा ही है ॥ ३६ ॥ बहुत-से पण्डिताभिमानी लोग ऐसा कहते हैं कि यह पाञ्चभौतिक द्वैत विभिन्न नामों और रूपों के रूप में इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किया जाता है, इसलिये सत्य है । परन्तु यह तो अर्थहीन वाणी का आडम्बरमात्र है, क्योंकि तत्त्वतः तो इन्द्रियों की पृथकू सत्ता ही सिद्ध नहीं होती, फिर वे किसी को प्रमाणित कैसे करेंगी ? ॥ ३७ ॥

उद्धवजी ! यदि योगसाधना पूर्ण होने के पहले ही किसी साधक का शरीर रोगादि उपद्रवों से पीड़ित हो, तो उसे इन उपायों का आश्रय लेना चाहिये ॥ ३८ ॥ गरमी-ठंडक आदि को चन्द्रमा-सूर्य आदि की धारणा के द्वारा, वात आदि रोगों को वायुधारणायुक्त आसनों के द्वारा और ग्रह-सपदिकृत विघ्नों को तपस्या,मन्त्र एवं ओषधि के द्वारा नष्ट कर डालना चाहिये ॥ ३९ ॥ काम-क्रोध आदि विघ्नों को मेरे चिन्तन और नाम-संकीर्तन आदि के द्वारा नष्ट करना चाहिये तथा पतन की ओर ले जानेवाले दम्भ-मद आदि विघ्नों को धीरे-धीरे महापुरुषों की सेवा के द्वारा दूर कर देना चाहिये ॥ ४० ॥ कोई-कोई मनस्वी योगी विविध उपायों के द्वारा इस शरीर को सुदृढ़ और युवावस्था में स्थिर करके फिर अणिमा आदि सिद्धियों के लिये योगसाधन करते हैं, परन्तु बुद्धिमान् पुरुष ऐसे विचार का समर्थन नहीं करते, क्योंकि यह तो एक व्यर्थ प्रयास हैं । वृक्ष में लगे हुए फल के समान इस शरीर का नाश तो अवश्यम्भावी है ॥ ४१-४२ ॥ यदि कदाचित् बहुत दिनों तक निरन्तर और आदरपूर्वक योगसाधना करते रहने पर शरीर सुदढ़ भी हो जाय, तब भी बुद्धिमान् पुरुष को अपनी साधना छोड़कर उतने में ही सन्तोष नहीं कर लेना चाहिये । उसे तो सर्वदा मेरी प्राप्ति के लिये ही संलग्न रहना चाहिये ॥ ४३ ॥ जो साधक मेरा आश्रय लेकर मेरे द्वारा कही हुई योगसाधना में संलग्न रहता है, उसे कोई भी विघ्न-बाधा डिगा नहीं सकती । उसकी सारी कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं और वह आत्मानन्द की अनुभूति में मग्न हो जाता हैं ॥ ४४ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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