May 5, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय ३ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय तीसरा अध्याय माया, माया से पार होने के उपाय तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण राजा निमि ने पूछा — भगवन् ! सर्वशक्तिमान् परमकारण विष्णुभगवान् की माया बड़े-बड़े मायावियों को भी मोहित कर देती हैं, उसे कोई पहचान नहीं पाता; (और आप कहते हैं कि भक्त उसे देखा करता है ।) अतः अब मैं उस माया का स्वरूप जानना चाहता हूँ, आपलोग कृपा करके बतलाइये ॥ १ ॥ योगीश्वरो ! मैं एक मृत्यु का शिकार मनुष्य हूँ । संसार के तरह-तरह के तापों ने मुझे बहुत दिनों से तपा रखा है । आपलोग जो भगवत्कथारूप अमृत का पान करा रहे हैं, वह उन तापों को मिटाने की एकमात्र ओषधि है; इसलिये मैं आपलोगों की इस वाणी का सेवन करते-करते तृप्त नहीं होता । आप कृपया और कहिये ॥ २ ॥ अब तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्षजी ने कहा — राजन् ! (भगवान् की माया स्वरूपतः अनिर्वचनीय है, इसलिये उसके कार्यों के द्वारा ही उसका निरूपण होता हैं ।) आदिपुरुष परमात्मा जिस शक्ति से सम्पूर्ण भूतों के कारण बनते हैं । और उनके विषय-भोग तथा मोक्ष की सिद्धि के लिये अथवा अपने उपासकों की उत्कृष्ट सिद्धि के लिये स्वनिर्मित पञ्चभूतों के द्वारा नाना प्रकार के देव, मनुष्य आदि शरीरों की सृष्टि करते हैं, उसी को ‘माया’ कहते हैं ॥ ३ ॥ इस प्रकार पञ्चमहाभूतों के द्वारा बने हुए प्राणि-शरीरों में उन्होंने अन्तर्यामीरूप से प्रवेश किया और अपने को ही पहले एक मन के रूप में और इसके बाद पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कर्मेन्द्रिय — इन दस रूपों में विभक्त कर दिया तथा उन्हीं के द्वारा विषयों का भोग कराने लगे ॥ ४ ॥ वह देहाभिमानी जीव अन्तर्यामी के द्वारा प्रकाशित इन्द्रियों के द्वारा विषयों का भोग करता है और इस पञ्चभूतों के द्वारा निर्मित शरीर को आत्मा — अपना स्वरूप मानकर उसमें आसक्त हो जाता है । (यह भगवान् की माया है) ॥ ५ ॥ अब वह कर्मेन्द्रियों से सकाम कर्म करता है और उनके अनुसार शुभ कर्म का फल सुख और अशुभ कर्म का फल दुःख भोग करने लगता है और शरीरधारी होकर इस संसार में भटकने लगता है । यह भगवान् की माया है ॥ ६ ॥ इस प्रकार यह जीव ऐसी अनेक अमङ्गलमय कर्मगतियों को, उनके फलो को प्राप्त होता है और महाभूतों के प्रलय-पर्यन्त विवश होकर जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म को प्राप्त होता रहता हैं — यह भगवान् की माया हैं ॥ ७ ॥ जव पञ्चभूतों के प्रलय का समय आता है, तब अनादि और अनन्त काल स्थूल तथा सूक्ष्म द्रव्य एवं गुणरूप इस समस्त व्यक्त सृष्टि को अव्यक्त की ओर, उसके मूल कारण की ओर खींचता हैं — यह भगवान् की माया हैं ॥ ८ ॥ उस समय पृथ्वी पर लगातार सौ वर्ष तक भयङ्कर सूखा पड़ता है, वर्षा बिल्कुल नहीं होती; प्रलयकाल की शक्ति से सूर्य की उष्णता और भी बढ़ जाती है तथा वे तीनों लोकों को तपाने लगते हैं — यह भगवान् की माया है ॥ ९ ॥ उस समय शेषनाग — सङ्कर्षण के मुँह से आग की प्रचण्ड लपटें निकलती हैं और वायु की प्रेरणा से वे लपटें पाताललोक से जलाना आरम्भ करती हैं तथा और भी ऊँची-ऊँची होकर चारों ओर फैल जाती हैं — यह भगवान् की माया है ॥ १० ॥ इसके बाद प्रलयकालीन सांवर्तक मेघगण हाथी की सूँड के समान मोटी-मोटी धाराओं से सौ वर्ष तक बरसता रहता है । उससे यह विराट् ब्रह्माण्ड जल में डूब जाता है — यह भगवान् की माया है ॥ ११ ॥ राजन् ! उस समय जैसे बिना ईंधन के आग बुझ जाती है, वैसे ही विराट् पुरुष ब्रह्मा अपने ब्रह्माण्ड-शरीर को छोड़कर सूक्ष्मस्वरूप अव्यक्त में लीन हो जाते हैं — यह भगवान् की माया है ॥ १२ ॥ वायु पृथ्वी की गन्ध खींच लेती हैं, जिससे वह जल के रूप में हो जाती है और जब वही वायु जल के रस को खींच लेती है, तब वह जल अपना कारण अग्नि बन जाता है — यह भगवान् की माया है ॥ १३ ॥ जब अन्धकार अग्नि का रूप छीन लेता हैं, तब वह अग्नि वायु में लीन हो जाती है और जब अवकाशरूप आकाश वायु की स्पर्श-शक्ति छीन लेता हैं, तब वह आकाश में लीन हो जाता है — यह भगवान् की माया है ॥ १४ ॥ राजन् ! तदनन्तर कालरूप ईश्वर आकाश के शब्द गुण को हरण कर लेता है, जिससे वह तामस अहंकार में लीन हो जाता है । इन्द्रियाँ और बुद्धि राजस अहङ्कार में लीन होती हैं । मन सात्त्विक अहङ्कार से उत्पन्न देवताओं के साथ सात्त्विक अहङ्कार में प्रवेश कर जाता है तथा अपने तीन प्रकार के कार्यों के साथ अहङ्कार महत्तत्त्व में लीन हो जाता है । महत्तत्त्व प्रकृति में और प्रकृति ब्रह्म में लीन होती है । फिर इसी के उलटे क्रम से सृष्टि होती है । यह भगवान् की माया है ॥ १५ ॥ यह सृष्टि, स्थिति और संहार करनेवाली त्रिगुणमयी माया है । इसका हमने आपसे वर्णन किया । अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १६ ॥ राजा निमि ने पूछा — महर्षिजी ! इस भगवान् की माया को पार करना उन लोगों के लिये तो बहुत ही कठिन है, जो अपने मन को वश में नहीं कर पाये हैं । अब आप कृपा करके यह बताइये कि जो लोग शरीर आदि में आत्मबुद्धि रखते हैं तथा जिनकी समझ मोटी है, वे भी अनायास ही इसे कैसे पार कर सकते हैं ? ॥ १७ ॥ अब चौथे योगीश्वर प्रबुद्धजी बोले — राजन् ! स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध आदि बन्धनों में बँधे हुए संसारी मनुष्य सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति के लिये बड़े-बड़े कर्म करते रहते हैं । जो पुरुष माया के पार जाना चाहता है, उसको विचार करना चाहिये कि उनके कर्मों का फल किस प्रकार विपरीत होता जाता है । ये सुख के बदले दुःख पाते हैं और दुःख-निवृत्ति के स्थान पर दिनों-दिन दुःख बढ़ता ही जाता है ॥ १८ ॥ एक धन को ही लो । इससे दिन-पर-दिन दुःख बढ़ता ही है, इसको पाना भी कठिन है और यदि किसी प्रकार मिल भी जाय तो आत्मा के लिये तो यह मृत्युस्वरूप ही है । जो इसकी उलझनों में पड़ जाता है, वह अपने आपको भूल जाता है । इसी प्रकार घर, पुत्र, स्वजन-सम्बन्धी, पशुधन आदि भी अनित्य और नाशवान् ही है । यदि कोई इन्हें जुटा भी ले तो इनसे क्या सुख-शान्ति मिल सकती है ? ॥ १९ ॥ इसी प्रकार जो मनुष्य माया से पार जाना चाहता है, उसे यह भी समझ लेना चाहिये कि मरने के बाद प्राप्त होनेवाले लोक-परलोक भी ऐसे ही नाशवान् हैं, क्योंकि इस लोक की वस्तुओं के समान वे भी कुछ सीमित कर्मों के सीमित फलमात्र हैं । वहाँ भी पृथ्वी के छोटे-छोटे राजाओं के समान बराबरवालों से होड़ अथवा लाग-डाँट रहती है, अधिक ऐश्वर्य और सुखवालों के प्रति छिद्रान्वेषण तथा ईर्ष्या-द्वेष का भाव रहता है । कम सुख और ऐश्वर्यवालों के प्रति घृणा रहती हैं एवं कर्मों का फल पूरा हो जाने पर वहाँ से पतन तो होता ही है । उसका नाश निश्चित है । नाश का भय वहाँ भी नहीं छूट पाता ॥ २० ॥ इसलिये जो परम कल्याण का जिज्ञासु हो, उसे गुरुदेव की शरण लेनी चाहिये । गुरूदेव ऐसे हों, जो शब्दब्रह्म-वेदों के पारदर्शी विद्वान् हों, जिससे वे ठीक-ठीक समझा सकें; और साथ ही परब्रहा में परिनिष्ठित तत्त्वज्ञानी भी हों, ताकि अपने अनुभव के द्वारा प्राप्त हुई रहस्य की बातों को बता सकें । उनका चित्त शान्त हो, व्यवहार के प्रपञ्च में विशेष प्रवृत्त न हो ॥ २१ ॥ जिज्ञासु को चाहिये कि गुरु को ही अपना परम प्रियतम आत्मा और इष्टदेव माने । उनकी निष्कपट्भाव से सेवा करे और उनके पास रहकर भागवत-धर्म की भगवान् को प्राप्त करानेवाले भक्तिभाव के साधनों की क्रियात्मक शिक्षा ग्रहण करे । इन्हीं साधनों से सर्वात्मा एवं भक्त को अपने आत्मा का दान करनेवाले भगवान् प्रसन्न होते हैं ॥ २२ ॥ पहले शरीर, सन्तान आदि में मन की अनासक्ति सीखे । फिर भगवान् के भक्तों से प्रेम कैसा करना चाहिये — यह सीखे । इसके पश्चात् प्राणियों के प्रति यथायोग्य दया, मैत्री और विनय की निष्कपट भाव से शिक्षा ग्रहण करे ॥ २३ ॥ मिट्टी, जल आदि से वाम शरीर की पवित्रता, छल-कपट आदि के त्याग से भीतर की पवित्रता, अपने धर्म का अनुष्ठान, सहनशक्ति, मौन, स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा तथा शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में हर्ष-विषाद से रहित होना सीखे ॥ २४ ॥ सर्वत्र अर्थात् समस्त देश, काल और वस्तुओं में चेतनरूप से आत्मा और नियन्त्तारूप से ईश्वर को देखना, एकान्त-सेवन, ‘यही मेरा घर हैं’ — ऐसा भाव न रखना, गृहस्थ हो तो पवित्र वस्त्र पहनना और त्यागी हो तो फटे-पुराने पवित्र चिथड़े, जो कुछ प्रारब्ध के अनुसार मिल जाय, उसमें सन्तोष करना सीखे ॥ २५ ॥ भगवान् की प्राप्ति का मार्ग बतलानेवाले शास्त्रों में श्रद्धा और दूसरे किसी भी शास्त्र की निन्दा न करना, प्राणायाम के द्वारा मन का, मौन के द्वारा वाणी का और वासनाहीनता के अभ्यास से कर्मों का संयम करना, सत्य बोलना, इन्द्रियों को अपने-अपने गोलकों में स्थिर रखना और मन को कहीं बाहर न जाने देना सीखे ॥ २६ ॥ राजन् ! भगवान् की लीलाएँ अद्भुत हैं । उनके जन्म-कर्म और गुण दिव्य हैं । उन्हीं का श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना तथा शरीर से जितनी भी चेष्टाएँ हों, सब भगवान् के लिये करना सीखे ॥ २७ ॥ यज्ञ, दान, तप अथवा जप, सदाचार का पालन और स्त्री, पुत्र, घर, अपना जीवन, प्राण तथा जो कुछ अपने को प्रिय लगता हो — सब-का-सव भगवान् के चरणों में निवेदन करना उन्हें सौंप देना सीखे ॥ २८ ॥ जिन संत पुरुषों ने सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण का अपने आत्मा और स्वामी के रूप में साक्षात्कार कर लिया हो, उनसे प्रेम और स्थावर, जङ्गम दोनों प्रकार के प्राणियों की सेवा; विशेष करके मनुष्यों की, मनुष्यों में भी परोपकारी सज्जनों की और उनमें भी भगवत्प्रेमी संतों की, करना सीखे ॥ २९ ॥ भगवान् के परम पावन यश के सम्बन्ध में ही एक-दूसरे से बातचीत करना और इस प्रकार के साधकों का इकट्ठे होकर आपस में प्रेम करना, आपस में सन्तुष्ट रहना और प्रपञ्च से निवृत्त होकर आपस में ही आध्यात्मिक शान्ति को अनुभव करना सीखे ॥ ३० ॥ राजन् ! श्रीकृष्ण राशि-राशि पापों को एक क्षण में भस्म कर देते हैं । सब उन्हीं का स्मरण करें और एक-दूसरे को स्मरण करावें । इस प्रकार साधन — भक्ति का अनुष्ठान करते-करते प्रेम-भक्ति का उदय हो जाता है और वे प्रेमोद्रेक से पुलकित शरीर धारण करते हैं ॥ ३१ ॥ उनके हृदय की बड़ी विलक्षण स्थिति होती है । कभी-कभी वे इस प्रकार चिन्ता करने लगते हैं कि अबतक भगवान् नहीं मिले, क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किससे पूछूँ, कौन मुझे उनकी प्राप्ति करावे ? इस तरह सोचते-सोचते वे रोने लगते हैं तो कभी भगवान् की लीला की स्फूर्ति हो जाने से ऐसा देखकर कि परमैश्वर्यशाली भगवान् गोपियों के डर से छिपे हुए हैं, खिलखिलाकर हँसने लगते हैं । कभी- कभी उनके प्रेम और दर्शन की अनुभूति से आनन्दमग्न हो जाते हैं तो कभी लोकातीत भाव में स्थित होकर भगवान् के साथ बातचीत करने लगते हैं । कभी मानो उन्हें सुना रहे हों, इस प्रकार उनके गुणों का गान छेड़ देते हैं और कभी नाच-नाचकर उन्हें रिझाने लगते हैं । कभी-कभी उन्हें अपने पास न पाकर इधर-उधर ढूँढने लगते हैं तो कभी-कभी उनसे एक होकर, उनकी सन्निधि में स्थित होकर परम शान्ति का अनुभव करते और चुप हो जाते हैं ॥ ३२ ॥ राजन् ! जों इस प्रकार भागवत-धर्मों की शिक्षा ग्रहण करता है, उसे उनके द्वारा प्रेम-भक्ति की प्राप्ति हो जाती है और वह भगवान् नारायण के परायण होकर उस माया को अनायास ही पार कर जाता है, जिसके पंजे से निकलना बहुत ही कठिन हैं ॥ ३३ ॥ राजा निमि ने पूछा — महर्षियो ! आपलोग परमात्मा का वास्तविक स्वरूप जाननेवालों में सर्वश्रेष्ठ हैं । इसलिये मुझे यह बतलाइये कि जिस परब्रह्म परमात्मा को ‘नारायण’ नाम से वर्णन किया जाता है, उनका स्वरूप क्या है ? ॥ ३४ ॥ अब पाँचवें योगीश्वर पिप्पलायनजी ने कहा — राजन् ! जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का निमित्त-कारण और उपादान-कारण दोनों ही है, बननेवाला भी है और बनानेवाला भी — परन्तु स्वयं कारणरहित है; जो स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति अवस्थाओं में उनके साक्षी के रूप में विद्यमान रहता है और उनके अतिरिक्त समाधि में भी ज्यों-का-त्यों एकरस रहता है; जिसकी सत्ता से ही सत्तावान् होकर शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अन्तःकरण अपना-अपना काम करने में समर्थ होते हैं, उसी परम सत्य वस्तु को आप ‘नारायण समझिये ॥ ३५ ॥ जैसे चिनगारियाँ न तो अग्नि को प्रकाशित ही कर सकती हैं और न जला ही सकती हैं, वैसे ही उस परमतत्त्व में आत्मस्वरूप में न तो मन की गति है और न वाणी को, नेत्र उसे देख नहीं सकते और बुद्धि सोच नहीं सकती, प्राण और इन्द्रियाँ तो उसके पास तक नहीं फटक पातीं । ‘नेति-नेति’ इत्यादि श्रुतियों के शब्द भी, वह यह है — इस रूप में उसका वर्णन नहीं करते, बल्कि उसको बोध करानेवाले जितने भी साधन हैं, उनका निषेध करके तात्पर्यरूप से अपना मूल-निषेध को मूल लक्षित करा देते हैं । क्योंकि यदि निषेध के आधार की, आत्मा की सत्ता न हो तो निषेध कौन कर रहा हैं, निषेधक वृत्ति किसमें हैं — इन प्रश्नों का कोई उत्तर ही न रहे, निषेध की ही सिद्धि न हो ॥ ३६ ॥ जब सृष्टि नहीं थी, तब केवल एक वहीं था । सृष्टि का निरूपण करने के लिये उसी को त्रिगुण (सत्त्व-रज-तम) मयी प्रकृति कहकर वर्णन किया गया । फिर उसी को ज्ञान-प्रधान होने से महतत्त्व, क्रिया-प्रधान होने से सूत्रात्मा और जीव की उपाधि होने से अहङ्कार के रूप में वर्णन किया गया । वास्तव में जितनी भी शक्तियाँ हैं — चाहे वे इन्द्रियों के अधिष्ठातृदेवताओं के रूप में हों, चाहे इन्द्रियों के, उनके विषयों के अथवा विषयों के प्रकाश के रूप में हों — सब-का-सब वह ब्रह्म ही है । क्योंकि ब्रह्म की शक्ति अनन्त हैं । कहाँ तक कहूँ ? जो कुछ दृश्य-अदृश्य, कार्य-कारण, सत्य और असत्य है — सब कुछ ब्रह्म हैं । इनसे परे जो कुछ है, वह भी ब्रह्म ही है ॥ ३७ ॥ वह ब्रह्मस्वरूप आत्मा न तो कभी जन्म लेता है और न मरता हैं । वह न तो बढ़ता है और न घटता ही है । जितने भी परिवर्तनशील पदार्थ हैं — चाहे वे क्रिया, सङ्कल्प और उनके अभाव के रूप में ही क्यों न हों — सबकी भूत, भविष्यत् और वर्तमान सत्ता का वह साक्षी हैं । सबमें है । देश, काल और वस्तु से अपरिच्छिन्न है, अविनाशी है । वह उपलब्धि करनेवाला अथवा उपलब्धि का विषय नहीं है । केवल उपलब्धिस्वरूप-ज्ञानस्वरूप है । जैसे प्राण तो एक ही रहता है, परन्तु स्थानभेद से उसके अनेक नाम हो जाते हैं — वैसे ही ज्ञान एक होने पर भी इन्द्रियों के सहयोग से उसमें अनेकता की कल्पना हो जाती है ॥ ३८ ॥ जगत् में चार प्रकार के जीव होते हैं — अँडा फोड़कर पैदा होनेवाले पक्षी-साँप आदि, नाल में बँधे पैदा होनेवाले पशु-मनुष्य, धरती फोड़कर निकलनेवाले वृक्ष-वनस्पति और पसीने से उत्पन्न होनेवाले खटमल आदि । इन सभी जीव-शरीरों में प्राणशक्ति जीव के पीछे लगी रहती हैं । शरीरों के भिन्न-भिन्न होने पर भी प्राण एक ही रहता है । सुषुप्ति-अवस्था में जब इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं, अहङ्कार भी सो जाता है — लीन हो जाता है अर्थात् लिङ्गशरीर नहीं रहता, उस समय यदि कूटस्थ आत्मा भी न हो तो इस बात की पीछे से स्मृति ही कैसे हो कि मैं सुख से सोया था । पीछे होनेवाली यह स्मृति ही उस समय आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करती हैं ॥ ३९ ॥ जब भगवान् कमलनाभ के चरणकमलों को प्राप्त करने की इच्छा से तीव्र भक्ति की जाती है तब वह भक्ति ही अग्नि की भाँति गुण और कर्मों से उत्पन्न हुए चित्त के सारे मलों को जला डालती है । जब चित्त शुद्ध हो जाता है, तब आत्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है — जैसे नेत्रों के निर्विकार हो जाने पर सूर्य के प्रकाश की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है ॥ ४० ॥ राजा निमि ने पूछा — योगीश्वरो ! अब आपलोग हमें कर्मयोग का उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रातिशीघ्र परम नैष्कर्म्य अर्थात् कर्तृत्व, कर्म और कर्मफल की निवृत्ति करनेवाला ज्ञान प्राप्त करता है ॥ ४१ ॥ एक बार यही प्रश्न मैंने अपने पिता महाराज इक्ष्वाकु के सामने ब्रह्माजी के मानस पुत्र सनकादि ऋषियों से पूछा था, परन्तु उन्होंने सर्वज्ञ होने पर भी मेरे प्रश्न का उत्तर न दिया । इसका क्या कारण था ? कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ ४२ ॥ अब छठे योगीश्वर आविर्होत्रजी ने कहा — राजन् ! कर्म (शास्त्रविहित), अकर्म (निषिद्ध) और विकर्म (विहित का उल्लङ्घन) — ये तीनों एकमात्र वेद के द्वारा जाने जाते हैं, इनकी व्यवस्था लौकिक रीति से नहीं होती । वेद अपौरुषेय हैं — ईश्वररूप हैं; इसलिये उनके तात्पर्य का निश्चय करना बहुत कठिन है । इसीसे बड़े-बड़े विद्वान् भी उनके अभिप्राय का निर्णय करने में भूल कर बैठते हैं । (इसीसे तुम्हारे बचपन की ओर देखकर तुम्हें अनधिकारी समझकर सनकादि ऋषियों ने तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया) ॥ ४३ ॥ यह वेद परोक्षवादात्मक है । यह कर्मों की निवृत्ति के लिये कर्म का विधान करता है, जैसे बालक को मिठाई आदि का लालच देकर औषध खिलाते हैं, वैसे ही यह अनभिज्ञों को स्वर्ग आदि का प्रलोभन देकर श्रेष्ठ कर्म में प्रवृत्त करता है ॥ ४४ ॥ जिसका अज्ञान निवृत्त नहीं हुआ हैं, जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, वह यदि मनमाने ढंग से वेदोक्त कर्मों का परित्याग कर देता है, तो वह विहित कर्मों का आचरण न करने के कारण विकर्मरूप अधर्म ही करता है । इसलिये वह मृत्यु के बाद फिर मृत्यु को प्राप्त होता है ॥ ४५ ॥ इसलिये फल की अभिलाषा छोड़कर और विश्वात्मा भगवान् को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्म का ही अनुष्ठान करता है, उसे कर्मों की निवृत्ति से प्राप्त होनेवाली ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती हैं । जो वेदों में स्वर्गादिरूप फल का वर्णन है, उसका तात्पर्य फल की सत्यता में नहीं है, वह तो कर्मों में रुचि उत्पन्न कराने के लिये है ॥ ४६ ॥ राजन् ! जो पुरुष चाहता है कि शीघ्र-से-शीघ्र मेरे ब्रह्मस्वरूप आत्मा की हृदय-ग्रन्थि — मैं और मेरे की कल्पित गाँठ खुल जाय, उसे चाहिये कि वह वैदिक और तान्त्रिक दोनों ही पद्धतियों से भगवान् की आराधना करे ॥ ४७ ॥ पहले सेवा आदि के द्वारा गुरुदेव की दीक्षा प्राप्त करे, फिर उनके द्वारा अनुष्ठान की विधि सीखे; अपने को भगवान् की जो मूर्ति प्रिय लगे, अभीष्ट जान पड़े, उसी के द्वारा पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा करे ॥ ४८ ॥ पहले स्नानादि से शरीर और सन्तोष आदि से अन्तःकरण को शुद्ध करे, इसके बाद भगवान् की मूर्ति के सामने बैठकर प्राणायाम आदि के द्वारा भूतशुद्धि-नाडी-शोधन करे, तत्पश्चात् विधिपूर्वक मन्त्र, देवता आदि के न्यास से अङ्गरक्षा करके भगवान् की पूजा करे ॥ ४९ ॥ पहले पुष्प आदि पदार्थों का जन्तु आदि निकालकर, पृथ्वी को सम्मार्जन आदि से, अपने को अव्यग्र होकर और भगवान् की मूर्ति को पहले ही की पूजा के लगे हुए पदार्थों के क्षालन आदि से पूजा के योग्य बनाकर फिर आसन पर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल छिड़ककर पाद्य, अर्घ्य आदि पात्रों को स्थापित करे । तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर हृदय में भगवान् का ध्यान करके फिर उसे सामने की श्रीमूर्ति में चिन्तन करे । तदनन्तर हृदय, सिर, शिखा (हृदयाय नमः, शिरसे स्वाहा) इत्यादि मन्त्रों से न्यास करे और अपने इष्टदेव के मूलमन्त्र के द्वारा देश, काल आदि के अनुकूल प्राप्त पूजा-सामग्री से प्रतिमा आदि में अथवा हृदय में भगवान् की पूजा करे ॥ ५०-५१ ॥ अपने-अपने उपास्यदेव के विग्रह की हृदयादि अङ्ग, आयुधादि उपाङ्ग और पार्षदोंसहित उसके मूलमन्त्र द्वारा पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गन्ध, पुष्प, दधि-अक्षत के तिलक, माला, धूप, दीप और नैवेद्य आदि से विधिवत् पूजा करे तथा फिर स्तोत्र द्वारा स्तुति करके सपरिवार भगवान् श्रीहरि को नमस्कार करे ॥ ५२-५३ ॥ अपने आपको भगवन्मय ध्यान करते हुए ही भगवान् की मूर्ति का पूजन करना चाहिये । निर्माल्य को अपने सिर पर रखे और आदर के साध भगवद्विग्रह को यथास्थान स्थापित कर पूजा समाप्त करनी चाहिये ॥ ५४ ॥ इस प्रकार जो पुरुष अग्नि, सूर्य, जल, अतिथि और अपने हृदय में आत्मरूप श्रीहरि की पूजा करता है, वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है ॥ ५५ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related