श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय ५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
पाँचवाँ अध्याय
भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान् की पूजाविधि का वर्णन

राजा निमि ने पूछा — योगीश्वरो ! आपलोग तो श्रेष्ठ आत्मज्ञानी और भगवान् के परमभक्त हैं । कृपा करके यह बतलाइये कि जिनकी कामनाएँ शान्त नहीं हुई हैं, लौकिक-पारलौकिक भोगों की लालसा मिटी नहीं है और मन एवं इन्द्रियाँ भी वश में नहीं हैं तथा जो प्रायः भगवान् का भजन भी नहीं करते, ऐसे लोगों की क्या गति होती हैं ?॥ १ ॥

अब आठवें योगीश्वर चमसजी ने कहा —
राजन् ! विराट् पुरुष के मुख से सत्त्वप्रधान ब्राह्मण, भुजाओं से सत्त्व-रजप्रधान क्षत्रिय, जाँघों से रज-तमप्रधान वैश्य और चरणों से तमःप्रधान शूद्र की उत्पत्ति हुई है । उन्हीं की जाँघों से गृहस्थाश्रम, हृदय से ब्रह्मचर्य, वक्षःस्थल से वानप्रस्थ और मस्तक से संन्यास — ये चार आश्रम प्रकट हुए हैं । इन चारों वर्णों और आश्रमों के जन्मदाता स्वयं भगवान् ही हैं । वही इनके स्वामी, नियन्त्ता और आत्मा भी हैं । इसलिये इन वर्ण और आश्रम में रहनेवाला जो मनुष्य भगवान् का भजन नहीं करता, बल्कि उलटा उनको अनादर करता है, वह अपने स्थान, वर्ण, आश्रम और मनुष्य-योनि से भी च्युत हो जाता है, उसका अधःपतन हो जाता है ॥ २-३ ॥ बहुत-सी स्त्रियाँ और शूद्र आदि भगवान् की कथा और उनके नामकीर्तन आदि से कुछ दूर पड़ गये हैं । वे आप-जैसे भगवद्भक्तों की दया के पात्र हैं । आपलोग उन्हें कथा-कीर्तन की सुविधा देकर उनका उद्धार करें ॥ ४ ॥

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जन्म से, वेदाध्ययन से तथा यज्ञोपवीत आदि संस्कारों से भगवान् के चरणों के निकट तक पहुंच चुके हैं । फिर भी वे वेदों का असली तात्पर्य न समझकर अर्थवाद में लगकर मोहित से जाते हैं ॥ ५ ॥ उन्हें कर्म का रहस्य मालूम नहीं है । मूर्ख होने पर भी वे अपने को पण्डित मानते हैं और अभिमान में अकड़े रहते हैं । वे मीठी-मीठी बातों में भूल जाते हैं और केवल वस्तु-शून्य शब्द-माधुरी के मोह में पड़कर चटकीली-भड़कीली बातें कहा करते हैं ॥ ६ ॥ रजोगुण की अधिकता के कारण उनके सङ्कल्प बड़े घोर होते हैं । कामनाओं की तो सीमा ही नहीं रहती, उनका क्रोध भी ऐसा होता है जैसे साँप का, बनावट और घमंड से उन्हें प्रेम होता है । वे पापी लोग भगवान् के प्यारे भक्तों की हँसी उड़ाया करते हैं ॥ ७ ॥ वे मूर्ख बड़े-बूढों की नहीं, स्त्रियों की उपासना करते हैं । यही नहीं, वे परस्पर इकट्ठे होकर उस घर-गृहस्थी के सम्बन्ध में ही बड़े-बड़े मनसूबे बाँधते हैं, जहाँ का सबसे बड़ा सुख स्त्री-सहवास में ही सीमित है । वे यदि कभी यज्ञ भी करते हैं तो अन्न-दान नहीं करते, विधि का उल्लङ्घन करते और दक्षिणा तक नहीं देते । वे कर्म का रहस्य न जाननेवाले मूर्ख केवल अपनी जीभ को सन्तुष्ट करने और पेट की भूख मिटाने — शरीर को पुष्ट करने के लिये बेचारे पशुओं की हत्या करते हैं ॥ ८ ॥

धन-वैभव, कुलीनता, विद्या, दान, सौन्दर्य, बल और कर्म आदि के घमंड से अंधे हो जाते हैं तथा वे दुष्ट उन भगवत्प्रेमी संतों तथा ईश्वर का भी अपमान करते रहते हैं ॥ ९ ॥ राजन् ! वेदों ने इस बात को बार-बार दुहराया है कि भगवान् आकाश के समान नित्य-निरन्तर समस्त शरीरधारियों में स्थित हैं । वे ही अपने आत्मा और प्रियतम हैं । परन्तु वे मूर्ख इस वेदवाणी को तो सुनते ही नहीं और केवल बड़े-बड़े मनोरथों की बात आपस में कहते-सुनते रहते. हैं ॥ १० ॥ (वेद-विधि के रूप में ऐसे ही कर्मों को करने की आज्ञा देता है कि जिनमें मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती ।) संसार में देखा जाता है कि मैथुन, मांस और मद्य की ओर प्राणी को स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है । तब उसे उसमें प्रवृत्त करने के लिये विधान तो हो ही नहीं सकता । ऐसी स्थिति में विवाह, यज्ञ और सौत्रामणि यज्ञ के द्वारा ही जो उनके सेवन की व्यवस्था दी गयी है, उसका अर्थ है लोगों की उच्छृङ्खल प्रवृत्ति का नियन्त्रण, उनका मर्यादा में स्थापन । वास्तव में उनकी ओर से लोगों को हटाना ही श्रुति को अभीष्ट है ॥ ११ ॥

धन का एकमात्र फल हैं धर्म; क्योंकि धर्म से ही परमतत्त्व का ज्ञान और उसकी निष्ठा अपरोक्ष अनुभूति सिद्ध होती है और निष्ठा में ही परम शान्ति है । परन्तु यह कितने खेद की बात है कि लोग उस धन का उपयोग घर-गृहस्थी के स्वार्थों में या कामभोग में ही करते हैं और यह नहीं देखते कि हमारा यह शरीर मृत्यु का शिकार है और वह मृत्यु किसी प्रकार भी टालीं नहीं जा सकती ॥ १२ ॥ सौत्रामणि यज्ञ में भी सुरा को सूँघने का ही विधान है, पीने का नहीं । यज्ञ में पशु का आलभन (स्पर्शमात्र) ही विहित है, हिंसा नहीं । इसी प्रकार अपनी धर्मपत्नी के साथ मैथुन की आज्ञा भी विषयभोग के लिये नहीं, धार्मिक परम्परा की रक्षा के निमित्त सन्तान उत्पन्न करने के लिये ही दी गयी है । परन्तु जो लोग अर्थवाद के वचनों में फंसे हैं, विषयी हैं, वे अपने इस विशुद्ध धर्म को जानते ही नहीं ॥ १३ ॥ जो इस विशुद्ध धर्म को नहीं जानते, वे घमंडी वास्तव में तो दुष्ट हैं, परन्तु समझते हैं अपने को श्रेष्ठ । वे धोखे में पड़े हुए लोग पशुओं की हिंसा करते है और मरने के बाद वे पशु ही उन मारनेवालों को खाते हैं ॥ १४ ॥

यह शरीर मृतक शरीर है । इसके सम्बन्धी भी इसके साथ ही छूट जाते हैं । जो लोग इस शरीर से तो प्रेम की गाँठ बाँध लेते हैं और दूसरे शरीरों में रहनेवाले अपने ही आत्मा एवं सर्वशक्तिमान् भगवान् से द्वेष करते हैं, उन मूर्खों का अधःपतन निश्चित है ॥ १५ ॥ जिन लोगों ने आत्मज्ञान सम्पादन करके कैवल्य-मोक्ष नहीं प्राप्त किया है और जो पूरे-पूरे मूढ़ भी नहीं है, वे अधूरे न इधर के हैं और न उधर के । वे अर्थ, धर्म, काम — इन तीनों पुरुषार्थों में फंसे रहते हैं, एक क्षण के लिये भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती । वे अपने हाथों अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हैं । ऐसे ही लोगों को आत्मघाती कहते हैं ॥ १६ ॥ अज्ञान को ही ज्ञान माननेवाले इन आत्मघातियों को कभी शान्ति नहीं मिलती, इनके कर्मों की परम्परा कभी शान्त नहीं होती । कालभगवान् सदा-सर्वदा इनके मनोरथों पर पानी फेरते रहते हैं । इनके हृदय की जलन, विषाद कभी मिटने का नहीं ॥ १७ ॥ राजन् ! जो लोग अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण से विमुख हैं, वे अत्यन्त परिश्रम करके गृह, पुत्र, मित्र और धनसम्पत्ति इकट्ठी करते हैं, परन्तु उन्हें अन्त में सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहने पर भी विवश होकर घोर नरक में जाना पड़ता है । (भगवान् का भजन न करनेवाले विषयी पुरूषों की यही गति होती हैं) ॥ १८ ॥

राजा निमि ने पूछा — योगीश्वरो ! आपलोग कृपा करके यह बतलाइये कि भगवान् किस समय किस रंग का कौन-सा आकार स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियों से उनकी उपासना करते हैं ॥ १९ ॥

अब नवें योगीश्वर करभाजनजी ने कहा — राजन् ! चार युग हैं — सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि । इन युगों में भगवान् के अनेकों रंग, नाम और आकृतियाँ होती हैं तथा विभिन्न विधियों से उनकी पूजा की जाती है ॥ २० ॥ सत्ययुग में भगवान् के श्रीविग्रह का रंग होता है श्वेत । उनके चार भुजाएँ और सिर पर जटा होती है तथा वे वल्कल का ही वस्त्र पहनते हैं । काले मृग का चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्ष की माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं ॥ २१ ॥ सत्ययुग के मनुष्य बड़े शान्त,परस्पर वैररहित, सबके हितैषी और समदर्शी होते हैं । वे लोग इन्द्रियों और मन को वश में रखकर ध्यानरूप तपस्या के द्वारा सबके प्रकाशक परमात्मा की आराधना करते हैं ॥ २२ ॥ वे लोग हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा — आदि नामों के द्वारा भगवान् के गुण, लीला आदि का गान करते हैं ॥ २३ ॥

राजन् ! त्रेतायुग में भगवान् के श्रीविग्रह का रंग होता है लाल । चार भुजाएँ होती हैं और कटिभाग में वे तीन मेखला धारण करते हैं । उनके केश सुनहले होते हैं और वे वेदप्रतिपादित यज्ञ के रूप में रहकर स्रुक्, स्रुवा आदि यज्ञ-पात्रों को धारण किया करते हैं ॥ २४ ॥ उस युग के मनुष्य अपने धर्म में बड़ी निष्ठा रखनेवाले और वेदों के अध्ययन-अध्यापन में बड़े प्रवीण होते हैं । वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदरूप वेदत्रयी के द्वारा सर्वदेवस्वरूप देवाधिदेव भगवान् श्रीहरि की आराधना करते हैं ॥ २५ ॥ त्रेतायुग में अधिकांश लोग विष्णु, यश, पृश्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त और उरुगाय आदि नामों से उनके गुण और लीला आदि का कीर्तन करते हैं ॥ २६ ॥

राजन् ! द्वापरयुग में भगवान् के श्रीविग्रह का रंग होता है साँवला । वे पीताम्बर तथा शङ्ख, चक्र, गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं । वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, भृगुलता, कौस्तुभमणि आदि लक्षणों से वे पहचाने जाते हैं ॥ २७ ॥ राजन् ! उस समय जिज्ञासु मनुष्य महाराजों के चिह्न छत्र, चँवर आदि से युक्त परमपुरुष भगवान् की वैदिक और तान्त्रिक विधि से आराधना करते हैं ॥ २८ ॥ वे लोग इस प्रकार भगवान् की स्तुति करते हैं — ‘हे ज्ञानस्वरूप भगवान् वासुदेव एवं क्रियाशक्तिरूप सङ्कर्षण ! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं । भगवान् प्रद्युम्न और अनिरुद्ध के रूप में हम आपको नमस्कार करते हैं । ऋषि नारायण, महात्मा नर, विश्वेश्वर, विश्वरूप और सर्वभूतात्मा भगवान् को हम नमस्कार करते हैं ॥ २९-३० ॥ राजन् ! द्वापरयुग में इस प्रकार लोग जगदीश्वर भगवान् की स्तुति करते हैं । अब कलियुग में अनेक तन्त्रों के विधि-विधान से भगवान् की जैसी पूजा की जाती है, उसका वर्णन सुनो — ॥ ३१ ॥

कलियुग में भगवान् का श्रीविग्रह होता हैं कृष्णवर्ण-काले रंग का । जैसे नीलम मणि में से उज्ज्वल कान्तिधारा निकलती रहती है, वैसे ही उनके अङ्ग की छटा भी उज्ज्वल होती हैं । वे हृदय आदि अङ्ग, कौस्तुभ आदि उपाङ्ग, सुदर्शन आदि अस्त्र और सुनन्द प्रभृति पार्षदों से संयुक्त रहते हैं । कलियुग में श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न पुरुष ऐसे यज्ञों के द्वारा उनकी आराधना करते हैं, जिनमें नाम, गुण, लीला आदि के कीर्तन की प्रधानता रहती हैं ॥ ३२ ॥ वे लोग भगवान् की स्तुति इस प्रकार करते हैं — ‘प्रभो आप शरणागतरक्षक हैं । आपके चरणारविन्द सदा-सर्वदा ध्यान करने योग्य, माया-मोह के कारण होनेवाले सांसारिक पराजय का अन्त कर देनेवाले तथा भक्तों की समस्त अभीष्ट वस्तुओं का दान करनेवाले कामधेनुस्वरूप हैं । वे तीर्थों को भी तीर्थ बनानेवाले स्वयं परम तीर्थस्वरूप हैं । शिव, ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता उन्हें नमस्कार करते हैं और चाहे जो कोई उनकी शरण में आ जाय, उसे स्वीकार कर लेते हैं । सेवकों की समस्त आर्ति और विपत्ति के नाशक तथा संसार-सागर से पार जाने के लिये जहाज हैं । महापुरुष ! मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दों की वन्दना करता हूँ ॥ ३३ ॥ भगवन् ! आपके चरणकमलों की महिमा कौन कहे ? रामावतार में अपने पिता दशरथजी के वचनों से देवताओं के लिये भी वाञ्छनीय और दुस्त्यज राज्यलक्ष्मी को छोड़कर आपके चरण-कमल वन-वन घूमते फिरे ! सचमुच आप धर्मनिष्ठता की सीमा हैं । और महापुरुष ! अपनी प्रेयसी सीताजी के चाहने पर जानबूझकर आपके चरण-कमल मायामृग के पीछे दौड़ते रहे । सचमुच आप प्रेम की सीमा हैं । प्रभो ! मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दों की वन्दना करता हूँ ॥ ३४ ॥

राजन् ! इस प्रकार विभिन्न युगों के लोग अपने-अपने युग के अनुरूप नाम-रूपों द्वारा विभिन्न प्रकार से भगवान् की आराधना करते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष — सभी पुरुषार्थों के एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीहरि ही है ॥ ३५ ॥ कलियुग में केवल सङ्कीर्तन से ही सारे स्वार्थ और परमार्थ बन जाते हैं । इसलिये इस युग का गुण जाननेवाले सारग्राही श्रेष्ठ पुरुष कलियुग की बड़ी प्रशंसा करते हैं, इससे बड़ा प्रेम करते हैं ॥ ३६ ॥ देहाभिमानी जीव संसारचक्र में अनादि काल से भटक रहे हैं । उनके लिये भगवान् की लीला, गुण और नाम के कीर्तन से बढ़कर और कोई परम लाभ नहीं है; क्योंकि इससे संसार में भटकना मिट जाता है और परम शान्ति का अनुभव होता है ॥ ३७ ॥ राजन् ! सत्ययुग, त्रेता और द्वापर की प्रजा चाहती है कि हमारा जन्म कलियुग में हो; क्योंकि कलियुग में कहीं-कहीं भगवान् नारायण के शरणागत — उन्हीं के आश्रय में रहनेवाले बहुत-से भक्त उत्पन्न होंगे । महाराज विदेह ! कलियुग में द्रविड़देश में अधिक भक्त पाये जाते हैं; जहाँ ताम्रपर्णी, कृतमाला, पयस्विनी, परम पवित्र कावेरी, महानदी और प्रतीची नाम की नदियाँ बहती हैं । राजन् ! जो मनुष्य इन नदियों का जल पीते हैं, प्रायः उनका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता हैं और वे भगवान् वासुदेव के भक्त हो जाते हैं ॥ ३८-४० ॥

राजन् ! जो मनुष्य ‘यह करना बाकी है, वह करना आवश्यक हैं’ — इत्यादि कर्म-वासनाओं का अथवा भेदबुद्धि का परित्याग करके सर्वात्मभाव से शरणागतवत्सल, प्रेम के वरदानी भगवान् मुकुन्द की शरण में आ गया है, वह देवताओं, ऋषियों पितरों, प्राणियों, कुम्बियों और अतिथियों के ऋण से उऋण हो जाता है; वह किसी के अधीन, किसी का सेवक, किसी के बन्धन में नहीं रहता ॥ ४१ ॥ जो प्रेमी भक्त अपने प्रियतम भगवान् के चरणकमलों का अनन्यभाव से — दूसरी भावनाओं, अवस्थाओं, वृत्तियों और प्रवृत्तियों को छोड़कर — भजन करता है, उससे पहली बात तो यह है कि पापकर्म होते ही नहीं; परन्तु यदि कभी किसी प्रकार हो भी जायें तो परमपुरुष भगवान् श्रीहरि उसके हृदय में बैठकर वह सब धो-बहा देते और उसके हृदय को शुद्ध कर देते हैं ॥ ४३ ॥

नारदजी कहते हैं — वसुदेवजी ! मिथिलानरेश राजा निमि नौ योगीश्वरों से इस प्रकार भागवतधर्म का वर्णन सुनकर बहुत ही आनन्दित हुए । उन्होंने अपने ऋत्विज् और आचार्यों के साथ ऋषभनन्दन नव योगीश्वरों की पूजा की ॥ ४३ ॥ इसके बाद सब लोगों के सामने ही वे सिद्ध अन्तर्धान हो गये । विदेहराज निमि ने उनसे सुने हुए भागवतधर्मों का आचरण किया और परमगति प्राप्त की ॥ ४४ ॥ महाभाग्यवान् वसुदेवजी ! मैंने तुम्हारे आगे जिन भागवतधर्मों का वर्णन किया है, तुम भी यदि श्रद्धा के साथ इनका आचरण करोगे तो अन्त में सब आसक्तियों से छूटकर भगवान् का परमपद प्राप्त कर लोगे ॥ ४५ ॥ वसुदेवजी ! तुम्हारे और देवकी के यश से तो सारा जगत् भरपूर हो रहा है, क्योंकि सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४६ ॥ तुमलोगो ने भगवान् के दर्शन, आलिङ्गन तथा बातचीत करने एवं उन्हें सुलाने, बैठाने, खिलाने आदि के द्वारा वात्सल्य-स्नेह करके अपना हृदय शुद्ध कर लिया है; तुम परम पवित्र हो गये हो ॥ ४७ ॥

वसुदेवजी ! शिशुपाल, पौण्ड्रक और शाल्व आदि राजाओं ने तो वैरभाव से श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, लीला-विलास, चितवन-बोलन आदि का स्मरण किया था । वह भी नियमानुसार नहीं, सोते, बैठते, चलते- फिरते–स्वाभाविकरूप से ही । फिर भी उनकी चित्तवृति श्रीकृष्णाकार हो गयी और वे सारूप्य-मुक्ति के अधिकारी हुए । फिर जो लोग प्रेमभाव और अनुराग से श्रीकृष्ण का चिन्तन करते हैं, उन्हें श्रीकृष्ण की प्राप्ति होने में कोई सन्देह है क्या ? ॥ ४८ ॥ वसुदेवजी ! तुम श्रीकृष्ण को केवल अपना पुत्र ही मत समझो । वे सर्वात्मा, सर्वेश्वर, कारणातीत और अविनाशी हैं । उन्होंने लीला के लिये मनुष्यरूप प्रकट करके अपना ऐश्वर्य छिपा रखा हैं ॥ ४९ ॥ वे पृथ्वी के भारभूत राजवेषधारी असुरों का नाश और संतों की रक्षा करने के लिये तथा जीवों को परम शान्ति और मुक्ति देने के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं और इसके लिये जगत् में उनकी कीर्ति भी गायी जाती है ॥ ५० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — प्रिय परीक्षित् ! नारदजी के मुख से यह सब सुनकर परम भाग्यवान् वसुदेवजी और परम भाग्यवती देवकीजी को बड़ा ही विस्मय हुआ । उनमें जो कुछ माया-मोह अवशेष था, उसे उन्होंने तत्क्षण छोड़ दिया ॥ ५१ ॥ राजन् ! यह इतिहास परम पवित्र है । जो एकाग्रचित से इसे धारण करता है, वह अपना सारा शोक-मोह दूर करके ब्रह्मपद को प्राप्त होता है ॥ ५२ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे पञ्चमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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