श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय ८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
आठवाँ अध्याय
अवधूतोपाख्यान — अजगर से लेकर पिङ्गला तक नौ गुरुओं की कथा

अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं — राजन् ! प्राणियों को जैसे बिना इच्छा के, बिना किसी प्रयत्न के रोकने की चेष्टा करने पर भी पूर्वकर्मानुसार दुःख प्राप्त होते हैं, वैसे ही स्वर्ग में या नरक में — कहीं भी रहे, उन्हें इन्द्रिय-सम्बन्धी सुख भी प्राप्त होते ही हैं । इसलिये सुख और दुःख का रहस्य जाननेवाले बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि इनके लिये इच्छा अथवा किसी प्रकार का प्रयत्न न करे ॥ १ ॥ बिना माँगे, बिना इच्छा किये स्वयं ही अनायास जो कुछ मिल जाय — वह चाहे रूखा-सूखा हो, चाहे बहुत मधुर और स्वादिष्ट, अधिक हो या थोड़ा — बुद्धिमान् पुरुष अजगर के समान उसे ही खाकर जीवन-निर्वाह कर ले और उदासीन रहे ॥ २ ॥ यदि भोजन न मिले तो उसे भी प्रारब्ध-भोग समझकर किसी प्रकार की चेष्टा न करे, बहुत दिनों तक भूखा ही पड़ा रहे । उसे चाहिये कि अजगर के समान केवल प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त हुए भोजन में ही सन्तुष्ट रहे ॥ ३ ॥ उसके शरीर में मनोबल, इन्द्रियबल और देहबल — तीनों हों तब भी वह निश्चेष्ट ही रहे । निद्रारहित होने पर भी सोया हुआ-सा रहे और कर्मेन्द्रियों के होने पर भी उनसे कोई चेष्टा न करे । राजन् ! मैंने अजगर से यही शिक्षा ग्रहण की हैं ॥ ४ ॥

समुद्र से मैंने यह सीखा है कि साधक को सर्वदा प्रसन्न और गम्भीर रहना चाहिये, उसका भाव अथाह, अपार और असीम होना चाहिये तथा किसी भी निमित्त से उसे क्षोभ न होना चाहिये । उसे ठीक वैसे ही रहना चाहिये, जैसे ज्वार-भाटे और तरङ्गों से रहित शान्त समुद्र ॥ ५ ॥ देखो, समुद्र वर्षाऋतु में नदियों की बाढ़ के कारण बढ़ता नहीं और न ग्रीष्म-ऋतु में घटता ही है, वैसे ही भगवत्परायण साधक को भी सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति से प्रफुल्लित न होना चाहिये और न उनके घटने से उदास ही होना चाहिये ॥ ६ ॥

राजन् ! मैंने पतिंगे से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह रूप पर मोहित होकर आग में कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियों को वश में न रखनेवाला पुरुष जब स्त्री को देखता है तो उसके हाव-भाव पर लट्टू हो जाता है और घोर अन्धकार में, नरक में गिरकर अपना सत्यानाश कर लेता है । सचमुच स्त्री देवताओं की वह माया है, जिससे जीव भगवान् या मोक्ष की प्राप्ति से वञ्चित रह जाता है ॥ ७ ॥ जो मूढ़ कामिनी-कञ्चन, गहने-कपड़े आदि नाशवान् मायिक पदार्थों में फँसा हुआ है और जिसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति उनके उपभोग के लिये ही लालायित है, वह अपनी विवेकबुद्ध खोकर पतिंगे के समान नष्ट हो जाता है ॥ ८ ॥

राजन् ! संन्यासी को चाहिये कि गृहस्थों को किसी प्रकार का कष्ट न देकर भौंरे की तरह अपना जीवन-निर्वाह करे । वह अपने शरीर के लिये उपयोगी रोटी के कुछ टुकड़े कई घरों से माँग ले ॥ ९ ॥ जिस प्रकार भौंरा विभिन्न पुष्पोंसे–चाहे वे छोटे हों या बड़े — उनका सार संग्रह करता है, वैसे ही बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि छोटे-बड़े सभी शास्त्रों से उनका सार—उनका रस निचोड़ ले ॥ १० ॥ राजन् ! मैंने मधु-मक्खी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सायङ्काल अथवा दूसरे दिन के लिये भिक्षा का संग्रह न करना चाहिये । उसके पास भिक्षा लेने का कोई पात्र हो तो केवल हाथ और रखने के लिये कोई बर्तन हो तो पेट । वह कहीं संग्रह न कर बैठे, नहीं तो मधुमक्खियों के समान उसका जीवन ही दूभर हो जायगा ॥ ११ ॥ यह बात खूब समझ लेनी चाहिये कि संन्यासी सवेरे-शाम के लिये किसी प्रकार का संग्रह न करे; यदि संग्रह करेगा, तो मधुमक्खियों के समान अपने संग्रह के साथ ही जीवन भी गँवा बैठेगा ॥ १२ ॥

राजन् ! मैंने हाथी से यह सीखा कि संन्यासी को कभी पैर से भी काठ की बनी हुई स्त्री का भी स्पर्श न करना चाहिये । यदि वह ऐसा करेगा तो जैसे हथिनी के अङ्ग-सङ्ग से हाथी बँध जाता है, वैसे ही वह भी बँध जायगा ॥ १३ ॥ विवेकी पुरुष किसी भी स्त्री को कभी भी भोग्यरूप से स्वीकार न करे; क्योंकि यह उसकी मूर्तिमती मृत्यु है । यदि वह स्वीकार करेगा तो हाथियों से हाथी की तरह अधिक बलवान् अन्य पुरुषों के द्वारा मारा जायगा ॥ १४ ॥

मैंने मधु निकालनेवाले पुरुष से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संसार के लोभी पुरुष बड़ी कठिनाई से धन का सञ्चय तो करते रहते हैं, किन्तु वह सञ्चित धन न किसी को दान करते हैं और न स्वयं उसका उपभोग : ही करते हैं । बस, जैसे मधु निकालनेवाला मधुमक्खियों द्वारा सञ्चित रस को निकाल ले जाता है, वैसे ही उनके सञ्चित धन को भी उसकी टोह रखनेवाला कोई दूसरा पुरुष ही भोगता है ॥ १५ ॥ तुम देखते हो न कि मधुहारी मधुमक्खियों का जोड़ा हुआ मधु उनके खाने से पहले ही साफ कर जाता है, वैसे ही गृहस्थों के बहुत कठिनाई से सञ्चित किये पदार्थों को, जिनसे वे सुखभोग की अभिलाषा रखते हैं, उनसे भी पहले संन्यासी और ब्रह्मचारी भोगते हैं, क्योंकि गृहस्थ तो पहले अतिथि-अभ्यागत को भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करेगा ॥ १६ ॥

मैंने हरिन से यह सीखा है कि वनवासी संन्यासी को कभी विषय-सम्बन्धी गीत नहीं सुनने चाहिये । वह इस बात की शिक्षा उस हरिन से ग्रहण करे, जो व्याध के गीत से मोहित होकर बँध जाता है ॥ १७ ॥ तुम्हें इस बात का पता है कि हरिनी के गर्भ से पैदा हुए ऋष्यशृङ्ग मुनि स्त्रियों का विषय-सम्बन्धी गाना-बजाना, नाचना आदि देख-सुनकर उनके वश में हो गये थे और उनके हाथ की कठपुतली बन गये थे ॥ १८ ॥

अब मैं तुम्हें मछली की सीख सुनाता हूँ । जैसे मछली काँटे में लगे हुए मांस के टुकड़े के लोभ से अपने प्राण गँवा देती हैं, वैसे ही स्वाद का लोभी दुर्बुद्धि मनुष्य भी मन को मथकर व्याकुल कर देनेवाली अपनी जिह्वा के वश में हो जाता हैं और मारा जाता है ॥ १९ ॥ विवेकी पुरुष भोजन बंद करके दूसरी इन्द्रियों पर तो बहुत शीघ्र विजय प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु इससे उनकी रसना-इन्द्रिय वश में नहीं होती । वह तो भोजन बंद कर देने से और भी प्रबल हो जाती है ॥ २० ॥ मनुष्य और सब इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी तब तक जितेन्द्रिय नहीं हो सकता, जब तक रसनेन्द्रिय को अपने वश में नहीं कर लेता; और यदि रसनेन्द्रिय को वश में कर लिया, तब तो मानो सभी इन्द्रियाँ वश में हो गयीं ॥ २१ ॥

नृपनन्दन ! प्राचीन काल की बात है, विदेहनगरी मिथिला में एक वेश्या रहती थी । उसका नाम था पिङ्गला । मैंने उससे जो कुछ शिक्षा ग्रहण की, वह मैं तुम्हे सुनाता हूँ । सावधान होकर सुनो ॥ २२ ॥ वह स्वेच्छाचारिणी तो थी ही, रूपवती भी थी । एक दिन रात्रि के समय किसी पुरुष को अपने रमणस्थान में लाने के लिये खूब बन-ठनकर उत्तम वस्त्राभूषणों से सजकर बहुत देर तक अपने घर के बाहरी दरवाजे पर खड़ी रही ॥ २३ ॥ नररत्न ! उसे पुरुष की नहीं, धन की कामना थी और उसके मन में यह कामना इतनी दृढमूल हो गयी थी कि वह किसी भी पुरुष को उधर से आते-जाते देखकर यही सोचती कि यह कोई धनी है और मुझे धन देकर उपभोग करने के लिये ही आ रहा है ॥ २४ ॥ जब आने-जानेवाले आगे बढ़ जाते, तब फिर वह संकेतजीविनी वेश्या यही सोचती कि अवश्य ही अबकी बार कोई ऐसा धनी मेरे पास आवेगा जो मुझे बहुत-सा धन देगा ॥ २५ ॥ उसके चित्त की यह दुराशा बढ़ती ही जाती थी । वह दरवाजे पर बहुत देर तक टँगी रही । उसकी नींद भी जाती रही । वह कभी बाहर आती, तो कभी भीतर जाती । इस प्रकार आधी रात हो गयी ॥ २६ ॥

राजन् ! सचमुच आशा और सो भी धन की — बहुत बुरी है । धनी की बाट जोहते-जोहते उसका मुँह सूख गया, चित्त व्याकुल हो गया । अब उसे इस वृत्ति से बड़ा वैराग्य हुआ । उसमें दुःख-बुद्धि हो गयी । इसमें सन्देह नहीं कि इस वैराग्य का कारण चिन्ता ही थी । परन्तु ऐसा वैराग्य भी है तो सुख का ही हेतु ॥ २७ ॥ जब पिङ्गला के चित्त में इस प्रकार वैराग्य की भावना जाग्रत् हुई तब उसने एक गीत गाया । वह में तुम्हें सुनाता हूँ । राजन् ! मनुष्य आशा की फाँसी पर लटक रहा है । इसको तलवार की तरह काटनेवाली यदि कोई वस्तु है तो वह केवल वैराग्य है ॥ २८ ॥ प्रिय राजन् ! जिसे वैराग्य नहीं हुआ है, जो इन बखेड़ो से ऊबा नहीं है, वह शरीर और इसके बन्धन से उसी प्रकार मुक्त नहीं होना चाहता, जैसे अज्ञानी पुरुष ममता छोड़ने की इच्छा भी नहीं करता ॥ २९ ॥

पिङ्गला ने यह गीत गाया था — हाय ! हाय ! मैं इन्द्रियों के अधीन हो गयी । भला मेरे मोह का विस्तार तो देखो, मैं इन दुष्ट पुरुषों से, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है, विषयसुख की लालसा करती हूँ । कितने दुःख की बात है ! मैं सचमुच मूर्ख हूँ ॥ ३० ॥ देखो तो सही, मेरे निकट-से-निकट हृदय में ही मेरे सच्चे स्वामी भगवान् विराजमान हैं । वे वास्तविक प्रेम, सुख और परमार्थ का सच्चा धन भी देनेवाले हैं । जगत् के पुरुष अनित्य हैं । और वे नित्य हैं । हाय ! हाय ! मैंने उनको तो छोड़ दिया और उन तुच्छ मनुष्यों का सेवन किया, जो मेरी एक भी कामना पूरी नहीं कर सकते; उलटे दुःख-भय, आधि-व्याधि, शोक और मोह ही देते हैं । यह मेरी मूर्खता की हद है कि मैं उनका सेवन करती हूँ ॥ ३१ ॥ बड़े खेद की बात है, मैंने अत्यन्त निन्दनीय आजीविका वेश्यावृत्ति का आश्रय लिया और व्यर्थ में अपने शरीर और मन को क्लेश दिया, पीड़ा पहुँचायी । मेरा यह शरीर बिक गया है । लम्पट, लोभी और निन्दनीय मनुष्यों ने इसे खरीद लिया है और मैं इतनी मूर्ख हूँ कि इसी शरीर से धन और रति-सुख चाहती हूँ । मुझे धिक्कार है !॥ ३२ ॥

यह शरीर एक घर है । इसमें हड्ड़ियों के टेढ़े-तिरछे बाँस और खंभे लगे हुए हैं; चाम, रोएँ और नाखूनों से यह छाया गया है । इसमें नौ दरवाजे हैं, जिनसे मल निकलते ही रहते हैं । इसमें सञ्चित सम्पत्ति के नाम पर केवल मल और मूत्र है । मेरे अतिरिक्त ऐसी कौन सी है, जो इस स्थूलशरीर को अपना प्रिय समझकर सेवन करेगी ॥ ३३ ॥ यों तो यह विदेहों की–जीवन्मुक्तों की नगरी है, परन्तु इसमें मैं ही सबसे मूर्ख और दुष्ट हूँ । क्योंकि अकेली मैं ही तो आत्मदानी, अविनाशी एवं परमप्रियतम परमात्मा को छोड़कर दूसरे पुरुष की अभिलाषा करती हूँ ॥ ३४ ॥ मेरे हदय में विराजमान प्रभु, समस्त प्राणियों के हितैषी, सुहृद्, प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं । अब मैं अपने आपको देकर इन्हें खरीद लूँगी और इनके साथ वैसे ही विह्मर करूँगी, जैसे लक्ष्मीजी करती हैं ॥ ३५ ॥ मेरे मूर्ख चित्त ! तू बतला तो सही, जगत् के विषय-भोगों ने और उनको देनेवाले पुरुषों ने तुझे कितना सुख दिया है । अरे ! वे तो स्वयं ही पैदा होते और मरते रहते हैं । मैं केवल अपनी ही बात नहीं कहती, केवल मनुष्यों की भी नहीं; क्या देवताओ ने भी भोगों के द्वारा अपनी पत्नियों को सन्तुष्ट किया है ? वे बेचारे तो स्वयं काल के गाल में पड़े-पड़े कराह रहे हैं ॥ ३६ ॥

अवश्य ही मेरे किसी शुभकर्म से विष्णुभगवान् मुझ पर प्रसन्न हैं, तभी तो दुराशा से मुझे इस प्रकार वैराग्य हुआ है । अवश्य ही मेरा यह वैराग्य सुख देनेवाला होगा ॥ ३७ ॥ यदि मैं मन्दभागिनी होती तो मुझे ऐसे दुःख ही न उठाने पड़ते, जिनसे वैराग्य होता है । मनुष्य वैराग्य के द्वारा ही घर आदि के सब बन्धनों को काटकर शान्ति-लाभ करता है ॥ ३८ ॥ अब मैं भगवान् का यह उपकार आदरपूर्वक सिर झुकाकर स्वीकार करती हूँ और विषयभोगों की दुराशा छोड़कर उन्हीं जगदीश्वर की शरण ग्रहण करती हूँ ॥ ३९ ॥ अब मुझे प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जायगा, उसी से निर्वाह कर लूँगी और बड़े सन्तोष तथा श्रद्धा के साथ रहूँगी । मैं अब किसी दूसरे पुरुष की ओर न ताककर अपने हृदयेश्वर, आत्मस्वरूप प्रभु के साथ ही विहार करूँगी ॥ ४० ॥ यह जीव संसार के कुएँ में गिरा हुआ है । विषयों ने इसे अँधा बना दिया है, कालरूपी अजगर ने इसे अपने मुँह में दबा रक्खा है । अब भगवान् को छोड़कर इसकी रक्षा करने में दूसरा कौन समर्थ है ॥ ४१ ॥ जिस समय जीव समस्त विषयों से विरक्त हो जाता है, उस समय वह स्वयं ही अपनी रक्षा कर लेता है । इसलिये बड़ी सावधानी के साथ यह देखते रहना चाहिये कि सारा जगत् कालरूपी अजगर से ग्रस्त है ॥ ४२ ॥

अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं — राजन् ! पिङ्गला वेश्या ने ऐसा निश्चय करके अपने प्रिय धनियों की दुराशा, उनसे मिलने की लालसा का परित्याग कर दिया और शान्तभाव से जाकर वह अपनी सेज पर सो रही ॥ ४३ ॥ सचमुच आशा ही सबसे बड़ा दुःख है और निराशा ही सबसे बड़ा सुख है; क्योंकि पिङ्गला वेश्या ने जब पुरुष की आशा त्याग दी, तभी वह सुख से सो सकी ॥ ४४ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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