May 6, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय ९ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नवाँ अध्याय अवधूतोपाख्यान-कुरर से लेकर शृंगी तक सात गुरुओं की कथा अवधूत दत्तात्रेयजी ने कहा — राजन् ! मनुष्यों को जो वस्तुएँ अत्यन्त प्रिय लगती हैं, उन्हें इकट्ठा करना ही उनके दुःख का कारण है । जो बुद्धिमान् पुरुष यह बात समझकर अकिञ्जनभाव से रहता है — शरीर की तो बात ही अलग, मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता — उसे अनन्त सुखस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होती है ॥ १ ॥ एक कुररपक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिये हुए था । उसी समय दूसरे बलवान् पक्षी, जिनके पास मांस नहीं था, उससे छीनने के लिये उसे घेरकर चोंच मारने लगे । जब कुरर पक्षी ने अपनी चोंच से मांस का टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला ॥ २ ॥ मुझे मान या अपमान का कोई ध्यान नहीं है और घर एवं परिवारवालों को जो चिन्ता होती है, वह मुझे नहीं है । मैं अपने आत्मा में ही रमता हूँ और अपने साथ ही क्रीडा करता हूँ । यह शिक्षा मैंने बालक से ली है । अतः उसी के समान मैं भी मौज से रहता हूँ ॥ ३ ॥ इस जगत् में दो ही प्रकार के व्यक्ति निश्चिन्त और परमानन्द में मग्न रहते हैं — एक तो भोलाभाला निश्चेष्ट नन्हा-सा बालक और दूसरा वह पुरुष जो गुणातीत हो गया हो ॥ ४ ॥ एक बार किसी कुमारी कन्या के घर उसे वरण करने के लिये कई लोग आये हुए थे । उस दिन उसके घर के लोग कहीं बाहर गये हुए थे । इसलिये उसने स्वयं ही उनका आतिथ्य-सत्कार किया ॥ ५ ॥ राजन् ! उनको भोजन कराने के लिये वह घर के भीतर एकान्त में धान कुटने लगी । उस समय उसकी कलाई में पड़ी शंख की चूड़ियाँ जोर से बज रही थीं ॥ ६ ॥ इस शब्द को निन्दित समझकर कुमारी को बड़ी लज्जा मालूम हुई और उसने एक-एक करके सब चूड़ियाँ तोड़ डालीं और दोनों हाथों में केवल दो-दो चूड़ियाँ रहने दीं ॥ ७ ॥ अब वह फिर धान कुटने लगी । परन्तु वे दो-दो चूड़ियाँ भी बजने लगीं, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी । जब दोनों कलाइयों में केवल एक-एक चूड़ी रह गयी, तब किसी प्रकार की आवाज नहीं हुई ॥ ८ ॥ रिपुदमन ! उस समय लोगों का आचार-विचार निरखने-परखने के लिये इधर-उधर घूमता-घामता मैं भी वहाँ पहुँच गया था । मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं, तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते हैं । तब भी बातचीत तो होती ही है, इसलिये कुमारी कन्या की चूड़ी के समान अकेले ही विचरना चाहिये ॥ ९-१० ॥ राजन् ! मैंने बाण बनानेवाले से यह सीखा है कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य और अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में कर ले और फिर बड़ी सावधानी के साथ उसे एक लक्ष्य में लगा दे ॥ ११ ॥ जब परमानन्दस्वरूप परमात्मा में मन स्थिर हो जाता है, तब वह धीरे-धीरे कर्मवासनाओं की धूल को धो-बहाता है । सत्त्वगुण की वृद्धि से रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियों का त्याग करके मन वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे ईंधन के बिना अग्नि ॥ १२ ॥ इस प्रकार जिसका चित्त अपने आत्मा में ही स्थिर-निरुद्ध हो जाता है, उसे बाहर-भीतर कहीं किसी पदार्थ का भान नहीं होता । मैंने देखा था कि एक बाण बनानेवाला कारीगर बाण बनाने में इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पास से ही दल-बल के साथ राजा की सवारी निकल गयी और उसे पता तक न चला ॥ १३ ॥ राजन् ! मैंने साँप से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सर्प की भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये । मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये । वह एक स्थान में न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदि में पड़ा रहे, बारी आचारों से पहचाना न जाय । किसी से सहायता न ले और बहुत कम बोले ॥ १४ ॥ इस अनित्य शरीर के लिये घर बनाने के बखेडे में पड़ना व्यर्थ और दुःख की जड़ हैं । साँप दूसरों के बनाये घर में घुसकर बड़े आराम से अपना समय काटता है ॥ १५ ॥ अब मकड़ी से ली हुई शिक्षा सुनो । सबके प्रकाशक और अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवान् ने पूर्वकल्प में बिना किसी अन्य सहायक के अपनी ही माया से रचे हुए जगत् को कल्प के अन्त में (प्रलयकाल उपस्थित होने पर) कालशक्ति के द्वारा नष्ट कर दिया — उसे अपने में लीन कर लिया और सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेद से शून्य अकेले ही शेष रह गये । वे सबके अधिष्ठान हैं, सबके आश्रय हैं, परन्तु स्वयं अपने आश्रय — अपने ही आधार से रहते हैं, उनका कोई दूसरा आधार नहीं है । वे प्रकृति और पुरुष दोनों के नियामक, कार्य और कारणात्मक जगत् के आदिकारण परमात्मा अपनी शक्ति काल के प्रभाव से सत्त्व-रज आदि समस्त शक्तियों को साम्यावस्था में पहुंचा देते हैं और स्वयं कैवल्यरूप से एक और अद्वितीयरूप से विराजमान रहते हैं । वे केवल अनुभवस्वरूप और आनन्दघन मात्र हैं । किसी भी प्रकार की उपाधि का उनसे सम्बन्ध नहीं हैं । वे ही प्रभु केवल अपनी शक्ति काल के द्वारा अपनी त्रिगुणमयी माया को क्षुब्ध करते हैं और उससे पहले क्रियाशक्तिप्रधान सूत्र (महत्तत्त्व) की रचना करते हैं । यह सूत्र रूप महत्तत्त्व ही तीनों गुणों की पहली अभिव्यक्ति है, वही सब प्रकार की सृष्टि का मूल कारण है । उसमें यह सारा विश्व, सूत में ताने-बाने की तरह ओत-प्रोत है और इसके कारण जीव को जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ना पड़ता है ॥ १६-२० ॥ जैसे मकड़ी अपने हृदय से मुँह के द्वारा जाला फैलाती है, उसी में विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत् को अपने में से उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवारुप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं ॥ २१ ॥ राजन् ! मैंने भृङ्गी (विलनी) कीडे से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से भी जान-बूझकर एकाग्ररूप से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है ॥ २२ ॥ राजन् ! जैसे भृङ्गी एक कीड़े को ले जाकर दीवार पर अपने रहने की जगह बंद कर देता हैं और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर को त्याग किये बिना ही उसी शरीर से तद्रुप हो जाता है ॥ २३ ॥ राजन ! इस प्रकार मैंने इतने गुरुओं से ये शिक्षाएँ ग्रहण की । अब मैंने अपने शरीर से जो कुछ सीखा है, वह तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ २४ ॥ यह शरीर भी मेरा गुरु ही हैं, क्योंकि यह मुझे विवेक और वैराग्य की शिक्षा देता है । मरना और जीना तो इसके साथ लगा ही रहता है । इस शरीर को पकड़ रखने का फल यह है कि दुःख-पर-दुःख भोगते जाओ । यद्यपि इस शरीर से तत्त्वविचार करने में सहायता मिलती है, तथापि मैं इसे अपना कभी नहीं समझता; सर्वदा यहीं निश्चय रखता हूँ कि एक दिन इसे सियार-कुत्ते ख़ा जायेंगे । इसीलिये मैं इससे असङ्ग होकर विचरता हूँ ॥ २५ ॥ जीव जिस शरीर का प्रिय करने के लिये ही अनेकों प्रकार की कामनाएँ और कर्म करता है तथा स्त्री-पुत्र, धन-दौलत, हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर, घर-द्वार और भाई-बन्धुओं का विस्तार करते हुए उनके पालन-पोषण में लगा रहता हैं । बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ सहकर धन-सञ्चय करता है, आयुष्य पूरी होने पर वही शरीर स्वयं तो नष्ट होता ही है, वृक्ष के समान दूसरे शरीर के लिये बीज बोकर उसके लिये भी दुःख की व्यवस्था कर जाता हैं ॥ २६ ॥ जैसे बहुत-सी सौतें अपने एक पति को अपनी-अपनी ओर खींचती हैं, वैसे ही जीव को जीभ एक ओर-स्वादिष्ट पदार्थों की ओर खींचती है तो प्यास दूसरी ओर — जल की ओर, जननेन्द्रिय एक ओर — स्त्री-संभोग की ओर ले जाना चाहती है तो त्वचा, पेट और कान दूसरी ओर — कोमल स्पर्श, भोजन और मधुर शब्द की ओर खींचने लगते हैं । नाक कहीं सुन्दर गन्ध सूँघने के लिये ले जाना चाहती हैं तो चञ्चल नेत्र कहीं दूसरी ओर सुन्दर रूप देखने के लिये । इस प्रकार कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों ही इसे सताती रहती हैं ॥ २७ ॥ वैसे तो भगवान् ने अपनी अचिन्त्य शक्ति माया से वृक्ष, सरीसृप (रेंगनेवाले जन्तु) पशु, पक्षी, डाँस और मछली आदि अनेकों प्रकार की योनियाँ रचीं, परन्तु उनसे उन्हें सन्तोष न हुआ । तब उहोने मनुष्य-शरीर की सृष्टि की । यह ऐसी बुद्धि से युक्त हैं, जो ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकती हैं । इसकी रचना करके वे बहुत आनन्दित हुए ॥ २८ ॥ यद्यपि यह मनुष्य-शरीर हैं तो अनित्य ही — मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है । परन्तु इससे परम-पुरुषार्थ की प्राप्ति हो सकती है; इसलिये अनेक जन्मों के बाद यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर पाकर बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि शीघ्र-से-शीघ्र, मृत्यु के पहले ही मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न कर ले । इस जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही हैं । विषय-भोग तो सभी योनियों में प्राप्त हो सकते हैं, इसलिये उनके संग्रह में यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिये ॥ २९ ॥ राजन् ! यही सब सोच-विचारकर मुझे जगत् से वैराग्य हो गया । मेरे हृदय में ज्ञान-विज्ञान की ज्योति जगमगाती रहती है । न तो कहीं मेरी आसक्ति हैं और न कहीं अहङ्कार ही । अब मैं स्वच्छन्दरूप से इस पृथ्वी में विचरण करता हूँ ॥ ३० ॥ राजन् ! अकेले गुरु से ही यथेष्ट और सुदृढ़ बोध नहीं होता, उसके लिये अपनी बुद्धि से भी बहुत कुछ सोचने-समझने की आवश्यकता है । देखो, ऋषियों ने एक ही अद्वितीय ब्रह्म का अनेकों प्रकार से गान किया हैं । (यदि तुम स्वयं विचारकर निर्णय न करोगे, तो ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को कैसे जान सकोगे ?) ॥ ३१ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — प्यारे उद्धव ! गम्भीरबुद्धि अवधूत दत्तात्रेय ने राजा यदु को इस प्रकार उपदेश किया । यदु ने उनकी पूजा और वन्दना की, दत्तात्रेयजी उनसे अनुमति लेकर बड़ी प्रसन्नता से इच्छानुसार पधार गये ॥ ३२ ॥ हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज राजा यदु अवधूत दत्तात्रेय की यह बात सुनकर समस्त आसक्तियों से छुटकारा पा गये और समदर्शी हो गये । (इसी प्रकार तुम्हें भी समस्त आसक्तियों का परित्याग करके समदर्शी हो जाना चाहिये) ॥ ३३ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related