श्रीमद्भागवतमहापुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय १५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
पंद्रहवाँ अध्याय
महाराज पृथु का आविर्भाव और राज्याभिषेक

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! इसके बाद ब्राह्मणों ने पुत्रहीन राजा वेन की भुजाओं का मन्थन किया, तब उनसे एक स्त्री-पुरुष को जोड़ा प्रकट हुआ ॥ १ ॥ ब्रह्मवादी ऋषि उस जोड़े को उत्पन्न हुआ देख और उसे भगवान् का अंश जान बहुत प्रसन्न हुए और बोले ॥ २ ॥

ऋषियों ने कहा — यह पुरुष भगवान् विष्णु की विश्वपालिनी कला से प्रकट हुआ है और यह स्त्री उन परम पुरुष को अनपायिनी (कभी अलग न होनेवाली) शक्ति लक्ष्मीजी का अवतार है ॥ ३ ॥ इनमें से जो पुरुष हैं वह अपने सुयश का प्रथन—विस्तार करने के कारण परम यशस्वी ‘पृथु’ नामक सम्राट् होगा । राजाओं में यही सबसे पहला होगा ॥ ४ ॥ यह सुन्दर दाँतोवाली एवं गुण और आभूषणों को भी विभूषित करनेवाली सुन्दरी इन पृथु को ही अपना पति बनायेगी । इसका नाम अर्चि होगा ॥ ५ ॥ पृथु के रूप में साक्षात् श्रीहरि के अंश ने ही संसार की रक्षा के लिये अवतार लिया है और अर्चि के रूप में, निरन्तर भगवान् की सेवामें रहनेवाली उनकी नित्य सहचरी श्रीलक्ष्मीजी ही प्रकट हुई है ॥ ६ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! उस समय ब्राह्मण लोग पृथु की स्तुति करने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्वों ने गुणगान किया, सिद्धों ने पुष्पों की वर्षा की, अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ७ ॥ आकाश में शङ्ख, तुरही, मृदङ्ग और दुन्दुभि आदि बाजे बजने लगे । समस्त देवता, ऋषि और पितर अपने-अपने लोकों से वहाँ आये ॥ ८ ॥ जगद्गुरु ब्रह्माजी देवता और देवेश्वरों के साथ पधारे । उन्होंने वेनकुमार पृथु के दाहिने हाथ में भगवान् विष्णु की हस्तरेखाएँ और चरणों में कमल का चिह्न देखकर उन्हें श्रीहरि का ही अंश समझा; क्योंकि जिसके हाथ में दूसरी रेखाओं से बिना कटा हुआ चक्र का चिह्न होता है, वह भगवान् का ही अंश होता है ॥ ९-१० ॥

वेदवादी ब्राह्मणों ने महाराज पृथु के अभिषेक का आयोजन किया । सब लोग उसकी सामग्री जुटाने में लग गये ॥ ११ ॥ उस समय नदी, समुद्र, पर्वत, सर्प, गौ, पक्षी, मृग, स्वर्ग, पृथ्वी तथा अन्य सब प्राणियों ने भी उन्हें तरह-तरह के उपहार भेंट किये ॥ १२ ॥ सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से अलङ्कत महाराज पृथु का विधिवत् राज्याभिषेक हुआ । उस समय अनेकों अलङ्कारों से सजी हुई महारानी अर्चि के साथ वे दूसरे अग्निदेव के सदृश जान पड़ते थे ॥ १३ ॥

वीर विदुरजी ! उन्हें कुबेर ने बड़ा ही सुन्दर सोने का सिंहासन दिया तथा वरुण ने चन्द्रमा के समान श्वेत और प्रकाशमय छ्त्र दिया, जिससे निरन्तर जल की फुहियाँ झरती रहती थीं ॥ १४ ॥ वायु ने दो चँवर, धर्म ने कीर्तिमयी माला, इन्द्र ने मनोहर मुकुट, यम ने दमन करनेवाला दण्ड, ब्रह्मा ने वेदमय कवच, सरस्वती ने सुन्दर हार, विष्णुभगवान् ने सुदर्शनचक्र, विष्णुप्रिया लक्ष्मीजी ने अविचल सम्पत्ति, रुद्र ने दस चन्द्राकार चिह्नों से युक्त कोषवाली तलवार, अम्बिकाजी ने सौ चन्द्राकार चिह्नोंवाली ढाल, चन्द्रमा ने अमृतमय अश्व, त्वष्टा (विश्वकर्मा)— ने सुन्दर रथ, अग्नि ने बकरे और गौ के सींगों का बना हुआ सुदृढ़ धनुष, सूर्य ने तेजोमय बाण, पृथ्वी ने चरणस्पर्शमात्र से अभीष्ट स्थान पर पहुँचा देनेवाली योगमयी पादुकाएँ, आकाश के अभिमानी द्यौ देवता ने नित्य नूतन पुष्पों की माला, आकाशविहारी सिद्ध-गन्धर्वादि ने नाचने-गाने, बजाने और अन्तर्धान हो जाने की शक्तियाँ, ऋषियों ने अमोघ आशीर्वाद, समुद्र ने अपने से उत्पन्न हुआ शङ्ख, तथा सातों समुद्र, पर्वत और नदियों ने उनके रथ के लिये बेरोक-टोक मार्ग उपहार में दिये । इसके पश्चात् सूत, मागध और वन्दीजन उनकी स्तुति करने के लिये उपस्थित हुए ॥ १५-२० ॥ तब उन स्तुति करनेवालों का अभिप्राय समझकर वेनपुत्र परम प्रतापी महाराज पृथु ने हँसते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी में कहा ॥ २१ ॥

पृथु ने कहा — सौम्य सूत, मागध और वन्दीजन ! अभी तो लोक में मेरा कोई भी गुण प्रकट नहीं हुआ । फिर तुम किन गुणों को लेकर मेरी स्तुति करोगे ? मेरे विषय में तुम्हारी वाणी व्यर्थ नहीं होनी चाहिये । इसलिये मुझसे भिन्न किसी और की स्तुति करो ॥ २२ ॥ मृदुभाषियों ! कालान्तर में जब मेरे अप्रकट गुण प्रकट हो जायें, तब भरपेट अपनी मधुर वाणी से मेरी स्तुति कर लेना । देखो, शिष्ट पुरुष पवित्रकीर्ति श्रीहरि के गुणानुवाद के रहते हुए तुच्छ मनुष्यों की स्तुति नहीं किया करते ॥ २३ ॥ महान् गुणों को धारण करने में समर्थ होनेपर भी ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष हैं, जो उनके न रहने पर भी केवल सम्भावनामात्र से स्तुति करनेवालों द्वारा अपनी स्तुति करायेगा ? यदि यह विद्याभ्यास करता तो इसमें अमुक-अमुक गुण हो जाते — इस प्रकार की स्तुति से तो मनुष्य की वञ्चना की जाती है । वह मन्दमति यह नहीं समझता कि इस प्रकार तो लोग उसका उपहास ही कर रहे हैं ॥ २४ ॥ जिस प्रकार लज्जाशील उदार पुरुष अपने किसी निन्दित पराक्रम की चर्चा होनी बुरी समझते हैं, उसी प्रकार लोकविख्यात समर्थ पुरुष अपनी स्तुति को भी निन्दित मानते हैं ॥ २५ ॥ सूतगण ! अभी हम अपने श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा लोक में अप्रसिद्ध ही है; हमने अबतक कोई भी ऐसा काम नहीं किया है, जिसकी प्रशंसा की जा सके । तब तुम लोगों से बच्चों के समान अपनी कीर्ति का किस प्रकार गान करावें ? ॥ २६ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पृथुचरिते पञ्चदशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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