श्रीमद्भागवतमहापुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय १९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
उन्नीसवाँ अध्याय
महाराज पृथु के सौ अश्वमेध यज्ञ

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! महाराज मनु के ब्रह्मावर्त क्षेत्र में, जहाँ सरस्वती नदी पूर्वमुखी होकर बहती हैं, राजा पृथु ने सौ अश्वमेध-यज्ञों की दीक्षा ली ॥ १ ॥ यह देखकर भगवान् इन्द्र को विचार हुआ कि इस प्रकार तो पृथु के कर्म मेरे कर्मों की अपेक्षा भी बढ़ जायेंगे । इसलिये वे उनके यज्ञमहोत्सव को सहन न कर सके ॥ २ ॥ महाराज पृथु के यज्ञ में सबके अन्तरात्मा सर्वलोकपूज्य जगदीश्वर भगवान् हरि ने यज्ञेश्वररूप से साक्षात् दर्शन दिया था ॥ ३ ॥ उनके साथ ब्रह्मा, रुद्र तथा अपने-अपने अनुचरों के सहित लोकपालगण भी पधारे थे । उस समय गन्धर्व, मुनि और अप्सराएँ प्रभु की कीर्ति गा रहे थे ॥ ४ ॥ सिद्ध, विद्याधर, दैत्य, दानव, यक्ष, सुनन्द-नन्दादि भगवान् के प्रमुख पार्षद और जो सर्वदा भगवान् की सेवा के लिये उत्सुक रहते हैं वे कपिल, नारद, दत्तात्रेय एवं सनकादि योगेश्वर भी उनके साथ आये थे ॥ ५-६ ॥ भारत ! उस यज्ञ में यज्ञसामग्रियों को देनेवाली भूमि ने कामधेनुरूप होकर यजमान की सारी कामनाओं को पूर्ण किया था ॥ ७ ॥ नदियाँ दाख और ईख आदि सब प्रकार के रसों को बहा लाती थीं तथा जिनसे मधु चुता रहता था — ऐसे बड़े-बड़े वृक्ष दूध, दही, अन्न और घृत आदि तरह-तरह की सामग्रियाँ समर्पण करते थे ॥ ८ ॥ समुद्र बहुत-सी रत्नराशियाँ, पर्वत भक्ष्य, भोज्य, चोष्य और लेह्य — चार प्रकार के अन्न तथा लोकपालों के सहित सम्पूर्ण लोक तरह-तरह के उपहार उन्हें समर्पण करते थे ॥ ९ ॥

महाराज पृथु तो एकमात्र श्रीहरि को ही अपना प्रभु मानते थे । उनकी कृपा से उस यज्ञानुष्ठान में उनका बड़ा उत्कर्ष हुआ । किन्तु यह बात देवराज इन्द्र को सहन न हुई और उन्होंने उसमें विघ्न डालने की भी चेष्टा की ॥ १० ॥ जिस समय महाराज पृथु अन्तिम यज्ञ द्वारा भगवान् यज्ञपति की आराधना कर रहे थे, इन्द्र ने ईर्ष्यावश गुप्तरूप से उनके यज्ञ का घोड़ा हर लिया ॥ ११ ॥ इन्द्र ने अपनी रक्षा के लिये कवचरूप से पाखण्डवेष धारण कर लिया था, जो अधर्म में धर्म का भ्रम उत्पन्न करनेवाला है — जिसका आश्रय लेकर पापी पुरुष भी धर्मात्मा-सा जान पड़ता है । इस वेष में वे घोड़े को लिये बड़ी शीघ्रता से आकाशमार्ग से जा रहे थे कि उनपर भगवान् अत्रि की दृष्टि पड़ गयी । उनके कहने से महाराज पृथु का महारथ पुत्र इन्द्र को मारने के लिये उनके पीछे दौड़ा और बड़े क्रोध से बोला, ‘अरे खड़ा रह ! खड़ा रह ॥ १२-१३ ॥ इन्द्र सिरपर जटाजूट और शरीर में भस्म धारण किये हुए थे । उनका ऐसा वेष देखकर पृथुकुमार ने उन्हें मूर्तिमान् धर्म समझा, इसलिये उनपर बाण नहीं छोड़ा ॥ १४ ॥ जब वह इन्द्र पर वार किये बिना ही लौट आया, तब महर्षि अत्रि ने पुनः उसे इन्द्र को मारने के लिये आज्ञा दी — ‘वत्स ! इस देवताधम इन्द्र ने तुम्हारे यज्ञ में विघ्न डाला है, तुम इसे मार डालो’ ॥ १५ ॥

अत्रि मुनि के इस प्रकार उत्साहित करने पर पृथुकुमार क्रोध में भर गया । इन्द्र बड़ी तेजी से आकाश में जा रहे थे । उनके पीछे वह इस प्रकार दौड़ा, जैसे रावण के पीछे जटायु ॥ १६ ॥ स्वर्गपति इन्द्र उसे पीछे आते देख, उस वेष और घोड़े को छोड़कर वहीं अन्तर्धान हो गये और वह वीर अपना यज्ञपशु लेकर पिता की यज्ञशाला में लौट आया ॥ १७ ॥ शक्तिशाली विदुरजी ! उसके इस अद्भुत पराक्रम को देखकर महर्षियों ने उसका नाम विजिताश्व रखा ॥ १८ ॥

यज्ञपशु को चषाल और यूप में (यज्ञमण्डप में यज्ञपशु को बाँधने के लिये जो खम्भा होता है, उसे ‘यूप’ कहते हैं और यूप के आगे रखे हुए वलयाकार काष्ठ को ‘चषाल’ कहते हैं।) बाँध दिया गया था । शक्तिशाली इन्द्र ने घोर अन्धकार फैला दिया और उसी में छिपकर वे फिर उस घोड़े को उसकी सोने की जंजीर समेत ले गये ॥ १९ ॥ अत्रि मुनि ने फिर उन्हें आकाश में तेजी से जाते दिखा दिया, किन्तु उनके पास कपाल और खट्वाङ्ग देखकर पृथुपुत्र ने उनके मार्ग में कोई बाधा न डाली ॥ २० ॥ तब अत्रि ने राजकुमार को फिर उकसाया और उसने गुस्से में भरकर इन्द्र को लक्ष्य बनाकर अपना बाण चढ़ाया । यह देखते ही देवराज उस वेष और घोड़े को छोड़कर वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ २१ ॥ वीर विजिताश्व अपना घोड़ा लेकर पिता की यज्ञशाला में लौट आया । तबसे इन्द्र के उस निन्दित वेष को मन्दबुद्धि पुरुषों ने ग्रहण कर लिया ॥ २२ ॥ इन्द्र ने अश्वहरण की इच्छा से जो जो रूप धारण किये थे, वे पाप के खण्ड होने के कारण पाखण्ड कहलाये । यहाँ ‘खण्ड’ शब्द चिह्न का वाचक हैं ॥ २३ ॥ इस प्रकार पृथु के यज्ञ का विध्वंस करने के लिये यज्ञपशु को चुराते समय इन्द्र ने जिन्हें कई बार ग्रहण करके त्यागा था, उन ‘नग्न’, ‘रक्ताम्बर’ तथा ‘कापालिक’ आदि पाखण्डपूर्ण आचारों में मनुष्यों की बुद्धि प्रायः मोहित हो जाती है, क्योंकि ये नास्तिकमत देखने में सुन्दर हैं और बड़ी-बड़ी युक्तियों से अपने पक्ष का समर्थन करते हैं । वास्तव में ये उपधर्ममात्र हैं । लोग भ्रमवश धर्म मानकर इनमें आसक्त हो जाते हैं ॥ २४-२५ ॥

इन्द्र की इस कुचाल का पता लगने पर परम पराक्रमी महाराज पृथु को बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने अपना धनुष उठाकर उस पर बाण चढ़ाया ॥ २६ ॥ उस समय क्रोधावेश के कारण उनकी ओर देखा नहीं जाता था । जब ऋत्विजों ने देखा कि असह्य पराक्रमी महाराज पृथु इन्द्र का वध करने को तैयार हैं, तब उन्हें रोकते हुए कहा, ‘राजन् ! आप तो बड़े बुद्धिमान् हैं, यज्ञदीक्षा ले लेने पर शास्त्रविहित यज्ञपशु को छोड़कर और किसी का वध करना उचित नहीं हैं ॥ २७ ॥ इस यज्ञकार्य में विघ्न डालनेवाला आपका शत्रु इन्द्र तो आपके सुयश से हो ईर्ष्यावश निस्तेज हो रहा है । हम अमोघ आवाहन-मन्त्र द्वारा उसे यहीं बुला लेते हैं और बलात्कार से अग्नि में हवन किये देते हैं ॥ २८ ॥

विदुरजी ! यजमान से इस प्रकार सलाह करके उसके याजक ने क्रोधपूर्वक इन्द्र का आवाहन किया । वे स्रुवा द्वारा आहुति डालना ही चाहते थे कि ब्रह्माजी ने वहाँ आकर उन्हें रोक दिया ॥ २९ ॥ वे बोले, ‘याजको ! तुम्हें इन्द्र का वध नहीं करना चाहिये, यह् यज्ञसंज्ञक इन्द्र तो भगवान् की ही मूर्ति है । तुम यज्ञ द्वारा जिन देवताओं की आराधना कर रहे हो, वे इन्द्र के ही तो अङ्ग हैं और उसे तुम यज्ञ द्वारा मारना चाहते हो ॥ ३० ॥ पृथु के इस यज्ञानुष्ठान में विघ्न डालने के लिये इन्द्र ने जो पाखण्ड फैलाया है, वह धर्म का उच्छेदन करनेवाला है । इस बात पर तुम ध्यान दो, अब उससे अधिक विरोध मत करो, नहीं तो वह और भी पाखण्ड मार्ग का प्रचार करेगा ॥ ३१ ॥ अच्छा, परमयशस्वी महाराज पृथु के निन्यानवे ही यज्ञ रहने दो ।’ फिर राजर्षि पृथु से कहा, ‘राजन् ! आप तो मोक्षधर्म के जाननेवाले हैं; अतः अब आपको इन यज्ञानुष्ठानों की आवश्यकता नहीं हैं ॥ ३२ ॥

आपका मङ्गल हो ! आप और इन्द्र — दोनो ही पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीहरि के शरीर है; इसलिये अपने ही स्वरूपभूत इन्द्र के प्रति आपको क्रोध नहीं करना चाहिये ॥ ३३ ॥ आपका यह यज्ञ निर्विघ्र समाप्त नहीं हुआ — इसके लिये आप चित्ता न करें । हमारी बात आप आदरपूर्वक स्वीकार कीजिये । देखिये, जो मनुष्य विधाता के बिगाड़े हुए काम को बनाने का विचार करता है, उसका मन अत्यन्त क्रोध में भरकर भयङ्कर मोह में फँस जाता है ॥ ३४ ॥ बस, इस यज्ञ को बंद कीजिये । इसके कारण इन्द्र के चलाये हुए पाखण्डों से धर्म का नाश हो रहा है; क्योंकि देवताओं में बड़ा दुराग्रह होता है ॥ ३५ ॥ जरा देखिये तो, जो इन्द्र घोड़े को चुराकर आपके यज्ञ में विघ्न डाल रहा था, उसी के रचे हुए इन मनोहर पाखण्डों की ओर सारी जनता खिंचती चली जा रही है ॥ ३६ ॥ आप साक्षात् विष्णु के अंश हैं । वेन के दुराचार से धर्म लुप्त हो रहा था, उस समयोचित धर्म की रक्षा के लिये ही आपने उसके शरीर से अवतार लिया है ॥ ३३ ॥ अतः प्रजापालक पृथुजी ! अपने इस अवतार का उद्देश्य विचारकर आप भृगु आदि विश्वरचयिता मुनीश्वरों का सङ्कल्प पूर्ण कीजिये । यह प्रचण्ड पाखण्ड — पथरूप इन्द्र की माया अधर्म की जननी है । आप इसे नष्ट कर डालिये’ ॥ ३८ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — लोकगुरु भगवान् ब्रह्माजी के इस प्रकार समझाने पर प्रबल पराक्रमी महाराज पृथु ने यज्ञ का आग्रह छोड़ दिया और इन्द्र के साथ प्रीतिपूर्वक सन्धि भी कर ली ॥ ३९ ॥ इसके पश्चात् जब वे यज्ञान्त स्नान करके निवृत्त हुए, तब उनके यज्ञों से तृप्त हुए देवताओं ने उन्हें अभीष्ट वर दिये ॥ ४० ॥ आदिराज पृथु ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दक्षिणाएँ दीं तथा ब्राह्मणों ने उनके सत्कार से सन्तुष्ट होकर उन्हें अमोघ आशीर्वाद दिये ॥ ४१ ॥ वे कहने लगे, ‘महाबाहो ! आपके बुलाने से जो पितर, देवता, ऋषि और मनुष्यादि आये थे, उन सभी का आपने दान-मान से खुब सत्कार किया’ ॥ ४२ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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