February 23, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय २२ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय बाईसवाँ अध्याय महाराज पृथु को सनकादि का उपदेश श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — जिस समय प्रजाजन परमपराक्रमी पृथ्वीपाल पृथु की इस प्रकार प्रार्थना कर रहे थे, उसी समय वहाँ सूर्य के समान तेजस्वी चार मुनीश्वर आये ॥ १ ॥ राजा और उनके अनुचरों ने देखा तथा पहचान लिया कि वे सिद्धेश्वर अपनी दिव्य कान्ति से सम्पूर्ण लोकों को पापनिर्मुक्त करते हुए आकाश से उतरकर आ रहे हैं ॥ २ ॥ राजा के प्राण सनकादिक का दर्शन करते ही, जैसे विषयजीव विषयों ओर दौड़ता है, उनकी ओर चल पड़े — मानो उन्हें रोकने के लिये ही वे अपने सदस्यों और अनुयायियों के साथ एकाएक उठकर खड़े हो गये ॥ ३ ॥ जब वे मुनिगण अर्घ्य स्वीकार कर आसन पर विराज गये, तब शिष्टाग्रणी पृथु ने उनके गौरव से प्रभावित हो विनयवश गरदन झुकाये हुए उनकी विधिवत् पूजा की ॥ ४ ॥ फिर उनके चरणोदक को अपने सिर के बालों पर छिड़का । इस प्रकार शिष्टजनोचित आचार का आदर तथा पालन करके उन्होंने यहीं दिखाया कि सभी सत्पुरुषों को ऐसा व्यवहार करना चाहिये ॥ ५ ॥ सनकादि मुनीश्वर भगवान् शङ्कर के भी अग्रज हैं । सोने के सिंहासन पर वे ऐसे सुशोभित हुए, जैसे अपने-अपने स्थानों पर अग्नि देवता । महाराज पृथु ने बड़ी श्रद्धा और संयम के साथ प्रेमपूर्वक उनसे कहा ॥ ६ ॥ पृथुजी ने कहा —मङ्गलमूर्ति मुनीश्वरो ! आपके दर्शन तो योगियों को भी दुर्लभ हैं; मुझसे ऐसा क्या पुण्य बना है जिससे स्वतः आपका दर्शन प्राप्त हुआ ॥ ७ ॥ जिसपर ब्राह्मण अथवा अनुचरों के सहित श्रीशङ्कर या विष्णुभगवान् प्रसन्न हों, उसके लिये इहलोक और परलोक में कौन-सी वस्तु दुर्लभ है ॥ ८ ॥ इस दृश्य-प्रपञ्च के कारण महत्त्वादि यद्यपि सर्वगत है, तो भी वे सर्वसाक्षी आत्मा को नहीं देख सकते; इसी प्रकार यद्यपि आप समस्त लोकों में विचरते रहते हैं, तो भी अनधिकारीलोग आपको देख नहीं पाते ॥ ९ ॥ जिनके घरों में आप-जैसे पूज्य पुरुष उनके जल, तृण, पृथ्वी, गृहस्वामी अथवा सेवकादि किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार कर लेते हैं, वे गृहस्थ धनहीन होने पर भी धन्य हैं ॥ १० ॥ जिन घरों में कभी भगवद्भक्तों के परमपवित्र चरणोदक के छींटे नहीं पड़े, वे सर्व प्रकार की ऋद्धि-सिद्धियों से भरे होने पर भी ऐसे वृक्षों के समान हैं कि जिन पर साँप रहते हैं ॥ ११ ॥ मुनीश्वरो ! आपका स्वागत हैं । आपलोग तो बाल्यावस्था से ही मुमुक्षुओं के मार्ग का अनुसरण करते हुए एकाग्रचित से ब्रह्मचर्यादि महान् व्रत का बड़ी श्रद्धापूर्वक आचरण कर रहे हैं ॥ १२ ॥ स्वामियों ! हमलोग अपने कर्मों के वशीभूत होकर विपत्तियों के क्षेत्ररूप इस संसार में पड़े हुए केवल इन्द्रियसम्बन्धी भोगों को ही परम पुरुषार्थ मान रहे हैं । सो क्या हमारे निस्तार का भी कोई उपाय है ?॥ १३ ॥ आपलोगों से कुशल प्रश्न करना उचित नहीं हैं, क्योंकि आप निरन्तर आत्मा में ही रमण करते हैं । आपमें यह कुशल हैं और यह अकुशल है — इस प्रकार की वृत्तियों कभी होती ही नहीं ॥ १४ ॥ आप संसारानल से सन्तप्त जीवों के परम सुहृद् हैं, इसलिये आपमें विश्वास करके मैं यह पूछना चाहता हूँ कि इस संसार में मनुष्य का किस प्रकार सुगमता से कल्याण हो सकता है ? ॥ १५ ॥ यह निश्चय है कि जो आत्मवान् (धीर) पुरुषों में ‘आत्मा’ रूप से प्रकाशित होते हैं और उपासकों के हृदय में अपने स्वरूप को प्रकट करनेवाले हैं, वे अजन्मा भगवान् नारायण ही अपने भक्तों पर कृपा करने के लिये आप-जैसे सिद्ध पुरुषों के रूप में इस पृथ्वी पर विचरा करते हैं ॥ १६ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — राजा पृथु के ये युक्तियुक्त, गम्भीर, परिमित और मधुर वचन सुनकर श्रीसनत्कुमारजी बड़े प्रसन्न हुए और कुछ मुसकराते हुए कहने लगे ॥ १७ ॥ श्रीसनत्कुमारजी ने कहा — महाराज ! आपने सब कुछ जानते हुए भी समस्त प्राणियों के कल्याण की दृष्टि से बड़ी अच्छी बात पूछी है । सच है, साधुपुरुषों की बुद्धि ऐसी ही हुआ करती है ॥ १८ ॥ सत्पुरुषों का समागम श्रोता और वक्ता दोनों को ही अभिमत होता है, क्योंकि उनके प्रश्नोत्तर सभी का कल्याण करते हैं ॥ १९ ॥ राजन् ! श्रीमधुसूदन भगवान् के चरणकमलों के गुणानुवाद में अवश्य ही आपकी अविचल प्रीति है । हर किसी को इसका प्राप्त होना बहुत कठिन है और प्राप्त हो जानेपर यह हृदय के भीतर रहनेवाले उस वासनारूप मल को सर्वथा नष्ट कर देती हैं, जो और किसी उपाय से जल्दी नहीं छूटती ॥ २० ॥ शास्त्र जीवों के कल्याण के लिये भली-भाँति विचार करनेवाले हैं, उनमें आत्मा से भिन्न देहादि के प्रति वैराग्य तथा अपने आत्मस्वरूप निर्गुण ब्रह्म में सुदृढ़ अनुराग होना — यही कल्याण का साधन निश्चित किया गया है ॥ २१ ॥ शास्त्रों का यह भी कहना है कि गुरु और शास्त्र के वचनों में विश्वास रखने से. भागवतधर्मों का आचरण करने, तत्त्वजिज्ञासा से, ज्ञानयोग को निष्ठा से, योगेश्वर श्रीहरि की उपासना से, नित्यप्रति पुण्यकीर्ति श्रीभगवान् की पावन कथा को सुनने से, जो लोग धन और इन्द्रियों के भोगों में ही रत हैं उनकी गोष्ठी में प्रेम न रखने से, उन्हें प्रिय लगनेवाले पदार्थों को आसक्तिपूर्वक संग्रह न करने से, भगवद्गुणामृत का पान करने के सिवा अन्य समय आत्मा ही सन्तुष्ट रहते हुए एकान्तसेवन में प्रेम रखने से, किसी भी जीव को कष्ट न देने से, निवृत्तिनिष्ठा से, आत्महित का अनुसन्धान करते रहने से, श्रीहरि के पवित्र चरित्ररूप श्रेष्ठ अमृत का आस्वादन करने, निष्कामभाव से यम-नियमों का पालन करने से, कभी किसी की निन्दा न करने से, योगक्षेम के लिये प्रयत्न न करने से, शीतोष्णादि द्वन्द्वों को सहन करने से, भक्तजनों के कानों को सुख देनेवाले श्रीरि के गुणों को बार-बार वर्णन करने से और बढ़ते हुए भक्तिभाव से मनुष्य का कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण जड प्रपञ्च से वैराग्य हो जाता हैं और आत्मस्वरूप निर्गुण परब्रह्म में अनायास ही उसकी प्रीति हो जाती है ॥ २२-२५ ॥ परब्रह्म में सुदृढ़ प्रीति हो जाने पर पुरुष सद्गुरु की शरण लेता है; फिर ज्ञान और वैराग्य के प्रबल वेग के कारण वासनाशून्य हुए अपने अविद्यादि पांच प्रकार के क्लेशों से युक्त अहङ्कारात्मक अपने लिङ्गशरीर को वह उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे अग्नि लकड़ी से प्रकट होकर फिर उसीको जला डालती है ॥ २६ ॥ इस प्रकार लिङ्ग देह का नाश हो जाने पर वह उसके कर्तृत्वादि सभी गुणों से मुक्त हो जाता है । फिर तो जैसे स्वप्नावस्था में तरह-तरह के पदार्थ देखने पर भी उससे जग पड़ने पर उनमें से कोई चीज दिखायी नहीं देती, उसी प्रकार वह पुरुष शरीर के बाहर दिखायी देनेवाले घट-पटादि और भीतर अनुभव होनेवाले सुख-दुःखादि को भी नहीं देखता । इस स्थिति के प्राप्त होने से पहले ये पदार्थ ही जीवात्मा और परमात्मा के बीच में रहकर उनका भेद कर रहे थे ॥ २७ ॥ जब तक अन्तःकरणरूप उपाधि रहती हैं, तभी तक पुरुष को जीवात्मा, इन्द्रियों के विषय और इन दोनों का सम्बन्ध करानेवाले अहङ्कार का अनुभव होता है, इसके बाद नहीं ॥ २८ ॥ बाह्य जगत् में भी देखा जाता है कि जल, दर्पण आदि निमित्तों के रहने पर ही अपने बिम्ब और प्रतिबिम्ब का भेद दिखायी देता है, अन्य समय नहीं ॥ २९ ॥ जो लोग विषयचिन्तन में लगे रहते हैं, उनकी इन्द्रियाँ विषयों में फंस जाती हैं तथा मन को भी उन्हीं की ओर खींच ले जाती हैं । फिर तो जैसे जलाशय के तीर पर उगे हुए कुशादि अपनी जड़ों से उसका जल खींचते रहते हैं, उसी प्रकार वह इन्द्रियासक्त मन बुद्धि की विचारशक्ति को क्रमशः हर लेता है ॥ ३० ॥ विचारशक्ति के नष्ट हो जाने पर पूर्वापर की स्मृति जाती रहती है और स्मृति का नाश हो जानेपर ज्ञान नहीं रहता । इस ज्ञान के नाश को ही पण्डितजन ‘अपने-आप अपना नाश करना कहते है ॥ ३१ ॥ जिसके उद्देश्य से अन्य सद्य पदार्थों मे प्रियता का बोध होता है — उस आत्मा का अपने द्वारा ही नाश होने से जो स्वार्थहानि होती है, उससे बढ़कर लोक में जीव की और कोई हानि नहीं है ॥ ३२ ॥ धन और इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करना मनुष्य सभी पुरुषार्थों का नाश करनेवाला है, क्योंकि इनकी चिन्ता से वह ज्ञान और विज्ञान से भ्रष्ट होकर वृक्षादि स्थावर योनियों में जन्म पाता है ॥ ३३ ॥ इसलिये जिसे अज्ञानान्धकार से पार होने की इच्छा हो, उस पुरुष को विषयों में आसक्ति कभी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति में बड़ी बाधक है ॥ ३४ ॥ इन चार पुरुषार्थों में भी सबसे श्रेष्ठ मोक्ष ही माना जाता है, क्योंकि अन्य तीन पुरुषार्थों मे सर्वदा काल का भय लगा रहता है ॥ ३५ ॥ प्रकृति में गुणक्षोभ होने के बाद जितने भी उत्तम और अधम भाव — पदार्थ प्रकट हुए हैं, उनमें कुशल से रह सके ऐसा कोई भी नहीं है । कालभगवान् उन सभी के कुशलों को कुचलते रहते हैं ॥ ३६ ॥ अतः राजन् ! जो श्रीभगवान् देह, इन्द्रिय, प्राण, बुद्धि और अहङ्कार से आवृत सभी स्थावरजङ्गम प्राणियों के हृदयों में जीव के नियामक अन्तर्यामी आत्मारूप से सर्वत्र साक्षात् प्रकाशित हो रहे हैं उन्हें तुम ‘वह मैं ही हूँ — ऐसा जानो ॥ ३७ ॥ जिस प्रकार माला का ज्ञान हो जाने पर उसमें सर्पबुद्धि नहीं रहती, उसी प्रकार विवेक होने पर जिसका कहीं पता नहीं लगता, ऐसा यह मायामय प्रपञ्च जिसमें कार्य-कारणरूप से प्रतीत हो रहा है और जो स्वयं कर्मफल-कलुषित प्रकृति से परे हैं, उस नित्यमुक्त, निर्मल और ज्ञानस्वरूप परमात्मा को मैं प्राप्त हो रहा हूँ ॥ ३८ ॥ संत-महात्मा जिनके चरणकमलों के अङ्गुलिदल की छिटकती हुई छटा का स्मरण करके अहङ्कार-रूप हृदयग्रन्थि को, जो कर्मों से गठित हैं, इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर डालते हैं कि समस्त इन्द्रियों का प्रत्याहार करके अपने अन्तःकरण को निर्विषय करनेवाले संन्यासी भी वैसा नहीं कर पाते । तुम उन सर्वाश्रय भगवान् वासुदेव का भजन करो ॥ ३९ ॥ जो लोग मन और इन्द्रियरूप मगरों से भरे हुए इस संसारसागर को योगादि दुष्कर साधनों से पार करना चाहते हैं, उनका उस पार पहुँचना कठिन ही है, क्योंकि उन्हें कर्णधाररूप श्रीहरि का आश्रय नहीं है । अतः तुम तो भगवान् के आराधनीय चरणकमलों को नौका बनाकर अनायास ही इस दुस्तर समुद्र को पार कर लो ॥ ४० ॥ मैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! ब्रह्माजी के पुत्र आत्मज्ञानी सनत्कुमारजी से इस प्रकार आत्मतत्त्व का उपदेश पाकर महाराज पृथु ने उनकी बहुत प्रशंसा करते हुए कहा ॥ ४१ ॥ राजा पृथु ने कहा — भगवन् ! दीनदयाल श्रीहरि ने मुझपर पहले कृपा की थी, उसी को पूर्ण करने के लिये आपलोग पधारे हैं ॥ ४२ ॥ आप लोग बड़े ही दयालु हैं । जिस कार्य के लिये आपलोग पधारे थे, उसे आपलोगों ने अच्छी तरह सम्पन्न कर दिया । अब, इसके बदले में मैं आपलोगों को क्या दूँ ? मेरे पास तो शरीर और इसके साथ जो कुछ है, वह सब महापुरुषों का ही प्रसाद है ॥ ४३ ॥ ब्रह्मन् ! प्राण, स्त्री, पुत्र सब प्रकार की सामग्रियों से भरा हुआ भवन, राज्य, सेना, पृथ्वी और कोश — यह सब कुछ आप ही लोगों हैं, अतः आपके ही श्रीचरणों में अर्पित हैं ॥ ४४ ॥ वास्तव में तो सेनापतित्व, राज्य, दण्डविधान और सम्पूर्ण लोकों के शासन का अधिकार तो वेद-शास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मणों को ही है ॥ ४५ ॥ ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है और अपनी ही वस्तु दान देता है । दुसरे-क्षत्रिय आदि तो उसकी कृपा से अन्न खाने को पाते हैं ॥ ४६ ॥ आपलोग वेद के पारगामी हैं, आपने अध्यात्मतत्त्व का विचार करके हमें निश्चितरूप से समझा दिया है कि भगवान् के प्रति इस प्रकार की अभेद-भक्ति ही उनकी उपलब्धि का प्रधान साधन है । आप लोग परम कृपालु हैं, अतः अपने इस दीनोद्धाररूप कर्म से ही सर्वदा सन्तुष्ट रहें । आपके इस उपकार का बदला कोई क्या दे सकता है ? उसके लिये प्रयत्न करना भी अपनी हँसी कराना ही है ॥ ४७ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! फिर आदिराज पृथु ने आत्मज्ञानियों में श्रेष्ठ सनकादि की पूजा की और वे उनके शील की प्रशंसा करते हुए सब लोगों के सामने ही आकाशमार्ग से चले गये ॥ ४८ ॥ महात्माओं में अग्रगण्य महाराज पृथु उनसे आत्मोपदेश पाकर चित्त की एकाग्रता से आत्मा में ही स्थित रहने के कारण अपने को कृतकृत्य-सा अनुभव करने लगे ॥ ४९ ॥ वे ब्रह्मार्पण-बुद्धि से समय, स्थान, शक्ति, न्याय और धन के अनुसार सभी कर्म करते थे ॥ ५० ॥ इस प्रकार एकाग्र चित्त से समस्त कर्मों का फल परमात्मा को अर्पण करके आत्मा को कर्मों का साक्षी एवं प्रकृति से अतीत देखने के कारण वे सर्वथा निर्लिप्त रहे ॥ ५१ ॥ जिस प्रकार सूर्यदेव सर्वत्र प्रकाश करने पर भी वस्तुओं के गुण-दोष से निर्लेप रहते हैं, उसी प्रकार सार्वभौम साम्राज्यलक्ष्मी से सम्पन्न और गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी अङ्कारशून्य होने के कारण वे इन्द्रियों के विषयों में आसक्त नहीं हुए॥ ५२ ॥ इस प्रकार आत्मनिष्ठा में स्थित होकर सभी कर्तव्यकर्मों का यथोचित रीति से अनुष्ठान करते हुए उन्होंने अपनी भार्या अर्चि के गर्भ से अपने अनुरूप पाँच पुत्र उत्पन्न किये ॥ ५३ ॥ उनके नाम विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण और वृक थे । महाराज पृथु भगवान् के अंश थे । वे समय-समय पर, जब-जब आवश्यक होता था, जगत् के प्राणियों की रक्षा के लिये अकेले ही समस्त लोकपालों के गुण धारण कर लिया करते थे । अपने उदार मन, प्रिय और हितकर वचन, मनोहर मूर्ति और सौम्य गुणों के द्वारा प्रजा का रञ्जन करते रहने से दूसरे चन्द्रमा के समान उनका ‘राजा’ यह नाम सार्थक हुआ । सूर्य जिस प्रफर गरमी में पृथ्वी का जल खींचकर वर्षाकाल में उसे पुनः पृथ्वी पर बरसा देता है तथा अपनी किरणों से सबको ताप पहुँचाता है, उसी प्रकार वे कररूप से प्रजा का धन लेकर उसे दुष्कालादि के समय मुक्तहस्त से प्रजा के हित में लगा देते थे तथा सब पर अपना प्रभाव जमाये रखते थे ॥ ५४-५६ ॥ वे तेज में अग्नि के समान दुर्धर्ष, इन्द्र के समान अजेय, पृथ्वी के समान क्षमाशील और स्वर्ग के समान मनुष्यों की समस्त कामनाएं पूर्ण करनेवाले थे ॥ ५७ ॥ समय-समय पर प्रजाजनों को तृप्त करने के लिये वे मेध के समान उनके अभीष्ट अर्थों को खुले हाथ से लुटाते रहते थे । वे समुद्र के समान गम्भीर और पर्वतराज सुमेरु के समान धैर्यवान् भी थे ॥ ५८ ॥ महाराज पृथु दुष्टों के दमन करने में यमराज के समान, आश्चर्यपूर्ण वस्तुओं के संग्रह में हिमालय के समान, कोश की समृद्धि करने में कुबेर के समान और धन को छिपाने में वरुण के समान थे ॥ ५९ ॥ शारीरिक बल, इन्द्रियों की पटुता तथा पराक्रम में सर्वत्र गतिशील वायु के समान और तेजी असह्यता में भगवान् शङ्कर के समान थे ॥ ६० ॥ सौन्दर्य में कामदेव के समान, उत्साह सिंह के समान, वात्सल्य में मनु के समान और मनुष्यों के आधिपत्य में सर्वसमर्थ ब्रह्माजी के समान थे ॥ ६१ ॥ ब्रह्मविचार में बृहस्पति, इन्द्रियजय में साक्षात् श्रीहरि तथा गौ, ब्राह्मण, गुरुजन एवं भगवद्भक्तों की भक्ति, लज्जा, विनय, शील एवं परोपकार आदि गुणों में अपने ही समान (अनुपम) थे ॥ ६२ ॥ लोग त्रिलोकी में सर्वत्र उच्च स्वर से उनकी कीर्ति का गान करते थे, इससे वे स्त्रियों तक के कानों में वैसे ही प्रवेश पाये हुए थे जैसे सत्पुरुषों के हृदय में श्रीराम ॥ ६३ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related