February 25, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय २६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय छब्बीसवाँ अध्याय राजा पुरञ्जन का शिकार खेलने वन में जाना और रानी का कुपित होना श्रीनारदजी कहते हैं — राजन् ! एक दिन राजा पुरञ्जन अपना विशाल धनुष, सोने का कवच और अक्षय तरकस धारणकर अपने ग्यारहवें सेनापति के साथ पाँच घोड़ों के शीघ्रगामी रथ में बैठकर पंचप्रस्थ नाम के वन में गया । उस रथ में दो ईषादण्ड (बंब), दो पहिये, एक धुरी, तीन ध्वजदण्ड, पाँच डोरियाँ, एक लगाम, एक सारथि, एक बैठने का स्थान, दो जुए, पाँच आयुध और सात आवरण थे । वह पाँच प्रकार की चालों से चलता था तथा उसका साज-बाज़ सब सुनहरा था ॥ १-३ ॥ यद्यपि राजा के लिये अपनी प्रिया को क्षणभर भी छोड़ना कठिन था, किन्तु उस दिन उसे शिकार का ऐसा शौक लगा कि उसकी भी परवा न कर वह बड़े गर्व से धनुष-बाण चढ़ाकर आखेट करने लगा ॥ ४ ॥ इस समय आसुरीवृत्ति बढ़ जाने से उसका चित्त बड़ा कठोर और दयाशून्य हो गया था, इससे उसने अपने तीखे बाणों से बहुत से निर्दोष जंगली जानवरों का वध कर डाला ॥ ५ ॥ जिसकी मांस में अत्यन्त आसक्ति हो, वह राजा केवल शास्त्रप्रदर्शित कर्मों के लिये वन में जाकर आवश्यकतानुसार अनिषिद्ध पशुओं का वध करे; व्यर्थ पशुहिंसा न करे । शास्त्र इस प्रकार उच्छृङ्खल प्रवृत्ति को नियन्त्रित करता है ॥ ६ ॥ राजन् ! जो विद्वान् इस प्रकार शास्त्रनियत कर्मों का आचरण करता है, वह उस कर्मानुष्ठान से प्राप्त हुए ज्ञान के कारणभूत कर्मों से लिप्त नहीं होता ॥ ७ ॥ नहीं तो, मनमाना कर्म करने से मनुष्य अभिमान के वशीभूत होकर कर्मों में बँध जाता है तथा गुण-प्रवाहरूप संसारचक्र में पड़कर विवेकबुद्धि के नष्ट हो जाने से अधम योनियों में जन्म लेता है ॥ ८ ॥ पुरञ्जन के तरह-तरह के पंखों वाले बाणों से छिन्न-भिन्न होकर अनेक जीव बड़े कष्ट के साथ प्राण त्यागने लगे । उसका वह निर्दयतापूर्ण जीव-संहार देखकर सभी दयालु पुरुष बहुत दुखी हुए । वे इसे सह नहीं सके ॥ ९ ॥ इस प्रकार वहाँ खरगोश, सूअर, भैंसे, नीलगाय, कृष्णमृग, साही तथा और भी बहुत से मेध्य पशुओं का वध करते-करते राजा पुरञ्जन बहुत थक गया ॥ १० ॥ तब वह भूख-प्यास से अत्यन्त शिथिल हो वन से लौटकर राजमहल में आया । वहां उसने यथायोग्य रीति से स्नान और भोजन से निवृत्त हो, कुछ विश्राम करके थकान दूर की ॥ ११ ॥ फिर गन्ध, चन्दन और माला आदि से सुसजित हो सब अङ्गों में सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने । तब उसे अपनी प्रिया की याद आयी ॥ १२ ॥ वह भोजनादि से तृप्त, हृदय में आनन्दित, मद से उन्मत और काम से व्यथित होकर अपनी सुन्दरी भार्या को ढूंढने लगा; किन्तु उसे वह कहीं भी दिखायी न दी ॥ १३ ॥ प्राचीनबर्हि ! तब उसने चित में कुछ उदास होकर अन्तःपुर की स्त्रियों से पूछा, ‘सुन्दरियो ! अपनी स्वामिनी के सहित तुम सब पहले की ही तरह कुशल से हो न? ॥ १४ ॥ क्या कारण है आज इस घर की सम्पत्ति पहले-जैसी सुहावनी नहीं जान पड़ती ? घर में माता अथवा पतिपरायणा भार्या न हो, तो वह घर बिना पहिये के रथ के समान हो जाता है, फिर उसमें कौन बुद्धिमान् दीन पुरुषों के समान रहना पंसद करेगा ॥ १५ ॥ अतः बताओ, वह सुन्दरी कहाँ है, जो दुःख-समुद्र में डूबने पर मेरी विवेक-बुद्धि को पद-पद पर जाग्रत् करके मुझे उस सङ्कट से उबार लेती है ?’ ॥ १६ ॥ स्त्रियों ने कहा — नरनाथ ! मालूम नहीं आज आपकी प्रिया ने क्या ठानी है । शत्रुदमन ! देखिये, वे बिना बिछौने के पृथ्वी पर ही पड़ी हुई हैं ॥ १७ ॥ श्रीनारदजी कहते हैं — राजन् ! उस स्त्री के सङ्ग से राजा पुरञ्जन का विवेक नष्ट हो चुका था; इसलिये अपनी रानी को पृथ्वी पर अस्त-व्यस्त अवस्था में पड़ी देखकर वह अत्यन्त व्याकुल हो गया ॥ १८ ॥ उसने दुःखित हृदय से उसे मधुर वचनों द्वारा बहुत कुछ समझाया, किन्तु उसे अपनी प्रेयसी के अंदर अपने प्रति प्रणय-कोप का कोई चिह्न नहीं दिखायी दिया ॥ १९ ॥ वह मनाने में भी बहुत कुशल था, इसलिये अब पुरञ्जन ने उसे धीरे-धीरे मनाना आरम्भ किया । उसने पहले उसके चरण छूए और फिर गोद में बिठाकर बड़े प्यार से कहने लगा ॥ २० ॥ पुरञ्जन बोला — सुन्दरि ! वे सेवक तो निश्चय ही बड़े अभागे हैं, जिनके अपराध करने पर स्वामी उन्हें अपना समझकर शिक्षा के लिये उचित दण्ड नहीं देते ॥ २१ ॥ सेवक को दिया हुआ स्वामी का दण्ड तो उस पर बड़ा अनुग्रह ही होता है । जो मूर्ख हैं, उन्हीं को क्रोध के कारण अपने हितकारी स्वामी के किये हुए उस उपकार का पता नहीं चलता ॥ २२ ॥ सुन्दर दन्तावली और मनोहर भौंहों से शोभा पानेवाली मनस्विनि ! अब यह क्रोध दूर करो और एक बार मुझे अपना समझकर प्रणय-भार तथा लज्जा से झुका हुआ एवं मधुर मुसकानमयी चितवन से सुशोभित अपना मनोहर मुखड़ा दिखाओ । अहो ! भ्रमरपंक्ति के समान नीली अलकावली, उन्नत नासिका और सुमधुर वाणी के कारण तुम्हारा वह मुखारविन्द कैसा मनमोहक जान पड़ता है ॥ २३ ॥ वीरपत्नि ! यदि किसी दुसरे ने तुम्हारा कोई अपराध किया हो तो उसे बताओ; यदि वह अपराधी ब्राह्मणकुल का नहीं हैं, तो मैं उसे अभी दण्ड देता हूँ । मुझे तो भगवान् के भक्तों को छोड़कर त्रिलोकी में अथवा उससे बाहर ऐसा कोई नहीं दिखायी देता जो तुम्हारा अपराध करके निर्भय और आनन्दपूर्वक रह सके ॥ २४ ॥ प्रिये ! मैंने आजतक तुम्हारा मुख कभी तिलकहीन, उदास, मुरझाया हुआ, क्रोध के कारण डरावना, कान्तिहीन और स्नेहशून्य नहीं देखा; और न कभी तुम्हारे सुन्दर स्तनों को ही शोकाश्रुओं से भीगा तथा बिम्बाफलसदृश अधरों को स्निग्ध केसर की लाली से रहित देखा है ॥ २५ ॥ मैं व्यसनवश तुमसे बिना पूछे शिकार खेलने चला गया, इसलिये अवश्य अपराधी हूँ । फिर भी अपना समझकर तुम मुझपर प्रसन्न हो जाओ; कामदेव के विषम बाणों से अधीर होकर जो सर्वदा अपने अधीन रहता है, उस अपने प्रिय पति को उचित कार्य के लिये भला कौन कामिनी स्वीकार नहीं करती ॥ २६ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे षड्विंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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