March 4, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय ३१ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय इकतीसवाँ अध्याय प्रचेताओं को श्रीनारदजी का उपदेश और उनका परमपद-लाभ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! दस लाख वर्ष बीत जाने पर जब प्रचेताओं को विवेक हुआ, तब उन्हें भगवान् वाक्यों की याद आयी और वे अपनी भार्या मारिषा को पुत्र के पास छोड़कर तुरंत घर से निकल पड़े ॥ १ ॥ वे पश्चिम दिशा में समुद्र तट पर — जहाँ जाजलि मुनि ने सिद्धि प्राप्त की थी — जा पहुँचे और जिससे ‘समस्त भूतों में एक ही आत्मतत्त्व विराजमान है; ऐसा ज्ञान होता है, उस आत्मविचाररूप ब्रह्मसत्र का सङ्कल्प करके बैठ गये ॥ २ ॥ उन्होंने प्राण, मन, वाणी और दृष्टि को वश में किया तथा शरीर को निश्चेष्ट, स्थिर और सीधा रखते हुए आसन को जीतकर चित्त को विशुद्ध परब्रह्म में लीन कर दिया । ऐसी स्थिति में उन्हें देवता और असुर दोनों के ही वन्दनीय श्रीनारदजी ने देखा ॥ ३ ॥ नारदजी को आया देख प्रचेतागण खड़े हो गये और प्रणाम करके आदर-सत्कारपूर्वक देश-कालानुसार उनकी विधिवत् पूजा की । जब नारदजी सुखपूर्वक बैठ गये, तब वे कहने लगे ॥ ४ ॥ प्रचेताओं ने कहा — देवर्षे ! आपका स्वागत है, आज बड़े भाग्य से हमें आपका दर्शन हुआ । ब्रहान् ! सूर्य के समान आपका घूमना-फिरना भी ज्ञानालोक से समस्त जीवों को अभय-दान देने के लिये ही होता है ॥ ५ ॥ प्रभो ! भगवान् शङ्कर और श्रीविष्णुभगवान् ने हमें जो उपदेश दिया था, उसे गृहस्थी में आसक्त रहने के कारण हमलोग प्रायः भूल गये हैं ॥ ६ ॥ अतः आप हमारे हृदयों में उस परमार्थतत्त्व का साक्षात्कार करानेवाले अध्यात्मज्ञान को फिर प्रकाशित कर दीजिये, जिससे हम सुगमता से ही इस दुस्तर संसार-सागर से पार हो जायँ॥ ७ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — भगवन्मय श्रीनारदजी का चित्त सर्वदा भगवान् श्रीकृष्ण में ही लगा रहता है । वे प्रचेताओं के इस प्रकार पूछने पर उनसे कहने लगे ॥ ८ ॥ श्रीनारदजी ने कहा — राजाओ ! इस लोक में मनुष्य का वही जन्म, वही कर्म, वही आयु, वही मन और वही वाणी सफल है, जिसके द्वारा सर्वात्मा सर्वेश्वर श्रीहरि का सेवन किया जाता हैं ॥ ९ ॥ जिनके द्वारा अपने स्वरूप का साक्षात्कार करानेवाले श्रीहरि को प्राप्त न किया जाय, उन माता-पिता की पवित्रता से, यज्ञोपवीत-संस्कार से एवं यज्ञदीक्षा से प्राप्त होनेवाले उन तीन प्रकार के श्रेष्ठ जन्मों से, वेदोक्त कर्मों से, देवताओं के समान दीर्घ आयु से, शास्त्रज्ञान से, तप से, वाणी की चतुराई से. अनेक प्रकार की बातें याद रखने की शक्ति से, तीव्र बुद्धि से, बल से, इन्द्रियों की पटुता से, योग से, सांख्य (आत्मानात्मविवेक) से, संन्यास और वेदाध्ययन से तथा व्रत-वैराग्यादि अन्य कल्याण-साधनों से भी पुरुष का क्या लाभ हैं ? ॥ १०-१२ ॥ वास्तव में समस्त कल्याणों को अवधि आत्मा ही है और आत्मज्ञान प्रदान करनेवाले श्रीहरि ही सम्पूर्ण प्राणियों की प्रिय आत्मा हैं ॥ १३ ॥ जिस प्रकार वृक्ष की जड़ सींचने से उसके तना, शाखा, उपशाखा आदि सभी का पोषण हो जाता है और जैसे भोजन द्वारा प्राणों को तृप्त करने से समस्त इन्द्रियां पुष्ट होती हैं, उसी प्रकार श्रीभगवान् की पूजा ही सबकी पूजा है ॥ १४ ॥ जिस प्रकार वर्षाकाल में जल सूर्य के ताप से उत्पन्न होता है और ग्रीष्म-ऋतु में उसी की किरणों में पुनः प्रवेश कर जाता है तथा जैसे समस्त चराचर भूत पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं और फिर उसमें मिल जाते हैं, उसी प्रकार चेतनाचेतनात्मक यह समस्त प्रपञ्च श्रीहरि से ही उत्पन्न होता है और उन्हीं में लीन हो जाता है ॥ १५ ॥ वस्तुतः यह विश्वात्मा श्रीभगवान् का वह शास्त्रप्रसिद्ध सर्वोपाधिरहित स्वरूप ही है । जैसे सूर्य की प्रभा उससे भिन्न नहीं होती, उसी प्रकार कभी-कभी गन्धर्व नगर के समान स्फुरित होनेवाला यह जगत् भगवान् से भिन्न नहीं है, तथा जैसे जाग्रत् अवस्था में इन्द्रियाँ क्रियाशील रहती हैं किन्तु सुषुप्ति में उनकी शक्तियाँ लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार यह जगत् सर्गकाल में भगवान् से प्रकट हो जाता है और कल्पान्त होनेपर उन्हीं में लीन हो जाता है । स्वरूपतः तो भगवान् में द्रव्य, क्रिया और ज्ञानरूपी त्रिविध अहङ्कार के कार्यों की तथा उनके निमित्त से होनेवाले भेदभ्रम की सत्ता है ही नहीं ॥ १६ ॥ नृपतिगण ! जैसे बादल, अन्धकार और प्रकाश ये क्रमशः आकाश से प्रकट होते हैं और उसमें लीन हो जाते हैं; किन्तु आकाश इनसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार ये सत्त्व, रज, और तमोमयी शक्तियों कभी परब्रह्म से उत्पन्न होती हैं और कभी उसी में लीन हो जाती हैं । इसी प्रकार इनका प्रवाह चलता रहता है, किन्तु इससे आकाश के समान असङ्ग परमात्मा में कोई विकार नहीं होता ॥ १७ ॥ अतः तुम ब्रह्मादि समस्त लोकपालों के भी अधीश्वर श्रीहरि को अपने से अभिन्न मानते हुए भजो; क्योंकि वे ही समस्त देहधारियों के एकमात्र आत्मा हैं । वे ही जगत् के निमित्तकारण काल, उपादानकारण प्रधान और नियन्ता पुरुषोत्तम हैं तथा अपनी कालशक्ति से वे ही इस गुणों के प्रवाहरूप प्रपञ्च का संहार कर देते हैं ॥ १८ ॥ वे भक्तवत्सल भगवान् समस्त जीवों पर दया करने से, जो कुछ मिल जाय उसमें सन्तुष्ट रहने तथा समस्त इन्द्रियों को विषयों से निवृत्त करके शान्त करने से शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं ॥ १९ ॥ पुत्रैषणा आदि सब प्रकार की वासनाओ के निकल जाने से जिनक्रा अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, उन संतों के हृदय में उनके निरन्तर बढ़ते हुए चिन्तन से खिंचकर अविनाशी श्रीहरि आ जाते हैं और अपनी भक्ताधीनता को चरितार्थ करते हुए हृदयाकाश की भाँति वहाँ से हटते नहीं ॥ २० ॥ भगवान् तो अपने को (भगवान् को) ही सर्वस्व माननेवाले निर्धन पुरुषों पर ही प्रेम करते हैं, क्योंकि वे परम रसज्ञ हैं — उन अकिञ्चन को अनन्याश्रया अहैतु की भक्ति मे कितना माधुर्य होता है, इसे प्रभु अच्छी तरह जानते हैं । जो लोग अपने शास्त्रज्ञान, धन, कुल और कर्मों के मद से उन्मत्त होकर, ऐसे निष्किञ्चन साधुजनों का तिरस्कार करते है, उन दुर्बुद्धियों की पूजा तो प्रभु स्वीकार ही नहीं करते ॥ २१ ॥ भगवान् स्वरूपानन्द से ही परिपूर्ण हैं, उन निरन्तर अपनी सेवामें रहनेवाली लक्ष्मीजी तथा उनकी इच्छा करनेवाले नरपति और देवताओं की भी कोई परवा नहीं है । इतने पर भी वे अपने भक्तों के तो अधीन ही रहते हैं । अहो ! ऐसे करुणा-सागर श्रीहरि को कोई भी कृतज्ञ पुरुष थोड़ी देर के लिये भी कैसे छोड़ सकता है ?॥ २२ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! भगवान् नारद ने प्रचेताओं को इस उपदेश के साथ-साथ और भी बहुत-सी भगवत्सम्बन्धी बातें सुनायीं । इसके पश्चात् वे ब्रह्मलोक को चले गये ॥ २३ ॥ प्रचेतागण भी उनके मुख से सम्पूर्ण जगत् के पापरूपी मल को दूर करनेवाले भगवच्चरित्र सुनकर भगवान् के चरणकमलों का ही चिन्तन करने लगे और अन्त में भगवद्धाम को प्राप्त हुए ॥ २४ ॥ इस प्रकार आपने जो मुझसे श्रीनारदजी और प्रचेताओं के भगवत्कथासम्बन्धी संवाद के विषय में पूछा था, वह मैंने आपको सुना दिया ॥ २५ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! यहाँतक स्वायम्भुव मनु के पुत्र उत्तानपाद के वंश का वर्णन हुआ, अब प्रियव्रत के वंश का विवरण भी सुनो ॥ २६ ॥ राजा प्रियव्रत ने श्रीनारदजी से आत्मज्ञान का उपदेश पाकर भी राज्यभोग किया था तथा अन्त में इस सम्पूर्ण पृथ्वी अपने पुत्रों में बाँटकर वे भगवान् के परमधाम को प्राप्त हुए थे ॥ २७ ॥ राजन् ! इधर श्रीमैत्रेयजी के मुख से यह भगवद्गुणानुवादयुक्त पवित्र कथा सुनकर विदुरजी प्रेममग्न हो गये, भक्तिभाव का उद्रेक होने से उनके नेत्रों से पवित्र आँसुओं की धारा बहने लगी तथा उन्होंने हृदय में भगवच्चरणों का स्मरण करते हुए अपना मस्तक मुनिवर मैत्रेयजी के चरणों पर रख दिया ॥ २८ ॥ विदुरजी कहने लगे — महायोगिन् ! आप बड़े ही करुणामय हैं । आज आपने मुझे अज्ञानान्धकार के उस पार पहुँचा दिया है, जहाँ अकिञ्चन के सर्वस्व श्रीहरि विराजते हैं ॥ २९ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — मैत्रेयजी को उपर्युक्त कृतज्ञतासूचक वचन कहकर तथा प्रणाम कर विदुरजी ने उनसे आज्ञा ली और फिर शान्तचित्त होकर अपने बन्धुजनों से मिलने के लिये वे हस्तिनापुर चले गये ॥ ३० ॥ राजन् ! जो पुरुष भगवान् के शरणागत परमभागवत राजाओं का यह पवित्र चरित्र सुनेगा, उसे दीर्घ आयु, धन, सुयश, क्षेम, सद्गति और ऐश्वर्य की प्राप्ति होगीं ॥ ३१ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् चतुर्थ स्कन्धः शुभं भूयात् ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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