श्रीमद्भागवतमहापुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय ४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
चौथा अध्याय
सती का अग्निप्रवेश

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! इतना कहकर भगवान् शङ्कर मौन हो गये । उन्होंने देखा कि दक्ष के यहाँ जाने देने अथवा जाने देने से रोकने दोनों ही अवस्थाओं में सती के प्राणत्याग की सम्भावना है । इधर, सतीजी भी कभी बन्धुजनों को देखने जाने की इच्छा से बाहर आती और कभी भगवान् शङ्कर रुष्ट न हो जायें’ इस शङ्का से फिर लौट जाती । इस प्रकार कोई एक बात निश्चित न कर सकने के कारण वे दुविधा में पड़ गयी — चञ्चल हो गयीं ॥ १ ॥ बन्धुजनों से मिलने की इच्छा में बाधा पड़ने से वे बड़ी अनमनी हो गयी । स्वजनों के स्नेहवश उनका हृदय भर आया और वे आँखों में आँसू भरकर अत्यन्त व्याकुल हो रोने लगीं । उनका शरीर थरथर काँपने लगा और वे अप्रतिम पुरुष भगवान् शङ्कर की ओर इस प्रकार रोषपूर्ण दृष्टि से देखने लगीं मानो उन्हें भस्म कर देंगी ॥ २ ॥

शोक और क्रोध ने उनके चित्त को बिलकुल बेचैन कर दिया तथा स्त्रीस्वभाव के कारण उनकी बुद्धि मूढ़ हो गयी । जिन्होंने प्रीतिवश उन्हें अपना आधा अङ्ग तक दे दिया था, उन सत्पुरुषों के प्रिय भगवान् शङ्कर को भी छोड़कर वे लंबी-लंबी साँस लेती हुई अपने माता-पिता के घर चल दी ॥ ३ ॥ सती को बड़ी फुर्ती से अकेली जाते देख श्रीमहादेवजी के मणिमान् एवं मद आदि हज़ारों सेवक भगवान् के वाहन वृषभराज को आगे कर तथा और भी अनेकों पार्षद और यक्षों को साथ ले बड़ी तेजी से निर्भयतापूर्वक उनके पीछे हो लिये ॥ ४ ॥ उन्होंने सती को बेल पर सवार करा दिया तथा मैनापक्षी, गेंद, दर्पण और कमल आदि खेल की सामग्री, श्वेत छत्र, चँवर और माला आदि राजचिह्न तथा दुन्दुभि, शङ्ख और बाँसुरी आदि गाने-बजाने के सामानों से सुसज्जित हो वे उनके साथ चल दिये ॥ ५ ॥

तदनन्तर सती अपने समस्त सेवकों के साथ दक्ष की यज्ञशाला में पहुँचीं । वहाँ वेदध्वनि करते हुए ब्राह्मणों में परस्पर होड़ लग रही थी कि सबसे ऊँचे स्वर में कौन बोले सब ओर ब्रह्मर्षि और देवता विराजमान थे तथा जहाँ-तहाँ मिट्टी, काठ, लोहे, सोने, डाभ और चर्म के पात्र रखे हुए थे ॥ ६ ॥ वहाँ पहुँचने पर पिता के द्वारा सती की अवहेलना हुई, यह देख यज्ञकर्ता दक्ष के भय से सती की माता और बहन के सिवा किसी भी मनुष्य ने उनका कुछ भी आदर-सत्कार नहीं किया । अवश्य ही उनकी माता और बहिनें बहुत प्रसन्न हुई और प्रेम से गद्गद होकर उन्होंने सतीजी को आदरपूर्वक गले लगाया ॥ ७ ॥ किन्तु सतीजी ने पिता से अपमानित होने के कारण, बहिनों के कुशल-प्रश्नसहित प्रेमपूर्ण वार्तालाप तथा माता और मौसियों के सम्मानपूर्वक दिये हुए उपहार और सुन्दर आसनादि को स्वीकार नहीं किया ॥ ८ ॥

सर्वलोकेश्वरी देवी सती का यज्ञमण्डप में तो अनादर हुआ ही था, उन्होंने यह भी देखा कि उस यज्ञ में भगवान् शङ्कर के लिये कोई भाग नहीं दिया गया है और पिता दक्ष उनका बड़ा अपमान कर रहा हैं । इससे उन्हें बहुत क्रोध हुआ ऐसा जान पड़ता था मानो वे अपने रोष से सम्पूर्ण लोकों को भस्म कर देंगी ॥ ९ ॥ दक्ष को कर्ममार्ग के अभ्यास से बहुत घमंड हो गया था । उसे शिवजी से द्वेष करते देख जब सती के साथ आये हुए भूत उसे मारने को तैयार हुए, तो देवी सती ने उन्हें अपने तेज से रोक दिया और सब लोगों को सुनाकर पिता की निन्दा करते हुए क्रोध से लड़खड़ाती हुई वाणी में कहा ॥ १० ॥

देवी सती ने कहा — ‘पिताजी ! भगवान् शङ्कर से बड़ा तो संसार में कोई भी नहीं है । वे तो सभी देहधारियों के प्रिय आत्मा हैं । उनका न कोई प्रिय है, न अप्रिय, अतएव उनका किसी भी प्राणी से वैर नहीं है । वे तो सबके कारण एवं सर्वरूप हैं; आपके सिवा और ऐसा कौन है जो उनसे विरोध करेगा ? ॥ ११ ॥ द्विजवर ! आप-जैसे लोग दूसरों के गुणों में भी दोष ही देखते हैं, किन्तु कोई साधुपुरुष ऐसा नहीं करते । जो लोग-दोष देखने की बात तो अलग रही — दूसरों के थोडे-से गुण को भी बड़े रूप में देखना चाहते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ हैं । खेद है कि आपने ऐसे महापुरुषों पर भी दोषारोपण ही किया ॥ १२ ॥ जो दुष्ट मनुष्य इस शवरूप जडशरीर को ही आत्गा मानते हैं, वे यदि ईर्ष्यावश सर्वदा ही महापुरुषों की निन्दा करें तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है । क्योंकि महापुरुष तो उनकी इस चेष्टा पर कोई ध्यान नहीं देते, परन्तु उनके चरणों की धूलि उनके इस अपराध को न सहकर उनका तेज़ नष्ट कर देती है । अतः महापुरुषों की निन्दा-जैसा जघन्य कार्य उन दुष्ट पुरुष को ही शोभा देता है ॥ १३ ॥

जिनका ‘शिव’ यह दो अक्षरों का नाम प्रसङ्गवश एक बार भी मुख से निकल जाने पर मनुष्य के समस्त पापों को तत्काल नष्ट कर देता है । और जिनकी आज्ञा का कोई भी उल्लङ्घन नहीं कर सकता, अहो ! उन्हीं पवित्रकीर्ति मङ्गलमय भगवान् शङ्कर से आप द्वेष करते हैं ! अवश्य ही आप अमङ्गल रूप हैं ॥ १४ ॥ अरे ! महापुरुषों के मन-मधुकर ब्रह्मानन्दमय रस का पान करने की इच्छा से जिनके चरणकमलों का निरन्तर सेवन किया करते हैं और जिनके चरणारविन्द सकाम पुरुष को उनके अभीष्ट भोग भी देते हैं, उन विश्वबन्धु भगवान् शिव से आप वैर करते हैं ? ॥ १५ ॥

वे केवल नाममात्र के शिव हैं, उनका वेष अशिवरूप-अमङ्गलरूप है; इस बात को आपके सिवा दूसरे कोई देवता सम्भवतः नहीं जानते; क्योंकि जो भगवान् शिव श्मशान-भूमिस्थ नरमुण्ड की माला, चिता की भस्म और हड्डियाँ पहने, जटा बिखेरे, भूत-पिशाचों के साथ श्मशान में निवास करते हैं, उन्हीं के चरणों पर से गिरे हुए निर्माल्य को ब्रह्मा आदि देवता अपने सिर पर धारण करते हैं ॥ १६ ॥ यदि निरङ्कुश लोग धर्ममर्यादा की रक्षा करनेवाले अपने पूजनीय स्वामी की निन्दा करें तो अपने में उसे दण्ड देने की शक्ति न होने पर कान बंद करके वहाँ से चला जाय और यदि शक्ति हो तो बलपूर्वक पकड़कर उस बकवाद करनेवाली अमङ्गलरूप दुष्ट जिह्वा को काट डाले । इस पाप को रोकने के लिये स्वयं अपने प्राणतक दे दे, यही धर्म है ॥ १७ ॥

आप भगवान् नीलकण्ठ की निन्दा करनेवाले हैं, इसलिये आपसे उत्पन्न हुए इस शरीर को अब मैं नहीं रख सकती; यदि भूल से कोई निन्दित वस्तु खा ली जाय, तो उसे वमन करके निकाल देने से ही मनुष्य की शुद्धि बतायी जाती है ॥ १८ ॥ जो महामुनि निरन्तर अपने स्वरूप में ही रमण करते हैं, उनकी बुद्धि सर्वथा वेद के विधि-निषेधमय वाक्य का अनुसरण नहीं करती । जिस प्रकार देवता और मनुष्यों की गति में भेद रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी और अज्ञानी की स्थिति भी एक-सी नहीं होती । इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह अपने ही धर्ममार्ग में स्थित रहते हुए भी दूसरों के मार्ग की निन्दा न करे ॥ १९ ॥ प्रवृत्ति (यज्ञ-यागादि) और निवृत्ति (शम-दमादि)-रूप दोनों ही प्रकार के कर्म ठीक हैं । वेद में उनके अलग-अलग रागी और विरागी दो प्रकार के अधिकारी बताये गये हैं । परस्पर विरोधी होने के कारण उक्त दोनों प्रकार के कर्मों का एक साथ एक ही पुरुष के द्वारा आचरण नहीं किया जा सकता । भगवान् शङ्कर तो परब्रह्म परमात्मा हैं, उन्हें इन दोनों में से किसी भी प्रकार का कर्म करने की आवश्यकता नहीं हैं ॥ २० ॥

पिताजी ! हमारा ऐश्वर्य अव्यक्त है, आत्मज्ञानी महापुरुष ही उसका सेवन कर सकते हैं । आपके पास वह ऐश्वर्य नहीं है और यज्ञशालाओं में यज्ञान्न से तृप्त होकर प्राणपोषण करनेवाले कर्मठलोग उसकी प्रशंसा भी नहीं करते ॥ २१ ॥ आप भगवान् शङ्कर का अपराध करनेवाले हैं । अतः आपके शरीर से उत्पन्न इस निन्दनीय देह को रखकर मुझे क्या करना है । आप-जैसे दुर्जन से सम्बन्ध होने के कारण मुझे लज्जा आती है । जो महापुरुषों का अपराध करता है, उससे होनेवाले जन्म को भी धिक्कार है ॥ २२ ॥ जिस समय भगवान् शिव आपके साथ मेरा सम्बन्ध दिखलाते हुए मुझे हँसी में ‘दाक्षायणी (दक्षकुमारी) के नाम से पुकारेंगे, उस समय हँसी को भूलकर मुझे बड़ी ही लज्जा और ख़ेद होगा । इसलिये उसके पहले ही मैं आपके अङ्ग से उत्पन्न इस शवतुल्य शरीर को त्याग दूँगी ॥ २३ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — कामादि शत्रुओं को जीतनेवाले विदुरजी ! उस यज्ञमण्डप में दक्ष से इस प्रकार कह देवी सती मौन होकर उत्तर दिशा में भूमि पर बैठ गयीं । उन्होंने आचमन करके पीला वस्त्र ओढ़ लिया तथा आँखें मूँदकर शरीर छोड़ने के लिये ये योगमार्ग में स्थित हो गयीं ॥ २४ ॥ उन्होंने आसन को स्थिरकर प्राणायाम द्वारा प्राण और अपान को एकरूप करके नाभिचक्र में स्थित किया; फिर उदानवायु को नाभिचक्र से ऊपर उठाकर धीरे-धीरे बुद्धि के साथ हृदय में स्थापित किया । इसके पश्चात् अनिन्दिता सती उस हृदयस्थित वायु कण्ठमार्ग से भुकुटियों के बीच में ले गयीं ॥ २५ ॥ इस प्रकार, जिस शरीर को महापुरुषों के भी पूजनीय भगवान् शङ्कर ने कई बार बड़े आदर से अपनी गोद में बैठाया था, दक्ष पर कुपित होकर उसे त्यागने की इच्छा से महामनस्विनी सती ने अपने सम्पूर्ण अङ्गों में वायु और अग्नि की धारणा की ॥ २६ ॥ अपने पति जगद्गुरु भगवान् शङ्कर के चरण-कमल-मकरन्द का चिन्तन करते-करते सती ने और सब ध्यान भुला दिये; उन्हें उन चरणों के अतिरिक्त कुछ भी दिखायी न दिया । इससे वे सर्वथा निर्दोष, अर्थात् मैं दक्षकन्या हूँ ऐसे अभिमान से भी मुक्त हो गयी और उनका शरीर तुरंत ही योगाग्नि से जल उठा ॥ २३ ॥

उस समय वहाँ आये हुए देवता आदि ने जब सती का देहत्यागरूप यह महान् आश्चर्यमय चरित्र देखा, तब वे सभी हाहाकार करने लगे और वह भयङ्कर कोलाहल आकाश में एवं पृथ्वीतल पर सभी जगह फैल गया । सब ओर यही सुनायी देता था — ‘हाय ! दक्ष के दुर्व्यवहार से कुपित होकर देवाधिदेव महादेव की प्रिया सती ने प्राण त्याग दिये ! ॥ २८ ॥ देखो, सारे चराचर जीव इस दक्षप्रजापति की ही सन्तान हैं । फिर भी इसने कैसी भारी दुष्टता की है ! इसकी पुत्री शुद्धहृदया सती सदा ही मान पाने के योग्य थी, किन्तु इसने उसका ऐसा निरादर किया कि उसने प्राण त्याग दिये ॥ २९ ॥ वास्तव में यह बड़ा ही असहिष्णु और ब्राह्मणद्रोही है । अब इसकी संसार में बड़ी अपकीर्ति होगी । जब इसकी पुत्री सती इसी के अपराध से प्राणत्याग करने को तैयार हुई, तब भी इस शङ्करद्रोही ने उसे रोका तक नहीं !’ ॥ ३० ॥

जिस समय सब लोग ऐसा कह रहे थे, उसी समय शिवजी के पार्षद सती का यह अद्भुत प्राणत्याग देख, अस्त्र-शस्त्र लेकर दक्ष को मारने के लिये उठ खड़े हुए ॥ ३१ ॥ उनके आक्रमण का वेग देखकर भगवान् भुगु ने यज्ञ में विघ्न डालनेवालों का नाश करने के लिये ‘अपहतं रक्ष……..’ इत्यादि मन्त्र का उच्चारण करते हुए दक्षिणाग्नि में आहुति दी ॥ ३२ ॥ अध्वर्यु भृगु ने ज्यों ही आहुति छोड़ी कि यज्ञकुण्ड से ‘ऋभु’ नाम के हजारों तेजस्वी देवता प्रकट हो गये । इन्होंने अपनी तपस्या के प्रभाव से चन्द्रलोक प्राप्त किया था ॥ ३३ ॥ उन ब्रह्मतेजसम्पन्न देवताओं ने जलती हुई लकड़ियों से आक्रमण किया, तो समस्त गुह्मक और प्रमथगण इधर-उधर भाग गये ॥ ३४ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे सतीदेहोत्सर्गो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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