February 13, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय ७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सातवाँ अध्याय दक्षयज्ञकी पूर्ति श्रीमैत्रेजी कहते हैं — महाबाहो विदुरजी ! ब्रह्माजी के इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवान् शङ्कर ने प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए कहा — सुनिये ॥ १ ॥ श्रीमहादेवजी ने कहा — ‘प्रजापते ! भगवान् की माया से मोहित हुए दक्ष-जैसे नासमझों के अपराध की न तो मैं चर्चा करता हूँ और न याद ही । मैंने तो केवल सावधान करने के लिये ही उन्हें थोड़ा-सा दण्ड दे दिया ॥ २ ॥ दक्षप्रजापति का सिर जल गया है, इसलिये उनके बकरे का सिर लगा दिया जाय; भगदेव मित्रदेवता के नेत्रों से अपना यज्ञभाग देखें ॥ ३ ॥ पूषा पिसा हुआ अन्न खानेवाले हैं, वे उसे यजमान के दाँतो से भक्षण करें तथा अन्य सब देवताओं के अङ्ग-प्रत्यङ्ग भी स्वस्थ हो जायँ; क्योंकि उन्होंने यज्ञ से बचे हुए पदार्थों को मेरा भाग निश्चित किया है ॥ ४ ॥ अध्वर्यु आदि याज्ञिकों मॅ से जिनकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनीकुमार की भुजाओं से और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे पूषा के हाथों से काम करें तथा भृगुजी के बकरेकी-सी दाढ़ी-मूंछ हो जाय’ ॥ ५ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — वत्स विदुर ! तब भगवान् शङ्कर के वचन सुनकर सब लोग प्रसन्न-चित्त से ‘धन्य ! धन्य !’ कहने लगे ॥ ६ ॥ फिर सभी देवता और ऋषियों ने महादेवजी से दक्ष की यज्ञशाला में पधारने की प्रार्थना की और तब वे उन्हें तथा ब्रह्माजी को साथ लेकर वहाँ गये ॥ ७ ॥ वहाँ जैसा-जैसा भगवान् शङ्कर ने कहा था, उसी प्रकार सब कार्य करके उन्होंने दक्ष के धड़ से यज्ञपशु का सिर जोड़ दिया ॥ ८ ॥ सिर जुड़ जानेपर रुद्र-देव की दृष्टि पड़ते ही दक्ष तत्काल सोकर जागने के समान जी उठे और अपने सामने भगवान् शिव को देखा ॥ ९ ॥ दक्ष का शङ्करद्रोह की कालिमा से कलुषित हृदय उनका दर्शन करने से शरत्कालीन सरोवर के समान स्वच्छ हो गया ॥ १० ॥ उन्होंने महादेवजी की स्तुति करनी चाही, किन्तु अपनी मरी हुई बेटी सती का स्मरण हो आने से स्नेह और उत्कण्ठा के कारण उनके नेत्रों में आँसू भर आये । उनके मुख से शब्द न निकल सका ॥ ११ ॥ प्रेम से विह्वल, परम बुद्धिमान् प्रजापति ने जैसे-तैसे अपने हृदय के आवेग को रोककर विशुद्धभाव से भगवान् शिव की स्तुति करनी आरम्भ की ॥ १२ ॥ दक्ष ने कहा — भगवन् ! मैंने आपका अपराध किया था, किन्तु आपने उसके बदले में मुझे दण्ड के द्वारा शिक्षा देकर बड़ा ही अनुग्रह किया है । अहो ! आप और श्रीहरि तो आचारहीन, नाममात्र के ब्राह्मणों की भी उपेक्षा नहीं करते-फिर हम-जैसे यज्ञ-यागादि करनेवालों को क्यों भूलेंगे ॥ १३ ॥ विभो ! आपने ब्रह्मा होकर सबसे पहले आत्मतत्त्व की रक्षा के लिये अपने मुख से विद्या, तप और व्रतादि के धारण करनेवाले ब्राह्मणों को उत्पन्न किया था । जैसे चरवाहा लाठी लेकर गौओं की रक्षा करता है, उसी प्रकार आप उन ब्राह्मणों की सब विपत्तियों से रक्षा करते हैं ॥ १४ ॥ मैं आपके तत्त्व को नहीं जानता था, इसीसे मैंने भरी सभा में आपको अपने वाग्बाणों से बेधा था । किन्तु आपने मेरे उस अपराध का कोई विचार नहीं किया । मैं तो आप-जैसे पूज्यतम महानुभावों का अपराध करने के कारण नरकादि नीच लोकों में गिरनेवाला था, परन्तु आपने अपनी करुणाभरी दृष्टि से मुझे उबार लिया । अब भी आपको प्रसन्न करनेयोग्य मुझमें कोई गुण नहीं हैं, बस, आप अपने ही उदारतापूर्ण बर्ताव से मुझपर प्रसन्न हो ॥ १५ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — आशुतोष शङ्कर से इस प्रकार अपना अपराध क्षमा कराकर दक्ष ने ब्रह्माजी के कहनेपर उपाध्याय, ऋत्विज् आदि की सहायता से यज्ञकार्य आरम्भ किया ॥ १६ ॥ तब ब्राह्मणों ने यज्ञ सम्पन्न करने के उद्देश्य से रुद्रगण-सम्बन्धी भूत-पिशाचों के संसर्गजनित दोष की शान्ति के लिये तीन पात्रों में विष्णुभगवान् के लिये तैयार किये हुए पुरोडाश नामक चरु का हवन किया ॥ १७ ॥ विदुरजी ! उस हवि को हाथ में लेकर खड़े हुए अध्वर्यु के साथ यजमान दक्ष ने ज्यों ही विशुद्ध चित से श्रीहरि का ध्यान किया, त्यों ही सहसा भगवान् वहाँ प्रकट हो गये ॥ १८ ॥ ‘बृहत्’ एवं ‘रथन्तर’ नामक साम-स्तोत्र जिनके पंख है, उन गरुडजी के द्वारा समीप लाये हुए भगवान् ने दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई अपनी अङ्गकान्ति से सब देवताओं का तेज हर लिया उनके सामने सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी ॥ १९ ॥ उनका श्याम वर्ण था, कमर में सुवर्ण की करधनी तथा पीताम्बर सुशोभित थे । सिरपर सूर्य के समान देदीप्यमान मुकुट था, मुखकमल भौरों के समान नीली अलकावली और कान्तिमय कुण्डलों से शोभायमान था, उनके सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित आठ भुजाएँ थीं, जो भक्तों की रक्षा के लिये सदा उद्यत रहती हैं । आठों भुजाओं में वे शङ्ख, पद्म, चक्र, बाण, धनुष, गदा, खड्ग और ढाल लिये हुए थे तथा इन सब आयुधों के कारण वे फूले हुए कनेर के वृक्ष के समान जान पड़ते थे ॥ २० ॥ प्रभु के हृदय में श्रीवत्स का चिह्न था और सुन्दर वनमाला सुशोभित थी । वे अपने उदार हास और लीलामय कटाक्ष से सारे संसार को आनन्दमग्न कर रहे थे । पार्षदगण दोनों ओर राजहंस के समान सफेद पंखे और चँवर डुला रहे थे । भगवान् के मस्तक पर चन्द्रमा के समान शुभ छत्र शोभा दे रहा था ॥ २१ ॥ भगवान् पधारे हैं — यह देखकर इन्द्र, ब्रह्मा और महादेवजी आदि देवेश्वरों सहित समस्त देवता, गन्धर्व और ऋषि आदि ने सहसा खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया ॥ २२ ॥ उनके तेज से सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी, जिह्वा लड़खड़ाने लगी, वे सब-के-सब सकपका गये और मस्तकपर अञ्जलि बाँधकर भगवान् के सामने खड़े हो गये ॥ २३ ॥ यद्यपि भगवान् की महिमा तक ब्रह्मा आदि की मति भी नहीं पहुँच पाती, तो भी भक्तों पर कृपा करने के लिये दिव्यरूप में प्रकट हुए श्रीहरि की वे अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार स्तुति करने लगे ॥ २४ ॥ सबसे पहले प्रजापति दक्ष एक उत्तम पात्र में पूजा की सामग्री ले नन्द-सुनन्दादि पार्षदों से घिरे हुए, प्रजापतियों के परम गुरु भगवान् यज्ञेश्वर के पास गये और अति आनन्दित हो विनीतभाव से हाथ जोड़कर प्रार्थना करते प्रभु के शरणापन्न हुए ॥ २५ ॥ दक्ष ने कहा — भगवन् ! अपने स्वरूप में आप बुद्धि की जायदाद सम्पूर्ण अवस्थाओं से रहित, शुद्ध, चिन्मय, भेदरहित, अतएव निर्भय हैं । आप माया का तिरस्कार करके स्वतन्त्ररूप से विराजमान हैं; तथापि जब माया से ही जीव-भाव को स्वीकार कर उसी माया में स्थित हो जाते है, तब अज्ञानी-से दीखने लगते हैं ॥ २६ ॥ ऋत्विजों ने कहा — उपाधिरहित प्रभो ! भगवान् रुद्र के प्रधान अनुचर नन्दीश्वर के शाप के कारण हमारी बुद्धि केवल कर्मकाण्ड में ही फँसी हुई है, अतएव हम आपके तत्त्व को नहीं जानते । जिसके लिये इस कर्म का यही देवता हैं ऐसी व्यवस्था की गयी है — उस धर्मप्रवृत्ति के प्रयोजक, वेदत्रयी से प्रतिपादित यज्ञ को ही हम आपका स्वरूप समझते हैं ॥ २७ ॥ सदस्यों ने कहा — जीवों को आश्रय देनेवाले प्रभो ! जो अनेक प्रकार के क्लेशों के कारण अत्यन्त दुर्गम है, जिसमें कालरूप भयङ्कर सर्प ताक में बैठा हुआ है, द्वन्द्वरूप अनेकों गढ़े हैं, दुर्जनरूप जंगली जीवों का भय हैं तथा शोकरूप दावानल धधक रहा है — ऐसे, विश्रामस्थल से रहित संसारमार्ग में जो अज्ञानी जीव कामनाओं से पीड़ित होकर विषयरूप मृगतृष्णाजल के लिये हो देह-गेह का भारी बोझा सिर पर लिये जा रहे हैं, वे भला आपके चरणकमलों की शरण में कब आने लगे ॥ २८ ॥ रुद्र ने कहा — वरदायक प्रभो ! आपके उत्तम चरण इस संसार में सकाम पुरुषों को सम्पूर्ण पुरुषार्थों की प्राप्ति करानेवाले है, और जिन्हें किसी भी वस्तु की कामना नहीं हैं, वे निष्काम मुनिजन भी उनका आदरपूर्वक पूजन करते हैं । उनमें चित्त लगा रहने के कारण यदि अज्ञानी लोग मुझे आचरणभ्रष्ट कहते हैं, तो कहें; आपके परम अनुग्रह से मैं उनके कहने-सुनने का कोई विचार नहीं करता ॥ २९ ॥ भृगुजी ने कहा — आपकी गहन माया से आत्मज्ञान लुप्त हो जाने के कारण जो अज्ञान-निद्रा में सोये हुए हैं, वे ब्रह्मादि देहधारी आत्मज्ञान में उपयोगी आपके तत्व को अभीतक नहीं जान सके । ऐसे होनेपर भी आप अपने शरणागत भक्तों के तो आत्मा और सुहृद् हैं; अतः आप मुझपर प्रसन्न होइये ॥ ३० ॥ ब्रह्माजी ने कहा — प्रभो ! पृथक्-पृथक् पदार्थों को जाननेवाली इन्द्रियों के द्वारा पुरुष जो कुछ देखता है, वह आपका स्वरूप नहीं है, क्योंकि आप ज्ञान, शब्दादि विषय और श्रोत्रादि इन्द्रियों के अधिष्ठान हैं — ये सब आपमें अध्यस्त हैं । अतएव आप इस मायामय प्रपञ्च से सर्वथा अलग हैं ॥ ३१ ॥ इन्द्र ने कहा — अच्युत ! आपका यह जगत् को प्रकाशित करनेवाला रूप देवद्रोहियों का संहार करनेवाली आठ भुजाओं से सुशोभित है, जिनमें आप सदा ही नाना प्रकार के आयुध धारण किये रहते हैं । यह रुप हमारे मन और नेत्रों को परम आनन्द देनेवाला है ॥ ३२ ॥ याज्ञिकों की पत्नियों ने कहा — भगवन् ! ब्रह्माजी ने आपके पूजन के लिये ही इस यज्ञ की रचना की थी; परन्तु दक्ष पर कुपित होने के कारण इसे भगवान् पशुपति ने अब नष्ट कर दिया हैं । यज्ञमूर्ते ! श्मशानभूमि के समान उत्सवहीन हुए हमारे उस यज्ञ को आप नील कमलकी-सी कान्तिवाले अपने नेत्रों से निहारकर पवित्र कीजिये ॥ ३३ ॥ ऋषियों ने कहा — भगवन् ! आपकी लीला बड़ी ही अनोखी है; क्योंकि आप कर्म करते हुए भी उनसे निर्लेप रहते हैं । दूसरे लोग वैभव की भूख से जिन लक्ष्मीजी की उपासना करते हैं, वे स्वयं आपकी सेवामें लगी रहती है । तो भी आप उनका मान नहीं करते, उनसे निःस्पृह रहते हैं ॥ ३४ ॥ सिद्धों ने कहा — प्रभो ! यह हमारा मनरूप हाथी नाना प्रकार के क्लेशरूप दावानल से दग्ध एवं अत्यन्त तृषित होकर आपकी कथारूप विशुद्ध अमृतमयी सरिता घुसकर गोता लगाये बैठा है । वहाँ ब्रह्मानन्द में लीन-सा हो जाने के कारण उसे न तो संसाररूप दावानल का ही स्मरण है और न वह उस नदी से बाहर ही निकलता है ॥ ३५ ॥ यजमान पत्नी ने कहा — सर्वसमर्थ परमेश्वर ! आपका स्वागत है । मैं आपको नमस्कार करती हूँ । आप मुझपर प्रसन्न होइये । लक्ष्मीपते ! अपनी प्रिया लक्ष्मीजी के सहित आप हमारी रक्षा कीजिये । यज्ञेश्वर ! जिस प्रकार सिर के बिना मनुष्य का धड़ अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार अन्य अङ्गों से पूर्ण होने पर भी आपके बिना यज्ञ की शोभा नहीं होती ॥ ३६ ॥ लोकपालों ने कहा — अनन्त परमात्मन् ! आप समस्त अन्तःकरणों के साक्षी हैं, यह सारा जगत् आपके ही द्वारा देखा जाता है । तो क्या मायिक पदार्थों को ग्रहण करनेवाली हमारी इन नेत्र आदि इन्द्रियों से कभी आप प्रत्यक्ष हो सके हैं ? वस्तुतः आप हैं तो पञ्चभूतों से पृथक्; फिर भी पाञ्चभौतिक शरीरों के साथ जो आपका सम्बन्ध प्रतीत होता है, यह आपकी माया ही है ॥ ३७ ॥ योगेश्वरों ने कहा — प्रभो ! जो पुरुष सम्पूर्ण विश्व के आत्मा आपमें और अपने में कोई भेद नहीं देखता, उससे अधिक प्यारा आपको कोई नहीं है । तथापि भक्तवत्सल ! जो लोग आपमें स्वामिभाव रखकर अनन्य भक्ति से आपकी सेवा करते हैं, उनपर भी आप कृपा कीजिये ॥ ३८ ॥ जीवों के अदृष्टवश जिसके सत्वादि गुणों में बड़ी विभिन्नता आ जाती है, उस अपनी माया के द्वारा जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिये ब्रह्मादि विभिन्न रूप धारण करके आप भेदबुद्धि पैदा कर देते हैं; किन्तु अपनी स्वरूप-स्थिति से आप उस भेदज्ञान और उसके कारण सत्त्वादि गुणों से सर्वथा दूर हैं । ऐसे आपको हमारा नमस्कार है ॥ ३९ ॥ ब्रह्मस्वरूप वेद ने कहा — आप ही धर्मादि की उत्पत्ति के लिये शुद्ध सत्व को स्वीकार करते हैं, साथ ही आप निर्गुण भी हैं । अतएव आपका तत्व न तो मैं जानता हूँ और न ब्रह्मादि कोई और ही जानते हैं; आपको नमस्कार है ॥ ४० ॥ अग्निदेव ने कहा — भगवन् ! आपके ही तेज से प्रज्वलित होकर मैं श्रेष्ठ यज्ञों में देवताओं के पास घृतमिश्रित हवि पहुँचाता हूँ । आप साक्षात् यज्ञपुरुष एवं यज्ञ की रक्षा करनेवाले हैं । अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य और पशु-सोम — ये पाँच प्रकार के यज्ञ आपके ही स्वरूप हैं तथा ‘आश्रावय’, ‘अस्तु श्रौषट्, ‘यजे’, ‘ये यजामहे’ और ‘वषट्’ — इन पाँच प्रकार के यजुर्मन्त्रों से आपका ही पूजन होता है । मैं आपको प्रणाम करता हूँ ॥ ४१ ॥ देवताओं ने कहा — देव ! आप आदिपुरुष हैं । पूर्वकल्प का अन्त होने पर अपने कार्यरूप इस प्रपञ्ज को उदर में लीनकर आपने ही प्रलयकालीन जल के भीतर शेषनाग की उत्तम शय्या पर शयन किया था । आपके आध्यात्मिक स्वरूप का जनलोकादिवासी सिद्धगण भी अपने हृदय में चिन्तन करते हैं । अहो ! वही आप आज हमारे नेत्रों के विषय होकर अपने भक्तों की रक्षा कर रहे हैं ॥४२ ॥ गन्धर्वों ने कहा — देव ! मरीचि आदि ऋषि और ये ब्रह्मा, इन्द्र तथा रुद्रादि देवतागण आपके अंश के भी अंश हैं । महत्तम ! यह सम्पूर्ण विश्व आपके खेल की सामग्री है । नाथ ! ऐसे आपको हम सर्वदा प्रणाम करते हैं ॥ ४३ ॥ विद्याधरों ने कहा — प्रभो ! परम पुरुषार्थ की प्राप्ति के साधनरुप इस मानवदेह को पाकर भी जीव आपकी माया से मोहित होकर इसमें मैं-मेरेपन का अभिमान कर लेता है । फिर वह दुर्बुद्धि अपने आत्मीयों से तिरस्कृत होने पर भी असत् विषयों की ही लालसा करता रहता है । किन्तु ऐसी अवस्था में भी जो आपके कथामृत का सेवन करता है, वह इस अन्तःकरण के मोह को सर्वथा त्याग देता है ॥ ४४ ॥ ब्राह्मणों ने कहा — भगवन् ! आप ही यज्ञ हैं, आप ही हवि हैं, आप ही अग्नि हैं, स्वयं आप ही मन्त्र हैं; आप ही समिधा, कुशा और यज्ञपात्र हैं तथा आप ही सदस्य, ऋत्विज्, यजमान एवं उसकी धर्मपत्नी, देवता, अग्निहोत्र, स्वधा, सोमरस, घृत और पशु हैं ॥ ४५ ॥ वेदमूर्ते ! यज्ञ और उसका सङ्कल्प दोनों आप ही हैं । पूर्वकाल में आप ही अति विशाल वराहरूप धारणकर रसातल में डूबी हुई पृथ्वी को लीला से ही अपनी दाढ़ों पर उठाकर इस प्रकार निकाल लाये थे, जैसे कोई गजराज कमलिनी को उठा लाये । उस समय आप धीरे-धीरे गरज रहे थे और योगिगण आपका यह अलौकिक पुरुषार्थ देखकर आपकी स्तुति करते जाते थे ॥ ४६ ॥ यज्ञेश्वर ! जब लोग आपके नाम का कीर्तन करते हैं, तब यज्ञ के सारे विघ्न नष्ट हो जाते हैं । हमारा यह यज्ञस्वरूप सत्कर्म नष्ट हो गया था, अतः हम आपके दर्शन की इच्छा कर रहे थे । अब आप हमपर प्रसन्न होइये । आपको नमस्कार है ॥ ४७ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — भैया विदुर ! जब इस प्रकार सब लोग यज्ञरक्षक भगवान् हृषीकेश की स्तुति करने लगे, तब परम चतुर दक्ष ने रुद्रपार्षद वीरभद्र के ध्वंस किये हुए यज्ञ को फिर आरम्भ कर दिया ॥ ४८ ॥ सर्वान्तर्यामी श्रीहरि यों तो सभी के भागों के भोक्ता हैं; तथापि त्रिकपाल-पुरोडाशरूप अपने भाग से और भी प्रसन्न होकर उन्होंने दक्ष को सम्बोधन करके कहा ॥ ४९ ॥ श्रीभगवान् ने कहा — जगत् का परम कारण मैं ही ब्रह्मा और महादेव हूँ; मैं सबका आत्मा, ईश्वर और साक्षी हूँ तथा स्वयंप्रकाश और उपाधिशून्य हूँ ॥ ५० ॥ विप्रवर ! अपनी त्रिगुणात्मिका माया को स्वीकार करके मैं ही जगत् की रचना, पालन और संहार करता रहता हूँ और मैंने ही उन कर्मों के अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और शङ्कर — ये नाम धारण किये हैं ॥ ५१ ॥ ऐसा जो भेदरहित विशुद्ध परब्रह्मस्वरूप मैं हूँ, उसमें अज्ञानी पुरुष ब्रह्मा, रुद्र तथा अन्य समस्त जीवों को विभिन्न रूप से देखता है ॥ ५२ ॥ जिस प्रकार मनुष्य अपने सिर और हाथ आदि अङ्गों में ‘ये मुझसे भिन्न हैं’ ऐसी बुद्धि कभी नहीं करता, उसी प्रकार मेरा भक्त प्राणिमात्र को मुझसे भिन्न नहीं देखता ॥ ५३ ॥ ब्रह्मन् ! हम – ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर – तीनों स्वरूपतः एक ही हैं और हम ही सम्पूर्ण जीवरूप हैं, अतः जो हममें कुछ भी भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है ॥ ५४ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — भगवान् के इस प्रकार आज्ञा देने पर प्रजापतियों के नायक दक्ष ने उनका त्रिकपाल-यज्ञ द्वारा पूजन करके फिर अङ्गभूत और प्रधान दोनों प्रकार के यज्ञों से अन्य सब देवताओं का अर्चन किया ॥ ५५ ॥ फिर एकाग्रचित्त हो भगवान् शङ्कर का यज्ञशेषरूप उनके भाग से यजन किया तथा समाप्ति में किये जानेवाले उदवसान नामक कर्म से अन्य सोमपायी एवं दूसरे देवताओं का यजन कर यज्ञ का उपसंहार किया और अन्त में ऋत्विजों के सहित अवभृथ-स्नान किया ॥ ५६ ॥ फिर जिन्हें अपने पुरुषार्थ से ही सब प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त थीं, उन दक्षप्रजापति को ‘तुम्हारी सदा धर्म में बुद्धि रहे’ ऐसा आशीर्वाद देकर सब देवता स्वर्गलोक को चले गये ॥ ५७ ॥ विदुरजी ! सुना है कि दक्षसुता सतीजी ने इस प्रकार अपना पूर्वशरीर त्यागकर फिर हिमालय की पत्नी मेना के गर्भ से जन्म लिया था ॥ ५८ ॥ जिस प्रकार प्रलयकाल में लीन हुई शक्ति सृष्टि के आरम्भ में फिर ईश्वर का ही आश्रय लेती है, उसी प्रकार अनन्यपरायणा श्रीअम्बिकाजी ने उस जन्म में भी अपने एकमात्र आश्रय और प्रियतम भगवान् शंकर को ही वरण किया ॥ ५९ ॥ विदुरुजी ! दक्ष-यज्ञ का विध्वंस करनेवाले भगवान् शिव का यह चरित्र मैंने बृहस्पतिजी के शिष्य परम भागवत उद्धवजी के मुख से सुना था ॥ ६० ॥ कुरुनन्दन ! श्रीमहादेवजी का यह पावन चरित्र यश और आयु को बढ़ानेवाला तथा पापपुञ्ज को नष्ट करनेवाला है । जो पुरुष भक्तिभाव से इसका नित्यप्रति श्रवण और कीर्तन करता है, वह अपनी पापराशि का नाश कर देता है ॥ ६१ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे दक्षयज्ञसंधानं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related