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श्रीमद्भागवतमहापुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय ८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
आठवाँ अध्याय
ध्रुव का वन-गमन

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — शत्रुसूदन विदुरजी ! सनकादि, नारद, ऋभु, हंस, अरुणि और यति — ब्रह्माजीके इन नैष्टिक ब्रह्मचारी पुत्रों ने गहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया (अतः उनके कोई सन्तान नहीं हुई)। अधर्म भी ब्रह्माजी का ही पुत्र था, उसकी पत्नी का नाम था मृषा । उसके दम्भ नामक पुत्र और माया नाम की कन्या हुई । उन दोनों को निर्ऋति ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान न थी ॥ १-२ ॥ दम्भ और माया से लोभ और निकृति (शठता)— का जन्म हुआ, उनसे क्रोध और हिंसा तथा उनसे कलि (कलह) और उसकी बहिन दुरुक्ति (गाली) उत्पन्न हुए ॥ ३॥ साधुशिरोमणे ! फिर दुरुक्ति से कलि ने भय और मृत्यु को उत्पन्न किया तथा उन दोनों के संयोग से यातना और निरय (नरक) का जोड़ा उत्पन्न हुआ ॥ ४ ॥ निष्पाप विदुरजी ! इस प्रकार मैंने संक्षेप से तुम्हें प्रलय का कारणरूप यह अधर्म का वंश सुनाया । यह अधर्म का त्याग कराकर पुण्य-सम्पादन में हेतु बनता है; अतएव इसका वर्णन तीन बार सुनकर मनुष्य अपने मन की मलिनता दूर कर देता है ॥ ५ ॥ कुरुनन्दन ! अब मैं श्रीहरि के अंश (ब्रह्माजी) के अंश से उत्पन्न हुए पवित्रकीर्ति महाराज स्वायम्भुव मनु के पुत्रों के वंश का वर्णन करता हूँ ॥ ६ ॥

महारानी शतरूपा और उनके पति स्वायम्भुव मनु से प्रियव्रत और उत्तानपाद ये दो पुत्र हुए । भगवान् वासुदेव की कला से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों संसार की रक्षा में तत्पर रहते थे ॥ ७ ॥ उत्तानपाद के सुनीति और सुरुचि नाम की दो पत्नियाँ थीं । उनमें सुरुचि राजा को अधिक प्रिय थी; सुनीति, जिसका पुत्र ध्रुव था, उन्हें वैसी प्रिय नहीं थी ॥ ८ ॥

एक दिन राजा उत्तानपाद सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में बिठाकर प्यार कर रहे थे । उसी समय ध्रुव ने भी गोद में बैठना चाहा, परन्तु राजा ने उसका स्वागत नहीं किया ॥ ९ ॥ उस समय घमण्ड से भरी हुई सुरुचि ने अपनी सौत के पुत्र ध्रुव को महाराज की गोद में आने का यत्न करते देख उनके सामने ही उससे डाहभरे शब्दों में कहा ॥ १० ॥ ‘बच्चे ! तु राजसिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं है । तू भी राजा का ही बेटा है, इससे क्या हुआ; तुझको मैंने तो अपनी कोख में नहीं घारण किया ॥ ११ ॥ तू अभी नादान है, तुझे पता नहीं है कि तूने किसी दूसरी स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है, तभी तो ऐसे दुर्लभ विषय की इच्छा कर रहा है ॥ १२ ॥ यदि तुझे राजसिंहासन की इच्छा है तो तपस्या करके परम पुरुष श्रीनारायण की आराधना कर और उनकी कृपा से मेरे गर्भ में आकर जन्म ले’ ॥ १३ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! जिस प्रकार डंडे की चोट खाकर साँप फुँफकार मारने लगता है, उसी प्रकार अपनी सौतेली माँ के कठोर वचनों से घायल होकर ध्रुव क्रोध के मारे लंबी-लंबी साँस लेने लगा । उसके पिता चुपचाप यह सब देखते रहे, मुँह से एक शब्द भी नहीं बोले । तब पिता को छोड़कर ध्रुव रोता हुआ अपनी माता के पास आया ॥ १४ ॥ उसके दोनों होठ फड़क रहे थे और वह सिसक-सिसककर रो रहा था । सुनीति ने बेटे को गोद में उठा लिया और जब महल के दुसरे लोगों से अपनी सौत सुरुचि की कही हुई बातें सुनीं, तब उसे भी बड़ा दुःख हुआ ॥ १५ ॥ उसका धीरज टूट गया । वह दावानल से जली हुई बेल के समान शोक से सन्तप्त होकर मुरझा गयी तथा विलाप करने लगी । सौत की बातें याद आने से उसके कमल-सरीखे नेत्रों में आँसू भर आये ॥ १६ ॥

उस बेचारी को अपने दुःखपारावार का कहीं अन्त ही नहीं दिखायी देता था । उसने गहरी साँस लेकर ध्रुव से कहा, ‘बेटा ! तू दूसरों के लिये किसी प्रकार के अमङ्गल की कामना मत कर । जो मनुष्य दूसरों को दुःख देता है, उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है ॥ १७ ॥ सुरुचि ने जो कुछ कहा हैं, ठीक ही है; क्योंकि महाराज को मुझे ‘पत्नी’ तो क्या, ‘दासी’ स्वीकार करने में भी लज्जा आती है । तूने मुझ मन्दभागिनी के गर्भ से ही जन्म लिया है और मेरे ही दूध से तू पला है ॥ १८ ॥ बेटा ! सुरुचि ने तेरी सौतेली माँ होने पर भी बात बिलकुल ठीक कही है । अतः यदि राजकुमार उत्तम के समान राजसिंहासन पर बैठना चाहता है तो द्वेषभाव छोड़कर उसी का पालन कर । बस, श्री अधोक्षज भगवान् के चरणकमलों की आराधना में लग जा ॥ १९ ॥

संसार का पालन करने के लिये सत्त्वगुण को अङ्गीकार करनेवाले उन श्रीहरि के चरणों की आराधना करने से ही तेरे परदादा श्रीब्रह्माजी को वह सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त हुआ है, जो मन और प्राणों को जीतनेवाले मुनियों के द्वारा भी वन्दनीय है ॥ २० ॥ इसी प्रकार तेरे दादा स्वायम्भुव मनु ने भी बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं वाले यज्ञों के द्वारा अनन्यभाव से उन्हीं भगवान् की आराधना की थी, तभी उन्हें दूसरों के लिये अति दुर्लभ लौकिक, अलौकिक तथा मोक्षसुख की प्राप्ति हुई ॥ २१ ॥ ‘बेटा ! तू भी उन भक्तवत्सल श्रीभगवान् का ही आश्रय ले । जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटने की इच्छा करनेवाले मुमुक्षुलोग निरन्तर उन्हीं के चरणकमलों के मार्ग की खोज किया करते हैं । तू स्वधर्मपालन से पवित्र हुए अपने चित्त में श्रीपुरुषोत्तम भगवान् को बैठा ले तथा अन्य सबका चिन्तन छोड़कर केवल उन्हीं का भजन कर ॥ २२ ॥ बेटा ! उन कमल-दल-लोचन श्रीहरि को छोड़कर मुझे तो तेरे दुःख को दूर करनेवाला और कोई दिखायी नहीं देता । देख, जिन्हें प्रसन्न करने के लिये ब्रह्मा आदि अन्य सब देवता ढ़ूँढ़ते रहते हैं, वे श्रीलक्ष्मीजी भी दीपक की भाँति हाथ में कमल लिये निरन्तर उन्हीं श्रीहरि की खोज किया करती हैं ॥ २३ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — माता सुनीति ने जो वचन कहे, वे अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति का मार्ग दिखलानेवाले थे । अतः उन्हें सुनकर ध्रुव ने बुद्धि द्वारा अपने चित्त का समाधान किया । इसके बाद वे पिता के नगर से निकल पड़े ॥ २४ ॥ यह सब समाचार सुनकर और ध्रुव क्या करना चाहता है, इस बात को जानकर नारदजी वहाँ आये । उन्होंने धुव के मस्तक पर अपना पापनाशक कर-कमल फेरते हुए मन-ही-मन विस्मित होकर कहा ॥ २५ ॥ ‘अहो ! क्षत्रियों का कैसा अद्भुत तेज है, वे थोड़ा-सा भी मान-भङ्ग नहीं सह सकते । देखो, अभी तो यह नन्हा-सा बच्चा है; तो भी इसके हृदय में सौतेली माता के कटु वचन घर कर गये हैं ॥ २६ ॥

तत्पश्चात् नारदजी ने ध्रुव से कहा —
बेटा ! अभी तो तू बच्चा है, खेल-कूद में ही मस्त रहता हैं; हम नहीं समझते कि इस उम्र में किसी बात से तेरा सम्मान या अपमान हो सकता है ॥ २७ ॥ यदि तुझे मानापमान का विचार ही हो, तो बेटा ! असल में मनुष्य असन्तोष का कारण मोह के सिवा और कुछ नहीं है । संसार में मनुष्य अपने कर्मानुसार ही मान-अपमान या सुख-दुःख आदि को प्राप्त होता है ॥ २८ ॥ तात ! भगवान् की गति बड़ी विचित्र है ! इसलिये उसपर विचार करके बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि दैववश उसे जैसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े, उसमें सन्तुष्ट रहे ॥ २९ ॥ अब, माता के उपदेश से तू योगसाधन द्वारा जिन भगवान् की कृपा प्राप्त करने चला है — मेरे विचार से साधारण पुरुषों के लिये उन्हें प्रसन्न करना बहुत ही कठिन है ॥ ३० ॥ योगी लोग अनेकों जन्मों तक अनासक्त रहकर समाधियोग के द्वारा बड़ी-बड़ी कठोर साधनाएँ करते रहते हैं, परन्तु भगवान् के मार्ग का पता नहीं पाते ॥ ३१ ॥ इसलिये तू यह व्यर्थ का हठ छोड़ दे और घर लौट जा; बड़ा होने पर जब परमार्थ-साधन का समय आवे, तब उसके लिये प्रयत्न कर लेना ॥ ३२ ॥ विधाता के विधान के अनुसार सुख-दुःख जो कुछ भी प्राप्त हो, उसीमें चित्त को सन्तुष्ट रखना चाहिये । यों करनेवाला पुरुष मोहमय संसार से पार हो जाता है ॥ ३३ ॥ मनुष्य को चाहिये कि अपने से अधिक गुणवान् को देखकर प्रसन्न हो; जो कम गुणवाला हो, उसपर दया करे और जो अपने समान गुणवाला हो, उससे मित्रता का भाव रखे । यों करने से उसे दुःख कभी नहीं दबा सकते ॥ ३४ ॥

ध्रुव ने कहा — भगवन् ! सुख-दुःख से जिनका चित्त चञ्चल हो जाता है, उन लोगों के लिये आपने कृपा करके शान्ति का यह बहुत अच्छा उपाय बतलाया । परन्तु मुझ-जैसे अज्ञानियों की दृष्टि यहाँ तक नहीं पहुँच पाती ॥ ३५ ॥ इसके सिवा, मुझे घोर क्षत्रियस्वभाव प्राप्त हुआ है, अतएव मुझमें विनय का प्रायः अभाव है । सुरुचि ने अपने कटुवचनरूपी बाणों से मेरे हृदय को विदीर्ण कर डाला है; इसलिये उसमें आपका यह उपदेश नहीं ठहर पाता ॥ ३६ ॥

ब्रह्मन् ! मैं उस पद पर अधिकार करना चाहता हूँ, जो त्रिलोकी में सबसे श्रेष्ठ है तथा जिसपर मेरे बाप-दादे और दूसरे कोई भी आरूढ़ नहीं हो सके हैं । आप मुझे उसी की प्राप्ति का कोई अच्छा-सा मार्ग बतलाइये ॥ ३७ ॥ आप भगवान् ब्रह्माजी के पुत्र हैं और संसार के कल्याण के लिये ही वीणा बजाते सूर्य की भाँति त्रिलोकी में विचरा करते हैं ॥ ३८ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — ध्रुव की बात सुनकर भगवान् नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और उसपर कृपा करके इस प्रकार सदुपदेश देने लगे ॥ ३९ ॥

श्रीनारदजी ने कहा — बेटा ! तेरी माता सुनीति ने तुझे जो कुछ बताया है, वही तेरे लिये परम कल्याण का मार्ग है । भगवान् वासुदेव ही वह उपाय हैं, इसलिये तु चित्त लगाकर उन्हीं का भजन कर ॥ ४० ॥ जिस पुरुष को अपने लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थ की अभिलाषा हो, उसके लिये उनकी प्राप्ति का उपाय एकमात्र श्रीहरि के चरणों का सेवन ही है ॥ ४१ ॥ बेटा ! तेरा कल्याण होगा, अब तू श्रीयमुनाजी के तटवर्ती परम पवित्र मधुवन को जा । वहाँ श्रीहरि का नित्य-निवास है ॥ ४२ ॥ वहाँ श्रीकालिन्दी के निर्मल जल में तीनों समय स्नान करके नित्यकर्म से निवृत्त हो यथाविधि आसन बिछाकर स्थिरभाव से बैठना ॥ ४३ ॥ फिर रेचक, पूरक और कुम्भक — तीन प्रकार के प्राणायाम से धीरे-धीरे प्राण, मन और इन्द्रिय के दोषों को दूरकर धैर्ययुक्त मन से परमगुरु श्रीभगवान् का इस प्रकार घ्यान करना ॥ ४४ ॥

भगवान् के नेत्र और मुख निरन्तर प्रसन्न रहते हैं; उन्हें देखने से ऐसा मालूम होता है कि वे प्रसन्नतापूर्वक भक्त को वर देने के लिये उद्यत हैं । उनकी नासिका, भौंहे. और कपोल बड़े ही सुहावने हैं, वे सभी देवताओं में परम सुन्दर हैं ॥ ४५ ॥ उनकी तरुण अवस्था है । सभी अङ्ग बड़े सुडौल हैं; लाल-लाल होठ और रतनारे नेत्र हैं । वे प्रणतजनों को आश्रय देनेवाले, अपार सुखदायक, शरणागत-वत्सल और दया के समुद्र हैं ॥ ४६ ॥ उनके वक्षःस्थल में श्रीवत्स का चिह्न है; उनका शरीर सजल जलधर के समान श्यामवर्ण है; वे परम पुरुष श्यामसुन्दर गले में वनमाला धारण किये हुए हैं और उनकी चार भुजाओं में शङ्ख चक्र, गदा एवं पद्म सुशोभित हैं ॥ ४७ ॥ उनके अङ्ग-प्रत्यङ्ग किरीट, कुण्डल, केयूर और कङ्कणादि आभूषणों से विभूषित हैं; गला कौस्तुभमणि की भी शोभा बढ़ा रहा है तथा शरीर में रेशमी पीताम्बर है ॥ ४८ ॥ उनके कटिप्रदेश में काञ्चन की करधनी और चरणों में सुवर्णमय नूपुर (पैजनी) सुशोभित हैं । भगवान् का स्वरूप बड़ा ही दर्शनीय, शान्त तथा मन और नयनों को आनन्दित करनेवाला है ॥ ४९ ॥ जो लोग प्रभु का मानस-पूजन करते हैं, उनके अन्तःकरण में वे हदयकमल की कर्णिकापर अपने नख-मणिमण्डित मनोहर पादारविन्दों को स्थापित के विराजते हैं ॥ ५० ॥ इस प्रकार धारणा करते-करते जब चित्त स्थिर और एकाग्र हो जाय, तब उन वरदायक प्रभु का मन-ही-मन इस प्रकार ध्यान को कि वे मेरी ओर अनुरागभरी दृष्टि से निहारते हुए मन्द-मन्द मुसकरा रहे हैं ॥ ५१ ॥ भगवान् की मङ्गलमयी मूर्ति को इस प्रकार निरन्तर ध्यान करने से मन शीघ्र ही परमानन्द में डूबकर तल्लीन हो जाता है और फिर वहाँ से लौटता नहीं ॥ ५२ ॥

राजकुमार ! इस ध्यान के साथ जिस परम गुरू मन्त्र का जप करना चाहिये, वह भी बतलाता हूँ, सुन । इसका सात रात जप करने से मनुष्य आकाश में विचरनेवाले सिद्धों का दर्शन कर सकता है ॥ ५३ ॥ वह मन्त्र है — ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। किस देश और किस काल में कौंन वस्तु उपयोगी है — इसका विचार करके बुद्धिमान् पुरुष को इस मन्त्र के द्वारा तरह-तरह की सामग्रियों से भगवान् की द्रव्यमयी पूजा करनी चाहिये ॥ ५४ ॥

प्रभु का पूजन विशुद्ध जल, पुष्पमाला, जंगली मूल और फलादि, पूजा विहित दुर्वादि अङ्कुर, वन में ही प्राप्त होनेवाले वल्कल वस्त्र और उनकी प्रेयसी तुलसी से करना चाहिये ॥ ५५ ॥ यदि शिला आदि की मूर्ति मिल सके तो उसमें, नहीं तो पृथ्वी या जल आदि में ही भगवान् की पूजा करे । सर्वदा संयतचित्त, मननशील, शान्त और मौन रहे तथा जंगली फल-मूलादि का परिमित आहार करे ॥ ५६ ॥ इसके सिवा पुण्यकीर्ति श्रीहरि अपनी अनिर्वचनीया माया के द्वारा अपनी ही इच्छा से अवतार लेकर जो-जो मनोहर चरित्र करनेवाले हैं, उनका मन-ही-मन चिन्तन करता रहे ॥ ५७ ॥ प्रभु की पूजा के लिये जिन-जिन उपचारों का विधान किया गया है, उन्हें मन्त्रमूर्ति श्रीहरि को द्वादशाक्षर मन्त्र के द्वारा ही अर्पण करे ॥ ५८ ॥

इस प्रकार जब हदयस्थित हरि का मन, वाणी और शरीर से भक्तिपूर्वक पूजन किया जाता है, तब वे निश्छलभाव से भलीभाँति भजन करनेवाले अपने भक्तों के भाव को बढ़ा देते हैं और उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्षरूप कल्याण प्रदान करते हैं ॥ ५९-६० ॥ यदि उपासक को इन्द्रियसम्बन्धी भोगों से वैराग्य हो गया हो, तो वह मोक्षप्राप्ति के लिये अत्यन्त भक्तिपूर्वक अविच्छिन्नभाव से भगवान् का भजन करे ॥ ६१ ॥

श्रीनारदजी से इस प्रकार उपदेश पाकर राजकुमार ध्रुव ने परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया । तदनन्तर उन्होंने भगवान् के चरणचिह्नों से अङ्कित परम पवित्र मधुवन की यात्रा की ॥ ६२ ॥ ध्रुव के तपोवन की ओर चले जाने पर नारदजी महाराज उत्तानपाद के महल में पहुँचे । राजा ने उनकी यथायोग्य उपचारों से पूजा की; तब उन्होंने आराम से आसन पर बैठकर राजा से पूछा ॥ ६३ ॥

श्रीनारदजी ने कहा — राजन् ! तुम्हारा मुख सूखा हुआ हैं, तुम बड़ी देर से किस सोच-विचार में पड़े हो ? तुम्हारे धर्म, अर्थ और काम में से किसी में कोई कमी तो नहीं आ गयी ? ॥ ६४ ॥

राजा ने कहा —
ब्रह्मन् ! मैं बड़ा ही स्त्रैण और निर्दय हूँ । हाय, मैंने अपने पाँच वर्ष के नन्हे से बच्चे को उसकी माता के साथ घर से निकाल दिया । मुनिवर ! वह बड़ा ही बुद्धिमान् था ॥ ६५ ॥ उसका कमल-सा मुख भूख से कुम्हला गया होगा, वह थककर कहीं रास्ते में पड़ गया होगा । ब्रह्मन् ! उस असहाय बच्चे को वन में कहीं भेड़िये न खा जायँ ॥ ६६ ॥ अहो ! मैं कैसा स्त्री का गुलाम हूँ । मेरी कुटिलता तो देखिये — वह बालक प्रेमवश मेरी गोद में चढ़ना चाहता था, किन्तु मुझ दुष्ट ने उसका तनिक भी आदर नहीं किया ॥ ६७ ॥

श्रीनारदजी ने कहा — राजन् ! तुम अपने बालक की चिन्ता मत करो । उसके रक्षक भगवान् हैं । तुम्हें उसके प्रभाव का पता नहीं है, उसका यश सारे जगत् में फैल रहा है ॥ ६८ ॥ वह बालक बड़ा समर्थ है । जिस काम को बड़े-बड़े लोकपाल भी नहीं कर सके, उसे पूरा करके वह शीघ्र ही तुम्हारे पास लौट आयेगा । उसके कारण तुम्हारा यश भी बहुत बढ़ेगा ॥ ६९ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं —
देवर्षि नारदजी की बात सुनकर महाराज उत्तानपाद राजपाट की ओर से उदासीन होकर निरन्तर पुत्र की हो चिन्ता में रहने लगे ॥ ७० ॥ इधर ध्रुव ने मधुवन में पहुँचकर यमुनाजी में स्नान किया और उस रात पवित्रतापूर्वक उपवास करके श्रीनारदजी के उपदेशानुसार एकाग्रचित्त से परमपुरुष श्रीनारायण की उपासना आरम्भ कर दी ॥ ७१ ॥ उन्होंने तीन-तीन रात्रि के अन्तर से शरीरनिर्वाह के लिये केवल कैथ और बेर के फल खाकर श्रीहरि की उपासना करते हुए एक मास व्यतीत किया ॥ ७२ ॥ दूसरे महीने में उन्होंने छः-छः दिन के पीछे सूखे घास और पत्ते खाकर भगवान् का भजन किया ॥ ७३ ॥ तीसरा महीना नौ-नौ दिन पर केवल जल पीकर समाधियोग के द्वारा श्रीहरि की आराधना करते हुए बिताया ॥ ७४ ॥ चौथे महीने में उन्होंने श्वास को जीतकर बारह-बारह दिन के बाद केवल वायु पीकर ध्यानयोग द्वारा भगवान् की आराधना की ॥ ७५ ॥ पाँचवाँ मास लगने पर राजकुमार ध्रुव श्वास को जीतकर परब्रह्म का चिन्तन करते हुए एक पैर से खंभे के समान निश्चल भाव से खड़े हो गये ॥ ७६ ॥ उस समय उन्होंने शब्दादि विषय और इन्द्रियों के नियामक अपने मन को सब ओर से खींच लिया तथा हृदयस्थित हरि के स्वरूप का चिन्तन करते हुए चित्त को किसी दूसरी ओर न जाने दिया ॥ ७७ ॥ जिस समय उन्होंने महदादि सम्पूर्ण तत्त्वों के आधार तथा प्रकृति और पुरुष के भी अधीश्वर परब्रह्म की धारणा की, उस समय (उनके तेज को न सह सकनेके कारण) तीनों लोक काँप उठे ॥ ७८ ॥

जब राजकुमार ध्रुव एक पैर से खड़े हुए, तब उनके अंगूठे से दबकर आधी पृथ्वी इस प्रकार झुक गयी, जैसे किसी गजराज के चढ़ जाने पर नाव पद-पद पर दायीं-बायीं ओर डगमगाने लगती है ॥ ७९ ॥ ध्रुवजी अपने इन्द्रियद्वार तथा प्राण को रोककर अनन्यबुद्धि से विश्वात्मा श्रीहरि का ध्यान करने लगे । इस प्रकार उनकी समष्टि प्राण से अभिन्नता हो जाने के कारण सभी जीवों का श्वास-प्रश्वास रुक गया । इससे समस्त लोक और लोकपालों को बड़ी पीड़ा हुई और वे सब घबराकर श्रीहरि की शरण में गये ॥ ८० ॥

देवताओं ने कहा — भगवन् ! समस्त स्थावर-जङ्गम जीव के शरीरों का प्राण एक साथ ही रुक गया है ऐसा तो हमने पहले कभी अनुभव नहीं किया । आप शरणागतों की रक्षा करनेवाले हैं, अपनी शरण में आये हुए हमलोगों को इस दुःख से छुड़ाइये ॥ ८१ ॥

श्रीभगवान् ने कहा — देवताओ ! तुम डरो मत । उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने अपने चित्त को मुझ विश्वात्मा में लीन कर दिया है, इस समय मेरे साथ उसकी अभेद-धारणा सिद्ध हो गयी हैं, इसीसे उसके प्राणनिरोध से तुम सबका प्राण भी रुक गया है । अब तुम अपने-अपने लोकों को जाओ, मैं उस बालक को इस दुष्कर तप से निवृत्त कर दूंगा ॥ ८२ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ध्रुवचरितेऽष्टमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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