February 10, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय १ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय पहला अध्याय स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन श्रीमैत्रेयज़ी कहते हैं — विदुरजी ! स्वायम्भुव मनु के महारानी शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद— इन दो पुत्रों के सिवा तीन कन्याएँ भी हुई थीं; वे आकूति, देवहूति और प्रसूति नाम से विख्यात थीं ॥ १ ॥ आकृति का, यद्यपि उसके भाई थे तो भी, महारानी शतरूपा की अनुमति से उन्होंने रुचि प्रजापति के साथ ‘पुत्रिका-धर्म ‘पुत्रिकाधर्म’ के अनुसार किये जानेवाले विवाह में यह शर्त होती है कि कन्या के जो पहला पुत्र होगा है उसे कन्या के पिता ले लेंगे। के अनुसार विवाह किया ॥ २ ॥ प्रजापति रुचि भगवान् के अनन्य चिन्तन के कारण ब्रह्मतेज से सम्पन्न थे । उन्होंने आकूति के गर्भ से एक पुरुष और स्त्री का जोड़ा उत्पन्न किया ॥ ३ ॥ उनमें जो पुरुष था, वह साक्षात् यज्ञस्वरूपधारी भगवान् विष्णु थे और जो स्त्री थी, वह भगवान् से कभी अलग न रहनेवाली लक्ष्मीजी की अंशस्वरूपा ‘दक्षिणा’ थी ॥ ४ ॥ मनुजी अपनी पुत्री आकूति के उस परमतेजस्वी पुत्र को बड़ी प्रसन्नता से अपने घर ले आये और दक्षिणा को रुचि प्रजापति ने अपने पास रखा ॥ ५ ॥ जब दक्षिणा विवाह के योग्य हुई तो उसने यज्ञ भगवान् को ही पतिरूप में प्राप्त करने की इच्छा की, तब भगवान् यज्ञपुरुष ने उससे विवाह किया । इससे दक्षिणा को बड़ा सन्तोष हुआ । भगवान् ने प्रसन्न होकर उससे बारह पुत्र उत्पन्न किये ॥ ६ ॥ उनके नाम हैं — तोष, प्रतोष, सन्तोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव और रोचन ॥ ७ ॥ ये ही स्वायम्भुव मन्वन्तर में ‘तुषित’ नामके देवता हुए । उस मन्वन्तर में मरीचि आदि सप्तर्षि थे, भगवान् यज्ञ ही देवताओं के अधीश्वर इन्द्र थे और महान् प्रभावशाली प्रियव्रत एवं उत्तानपाद मनुपुत्र थे । वह मन्वन्तर उन्हीं दोनों के बेटों, पोतों और दौहित्रों के वंश से छा गया ॥ ८-१ ॥ प्यारे विदुरजी ! मनुजी ने अपनी दूसरी कन्या देवहूति कर्दमजी को ब्याही थी । उसके सम्बन्ध की प्रायः सभी बातें तुम मुझसे सुन चुके हो ॥ १० ॥ भगवान् मनु ने अपनी तीसरी कन्या प्रसूति का विवाह ब्रह्माजी के पुत्र दक्षप्रजापति से किया था; उसकी विशाल वंशपरम्परा तो सारी त्रिलोकी में फैली हुई हैं ॥ ११ ॥ मैं कर्दमजी की नौ कन्याओं का, जो नौ ब्रह्मर्षियों से ब्याही गयी थीं, पहले ही वर्णन कर चुका हूँ । अब उनकी वंशपरम्परा का वर्णन करता हूँ, सुनो ॥ १३ ॥ मरीचि ऋषि की पत्नी कर्दमजी की बेटी कला से कश्यप और पूर्णिमा नामक दो पुत्र हुए, जिनके वंश से यह सारा जगत् भरा हुआ है ॥ १३ ॥ शत्रुतापन विदुरजी ! पूर्णिमा के विरज और विश्वग नाम के दो पुत्र तथा देवकुल्या नाम की एक कन्या हुई । यही दूसरे जन्म में श्रीहरि के चरणों के धोवन से देवनदी गङ्गा के रूप में प्रकट हुई ॥ १४ ॥ अत्रि की पत्नी अनसूया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चन्द्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए । ये क्रमशः भगवान् विष्णु, शङ्कर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे ॥ १५ ॥ विदुरजी ने पूछा — गुरुजी ! कृपया यह बतलाइये कि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और अन्त करनेवाले इन सर्वश्रेष्ठ देवों ने अत्रिमुनि के यहाँ क्या करने की इच्छा से अवतार लिया था ? ॥ १६ ॥ श्रीमैत्रेयजी ने कहा — जब ब्रह्माजी ने ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ महर्षि अत्रि को सृष्टि रचने के लिये आज्ञा दी, तब वे अपनी सहधर्मिणी के सहित तप करने के लिये ऋक्षनामक कुलपर्वत पर गये ॥ १७ ॥ वहाँ पलाश और अशोक के वृक्षों का एक विशाल वन था । उसके सभी वृक्ष फूलों के गुच्छों से लदे थे तथा उसमें सब ओर निर्विन्ध्या नदी के जल की कलकल ध्वनि गूँजती रहती थी ॥ १८ ॥ उस वन में वे मुनिश्रेष्ठ प्राणायाम के द्वारा चित्त को वश में करके सौ वर्ष तक केवल वायु पीकर सरदी-गरमी आदि द्वन्द्वों की कुछ भी परवा न कर एक ही पैर से खड़े रहे ॥ १९ ॥ उस समय वे मन-ही-मन यही प्रार्थना करते थे कि ‘जो कोई सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर हैं, में उनकी शरण में हूँ, वे मुझे अपने ही समान सन्तान प्रदान करें ॥ २० ॥ तब यह देखकर कि प्राणायामरूपी ईंधन से प्रज्वलित हुआ अत्रिमुनि का तेज उनके मस्तक से निकलकर तीनों लोकों को तपा रहा है — ब्रह्मा, विष्णु और महादेव – तीनों जगत्पति उनके आश्रमपर आये । उस समय अप्सरा, मुनि, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर और नाग — उनका सुयश गा रहे थे ॥ २१-२२ ॥ उन तीनों का एक ही साथ प्रादुर्भाव होने से अत्रिमुनि का अन्तःकरण प्रकाशित हो उठा । उन्होंने एक पैर से खड़े-खड़े ही उन देवदेवों को देखा और फिर पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर प्रणाम करने के अनन्तर अर्ध्य-पुष्पादि पूजन की सामग्री हाथ में ले उनकी पूजा की । वे तीनों अपने-अपने वाहन — हंस, गरुड़ और बैल पर चढ़े हुए तथा अपने कमण्डलु, चक्र, त्रिशूलादि चिह्नों से सुशोभित थे ॥ २३-२४ ॥ उनकी आँखों से कृपा की वर्षा हो रही थी । उनके मुख पर मन्द हास्य की रेखा थी — जिससे उनकी प्रसन्नता झलक रही थी । उनके तेज से चौंधियाकर मुनिवर ने अपनी आँखें मूंद लीं ॥ २५ ॥ वे चित्त को उन्हीं की ओर लगाकर हाथ जोड़ अतिमधुर और सुन्दर भावपूर्ण वचनों में लोक में सबसे बड़े उन तीनों देवों की स्तुति करने लगे ॥ २६ ॥ अत्रिमुनि ने कहा — भगवन् ! प्रत्येक कल्प के आरम्भ में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये जो माया के सत्त्वादि तीनों गुणों का विभाग करके भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं वे ब्रह्मा, विष्णु और महादेव आप ही हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ । कहिये — मैने जिनको बुलाया था, आपसे वे कौन महानुभाव हैं ? ॥ २७ ॥ क्योंकि मैंने तो सन्तान-प्राप्ति की इच्छा से केवल एक सुरेश्वर भगवान् का ही चिन्तन किया था । फिर आप तीनों ने यहाँ पधारने की कृपा कैंसे की ? आपलोगों तक तो देहधारियों के मन की भी गति नहीं हैं, इसलिये मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है । आपलोग कृपा करके मुझे इसका रहस्य बतलाइये ॥ २८ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — समर्थ विदुरजी ! अत्रिमुनि के वचन सुनकर वे तीनों देव हँसे और उनसे सुमधुर वाणी में कहने लगे ॥ २९ ॥ देवताओं ने कहा — ब्रह्मन् ! तुम सत्यसङ्कल्प हो । अतः तुमने जैसा सङ्कल्प किया था, वहीं होना चाहिये । उससे विपरीत कैसे हो सकता था ? तुम जिस ‘जगदीश्वर का ध्यान करते थे, वह हम तीनों ही हैं ॥ ३० ॥ प्रिय महर्षे ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे यहाँ हमारे ही अंशस्वरूप तीन जगद्विख्यात पुत्र उत्पन्न होंगे और तुम्हारे सुन्दर यश का विस्तार करेंगे ॥ ३१ ॥ उन्हें इस प्रकार अभीष्ट वर देकर तथा पति-पत्नी दोनों से भलीभाँति पूजित होकर उनके देखते-ही-देखते वे तीनों सुरेश्वर अपने-अपने लोकों को चले गये ॥ ३२ ॥ ब्रह्माजी के अंश से चन्द्रमा, विष्णु के अंश से योगवेत्ता दत्तात्रेयजी और महादेवजी के अंश से दुर्वासा ऋषि अत्रि के पुत्ररूप में प्रकट हुए । अब अङ्गिरा ऋषि की सन्तान का वर्णन सुनो ॥ ३३ ॥ अङ्गिरा की पत्नी श्रद्धा ने सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति — इन चार कन्याओं को जन्म दिया ॥ ३४ ॥ इनके सिवा उनके साक्षात् भगवान् उतथ्यजी और ब्रह्मनिष्ठ बृहस्पतिजी — ये दो पुत्र भी हुए, जो स्वारोचिष मन्वन्तर में विख्यात हुए ॥ ३५ ॥ पुलस्त्यजी के उनकी पत्नी हविर्भू से महर्षि अगस्त्य और महातपस्वी विश्रवा — ये दो पुत्र हुए । इनमें अगस्त्यजी दूसरे जन्म में जठराग्नि हुए ॥ ३६ ॥ विश्रवा मुनि के इडविडा के गर्भ से यक्षराज कुबेर का जन्म हुआ और उनकी दूसरी पत्नी केशिनी से रावण, कुम्भकर्ण एवं विभीषण उत्पन्न हुए ॥ ३७ ॥ महामते ! महर्षि पुलह की स्त्री परम साध्वी गति से कर्मश्रेष्ठ, वरीयान् और सहिष्णु — ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ३८ ॥ इसी प्रकार क्रतु की पत्नी क्रिया ने ब्रह्मतेज से देदीप्यमान बालखिल्यादि साठ हजार ऋषियों को जन्म दिया ॥ ३९ ॥ शत्रुतापन विदुरजी ! वसिष्ठजी की पत्नी ऊर्जा (अरुन्धती) — से चित्रकेतु आदि सात विशुद्धचित्त ब्रह्मर्षियों का जन्म हुआ ॥ ४० ॥ उनके नाम चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण, वसुभृद्यान और द्युमान् थे। इनके सिवा उनकी दूसरी पत्नी से शक्ति आदि और भी कई पुत्र हुए ॥ ४१ ॥ अथर्वा मुनि की पत्नी चित्ति ने दध्यङ् (दधीचि) नामक एक तपोनिष्ठ पुत्र प्राप्त किया, जिसका दूसरा नाम अश्वशिरा भी था । अब भृगु के वंश का वर्णन सुनो ॥ ४२ ॥ महाभाग भृगुजी ने अपनी भार्या ख्याति से धाता और विधाता नामक पुत्र तथा श्री नाम की एक भगवत्परायणा कन्या उत्पन्न की ॥ ४३ ॥ मेरुऋषि ने अपनी आयति और नियति नाम की कन्याएँ क्रमशः धाता और विधाता को ब्याहीं; उनसे उनके मृकण्ड और प्राण नामक पुत्र हुए ॥ ४४ ॥ उनमें से मृकण्ड मार्कण्डेय और प्राण के मुनिवर वेदशिरा का जन्म हुआ । भृगुजी के एक कवि नामक पुत्र भी थे । उनके भगवान् उशना (शुक्राचार्य) हुए ॥ ४५ ॥ विदुरजी ! इन सब मुनीश्वरों ने भी सन्तान उत्पन्न करके सृष्टि का विस्तार किया । इस प्रकार मैंने तुम्हें यह कर्दमजी के दौहित्रों की सन्तान का वर्णन सुनाया । जो पुरुष इसे श्रद्धापूर्वक सुनता हैं, उसके पापों को यह तत्काल नष्ट कर देता है ॥ ४६ ॥ ब्रह्माजी के पुत्र दक्षप्रजापति ने मनुनन्दिनी प्रसूति से विवाह किया । उससे उन्होंने सुन्दर नेत्रोंवाली सोलह कन्याएँ उत्पन्न कीं ॥ ४७ ॥ भगवान् दक्ष ने उनमें से तेरह धर्म को, एक अग्नि को, एक समस्त पितृगण को और एक संसार का संहार करनेवाले तथा जन्म-मृत्यु से छुड़ानेवाले भगवान् शङ्कर को दी ॥ ४८ ॥ श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री और मूर्ति — ये धर्म की पत्नियाँ हैं ॥ ४९ ॥ इनमें से श्रद्धा ने शुभ, मैत्री ने प्रसाद, दया ने अभय, शान्ति ने सुख, तुष्टि ने मोद और पुष्टि ने अहङ्कार को जन्म दिया ॥ ५० ॥ क्रिया ने योग, उन्नति ने दर्प, बुद्धि ने अर्थ, मेधा ने स्मृति, तितिक्षा ने क्षेम और ह्री (लज्जा) ने प्रश्रय (विनय) नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥ ५१ ॥ समस्त गुणों की खान मूर्तिदेवी ने नर-नारायण ऋषियों को जन्म दिया ॥ ५२ ॥ इनका जन्म होने पर इस सम्पूर्ण विश्व ने आनन्दित होकर प्रसन्नता प्रकट की । उस समय लोगों के मन, दिशाएँ, वायु, नदी और पर्वत— सभी में प्रसन्नता छा गयी ॥ ५३ ॥ आकाश में माङ्गलिक बाजे बजने लगे, देवता लोग फूलों की वर्षा करने लगे, मुनि प्रसन्न होकर स्तुति करने लगे, गन्धर्व और किन्नर गाने लगे ॥ ५४ ॥ अप्सराएँ नाचने लगीं । इस प्रकार उस समय बड़ा ही आनन्द-मङ्गल हुआ तथा ब्रह्मादि समस्त देवता स्तोत्रों द्वारा भगवान् की स्तुति करने लगे ॥ ५५ ॥ देवताओं ने कहा — जिस प्रकार आकाश में तरह-तरह के रूपों की कल्पना कर ली जाती है उसी प्रकार जिन्होंने अपनी माया के द्वारा अपने ही स्वरूप के अंदर इस संसार की रचना की है और अपने उस स्वरूप को प्रकाशित करने के लिये इस समय इस ऋषि-विग्रह के साथ धर्म के घर में अपने-आपको प्रकट किया है, उन परम पुरुष को हमारा नमस्कार है ॥ ५६ ॥ जिनके तत्त्व का शास्त्र के आधार पर हमलोग केवल अनुमान ही करते हैं, प्रत्यक्ष नहीं कर पाते — उन्हीं भगवान् ने देवताओं को संसार की मर्यादा में किसी प्रकार की गड़बड़ी न हो, इसीलिये सत्त्वगुण से उत्पन्न किया है । अब वे अपने करुणामय नेत्रों से-जो समस्त शोभा और सौन्दर्य के निवासस्थान निर्मल दिव्य कमल को भी नीचा दिखानेवाले हैं — हमारी ओर निहारे ॥ ५७ ॥ प्यारे विदुरजी ! प्रभु का साक्षात् दर्शन पाकर देवताओं ने उनकी इस प्रकार स्तुति और पूजा की । तदनन्तर भगवान् नर-नारायण दोनों गन्धमादन पर्वत पर चले गये ॥ ५८ ॥ भगवान् श्रीहरि के अंशभूत वे नर-नारायण ही इस समय पृथ्वी का भार उतारने के लिये यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण और उन्हीं के सरीखे श्यामवर्ण, कुरुकुलतिलक अर्जुन के रूप में अवतीर्ण हुए हैं ॥ ५९ ॥ अग्निदेव की पत्नी स्वाहा ने अग्नि के ही अभिमानी पावक, पवमान और शुचि — ये तीन पुत्र उत्पन्न किये । ये तीनों ही हवन किये हुए पदार्थों का भक्षण करनेवाले हैं ॥ ६० ॥ इन्हीं तीनों से पैंतालीस प्रकार के अग्नि और उत्पन्न हुए । ये ही अपने तीन पिता और एक पितामह को साथ लेकर उनचास अग्नि कहलाये ॥ ६१ ॥ वेदश ब्राह्मण वैदिक यज्ञकर्म में जिन उनचास अग्नियों के नामों से आग्नेयी इष्टियाँ करते हैं, वे ये ही हैं ॥ ६२ ॥ अग्निश्वात्त, बर्हिषद्, सोमप और आज्यप — ये पितर हैं । इनमें साग्निक भी हैं और निरग्निक भी । इन सब पितरों की पत्नी दक्षकुमारी स्वधा है ॥ ६३ ॥ इन पितरों से स्वधा के धारिणी और वयुना नाम की दो कन्याएँ हुई । वे दोनों ही ज्ञान-विज्ञान में पारङ्गत और ब्रह्मज्ञान का उपदेश करनेवाली हुई ॥ ६४ ॥ महादेवजी की पत्नी सती थीं, वे सब प्रकार से अपने पतिदेव की सेवामें संलग्न रहनेवाली थीं । किन्तु उनके अपने गुण और शील के अनुरूप कोई पुत्र नहीं हुआ ॥ ६५ ॥ क्योंकि सती के पिता दक्ष ने बिना ही किसी अपराध के भगवान् शिवजी के प्रतिकूल आचरण किया था, इसलिये सती ने युवावस्था में ही क्रोधवश योग के द्वारा स्वयं ही अपने शरीर का त्याग कर दिया था ॥ ६६ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे विदुरमैत्रेयसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related