January 30, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय १३ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय तेरहवाँ अध्याय वाराह अवतार की कथा श्रीशुकदेवजी ने कहा — राजन् ! मुनिवर मैत्रेयजी के मुख़ से यह परम पुण्यमयी कथा सुनकर श्रीविदुरजी ने फिर पूछा, क्योंकि भगवान् की लीलाकथा में इनका अत्यन्त अनुराग हो गया था ॥ १ ॥ विदुरजी ने कहा — मुने ! स्वयम्भू ब्रह्माजी के प्रिय पुत्र महाराज स्वायम्भुव मनु ने अपनी प्रिय पत्नी शतरूपा को पाकर फिर क्या किया ? ॥ २ ॥ आप साधुशिरोमणि हैं ! आप मुझे आदिराज राजर्षि स्वायम्भुव मनु का पवित्र चरित्र सुनाइये । वे श्रीविष्णुभगवान् के शरणापन्न थे, इसलिये उनका चरित्र सुनने में मेरी बहुत श्रद्धा है ॥ ३॥ जिनके हृदय में श्रीमुकुन्द के चरणारविन्द विराजमान हैं, उन भक्तजनों के गुणों को श्रवण करना ही मनुष्यों के बहुत दिनों तक किये हुए शास्त्राभ्यास के श्रम का मुख्य फल हैं, ऐसा विद्वानों का श्रेष्ठ मत हैं ॥ ४ ॥ श्रीशुकदेव जी कहते हैं — राजन् ! विदुरजी सहस्रशीर्षा भगवान् श्रीहरि के चरणाश्रित भक्त थे । उन्होंने जब विनयपूर्वक भगवान् की कथा के लिये प्रेरणा की, तब मुनिवर मैत्रेय का रोम-रोम खिल उठा । उन्होंने कहा ॥ ५ ॥ श्रीमैत्रेयजी बोले — जब अपनी भार्या शतरूपा के साथ स्वायम्भुव मनु का जन्म हुआ, तब उन्होंने बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर श्रीब्रह्माजी से कहा — ॥ ६ ॥ ‘भगवन् ! एकमात्र आप ही समस्त जीवों के जन्मदाता और जीविका प्रदान करनेवाले पिता हैं । तथापि हम आपकी सन्तान ऐसा कौन-सा कर्म करें, जिससे आपकी सेवा बन सके ? ॥ ७ ॥ पूज्यपाद ! हम आपको नमस्कार करते हैं । आप हमसे हो सकने योग्य किसी ऐसे कार्य के लिये हमें आज्ञा दीजिये, जिससे इस लोक में हमारी सर्वत्र कीर्ति हो और परलोक में सद्गति प्राप्त हो सके’ ॥ ८ ॥ श्रीब्रह्माजी ने कहा — तात ! पृथ्वीपते ! तुम दोनों का कल्याण हो । मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, क्योंकि तुमने निष्कपट भाव से ‘मुझे आज्ञा दीजिये’ यों कहकर मुझे आत्मसमर्पण किया है ॥ ९ ॥ वीर ! पुत्रों को अपने पिता की इसी रूप में पूजा करनी चाहिये । उन्हें उचित है कि दुसरों के प्रति ईर्ष्या का भाव न रखकर जहाँतक बने, उनकी आज्ञा का आदरपूर्वक सावधानी से पालन करें ॥ १० ॥ तुम अपनी इस भार्या से अपने ही समान गुणवती सन्तति उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करो और यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना करो ॥ ११ ॥ राजन् ! प्रज्ञापालन से मेरी बड़ी सेवा होगी और तुम्हें प्रजा का पालन करते देखकर भगवान् श्रीहरि भी तुमसे प्रसन्न होंगे । जिनपर यज्ञमूर्ति जनार्दन भगवान् प्रसन्न नहीं होते, उनका सारा श्रम व्यर्थ ही होता है; क्योंकि वे तो एक प्रकार से अपने आत्मा का ही अनादर करते हैं ॥ १२-१३ ॥ मनुजी ने कहा — पाप का नाश करनेवाले पिताजी ! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा; किन्तु आप इस जगत् में मेरे और मेरी भावी प्रजा के रहने के लिये स्थान बतलाइये ॥ १४ ॥ देव ! सब जीवों का निवासस्थान पृथ्वी इस समय प्रलय के जल में डूबी हुई है । आप इस देवी के उद्धार का प्रयत्न कीजिये ॥ १५ ॥ श्रीमैत्रेयजी ने कहा — पृथ्वी को इस प्रकार अथाह जल में डूबी देखकर ब्रह्माजी बहुत देर तक मन में यह सोचते रहे कि ‘इसे कैसे निकालें ॥ १६ ॥ जिस समय मैं लोकरचना में लगा हुआ था, उस समय पृथ्वी जल में डूब जाने से रसातल को चली गयी । हमलोग सृष्टिकार्य में नियुक्त हैं, अतः इसके लिये हमें क्या करना चाहिये ? अब तो जिनके सङ्कल्पमात्र से मेरा जन्म हुआ है, वे सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ही मेरा यह काम पूरा करें’ ॥ १७ ॥ निष्पाप विदुजी ! ब्रह्माजी इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उनके नासाछिद्र से अकस्मात् अँगूठे के बराबर आकार का एक वराह-शिशु निकला ॥ १८ ॥ भारत ! बड़े आश्चर्य की बात तो यही हुई कि आकाश में खड़ा हुआ वह वराह-शिशु ब्रह्माजी के देखते-ही-देखते बड़ा होकर क्षणभर में हाथी के बराबर हो गया ॥ १९ ॥ उस विशाल वराह-मूर्ति को देखकर मरीचि आदि मुनिजन, सनकादि और स्वायम्भुव मनु के सहित श्रीब्रह्माजी तरह-तरह के विचार करने लगे — ॥ २० ॥ अहो ! सूकर के रूप में आज यह कौन दिव्य प्राणी यहाँ प्रकट हुआ है ? कैसा आश्चर्य है ! यह अभी-अभी मेरी नाक से निकला था ॥ २१ ॥ पहले तो यह अँगूठे के पोरुए के बराबर दिखायी देता था, किन्तु एक क्षण में ही बड़ी भारी शिला के समान हो गया । अवश्य ही यज्ञमूर्ति भगवान् हमलोगों के मन को मोहित कर रहे हैं ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी और उनके पुत्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् यज्ञपुरुष पर्वताकार होकर गरजने लगे ॥ २३ ॥ सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ने अपनी गर्जना से दिशाओं को प्रतिध्वनित करके ब्रह्मा और श्रेष्ठ ब्राह्मणों को हर्ष से भर दिया ॥ २४ ॥ अपना खेद दूर करनेवाली मायामय वराह भगवान् की घुरघुराहट को सुनकर वे जनलोक, तपलोक और सत्यलोकनिवासी मुनिगण तीनों वेदों के परम पवित्र मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे ॥ २५ ॥ भगवान् के स्वरूप का वेदों में विस्तार से वर्णन किया गया हैं; अतः उन मुनीश्वरों ने जो स्तुति की, उसे वेदरूप मानकर भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और एक बार फिर गरजकर देवताओं के हित के लिये गजराजकी-सी लीला करते हुए जल में घुस गये ॥ २६ ॥ पहले वे सूकररूप भगवान् पूँछ उठाकर बड़े वेग से आकाश में उछले और अपनी गर्दन के बालों को फटकारकर खुरों के आघात से बादलों को छितराने लगे । उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचा पर कड़े-कड़े बाल थे, दाढ़े सफेद थीं और नेत्रों से तेज निकल रहा था, उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥ २७ ॥ भगवान् स्वयं यज्ञपुरुष हैं । तथापि सूकररूप धारण करने के कारण अपनी नाक से सूँघ-सूँघकर पृथ्वी का पता लगा रहे थे । उनकी दाढ़े बड़ी कठोर थी । इस प्रकार यद्यपि वे बड़े क्रूर जान पड़ते थे, तथापि अपनी स्तुति करनेवाले मरीचि आदि मुनियों की ओर बड़ी सौम्य दृष्टि से निहारते हुए उन्होंने जल में प्रवेश किया ॥ २८ ॥ जिस समय उनका वज्रमय पर्वत के समान कठोर कलेवर जल में गिरा, तब उसके वेग से मानो समुद्र का पेट फट गया और उसमें बादलों की गड़गड़ाहट के समान बड़ा भीषण शब्द हुआ । उस समय ऐसा जान पड़ता था मानों अपनी उत्ताल तरङ्गरूप भुजाओं को उठाकर वह बड़े आर्तस्वर से ‘हे यज्ञेश्वर ! मेरी रक्षा करो ।’ इस प्रकार पुकार रहा है ॥ २९ ॥ तब भगवान् यज्ञमूर्ति अपने बाण के समान पैने खुरों से जल को चीरते हुए उस अपार जलराशि के उस पार पहुँचे । वहाँ रसातल में उन्होंने समस्त जीवों की आश्रयभूता पृथ्वी को देखा, जिसे कल्पान्त में शयन करने के लिये उद्यत श्रीहरि ने स्वयं अपने ही उदर में लीन कर लिया था ॥ ३० ॥ फिर वे जल में डूबी हुई पृथ्वी को अपनी दाढ़ॉ पर लेकर रसातल से ऊपर आये । उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी । जल से बाहर आते समय उनके मार्ग में विघ्न डालने के लिये महापराक्रमी हिरण्याक्ष ने जल के भीतर ही उनपर गदा से आक्रमण किया । इससे उनका क्रोध चक्र के समान तीक्ष्ण हो गया और उन्होंने उसे लीला से ही इस प्रकार मार डाला, जैसे सिंह हाथी को मार डालता है । उस समय उसके रक्त से थूथनी तथा कनपटी सन जाने के कारण वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कोई गजराज लाल मिट्टीं के टीले में टक्कर मारकर आया हो ॥ ३१-३२ ॥ तात ! जैसे गजराज अपने दाँतों पर कमल-पुष्प धारण कर ले, उसी प्रकार अपने सफेद दाँतों की नोक पर पृथ्वी को धारण कर जल से बाहर निकले हुए, तमाल के समान नीलवर्ण वराहभगवान् को देखकर ब्रह्मा, मरीचि आदि को निश्चय हो गया कि ये भगवान् ही हैं । तब वे हाथ जोड़कर वेदवाक्यों से उनकी स्तुति करने लगे ॥ ३३ ॥ ऋषियों ने कहा — भगवान् अजित् ! आपकी जय हो, जय हो । यज्ञपते ! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार है । आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं । आपने पृथ्वी का उद्धार करने के लिये ही यह सूकररूप धारण किया है । आपको नमस्कार है ॥ ३४ ॥ देव ! दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है । इसकी त्वचा में गायत्री आदि छन्द, रोमावली में कुश, नेत्रों में घृत तथा चारों चरणों में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा — इन चारों ऋत्विजों के कर्म हैं ॥ ३५ ॥ ईश ! आपकी थूथनी (मुख के अग्रभाग) में स्रुक् है, नासिका-छिद्रों में स्रुवा है, उदर में इडा (यज्ञीय भक्षणपात्र) है, कानों में चमस है, मुख में प्राशित्र (ब्रह्मभागपात्र) है और कण्ठछिद्र में ग्रह (सोमपात्र) है । भगवन् ! आपका जो चबाना हैं, वही अग्निहोत्र है ॥ ३६ ॥ बार-बार अवतार लेना यज्ञस्वरूप आपकी दीक्षणीय इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ) हैं । दोनों दाढ़े प्रायणीय (दीक्षा के बाद की इष्टि) और उदयनीय (यज्ञ समाप्ति की इष्टि) हैं; जिह्वा प्रवर्ण्य (प्रत्येक उपसद के पूर्व किया जानेवाला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होमरहित अग्नि) और आवसथ्य (औपासनाग्नि) है तथा प्राण चिति (इष्टकाचयन) हैं ॥ ३७ ॥ देव ! आपका वीर्य सोम हैं; आसन (बैठना) प्रातःसवनादि तीन सवन हैं; सातों धातु अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम नाम की सात संस्थाएँ हैं तथा शरीर की सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र हैं । इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोमरहित याग) और क्रतु (सोमसहित याग) रूप हैं । यज्ञानुष्ठानरूप इष्टियाँ आपके अङ्ग को मिलाये रखनेवाली मांसपेशियाँ हैं ॥ ३८ ॥ समस्त मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरूप हैं; आपको नमस्कार है । वैराग्य, भक्ति और मन की एकाग्रता से जिस ज्ञान का अनुभव होता हैं, वह आपका स्वरूप ही है तथा आप ही सबके विद्यागुरु हैं; आपको पुनः – पुनः प्रणाम है ॥ ३९ ॥ पृथ्वी को धारण करनेवाले भगवन् ! आपकी दाढ़ों की नोक पर रखी हुई यह पर्वतादि-मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वन मॅ से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो ॥ ४० ॥ आपके दाँतों पर रखे हुए भूमण्डल के सहित आपका यह वेदमय वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरों पर छायी हुई मेघमाला से कुलपर्वत की शोभा होती है ॥ ४१ ॥ नाथ ! चराचर जीवों के सुखपूर्वक रहने लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वी को जल पर स्थापित कीजिये । आप जगत् के पिता हैं और अरणि में अग्निस्थापन के समान आपने इसमें धारणशक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया है । हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते हैं ॥ ४२ ॥ प्रभो ! रसातल में डूबी हुई इस पृथ्वी को निकालने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था । किंतु आप तो सम्पूर्ण आश्चर्यों के आश्रय हैं, आपके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है । आपने ही तो अपनी माया से इस अत्याश्चर्यमय विश्व की रचना की है ॥ ४३ ॥ जब आप अपने वेदमय विग्रह को हिलाते हैं, तब हमारे ऊपर आपकी गरदन के बालों से झरती हुई शीतल जल की बूंदे गिरती हैं । ईश ! उनसे भीगकर हम जनलोक, तपलोक और सत्यलोक में रहनेवाले मुनिजन सर्वथा पवित्र हो जाते हैं ॥ ४४ ॥ जो पुरुष आपके कर्मों का पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है; क्योंकि आप के कर्मों का कोई पार ही नहीं हैं । आपको ही योगमाया के सत्त्वादि गुणों से यह सारा जगत् मोहित हो रहा है । भगवन् ! आप इसका कल्याण कीजिये ॥ ४५ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! उन ब्रह्मवादी मुनियों के इस प्रकार स्तुति करने पर सबकी रक्षा करनेवाले वराह भगवान् ने अपने खुरों से जल को स्तम्भितकर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया ॥ ४६ ॥ इस प्रकार रसातल से लीलापूर्वक लायी हुई पृथ्वी को जलपर रखकर वे विष्वक्सेन प्रजापति भगवान् श्रीहरि अन्तर्धान हो गये ॥ ४७ ॥ विदुरजी ! भगवान् के लीलामय चरित्र अत्यन्त कीर्तनीय हैं और उनमें लगी हुई बुद्धि सब प्रकार के पाप-तापों को दूर कर देती है । जो पुरुष उनकी इस मङ्गलमयी मञ्जुल कथा को भक्तिभाव से सुनता या सुनाता है, उसके प्रति भक्तवत्सल भगवान् अन्तस्तल से बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ४८ ॥ भगवान् तो सभी कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं उनके प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ है । किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है ? जो लोग उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परम पद ही दे देते हैं ॥ ४९ ॥ अरे ! संसार में पशुओं को छोड़कर अपने पुरुषार्थ का सार जाननेवाला ऐसा कौन पुरुष होगा, जो आवागमन से छुड़ा देनेवाली भगवान् की प्राचीन कथाओं में से किसी भी अमृतमयी कथा का अपने कर्णपुटों से एक बार पान करके फिर उनकी ओर से मन हटा लेगा ॥ ५० ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे वराहप्रादुर्भावानुवर्णने त्रयोदशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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