February 1, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय १४ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय चौदहवाँ अध्याय दिति का गर्भधारण श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! प्रयोजनवश सूकर बने श्रीहरि की कथा को मैत्रेयजी के मुख से सुनकर भी भक्तिव्रतधारी विदुजी की पूर्ण तृप्ति न हुई अतः उन्होंने हाथ जोड़कर फिर पूछा ॥ १ ॥ विदुरजी ने कहा — मुनिवर ! हमने यह बात आपके मुख से अभी सुनी है कि आदिदैत्य हिरण्याक्ष को भगवान् यज्ञमूर्ति ने ही मारा था ॥ २ ॥ ब्रह्मन् ! जिस समय भगवान् लीला से ही अपनी दाड़ों पर रखकर पृथ्वी को जल में से निकाल रहे थे, उस समय उनसे दैत्यराज हिरण्याक्ष की मुठभेड़ किस कारण हुई ? ॥ ३ ॥ श्रीमैत्रेयजी ने कहा — विदुरजी ! तुम्हारा प्रश्न बड़ा ही सुन्दर है; क्योंकि तुम श्रीहरि की अवतारकथा के विषय में ही पूछ रहे हो, जो मनुष्यों को मृत्युपाश का छेदन करनेवाली है ॥ ४ ॥ देखो, उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव बालकपन में श्रीनारदजी की सुनायी हुई हरिकथा के प्रभाव से ही मृत्यु के सिर पर पैर रखकर भगवान् के परमपद पर आरूढ़ हो गया था ॥ ५ ॥ पूर्वकाल में एक बार इसी वाराह भगवान् और हिरण्याक्ष के युद्ध के विषय में देवताओं के प्रश्न करने पर देवदेव श्रीब्रह्माजी ने उन्हें यह इतिहास सुनाया था और उसी के परम्परा से मैंने सुना है ॥ ६ ॥ विदुरजी ! एक बार दक्ष की पुत्री दिति ने पुत्रप्राप्ति की इच्छा से कामातुर होकर सायङ्काल के समय ही अपने पति मरीचिनन्दन कश्यपजी से प्रार्थना की ॥ ७ ॥ उस समय कश्यपजी खीर की आहुतियों द्वारा अग्निजिह्व भगवान् यज्ञपति की आराधना कर सूर्यास्त का समय जान अग्निशाला में ध्यानस्थ होकर बैठे थे ॥ ८ ॥ दिति ने कहा — विद्वन् ! मतवाला हाथी जैसे केले के वृक्ष को मसल डालता है, उसी प्रकार यह प्रसिद्ध धनुर्घर कामदेव मुझ अबला पर जोर जताकर आपके लिये मुझे बेचैन कर रहा है ॥ ९ ॥ अपनी पुत्रवती सौतों की सुख-समृद्धि को देखकर मैं ईर्ष्या की आग से जली जाती हूँ । अतः आप मुझपर कृपा कीजिये, आपका कल्याण हो ॥ १० ॥ जिनके गर्भ से आप-जैसा पति पुत्ररूप से उत्पन्न होता है, वे ही स्त्रियां अपने पतियों से सम्मानिता समझी जाती हैं । उनका सुयश संसार में सर्वत्र फैल जाता है ॥ ११ ॥ हमारे पिता प्रजापति दक्ष का अपनी पुत्रियों पर बड़ा स्नेह था । एक बार उन्होंने हम सबको अलग-अलग बुलाकर पूछा कि ‘तुम किसे अपना पति बनाना चाहती हो ?’ ॥ १२ ॥ वे अपनी सन्तान की सब प्रकार की चिन्ता रखते थे । अतः हमारा भाव जानकर उन्होंने उनसे हम तेरह पुत्रियों को, जो आपके गुण-स्वभाव के अनुरूप थीं, आपके साथ ब्याह दिया ॥ १३ ॥ अतः मङ्गलमूर्ते ! कमलनयन ! आप मेरी इच्छा पूर्ण कीजिये, क्योंकि हे महत्तम ! आप-जैसे महापुरुषों के पास दीनजनों का आना निष्फल नहीं होता ॥ १४ ॥ विदुरजी ! दिति कामदेव के वेग से अत्यन्त बेचैन और बेबस हो रही थी । उसने इसी प्रकार बहुत-सी बाते बनाते हुए दीन होकर कश्यपजी से प्रार्थना की, तब उन्होंने उसे सुमधुर वाणी से समझाते हुए कहा ॥ १५ ॥ ‘भीरु ! तुम्हारी इच्छा के अनुसार में अभी-अभी तुम्हारा प्रिय अवश्य करूंगा । भला, जिसके द्वारा अर्थ, धर्म और काम–तीनों की सिद्धि होती हैं, अपनी ऐसी पत्नी की कामना कौन पूर्ण नहीं करेगा ? ॥ १६ ॥ जिस प्रकार जहाज पर चढ़कर मनुष्य महासागर को पार कर लेता है, उसी प्रकार गृहस्थाश्रमी दूसरे आश्रमों को आश्रय देता हुआ अपने आश्रम द्वारा स्वयं भी दुःखसमुद्र के पार हो जाता है ॥ १७ ॥ मानिनि ! स्त्री को तो त्रिविध पुरुषार्थ की कामनावाले पुरुष का आधा अङ्ग कहा गया है । उसपर अपनी गृहस्थी का भार डालकर पुरुष निश्चिन्त होकर विचरता है ॥ १८ ॥ इन्द्रियरूप शत्रु अन्य आश्रमवालों के लिये अत्यन्त दुर्जय हैं; किन्तु जिस प्रकार किले का स्वामी सुगमता से ही लूटनेवाले शत्रुओं को अपने अधीन कर लेता है, उसी प्रकार हम अपनी विवाहिता पत्नी का आश्रय लेकर इन इन्द्रियरूप शत्रुओं को सहज में ही जीत लेते हैं ॥ १९ ॥ गृहेश्वरि ! तुम-जैसी भार्या के उपकारों का बदला तो हम अथवा और कोई भी गुणग्राही पुरुष अपनी सारी उम्र में अथवा जन्मान्तर में भी पूर्णरूप से नहीं चुका सकते ॥ २० ॥ तो भी तुम्हारी इस संत्तान-प्राप्ति की इच्छा को मैं यथाशक्ति अवश्य पूर्ण करूँगा । परन्तु अभी तुम एक मुहूर्त ठहरो, जिससे लोग मेरी निन्दा न करें ॥ २१ ॥ यह अत्यन्त घोर समय राक्षसादि घोर जीवों का हैं और देखने में भी बड़ा भयानक है । इसमें भगवान् भूतनाथ के गण भूत-प्रेतादि घूमा करते हैं ॥ २२ ॥ साध्वि ! इस सन्ध्याकाल में भूतभावन भूतपति भगवान् शङ्कर अपने गण भूत-प्रेतादि को साथ लिये बैल पर चढ़कर विचरा करते हैं ॥ २३ ॥ जिनका जटाजूट श्मशानभूमि से उठे हुए बवंडर की धूलि से धूसरित होकर देदीप्यमान हो रहा है तथा जिनके सुवर्ण-कान्तिमय गौर शरीर में भस्म लगी हुई है, वे तुम्हारे देवर (श्वशुर) महादेवजी अपने सूर्य, चन्द्रमा और अग्निरूप तीन नेत्रों से सभी को देखते रहते हैं ॥ २४ ॥ संसार में उनका कोई अपना या पराया नहीं है । न कोई अधिक आदरणीय और न निन्दनीय ही हैं । हमलोग तो अनेक प्रकार के व्रतों का पालन करके उनकी माया को ही ग्रहण करना चाहते हैं जिसे उन्होंने भोगकर लात मार दी है ॥ २५ ॥ विवेक पुरुष अविद्या के आवरण को हटाने की इच्छा से उनके निर्मल चरित्र का गान किया करते हैं; उनसे बढ़कर तो क्या, उनके समान भी कोई नहीं है और उनतक केवल सत्पुरुषों की ही पहुँच हैं । यह सब होनेपर भी वे स्वयं पिशाचों का सम आचरण करते हैं ॥ २६ ॥ यह नरशरीर कुतों का भोजन है । जो अविवेकी पुरुष आत्मा मानकर वस्त्र, आभूषण, माला और चन्दनादि से इसी को सजाते-संवारते रहते हैं — वे अभागे ही आत्माराम भगवान् शङ्कर के आचरण पर हँसते हैं ॥ २७ ॥ हमलोग तो क्या, ब्रह्मादि लोकपाल भी उन्हीं की बाँधी हुई धर्म-मर्यादा का पालन करते हैं; वे ही इस विश्व के अधिष्ठान हैं तथा यह माया भी उन्हीं की आज्ञा का अनुसरण करनेवाली है । ऐसे होकर भी वे प्रेतोंका-सा आचरण करते हैं । अहो ! उन जगद्व्यापक प्रभु की यह अद्भुत लीला कुछ समझ में नहीं आती’ ॥ २८ ॥ मैत्रेयजी कहते हैं — पति के इस प्रकार समझाने पर भी कामातुरा दिति ने वेश्या के समान निर्लज्ज होकर ब्रह्मर्षि कश्यपजी का वस्त्र पकड़ लिया ॥ २९ ॥ तब कश्यपजी ने उस निन्दित कर्म में अपनी भार्या का बहुत आग्रह देख दैव को नमस्कार किया और एकान्त में उसके साथ समागम किया ॥ ३० ॥ फिर जल में स्नानकर प्राण और वाणी का संयम करके विशुद्ध ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म का ध्यान करते हुए उसका जप करने लगे ॥ ३१ ॥ विदुरजी ! दिति को भी उस निन्दित कर्म के कारण बड़ी लज्जा आयी और वह ब्रह्मर्षि के पास जा, सिर नीचा करके इस प्रकार कहने लगीं ॥ ३२ ॥ दिति बोली — ब्रह्मन् ! भगवान् रुद्र भूतों के स्वामी हैं, मैंने उनका अपराध किया है, किन्तु वे भूतश्रेष्ठ मेरे इस गर्भ को नष्ट न करें ॥ ३३ ॥ मैं भक्तवाञ्छाकल्पतरु, उग्र एवं रुद्ररूप महादेव को नमस्कार करती हूँ । वे सत्पुरुषों के लिये कल्याणकारी एवं दण्ड देने के भाव से रहित हैं, किन्तु दुष्टों के लिये क्रोधमूर्ति दण्डपाणि हैं ॥ ३४ ॥ हम स्त्रियों पर तो व्याध भी दया करते हैं, फिर वे सतीपति तो मेरे बहनोई और परम कृपालु हैं; अतः वे मुझपर प्रसन्न हों ॥ ३५ ॥ श्रीमैत्रेयजी ने कहा — विदुरजी ! प्रजापति कश्यप ने सायङ्कालीन सन्ध्या-वन्दनादि कर्म से निवृत्त होने पर देखा कि दिति थर-थर काँपती हुई अपनी सन्तान की लौकिक और पारलौकिक उन्नति के लिये प्रार्थना कर रही हैं । तब उन्होंने उससे कहा ॥ ३६ ॥ कश्यपजी ने कहा — तुम्हारा चित्त कामवासना से मलिन था, वह समय भी ठीक नहीं था और तुमने मेरी बात भी नहीं मानी तथा देवताओं की भी अवहेलना की ॥ ३७ ॥ अमङ्गलमयी चण्डी ! तुम्हारी कोख से दो बड़े ही अमङ्गलमय और अधम पुत्र उत्पन्न होंगे । वे बार-बार सम्पूर्ण लोक और लोकपालों को अपने अत्याचारों से रुलायेंगे ॥ ३८ ॥ जब उनके हाथ से बहुत-से निरपराध और दीन प्राणी मारे जाने लगेंगे, स्त्रियों पर अत्याचार होने लगेंगे और महात्माओं को क्षुब्ध किया जाने लगेगा, उस समय सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करनेवाले श्रीजगदीश्वर कुपित होकर अवतार लेंगे और इन्द्र जैसे पर्वत का दमन करता हैं, उसी प्रकार उनका वध करेंगे ॥ ३१-४० ॥ दिति ने कहा — प्रभो ! यही मैं भी चाहती हूँ कि यदि मेरे पुत्रों का वध हो तो वह साक्षात् भगवान् चक्रपाणि के हाथ से ही हो, कुपित ब्राह्मणों के शापादि से न हो ॥ ४१ ॥ जो जीव ब्राह्मणों के शाप से दग्ध अथवा प्राणियों को भय देनेवाला होता है, वह किसी भी योनि में जाय—उस पर नारकी जीव भी दया नहीं करते ॥ ४२ ॥ कश्यपजी ने कहा — देवि ! तुमने अपने किये पर शोक और पश्चात्ताप प्रकट किया है, तुम्हें शीघ्र ही उचित-अनुचित का विचार भी हो गया तथा भगवान् विष्णु, शिव और मेरे प्रति भी तुम्हारा बहुत आदर जान पड़ता है, इसलिये तुम्हारे एक पुत्र के चार पुत्रों में से एक ऐसा होगा, जिसका सत्पुरुष भी मान करेंगे और जिसके पवित्र यश को भक्तजन भगवान् के गुणों के साथ गायेगे ॥ ४३-४४ ॥ जिस प्रकार खोटे सोने को बार-बार तपाकर शुद्ध किया जाता हैं, उसी प्रकार साधुजन उसके स्वभाव का अनुकरण करने के लिये निर्वैरता आदि उपायों से अपने अन्तःकरण को शुद्ध करेंगे ॥ ४५ ॥ जिनकी कृपा से उन्हीं का स्वरूपभूत यह जगत् आनन्दित होता है, वे स्वयंप्रकाश भगवान् भी उसकी अनन्य भक्ति से सन्तुष्ट हो जायेंगे ॥ ४६ ॥ दिति ! वह बालक बड़ा ही भगवद्भक्त, उदारहृदय, प्रभावशाली और महान् पुरुषों का भी पूज्य होगा तथा प्रौढ़ भक्तिभाव से विशुद्ध और भावान्वित हुए अन्तःकरण में श्रीभगवान् को स्थापित करके देहाभिमान को त्याग देगा ॥ ४७ ॥ वह विषयों में अनासक्त, शीलवान्, गुणों का भंडार तथा दूसरों की समृद्धि में सुख और दुःख में दुःख माननेवाला होगा । उसका कोई शत्रु न होगा, तथा चन्द्रमा जैसे ग्रीष्म ऋतु के ताप को हर लेता है, वैसे ही वह संसार के शोक को शान्त करनेवाला होगा ॥ ४८ ॥ जो इस संसार के बाहर-भीतर सब ओर विराजमान हैं, अपने भक्तों के इच्छानुसार समय-समय पर मङ्गलविग्रह प्रकट करते हैं और लक्ष्मीरूप लावण्यमूर्ति ललना की भी शोभा बढ़ानेवाले हैं, तथा जिनका मुखमण्डल झिलमिलाते हुए कुण्डलों से सुशोभित हैं — उन परम पवित्र कमलनयन श्रीहरि का तुम्हारे पौत्र को प्रत्यक्ष दर्शन होगा ॥ ४९ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! दिति ने जब सुना कि मेरा पौत्र भगवान् का भक्त होगा, तब उसे बड़ा आनन्द हुआ तथा यह जानकर कि मेरे पुत्र साक्षात् श्रीहरि के हाथ से मारे जायेंगे, उसे और भी अधिक उत्साह हुआ ॥ ५० ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे दितिकश्यपसंवादे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related