February 1, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय १६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सोलहवाँ अध्याय जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन श्रीब्रह्माजी ने कहा — देवगण ! जब योगनिष्ठ सनकादि मुनियों ने इस प्रकार स्तुति की, तब वैकुण्ठ-निवास श्रीहरि ने उनकी प्रशंसा करते हुए यह कहा ॥ १ ॥ श्रीभगवान् ने कहा — मुनिगण ! ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं । इन्होंने मेरी कुछ भी परवा न करके आपका बहुत बड़ा अपराध किया हैं ॥ २ ॥ आपलोग भी मेरे अनुगत भक्त हैं; अतः इस प्रकार मेरी ही अवज्ञा करने के कारण आपने इन्हें जो दण्ड दिया है, वह मुझे भी अभिमत है ॥ ३ ॥ ब्राह्मण मेरे परम आराध्य हैं; मेरे अनुचरों के द्वारा आपलोगों का जो तिरस्कार हुआ है, उसे मैं अपना ही किया हुआ मानता हूँ । इसलिये मैं आपलोगों से प्रसन्नता की भिक्षा माँगता हूँ ॥ ४ ॥ सेवकों के अपराध करने पर संसार उनके स्वामी का ही नाम लेता है । वह अपयश उसकी कीर्ति को इस प्रकार दूषित कर देता है, जैसे त्वचा को चर्मरोग ॥ ५ ॥ मेरी निर्मल सुयश-सुधा में गोता लगाने से चाण्डालपर्यन्त सारा जगत् तुरंत पवित्र हो जाता है, इसीलिये मैं ‘विकुण्ठ’ कहलाता हूँ । किन्तु यह पवित्र कीर्ति मुझे आपलोगों से ही प्राप्त हुई है । इसलिये जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, वह मेरों भुजा ही क्यों न हो — मैं उसे तुरन्त काट डालूंगा ॥ ६ ॥ आपलोगों की सेवा करने से ही मेरी चरण-रज को ऐसी पवित्रता प्राप्त हुई है कि वह सारे पापों को तत्काल नष्ट कर देती है और मुझे ऐसा सुन्दर स्वभाव मिला है कि मेरे उदासीन रहने पर भी लक्ष्मीजी मुझे एक क्षण के लिये भी नहीं खेती-यद्यपि इन्हीं के लेशमात्र कृपाकटाक्ष के लिये अन्य ब्रह्मादि देवता नाना प्रकार के नियमों एवं व्रतों का पालन करते हैं ॥ ७ ॥ जो अपने सम्पूर्ण कर्मफल मुझे अर्पणकर सदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे निष्काम ब्राह्मण ग्रास-ग्रास पर तृप्त होते हुए घी से तर तरह-तरह के पकवानों का जब भोजन करते हैं, तब उनके मुख से मैं जैसा तृप्त होता हूँ वैसा यज्ञ में अग्निरूप मुख से यजमान की दी हुई आहुतियों को ग्रहण करके नहीं होता ॥ ८ ॥ योगमाया का अखण्ड और असीम ऐश्वर्य मेरे अधीन है तथा मेरी चरणोदकरूपिणी गङ्गाजी चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करनेवाले भगवान् शङ्कर के सहित समस्त लोकों को पवित्र करती है । ऐसा परम पवित्र एवं परमेश्वर होकर भी मैं जिनकी पवित्र चरण-रज को अपने मुकुट पर धारण करता हूँ, उन ब्राह्मणों के कर्म को कौन नहीं सहन करेगा ॥ ९ ॥ ब्राह्मण, दूध देनेवाली गौएँ और अनाथ प्राणी – ये मेरे ही शरीर हैं । पापों के द्वारा विवेकदृष्टि नष्ट हो जाने के कारण जो लोग इन्हें मुझसे भिन्न समझते हैं, उन्हें मेरे द्वारा नियुक्त यमराज के गृध्र-जैसे दूत–जो सर्प के समान क्रोधी हैं – अत्यन्त क्रोधित होकर अपनी चोंचों से नोचते हैं ॥ १० ॥ ब्राह्मण तिरस्कारपूर्वक कटुभाषण भी करे, तो भी जो उसमें मेरी भावना करके प्रसन्नचित्त से तथा अमृतभरी मुसकान से युक्त मुखकमल से उसका आदर करते हैं तथा जैसे रूठे हुए पिता को पुत्र और आपलोगों को मैं मनाता हूँ, उसी प्रकार जो प्रेमपूर्ण वचनों से प्रार्थना करते हुए उन्हें शान्त करते हैं, ये मुझे अपने वश में कर लेते हैं ॥ ११ ॥ मेरे इन सेवकों ने मेरा अभिप्राय न समझकर ही आपलोगो का अपमान किया है । इसलिये मेरे अनुरोध से आप केवल इतनी कृपा कीजिये कि इनका यह निर्वासनकाल शीघ्र ही समाप्त हो जाय, ये अपने अपराध के अनुरूप अधम गति को भोगकर शीघ्र ही मेरे पास लौट आयें ॥ १२ ॥ श्रीब्रह्माजी कहते हैं — देवताओ ! सनकादि मुनि क्रोधरूप सर्प से डसे हुए थे, तो भी उनका चित्त अन्तःकरण को प्रकाशित करनेवाली भगवान् की मन्त्रमयी सुमधुर वाणी सुनते-सुनते तृप्त नहीं हुआ ॥ १३ ॥ भगवान् की उक्ति बड़ी ही मनोहर और थोड़े अक्षरोंवाली थी; किन्तु यह इतनी अर्थपूर्ण, सारयुक्त, दुर्विज्ञेय और गम्भीर थी कि बहुत ध्यान देकर सुनने और विचार करनेपर भी वे यह न जान सके कि भगवान् क्या करना चाहते हैं ॥ १४ ॥ भगवान् की इस अद्भुत उदारता को देखकर वे बहुत आनन्दित हुए और उनका अङ्ग-अङ्ग पुलकित हो गया । फिर योगमाया के प्रभाव से अपने परम ऐश्वर्य का प्रभाव प्रकट करनेवाले प्रभु से वे हाथ जोड़कर कहने लगे ॥ १५ ॥ मुनियों ने कहा — स्वप्रकाश भगवन् ! आप सर्वेश्वर होकर भी जो यह कह रहे हैं कि ‘यह आपने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया’ सो इससे आपका क्या अभिप्राय है, यह हम नहीं जान सके हैं ॥ १६ ॥ प्रभो ! आप ब्राह्मणों के परम हितकारी हैं । इससे लोक-शिक्षा के लिये आप भले से ऐसा मानें कि ब्राह्मण मेरे आराध्यदेव हैं । वस्तुतः तो ब्राह्मण तथा देवताओं के भी देवता ब्रह्मादि के भी आप ही आत्मा और आराध्यदेव हैं ॥ १७ ॥ सनातनधर्म आपसे ही उत्पन्न हुआ है, आपके अवतारों द्वारा ही समय-समय पर उसकी रक्षा होती है तथा निर्विकारस्वरूप आप ही धर्म के परम गुह्य रहस्य हैं — यह शास्त्रों का मत है ॥ १८ ॥ आपकी कृपा से निवृत्तिपरायण योगीजन सहज में ही मृत्युरूप संसार-सागर से पार हो जाते हैं, फिर भला, दूसरा कोई आपपर क्या कृपा कर सकता है ॥ १९ ॥ भगवन् ! दूसरे अर्थार्थी जन जिनकी चरण-रज को सर्वदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं, वे लक्ष्मीजी निरन्तर आपकी सेवामें लगी रहती हैं; सो ऐसा जान पड़ता है कि भाग्यवान् भक्तजन आपके चरणों पर जो नूतन तुलसी की मालाएँ अर्पण करते हैं; उनपर गुंजार करते हुए भौंरों के समान वे भी आपके पादपद्यों को ही अपना निवासस्थान बनाना चाहती हैं ॥ २३ ॥ किन्तु अपने पवित्र चरित्रों से निरन्तर सेवामें तत्पर रहनेवाली उन लक्ष्मीजी का भी आप विशेष आदर नहीं करते, आप तो अपने भक्तों से ही विशेष प्रेम रखते हैं । आप स्वयं ही सम्पूर्ण भजनीय गुणों के आश्रय हैं; क्या जहाँ-तहाँ विचरते हुए ब्राह्मणों के चरणों में लगने से पवित्र हुई मार्ग की धूलि और श्रीवत्स का चिह्न आपको पवित्र कर सकते हैं ? क्या इनसे आपकी शोभा बढ़ सकती है ? ॥ २१ ॥ भगवन् ! आप साक्षात् धर्मस्वरूप हैं । आप सत्यादि तीनों युगों में प्रत्यक्षरूप से विद्यमान रहते हैं तथा ब्राह्मण और देवताओं के लिये तप, शौच और दया — अपने इन तीन चरणों से इस चराचर जगत् की रक्षा करते हैं । अब आप अपनी शुद्धसत्त्वमयी वरदायिनी मूर्ति से हमारे धर्मविरोधी रजोगुण-तमोगुण को दूर कर दीजिये ॥ २२ ॥ देव ! यह ब्राह्मणकुल आपके द्वारा अवश्य रक्षणीय है । यदि साक्षात् धर्मरूप होकर भी आप सुमधुर वाणी और पूजनादि के द्वारा इस उत्तम कुल की रक्षा न करें तो आपका निश्चित किया हुआ कल्याणमार्ग ही नष्ट हो जाय; क्योंकि लोक तो श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण को ही प्रमाणरुप से ग्रहण करता हैं ॥ २३ ॥ प्रभो ! आप सत्त्वगुण की खान हैं और सभी जीवों का कल्याण करने के लिये उत्सुक हैं । इससे आप अपनी शक्तिरूप राजा आदि के द्वारा धर्म के शत्रुओं का संहार करते हैं । क्योंकि वेदमार्ग का उच्छेद आपको अभीष्ट नहीं है । आप त्रिलोकीनाथ और जगत्प्रतिपालक होकर भी ब्राह्मणों के प्रति इतने नम्र रहते हैं, इससे आपके तेज की कोई हानि नहीं होती, यह तो आपकी लीलामात्र है ॥ २४ ॥ सर्वेश्वर ! इन द्वारपालों को आप जैसा उचित समझे वैसा दण्ड दे अथवा पुरस्काररूप में इनकी वृत्ति बढ़ा दें — हम निष्कपटभाव से सब प्रकार आपसे सहमत हैं । अथवा हमने आपके इन निरपराध अनुचरों को शाप दिया है, इसके लिये हमको उचित दण्ड दें । हमें वह भी सहर्ष स्वीकार है ॥ २५ ॥ | भगवान् ने कहा — मुनिगण ! आपने इन्हें जो शाप दिया है – सच जानिये, वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है । अब ये शीघ्र ही दैत्ययोनि को प्राप्त होंगे और वहाँ क्रोधावेश से बढ़ी हुई एकाग्रता के कारण सुदृढ़ योगसम्पन्न होकर फिर जल्दी ही मेरे पास लौट आयेंगे ॥ २६ ॥ श्रीब्रह्माजी कहते हैं — तदनन्तर उन मुनीश्वरों ने नयनाभिराम भगवान् विष्णु और उनके स्वयंप्रकाश वैकुण्ठ-धाम के दर्शन करके प्रभु की परिक्रमा की और उन्हें प्रणामकर तथा उनकी आज्ञा पा भगवान् के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए प्रमुदित हो वहाँ से लौट गये ॥ २७-२८॥ फिर भगवान् ने अपने अनुचरों से कहा, जाओ, मन में किसी प्रकार का भय मत करो; तुम्हारा कल्याण होगा । मैं सब कुछ करने में समर्थ होकर भी ब्रह्मतेज को मिटाना नहीं चाहता; क्योंकि ऐसा ही मुझे अभिमत भी है ॥ ३९ ॥ एक बार जब में योगनिद्रा में स्थित हो गया था, तब तुमने द्वार में प्रवेश करती हुई लक्ष्मीजी को रोका था । उस समय उन्होंने क्रुद्ध होकर पहले ही तुम्हें यह शाप दे दिया था ॥ ३० ॥ अब दैत्ययोनि में मेरे प्रति क्रोधाकार वृत्ति रहने से तुम्हें जो एकाग्रता होगी, उससे तुम इस विप्र-तिरस्कारजनित पाप से मुक्त हो जाओगे और फिर थोड़े ही समय में मेरे पास लौट आओगे’॥ ३१ ॥ द्वारपालों को इस प्रकार आज्ञा दे, भगवान् ने विमानों की श्रेणियों से सुसज्जित अपने सर्वाधिक श्रीसम्पन्न धाम में प्रवेश किया ॥ ३२ ॥ वे देवश्रेष्ठ जय-विजय तो ब्रह्मशाप के कारण उस अलङ्घनीय भगवद्धाम में ही श्रीहीन हो गये तथा उनका सारा गर्व गलित हो गया ॥ ३३ ॥ पुत्रो ! फिर जब वे वैकुण्ठलोक से गिरने लगे, तब वहाँ श्रेष्ठ विमानों पर बैठे हुए वैकुण्ठवासियों में महान् हाहाकार मच गया ॥ ३४ ॥ इस समय दिति के गर्भ में स्थित जो कश्यपजी का उग्र तेज है, उसमें भगवान् के उन पार्षदप्रवरों ने ही प्रवेश किया है ॥ ३५ ॥ उन दोनों असुरों के तेज से ही तुम सबका तेज फीका पड़ गया है । इस समय भगवान् ऐसा ही करना चाहते हैं ॥ ३६ ॥ जो आदिपुरूष संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कारण हैं, जिनकी योगमाया को बड़े-बड़े योगिजन भी बड़ी कठिनता से पार कर पाते हैं वे सत्त्वादि तीनों गुण नियन्ता श्रीहरि ही हमारा कल्याण करेंगे । अब इस विषय में हमारे विशेष विचार करने से क्या लाभ हो सकता है ॥ ३५ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे षोडशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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