February 1, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय १८ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय अठारहवाँ अध्याय हिरण्याक्ष के साथ वराहभगवान् का युद्ध श्रीमैत्रेजी ने कहा — तात ! वरुणजी की यह बात सुनकर वह मदोन्मत्त दैत्य बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने उनके इस कथन पर कि ‘तू उनके हाथ से मारा जायगा’ कुछ भी ध्यान नहीं दिया और चट नारदजी से श्रीहरि का पता लगाकर रसातल में पहुँच गया ॥ १ ॥ वहाँ उसने विश्वविजयी वहाह भगवान् की अपनी दाढ़ों की नोकपर पृथ्वी को ऊपर की ओर ले जाते हुए देखा । वे अपने लाल-लाल चमकीले नेत्रों से उसके तेज को हरे लेते थे । उन्हें देखकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, “अरे ! यह जंगली पशु यहाँ जल में कहाँ से आया’ ॥ २ ॥ फिर वराहजी से कहा, ‘अरे नासमझ ! इधर आ, इस पृथ्वी को छोड़ दे, इसे विश्वविधाता ब्रह्माजी ने हम रसातलवासियों के हवाले कर दिया है । वे सूकररूपधारी सुराधम ! मेरे देखते-देखते तू इसे लेकर कुशलपूर्वक नहीं जा सकता ॥ ३ ॥ तू माया से लुक-छिपकर ही दैत्यों को जीत लेता और मार डालता है । क्या इससे हमारे शत्रुओं ने हमारा नाश कराने के लिये तुझे पाला है ? मूढ़ ! तेरा बल तो योगमाया ही है; और कोई पुरुषार्थ तुझमें थोड़े ही है । आज तुझे समाप्तकर मैं अपने बन्धुओं का शोक दूर करूंगा ॥ ४ ॥ जब मेरे हाथ से छूटी हुई गदा प्रहार से सिर फट जाने के कारण तू मर जायगा, तब तेरी आराधना करनेवाले जो देवता और ऋषि हैं, वे सब भी जड़ कटे हुए वृक्षों की भाँति स्वयं ही नष्ट हो जायेंगे ॥ ५ ॥ हिरण्याक्ष भगवान् को दुर्वचन-बाणों से छेदे जा रहा था; परन्तु उन्होंने दाँत की नोक पर स्थित पृथ्वी को भयभीत देखकर वह चोट सह ली तथा जल से उसी प्रकार बाहर निकल आये, जैसे ग्राह की चोट खाकर हथिनीसहित गजराज ॥ ६ ॥ जब उसकी चुनौती का कोई उत्तर न देकर वे जल से बाहर आने लगे, तब ग्राह जैसे गज का पीछा करता है, उसी प्रकार पीले केश और तीखी दाढ़ीवाले उस दैत्य ने उनका पीछा किया तथा वज्र के समान कड़ककर वह कहने लगा, ‘तुझे भागने में लज्जा नहीं आती ? सच है, असत् पुरुषों के लिये कौन-सा काम न करने योग्य है ?’ ॥ ७ ॥ भगवान् ने पृथ्वी को ले जाकर जल के ऊपर व्यवहारयोग्य स्थान में स्थित कर दिया और उसमें अपनी आधारशक्ति का सञ्चार किया । उस समय हिरण्याक्ष के सामने ही ब्रह्माजी ने उनकी स्तुति की और देवताओं ने फूल बरसाये ॥ ८ ॥ तब श्रीहरि ने बड़ी भारी गदा लिये अपने पीछे आ रहे हिरण्याक्ष से, जो सोने के आभूषण और अद्भुत कवच धारण किये था तथा अपने कटुवाक्यों से उन्हें निरन्तर मर्माहत कर रहा था, अत्यन्त क्रोधपूर्वक हँसते हुए कहा ॥ ९ ॥ श्रीभगवान् ने कहा — अरे ! सचमुच ही हम जंगली जीव हैं, जो तुझ जैसे ग्राम-सिंहों (कुत्तों) को ढूँढ़ते फिरते हैं । दुष्ट ! वीर पुरुष तुझ-जैसे मृत्यु-पाश में बँधे हुए अभागे जीवों की आत्मश्लाघा पर ध्यान नहीं देते ॥ १० ॥ हाँ, हम रसातलवासियों की धरोहर चुराकर और लज्जा छोड़कर तेरी गदा के भय से यहाँ भाग आये हैं । हममें ऐसी सामर्थ्य ही कहाँ कि तेरे-जैसे अद्वितीय वीर के सामने युद्ध में ठहर सकें । फिर भी हम जैसे-तैसे तेरे सामने खड़े हैं; तुझ-जैसे बलवानों से वैर वाँधकर हम जा भी कहाँ सकते हैं ? ॥ ११ ॥ तू पैदल वीरों का सरदार है, इसलिये अब निःशङ्क होकर-उधेड़-बुन छोड़कर हमारा अनिष्ट करने का प्रयत्न कर और हमें मारकर अपने भाई -बन्धुओं के आँसू पोंछ । अब इसमें देर न कर । जो अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता, वह असभ्य है — भले आदमियों में बैठनेलायक नहीं हैं ॥ १२ ॥ मैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! जब भगवान् ने रोष से उस दैत्य का इस प्रकार खुब उपहास और तिरस्कार किया, तब वह पकड़कर खेलाये जाते हुए सर्प के समान क्रोध से तिलमिला उठा ॥ १३ ॥ वह खीझकर लंबी-लंबी साँसें लेने लगा, उसकी इन्द्रियाँ क्रोध से क्षुब्ध हो उठीं और उस दुष्ट दैत्य ने बड़े वेग से लपककर भगवान् पर गदा का प्रहार किया ॥ १४ ॥ किन्तु भगवान् ने अपनी छाती पर चलायी हुयी शत्रु की गदा के प्रहार को कुछ टेढ़े होकर बचा लिया–ठीक वैसे ही जैसे योगसिद्ध पुरुष मृत्यु के आक्रमण से अपने को बचा लेता है ॥ १५ ॥ फिर जब वह क्रोध से होठ चबाता अपनी गदा लेकर बार-बार घुमाने लगा, तब श्रीहरि कुपित होकर बड़े वेग से उसकी और झपटे ॥ १६ ॥ सौम्यस्वभाव विदुरजी ! तब प्रभु ने शत्रु की दायीं भौंह पर गदा की चोट की, किन्तु गदायुद्ध में कुशल हिरण्याक्ष ने उसे बीच में ही अपनी गदा पर ले लिया ॥ १७ ॥ इस प्रकार श्रीहरि और हिरण्याक्ष एक दूसरे को जीतने की इच्छा से अत्यन्त क्रुद्ध होकर आपस में अपनी भारी गदाऑ से प्रहार करने लगे ॥ १८ ॥ इस समय उन दोनों में ही जीतने की होड़ लग गयी, दोनों के ही अंग गदाओं की चोटों से घायल हो गये थे, अपने अङ्गों के घावों से बहने वाले रुधिर की गन्ध से दोनों का ही क्रोध बढ़ रहा था और वे दोनों ही तरह-तरह के पैंतरे बदल रहे थे । इस प्रकार गौ के लिये आपस में लड़नेवाले दो साँड़ों के समान उन दोनों में एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से बड़ा भयङ्कर युद्ध हुआ ॥ १९ ॥ विदुरजी ! जब इस प्रकार हिरण्याक्ष और माया से वराहरूप धारण करनेवाले भगवान् यज्ञमूर्ति पृथ्वी के लिये द्वेष बाँधकर युद्ध करने लगे, तब उसे देखने के लिये वहाँ ऋषियों के सहित ब्रह्माजी आये ॥ २० ॥ वे हजारों ऋषियों से घिरे हुए थे । जब उन्होंने देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है, उसमें भय का नाम भी नहीं है, वह मुकाबला करने में भी समर्थ है और उसके पराक्रम को चूर्ण करना बड़ा कठिन काम हैं, तब वे भगवान् आदिसूकररूप नारायण से इस प्रकार कहने लगे ॥ २१ ॥ श्रीब्रह्माजी ने कहा — देव ! मुझसे वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है । इस समय यह आपके चरणों की शरण में रहनेवाले देवताओं, ब्राह्मणों, गौओं तथा अन्य निरपराध जीवों को बहुत ही हानि पहुँचानेवाला, दुःखदायी और भयप्रद हो रहा है । इसकी जोड़ का और कोई योद्धा नहीं है, इसलिये यह महाकण्टक अपना मुकाबला करनेवाले वीर की खोज में समस्त लोकों में घूम रहा है ॥ २२-२३ ॥ यह दुष्ट बड़ा ही मायावी, घमण्डी और निङ्कश है । बच्चा जिस प्रकार क्रुद्ध हुए साँप से खेलता है, वैसे ही आप इससे खिलवाड़ न करें ॥ २४ ॥ देव ! अच्युत ! जबतक यह दारुण दैत्य अपनी बलवृद्धि की वेला को पाकर प्रबल हो, उससे पहले-पहले ही आप अपनी योगमाया को स्वीकार करके इस पापी को मार डालिये ॥ २५ ॥ प्रभो ! देखिये, लोकों का संहार करनेवाली सन्ध्या की भयङ्कर वेला आना ही चाहती है । सर्वात्मन् ! आप उससे पहले ही इस असुर को मारकर देवताओं को विजय प्रदान कीजिये ॥ २६ ॥ इस समय अभिजित् नामक मङ्गलमय मुहूर्त का भी योग आ गया है । अतः अपने सुहद् हमलोगों के कल्याण के लिये शीघ्र ही इस दुर्जय दैत्य से निपट लीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो ! इसकी मृत्यु आपके ही हाथ बदी है । हम लोगों के बड़े भाग्य है कि यह स्वयं ही अपने कालरूप आपके पास आ पहुँचा है । अब आप युद्ध में बलपूर्वक इसे मारकर लोकों को शान्ति प्रदान कीजिये ॥ २८ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे हिरण्याक्षवधेऽष्टादशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related