February 4, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय २७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सत्ताईसवाँ अध्याय प्रकृति-पुरुष के विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन श्रीभगवान् कहते हैं — माताजी ! जिस तरह जल में प्रतिबिम्बित सूर्य के साथ जल की शीतलता, चञ्चलता आदि गुण का सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृति के कार्य शरीर में स्थित रहने पर भी आत्मा वास्तव में उसके सुख-दुःखादि धर्मों से लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह स्वभाव से निर्विकार, अकर्ता और निर्गुण है ॥ १ ॥ किन्तु जब वहीं प्राकृत गुणों से अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, तब अहङ्कार से मोहित होकर ‘मैं कर्ता हूँ’ — ऐसा मानने लगता है ॥ २ ॥ उस अभिमान के कारण वह देह के संसर्ग से किये हुए पुण्य-पापरूप कर्मों के दोष से अपनी स्वाधीनता और शान्ति खो बैठता है तथा उत्तम, मध्यम और नीच योनियों में उत्पन्न होकर संसारचक्र में घूमता रहता है ॥ ३ ॥ जिस प्रकार स्वप्न में भय-शोकादि का कोई कारण न होने पर भी स्वप्न के पदार्थों में आस्था हो जाने के कारण दुःख उठाना पड़ता है, उसी प्रकार भय-शोक, अहं मम एवं जन्म-मरणादिरूप संसार की कोई सत्ता न होने पर भी अविद्यावश विषयों का चिन्तन करते रहने से जीव संसार-चक्र से कभी निवृत्त नहीं होता ॥ ४ ॥ इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य को उचित हैं कि अस्सन्मार्ग (विषय-चिन्तन) में फंसे हुए चित्त को तीव्र भक्तियोग और वैराग्य के द्वारा धीरे-धीरे अपने वश में लावे ॥ ५ ॥ यमादि योगसाधनों के द्वारा श्रद्धापूर्वक अभ्यास — चित्त को बारम्बार काम करते हुए मुझमें सच्चा भाव रखने, मेरी कथा श्रवण करने, समस्त प्राणियों में समभाव रखने, किसी से वैर न करने, आसक्ति के त्याग, ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत और बलिष्ठ (अर्थात् भगवान् को समर्पित किये हुए) स्वधर्म से जिसे ऐसी स्थिति प्राप्त हो गवी है कि प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाता है । उसमें सन्तुष्ट रहता है, परिमित भोजन करता है, सदा एकान्त में रहता है, शान्तस्वभाव है, सबका मित्र है, दयालु और धैर्यवान् है, प्रकृति और पुरुष के वास्तविक स्वरूप के अनुभव से प्राप्त हुए तत्त्वज्ञान के कारण स्त्री-पुत्रादि सम्बन्धियों के सहित इस देह में मैं-मेरेपन का मिथ्या अभिनिवेश नहीं करता, बुद्धि को जाग्रदादि अवस्थाओं से भी अलग हो गया है तथा परमात्मा के सिवा और कोई वस्तु नहीं देखता — वह आत्मदर्शी मुनि नेत्रों से सूर्य को देखने की भाँति अपने शुद्ध अन्तःकरण द्वारा परमात्मा का साक्षाकार कर उसे अद्वितीय ब्रह्मपद को प्राप्त हो जाता है, जो देहादि सम्पूर्ण उपाधियों से पृथक्, अहङ्कारादि मिथ्या वस्तुओं में सत्यरूप से भासनेवाला, जगत्कारणभूता प्रकृति का अधिष्ठान, महदादि कार्यवर्ग का प्रकाशक और कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण पदार्थों में व्याप्त है ॥ ६-११ ॥ जिस प्रकार जल में पड़ा हुआ सूर्य का प्रतिबिम्ब दीवाल पर पड़े हुए अपने आभास के सम्बन्ध से देखा जाता है और जल में दीखनेवाले प्रतिबिम्ब से आकाश स्थित सूर्य का ज्ञान होता है, उसी प्रकार वैकारिक आदि भेद से तीन प्रकार का अहङ्कार देह, इन्द्रिय और मन में स्थित अपने प्रतिबिम्बों से लक्षित होता है और फिर सत् परमात्मा के प्रतिबिम्बयुक्त उस अहङ्कार के द्वारा सत्य-ज्ञानस्वरूप परमात्मा का दर्शन होता है — जो सुषुप्ति समय निद्रा से शब्दादि भूतसूक्ष्म, इन्द्रिय और मन-बुद्धि आदि के अव्याकृत में लीन हो जाने पर स्वयं जागता रहता है और सर्वथा अहङ्कारशून्य है ॥ १२-१४ ॥ (जाग्रत्-अवस्था में यह आत्मा भूतसूक्ष्मादि दृश्यवर्ग के द्रष्ट रूप में स्पष्टतया अनुभव में आता है, किन्तु) सुषुप्ति के समय अपने उपाधिभूत अहङ्कार का नाश होने से वह भ्रमवश अपने को ही नष्ट हुआ मान लेता है और जिस प्रकार धन का नाश हो जाने पर मनुष्य अपने को भी नष्ट हुआ मानकर अत्यन्त व्याकुल हो जाता है, उसी प्रकार वह भी अत्यन्न विवश होकर नष्टवत् हो जाता है ॥ १५ ॥ माताजी ! इन सब बातों का मनन करके विवेकी पुरुष अपने आत्मा का अनुभव कर लेता हैं, जो अहङ्कार के सहित सम्पूर्ण तत्त्वों का अधिष्ठान और प्रकाशक है ॥ १६ ॥ देवहूति ने पूछा — प्रभो ! पुरुष और प्रकृति दोनों ही नित्य और एक-दुसरे के आश्रय से रहनेवाले हैं, इसलिये प्रकृति तो पुरुष को कभी छोड़ ही नहीं सकती ॥ १७ ॥ ब्रह्मन् ! जिस प्रकार गन्ध और पृथ्वी तथा रस और जल की पृथक्-पृथक् स्थिति नहीं हो सकती, उसी प्रकार पुरुष और प्रकृति भी एक-दूसरे को छोड़कर नहीं रह सकते ॥ १८ ॥ अतः जिनके आश्रय से अकर्ता पुरुष को यह कर्मबन्धन प्राप्त हुआ है, उन प्रकृति के गुणों के रहते हुए उसे कैवल्यपद कैसे प्राप्त होगा ? ॥ १९ ॥ यदि तत्त्वों का विचार करने से कभी यह संसारबन्धन का तीव्र भय निवृत्त हो भी जाय, तो भी उसके निमित्तभूत प्राकृत गुणों का अभाव न होने से वह भय फिर उपस्थित हो सकता है ॥ २० ॥ श्रीभगवान् ने कहा — माताजी ! जिस प्रकार अग्नि का उत्पत्तिस्थान अरणि अपने से ही उत्पन्न अग्नि से जलकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार निष्कामभाव से किये हुए स्वधर्मपालन द्वारा अन्तःकरण शुद्ध होने से बहुत समय तक भगवत्कथा-श्रवण द्वारा पुष्ट हुई मेरी तीव्र भक्ति से, तत्त्वसाक्षात्कार करानेवाले ज्ञान से, प्रबल वैराग्य से, व्रतनियमादि के सहित किये हुए ध्यानाभ्यास से और चित्त की प्रगाढ़ एकाग्रता से पुरुष की प्रकृति (अविद्या) दिन-रात क्षीण होती हुई धीरे-धीरे लीन हो जाती हैं ॥ २१-२३ ॥ फिर नित्यप्रति दोष दीखने से भोगकर त्यागी हुई वह प्रकृति अपने स्वरूप में स्थित और स्वतन्त्र (बन्धनमुक्त) हुए उस पुरुष का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ॥ २४ ॥ जैसे सोये हुए पुरुष को स्वप्न में कितने ही अनर्थों का अनुभव करना पड़ता है, किन्तु जग पड़नेपर उसे उन स्वप्न के अनुभव से किसी प्रकार का मोह नहीं होता ॥ २५ ॥ उसी प्रकार जिसे तत्त्वज्ञान हो गया है और जो निरन्तर मुझमें ही मन लगाये रहता है, उस आत्माराम मुनि का प्रकृति कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ॥ २६ ॥ जब मनुष्य अनेकों जन्मों में बहुत समय तक इस प्रकार आत्मचिन्तन में ही निमग्न रहता है, तब उसे ब्रह्मलोक-पर्यन्त सभी प्रकार के भोगों से वैराग्य हो जाता है ॥ २७ ॥ मेरा वह धैर्यवान् भक्त मेरी ही महती कृपा से तत्त्वज्ञान प्राप्त करके आत्मानुभव के द्वारा सारे संशयों से मुक्त हो जाता है और फिर लिङ्गदेह का नाश होने पर एकमात्र मेरे ही आश्रित अपने स्वरूपभूत कैवल्यसंज्ञक मङ्गलमय पद को सहज में ही प्राप्त कर लेता हैं, जहाँ पहुँचने पर योगी फिर लौटकर नहीं आता ॥ २८-२९ ॥ माताजी ! यदि योगी का चित्त योगसाधना से बढ़ी हुई मायामयी अणिमादि सिद्धियों में, जिनकी प्राप्ति का योग के सिवा दूसरा कोई साधन नहीं है, नहीं फँसता, तो उसे मेरा यह अविनाशी परमपद प्राप्त होता है – जहाँ मृत्यु की कुछ भी दाल नहीं गलती ॥ ३० ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने सप्तविंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe