श्रीमद्भागवतमहापुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय २८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
अट्ठाईसवाँ अध्याय
अष्टाङ्गयोग की विधि

कपिल भगवान् कहते हैं— माताजी ! अब मैं तुम्हें सबीज (ध्येयस्वरूप के आलम्बन से युक्त) योग का लक्षण बताता हूँ, जिसके द्वारा चित्त शुद्ध एवं प्रसन्न होकर परमात्मा के मार्ग में प्रवृत्त हो जाता है ॥ १ ॥ यथाशक्ति शास्त्रविहित स्वधर्म का पालन करना तथा शास्त्रविरुद्ध आचरण का परित्याग करना, प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाय उसमें सन्तुष्ट रहना, आत्मज्ञानियों के चरणों की पूजा करना, ॥ २ ॥ विषयवासनाओं को बढ़ानेवाले कर्मों से दूर रहना, संसारबन्धन से छुड़ानेवाले धर्मों में प्रेम करना, पवित्र और परिमित भोजन करना, निरन्तर एकान्त और निर्भय स्थान में रहना, ॥ ३॥ मन, वाणी और शरीर से किसी जीव को न सताना, सत्य बोलना, चोरी न करना, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, तपस्या करना (धर्मपालन के लिये कष्ट सहना), बाहर-भीतर से पवित्र रहना, शास्त्र का अध्ययन करना, भगवान् की पूजा करना, ॥ ४ ॥ वाणी का संयम करना, उत्तम आसनों का अभ्यास करके स्थिरतापूर्वक बैठना, धीर-धीरे प्राणायाम के द्वारा श्वास को जीतना, इन्द्रियों को मन के द्वारा विषयों से हटाकर अपने हृदय में ले जाना ॥ ५ ॥ मूलाधार आदि किसी एक केन्द्र में मन के सहित प्राणों को स्थिर करना, निरन्तर भगवान् की लीलाओं का चिन्तन और चित्त को समाहित करना, ॥ ६ ॥ इनसे तथा व्रत-दानादि दूसरे साधनों से भी सावधानी के साथ प्राणों को जीतकर बुद्धि के द्वारा अपने कुमार्गगामी दुष्ट चित्त को धीरे-धीरे एकाग्र करे, परमात्मा के ध्यान में लगावे ॥ ७ ॥

पहले आसन को जीते, फिर प्राणायाम के अभ्यास के लिये पवित्र देश में कुश-मृगचर्मादि से युक्त आसन बिछावे । उसपर शरीर को सीधा और स्थिर रखते हुए सुखपूर्वक बैठकर अभ्यास करे ॥ ८ ॥ आरम्भ में पूरक, कुम्भक और रेचक क्रम से अथवा इसके विपरीत रेचक, कुम्भक और पूरक करके प्राण के मार्ग का शोधन करे जिससे चित्त स्थिर और निश्चल हो जाय ॥ ९ ॥

जिस प्रकार वायु और अग्नि से तपाया हुआ सोना अपने मल को त्याग देता है, उसी प्रकार जो योगी प्राणवायु को जीत लेता है, उसका मन बहुत शीघ्र शुद्ध हो जाता है ॥ १० ॥ अतः योगी को उचित है कि प्राणायाम से वात-पित्तादि जनित दोषों को, धारणा से पापों को, प्रत्याहार से विषयों के सम्बन्ध को और ध्यान से भगवद्विमुख करनेवाले राग-द्वेषादि दुर्गुणों को दूर करे ॥ ११ ॥ जव योग का अभ्यास करते-करते चित्त निर्मल और एकाग्र हो जाय, तब नासिका के अनुभाग में दृष्टि जमाकर इस प्रकार भगवान् मूर्ति का ध्यान करे ॥ १२ ॥

भगवान् का मुखकमल आनन्द से प्रफुल्ल है, नेत्र कमलकोश समान रतनारे हैं, शरीर नीलकमलदल के समान श्याम है; हाथों में शङ्ख, चक्र और गदा धारण किये हैं ॥ १३ ॥ कमल की केसर के समान पीला रेशमी वस्त्र लहरा रहा है, वक्षःस्थल में श्रीवत्सचिह्न हैं और गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही हैं ॥ १४ ॥ वनमाला चरणों तक लटकी हुई है, जिसके चारों ओर भौंरे सुगन्ध से मतवाले होकर मधुर गुंजार कर रहे हैं, अङ्ग-प्रत्यङ्ग में महामूल्य हार, कंकण, किरीट, भुजबन्ध और नूपुर आदि आभूषण विराजमान हैं ॥ १५ ॥ कमर में करधनी की लड़ियाँ उसको शोभा बढ़ा रही हैं, भक्तों के हृदयकमल ही उनके आसन हैं, उनका दर्शनीय श्यामसुन्दर स्वरूप अत्यन्त शान्त एवं मन और नयन को आनन्दित करनेवाला है ॥ १६ ॥ उनकी अति सुन्दर किशोर अवस्था है, वे भक्तों पर कृपा करने के लिये आतुर हो रहे हैं । बड़ी मनोहर झाँकी है । भगवान् सदा सम्पूर्ण लोकों से वन्दित हैं ॥ १७ ॥ उनका पवित्र यश परम कीर्तनीय है और वे राजा बलि आदि परम यशस्वियों के भी यश को बढ़ानेवाले हैं । इस प्रकार श्रीनारायणदेव का सम्पूर्ण अङ्गों के सहित तबतक ध्यान करे, जबतक चित्त वहाँ से हटे नहीं ॥ १८ ॥

भगवान् की लीलाएँ बड़ी दर्शनीय हैं; अतः अपनी रुचि के अनुसार खड़े हुए, चलते हुए, बैठे हुए, पौढ़े हुए अथवा अन्तर्यामीरूप में स्थित हुए उनके स्वरूप का विशुद्ध भावयुक्त चित से चिन्तन करे ॥ १९ ॥ इस प्रकार योगी अब यह अच्छी तरह देख ले कि भगवद्विग्रह में चित्त की स्थिति हो गयी, तब वह उनके समस्त अङ्ग में लगे हुए चित्त को विशेष रूप से एक-एक अङ्ग में लगावे ॥ २० ॥

भगवान् के चरणकमलों का ध्यान करना चाहिये । वे वज्र, अङ्कुश, ध्वजा और कमल के मङ्गलमय चिह्नों से युक्त हैं तथा अपने उभरे हुए लाल-लाल शोभामय नखचन्द्रमण्डल की चन्द्रिका से ध्यान करनेवालों के हृदय के अज्ञानरूप घोर अन्धकार को दूर कर देते हैं ॥ २१ ॥ इन्हीं की धोवन से नदियों में श्रेष्ठ श्रीगङ्गाजी प्रकट हुई थी, जिनके पवित्र जल को मस्तक पर धारण करने के कारण स्वयं मङ्गलरूप श्रीमहादेवजी और भी अधिक मङ्गलमय हो गये । ये अपना ध्यान करनेवालों के पापरूप पर्वतों पर छोड़े हुए इन्द्र वज्र के समान हैं । भगवान् के इन चरणकमलों का चिरकाल तक चिन्तन करे ॥ २२ ॥

भवभयहारी अजन्मा श्रीहरि की दोनों पिंडलियों एवं घुटनों का ध्यान करे, जिनको विश्वविधाता ब्रह्माजी की माता सुरवन्दिता कमललोचना लक्ष्मीजी अपनी जाँघों पर रखकर अपने कान्तिमान् करकिसलयों की कान्त्ति से लाड़ लड़ाती रहती हैं ॥ २३ ॥ भगवान् की जाँघों का ध्यान करे, जो अलसी के फूल के समान नीलवर्ण और बल की निधि हैं तथा गरुडजी की पीठ पर शोभायमान हैं । भगवान् के नितम्ब-बिम्ब का ध्यान करे, जो एड़ी तक लटके हुए पीताम्बर से ढका हुआ है और उस पीताम्बर के ऊपर पहनी हुई सुर्वणमयी करधनी की लड़ियो को आलिङ्गन कर रहा है ॥ २४ ॥

सम्पूर्ण लोकों के आश्रयस्थान भगवान् के उदरदेश में स्थित नाभिसरोवर का ध्यान करे: इसी में से ब्रह्माजी का आधारभूत सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ है । फिर प्रभु के श्रेष्ठ मरकतमणि सदृश दोनों स्तनों का चिन्तन करे, जो वक्षःस्थल पर पड़े हुए शुभ्र हारों की किरणों से गौरवर्ण जान पड़ते हैं ॥ २५ ॥ इसके पश्चात् पुरुषोत्तम भगवान् के वक्षःस्थल का ध्यान करे, जो महालक्ष्मी का निवासस्थान और लोगों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देनेवाला है । फिर सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय भगवान् के गले का चिन्तन करे, जो मानो कौस्तुभमणि को भी सुशोभित करने के लिये ही उसे धारण करता है ॥ २६ ॥

समस्त लोकपालों की आश्रयभूता भगवान् की चारों भुजाओं का ध्यान करे, जिनमें धारण किये हुए कङ्कणादि आभूषण समुद्रमन्थन के समय मन्दराचल की रगड़ से और भी उजले हो गये हैं । इसी प्रकार जिसके तेज को सहन नहीं किया जा सकता, उस सहस्र धारोंवाले सुदर्शनचक्र का तथा उनके कर-कमल में राजहंस के समान विराजमान शङ्ख का चिन्तन करे ॥ २७ ॥ फिर विपक्षी वीरों के रुधिर से सनी हुई प्रभु कोी प्यारी कौमोदकी गदा का, भौंरों के शब्द से गुञ्जायमान वनमाला का और उनके कण्ठ में सुशोभित सम्पूर्ण जीवों के निर्मलतत्त्वरूप कौस्तुभमणि का ध्यान करे ॥ २८ ॥

भक्तों पर कृपा करने के लिये ही यहाँ साकाररूप धारण करनेवाले श्रीहरि के मुखकमल का ध्यान करे, जो सुघड़ नासिका से सुशोभित हैं और झिलमिलाते हुए मकराकृत कुण्डलों के हिलने से अतिशय प्रकाशमान स्वच्छ कपोलों के कारण बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है ॥ २९ ॥ काली-काली घुँघराली अलकावली से मण्डित भगवान् का मुखमण्डल अपनी छवि के द्वारा भ्रमरों से सेवित कमलकोश का भी तिरस्कार कर रहा है और उसके कमलसदृश विशाल एवं चञ्चल नेत्र उस कमलकोश पर उछलते हुए मछलियों के जोड़े की शोभा को मात कर रहे हैं । उन्नत भ्रूलताओं से सुशोभित भगवान् के ऐसे मनोहर मुखारविन्द की मन में धारणा करके आलस्यरहित हो उसीका ध्यान करे ॥ ३० ॥

हृदयगुहा में चिरकालतक भक्तिभाव से भगवान् के नेत्रों की चितवन का ध्यान करना चाहिये, जो कृपा से और प्रेमभरी मुसकान से क्षण-क्षण अधिकाधिक बढ़ती रहती है, विपुल प्रसाद की वर्षा करती रहती है और भक्तजन के अत्यन्त घोर तीनों तापों को शान्त करने के लिये ही प्रकट हुई है ॥ ३१ ॥ श्रीहरि का हास्य प्रणतजन के तीव्र-से-तीव्र शोक के अश्रुसागर को सुखा देता है और अत्यन्त उदार है । मुनियों के हित के लिये कामदेव को मोहित करने के लिये ही अपनी माया से श्रीहरि ने अपने भ्रूमण्डल को बनाया है — उनका ध्यान करना चाहिये ॥ ३२ ॥ अत्यन्त प्रेमाईभाव से अपने में हृदय विराजमान श्रीहरि के खिलखिलाकर हँसने का ध्यान करे, जो वस्तुतः ध्यान के ही योग्य है तथा जिसमें ऊपर और नीचे के दोनों होठों को अत्यधिक अरुण कान्ति के कारण उनके कुन्दकली के समान शुभ्र छोटे-छोटे दाँतों पर लालिमा-सी प्रतीत होने लगी है — इस प्रकार ध्यान में तन्मय होकर उनके सिवा किसी अन्य पदार्थों को देखने की इच्छा न करे ॥ ३३ ॥

इस प्रकार के ध्यान के अभ्यास से साधक का श्रीहरि में प्रेम हो जाता है, उसका हृदय भक्ति से द्रवित हो जाता है, शरीर में आनन्दातिरेक के कारण रोमांच होने लगता है, उत्कण्टाजनित प्रेमाश्रुओं की धारा में वह बारंबार अपने शरीर को नहलाता है और फिर मछली पकड़ने के काँटे के समान श्रीहरि को अपनी ओर आकर्षित करने के साधनरूप अपने चित्त को भी धीरे-धीरे ध्येय वस्तु से हटा लेता है ॥ ३४ ॥ जैसे तेल आदि के चुक जाने पर दीपशिखा अपने कारणरूप तेजस्-तत्त्व में लीन हो जाती है, वैसे ही आश्रय, विषय और राग से रहित होकर मन शान्त—ब्रह्माकार हो जाता है । इस अवस्था के प्राप्त होने पर जीव गुणप्रवाहरूप देहादि उपाधि के निवृत्त हो जाने के कारण ध्याता, ध्येय आदि विभाग से रहित एक अखण्ड परमात्मा को ही सर्वत्र अनुगत देखता है ॥ ३५ ॥ योगाभ्यास से प्राप्त हुई चित की इस अविद्यारहित लयरूप निवृत्ति से अपनी सुख-दुःख-रहित ब्रह्मरूप महिमा में स्थित होकर परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार कर लेने पर वह योगी जिस सुख-दुःख के भोक्तृत्व को पहले अज्ञानवश अपने स्वरूप में देखता था, उसे अब अविद्याकृत अहङ्कार में ही देखता है ॥ ३६ ॥ जिस प्रकार मदिरा के मद से मतवाले पुरुष को अपनी कमर पर लपेटे हुए वस्त्र के रहने या गिरने की कुछ भी सुधि नहीं रहती, उसी प्रकार चरमावस्था को प्राप्त हुए सिद्ध पुरुष को भी अपनी देह के बैठने-उठने अथवा दैववश कहीं जाने या लौट आने के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं रहता; क्योंकि वह अपने परमानन्दमय स्वरूप में स्थित है ॥ ३७ ॥

उसका शरीर तो पूर्वजन्म के संस्कारों के अधीन है; अतः जबतक उसका आरम्भक प्रारब्ध शेष है तबतक वह इन्द्रियों के सहित जीवित रहता है; किन्तु जिसे समाधि पर्यन्त योग की स्थिति प्राप्त हो गयी है और जिसने परमात्मतत्त्व को भी भलीभाँति जान लिया है, वह सिद्धपुरुष पुत्र-कलत्रादि के सहित इस शरीर को स्वप्न में प्रतीत होनेवाले शरीरों के समान फिर स्वीकार नहीं करता— फिर उसमें अहंता-ममता नहीं करता ॥ ३८ ॥

जिस प्रकार अत्यन्त स्नेह के कारण पुत्र और धनादि में भी साधारण जीवों की आत्मबुद्धि रहती है, किन्तु थोड़ा-सा विचार करने से ही वे उनसे स्पष्टतया अलग दिखायी देते हैं, उसी प्रकार जिन्हें यह अपना आत्मा मान बैठा है, उन देहादि से भी उनका साक्षी पुरुष पृथक ही है ॥ ३९ ॥ जिस प्रकार जलती हुई लकड़ी से, चिनगारी से, स्वयं अग्नि से ही प्रकट हुए धूएँ से तथा अग्निरूप मानी जानेवाली उस जलती हुई लकड़ी से भी अग्नि वास्तव में पृथक् ही है — उसी प्रकार भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण से उनका साक्षी आत्मा अलग है, तथा जीव कहलानेवाले उस आत्मा से भी ब्रह्म भिन्न हैं और प्रकृति से उसके सञ्चालक पुरुषोत्तम भिन्न है ॥ ४०-४१ ॥ जिस प्रकार देहदृष्टि से जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज — चारों प्रकार के प्राणी पञ्चभूतमात्र हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जीवों में आत्मा को और आत्मा में सम्पूर्ण जीवों को अनन्यभाव से अनुगत देखे ॥ ४२ ॥ जिस प्रकार एक ही अग्नि अपने पृथक्-पृथक् आश्रयों में उनकी विभिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न आकार का दिखायी देता है, उसी प्रकार देव-मनुष्यादि शरीरों में रहनेवाला एक ही आत्मा अपने आश्रयों के गुण-भेद के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार का भासता है ॥ ४३ ॥ अतः भगवान् का भक्त जीव के स्वरूप को छिपा देनेवाली कार्यकारणरूप से परिणाम को प्राप्त हुई भगवान् की इस अचिन्त्य शक्तिमयी माया को भगवान् की कृपा से ही जीतकर अपने वास्तविक स्वरूप ब्रह्मरूप में स्थित होता है ॥ ४४ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कापिलेये साधनानुष्ठानं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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