श्रीमद्भागवतमहापुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय ३१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इकतीसवाँ अध्याय
मनुष्य-योनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

श्रीभगवान् कहते हैं — माताजी ! जब जीव को मनुष्यशरीर में जन्म लेना होता है, तो वह भगवान् की प्रेरणा से अपने पूर्वकर्मानुसार देहप्राप्ति के लिये पुरुष के वीर्यकण के द्वारा स्त्री के उदर में प्रवेश करता है ॥ १ ॥ वहाँ वह एक रात्रि में स्त्री के रज में मिलकर एकरूप कलल बन जाता है, पाँच रात्रि में बुद्बुदरूप हो जाता है, दस दिन में बेर के समान कुछ कठिन हो जाता है और उसके बाद मांसपेशी अथवा अण्डज प्राणियों में अण्डे के रूप में परिणत हो जाता है ॥ २ ॥ एक महीने में उसके सिर निकल आता है, दो मास में हाथ-पाँव आदि अङ्ग का विभाग हो जाता है और तीन मास में नख, रोम, अस्थि, चर्म, स्त्री-पुरुष के चिह्न तथा अन्य छिद्र उत्पन्न हो जाते हैं ॥ ३ ॥ चार मास में उसमें मांसादि सातों धातुएँ पैदा हो जाती है, पाँचवें महीने में भूख-प्यास लगने लगती है और छठे मास में झिल्ली से लिपटकर वह दाहिनी कोख में घूमने लगता है ॥ ४ ॥ उस समय माता के खाये हुए अन्न-जल आदि से उसकी सब धातुएँ पुष्ट होने लगती है और वह कृमि आदि जन्तुओं के उत्पत्तिस्थान उस जघन्य मल-मूत्र के गढ़े में पड़ा रहता है ॥ ५ ॥

वह सुकुमार तो होता ही है; इसलिये जब वहाँ के भूखे कीड़े उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग नोचते हैं, तब अत्यन्त क्लेश के कारण वह क्षण-क्षण में अचेत हो जाता है ॥ ६ ॥ माता के खाये हुए कड़वे, तीखे, गरम, नमकीन, रूखे और खट्टे आदि उग्र पदार्थों का स्पर्श होने से उसके सारे शरीर में पीड़ा होने लगती है ॥ ७ ॥ वह जीव माता के गर्भाशय में झिल्ली से लिपटा और आँतों से घिरा रहता है । उसका सिर पेट की ओर तथा पीठ और गर्दन कुण्डलाकार मुड़े रहते हैं ॥ ८ ॥

वह पिंजड़े में बंद पक्षी के समान पराधीन एवं अङ्ग को हिलाने-डुलाने में भी असमर्थ रहता है । इसी समय अदृष्ट की प्रेरणा से उसे स्मरणशक्ति प्राप्त होती है । तब अपने सैकड़ों जन्मों के कर्म याद आ जाते हैं और वह बेचैन हो जाता है तथा उसका दम घुटने लगता है । ऐसी अवस्था में उसे क्या शान्ति मिल सकती है ? ॥ ९ ॥ सातवाँ महीना आरम्भ होने पर उसमें ज्ञानशक्ति का भी उन्मेष हो जाता है; परन्तु प्रसूतिवायु से चलायमान रहने के कारण वह उसी उदर में उत्पन्न हुए विष्ठा के कीड़ों के समान एक स्थान पर नहीं रह सकता ॥ १० ॥ तब सप्तधातुमय स्थूलशरीर से बँधा हुआ वह देहात्मदर्शी जीव अत्यन्त भयभीत होकर दीन वाणी से कृपा-याचना करता हुआ, हाथ जोड़कर उस प्रभु की स्तुति करता है, जिसने उसे माता के गर्भ में डाला है ॥ ११ ॥

जीव कहता है — मैं बड़ा अधम हूँ; भगवान् ने मुझे जो इस प्रकार की गति दिखायी है, वह मेरे योग्य ही है । वे अपनी शरण में आये हुए इस नश्वर जगत् की रक्षा के लिये ही अनेक प्रकार के रूप धारण करते हैं । अतः मैं भी भूतलपर विचरण करनेवाले उन्हीं के निर्भय चरणारविन्दों की शरण लेता हूँ ॥ १२ ॥ जो मैं (जीव) इस माता के उदर में देह, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूपा माया का आश्रय कर पुण्य-पापरूप कर्मों से आच्छादित रहने के कारण बद्ध की तरह हूँ, वहीं मैं यहीं अपने सन्तप्त हृदय में प्रतीत होनेवाले उन विशुद्ध (उपाधिरहित), अविकारी और अखण्ड बोधस्वरूप परमात्मा को नमस्कार करता हूँ ॥ १३ ॥ मैं वस्तुतः शरीरादि से रहित (असङ्ग) होने पर भी देखने में पाञ्चभौतिक शरीर से सम्बद्ध हूँ और इसीलिये इन्द्रिय, गुण, शब्दादि विषय और चिदाभास (अहङ्कार) रूप ज्ञान पड़ता हूँ । अतः इस शरीरादि के आवरण से जिनकी महिमा कुण्ठित नहीं हुई है, उन प्रकृति और पुरुष के नियन्ता सर्वज्ञ (विद्याशक्तिसम्पन्न) परमपुरुष की मैं वन्दना करता हूँ ॥ १४ ॥ उन्हीं की माया से अपने स्वरूप की स्मृति नष्ट हो जाने के कारण यह जीव अनेक प्रकार के सत्त्वादि गुण और कर्म के बन्धन से युक्त इस संसारमार्ग में तरह-तरह कष्ट झेलता हुआ भटकता रहता हैं; अतः उन परमपुरुष परमात्मा की कृपा के बिना और किस युक्ति से इसे अपने स्वरूप का ज्ञान हो सकता है ॥ १५ ॥ मुझे जो यह त्रैकालिक ज्ञान हुआ है, यह भी उनके सिवा और किसने दिया है; क्योंकि स्थावर-जंगम समस्त प्राणियों में एकमात्र वे ही तो अन्तर्यामीरूप अंश से विद्यमान हैं । अतः जीवरूप कर्मज़नित पदवी का अनुवर्तन करनेवाले हम अपने त्रिविध तापों की शान्ति के लिये उन्हीं का भजन करते हैं ॥ १६ ॥

भगवन् ! यह देहधारी जीव दूसरी (माताके) देह के उदर के भीतर मल, मूत्र और रुधिर के कुएँ में गिरा हुआ है, उसकी जठराग्नि से इसका शरीर अत्यन्त सन्तप्त हो रहा है । उससे निकलने की इच्छा करता हुआ यह अपने महीने गिन रहा है । भगवन् ! अब इस दीन को यहाँ से कब निकाला जायगा ? ॥ १७ ॥ स्वामिन् ! आप बड़े दयालु हैं, आप-जैसे उदार प्रभु ने ही इस दस मास के जीव को ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान दिया है । दीनबन्धो ! इस अपने किये हुए उपकार से ही आप प्रसन्न हों; क्योंकि आपको हाथ जोड़ने के सिवा आपके उस उपकार का बदला तो कोई दे भी क्या सकता है ॥ १८ ॥

प्रभो ! संसार के ये पशु-पक्षी आदि अन्य जीव तो अपनी मूढ़ बुद्धि के अनुसार अपने शरीर में होनेवाले सुख-दुःखादि का ही अनुभव करते हैं; किन्तु मैं तो आपकी कृपा से शम-दमादि साधनसम्पन्न शरीर से युक्त हुआ हूँ, अतः आपकी दी हुई विवेकवती बुद्धि से आप पुराणपुरुष को अपने शरीर के बाहर और भीतर अहङ्कार के आश्रयभूत आत्मा की भाँति प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ ॥ १९ ॥ भगवन् ! इस अत्यन्त दुःख से भरे हुए गर्भाशय में यद्यपि मैं बड़े कष्ट से रह रही हूँ, तो भी इससे बाहर निकलकर संसारमय अन्धकूप में गिरने की मुझे बिलकुल इच्छा नहीं है, क्योंकि उसमें जानेवाले जीव को आपकी माया घेर लेती है, जिसके कारण उसके शरीर में अहंबुद्धि हो जाती है और उसके परिणाम में उसे फिर इस संसारचक्र में ही पड़ना होता है ॥ २० ॥ अतः मैं व्याकुलता को छोड़कर हृदय में श्रीविष्णुभगवान् के चरणों को स्थापित कर अपनी बुद्धि की सहायता से ही अपने को बहुत शीघ्र इस संसाररूप समुद्र के पार लगा देंगी, जिससे मुझे अनेक प्रकार के दोषों से युक्त यह संसार-दुःख फिर न प्राप्त हो ॥ ३१ ॥

कपिलदेवजी कहते हैं — माता ! वह दस महीने का जीव गर्भ में ही जब इस प्रकार विवेकसम्पन्न होकर भगवान् की स्तुति करता है, तब उस अधोमुख बालक को प्रसवकाल की वायु तत्काल बाहर आने के लिये ढकेलती है ॥ २२ ॥ उसके सहसा ठेलने पर वह बालक अत्यन्त व्याकुल हो नीचे सिर करके बड़े कष्ट से बाहर निकलता है । उस समय उसके श्वास की गति रुक जाती है और पूर्वस्मृति नष्ट हो जाती है ॥ २३ ॥ पृथ्वी पर माता के रुधिर और मूत्र में पड़ा हुआ वह बालक विष्टा के कीड़े के समान छटपटाता है । उसका गर्भवास का सारा ज्ञान नष्ट हो जाता है और वह विपरीत गति (देहाभिमानरूप अज्ञान-दशा) — को प्राप्त होकर बार-बार जोर-जोर से रोता है ॥ २४ ॥

फिर जो लोग उसका अभिप्राय नहीं समझ सकते उनके द्वारा उसका पालन-पोषण होता है । ऐसी अवस्था उसे जो प्रतिकूलता प्राप्त होती है, उसका निषेध करने की शक्ति भी उसमें नहीं होती ॥ २५ ॥ जब उस जीव को शिशु-अवस्था में मेली-कुचैली खाट पर सुला दिया जाता हैं, जिसमें खटमल आदि स्वेदज जीव चिपटे रहते हैं, तब उसमें शरीर को खुजलाने, उठाने अथवा करवट बदलने की भी सामर्थ्य न होने के कारण वह बड़ा कष्ट पाता है ॥ २६ ॥ उसकी त्वचा बड़ी कोमल होती है । उसे डाँस, मच्छर और खटमल आदि उसी प्रकार काटते रहते हैं, जैसे बड़े कीड़े को छोटे कीड़े । इस समय उसका गर्भावस्था का सारा ज्ञान जाता रहता है, सिवा रोने के वह कुछ नहीं कर सकता ॥ २७ ॥

इसी प्रकार बाल्य (कौमार) और पौगण्ड — अवस्थाओं के दुःख भोगकर वह बालक युवावस्था में पहुँचता है । इस समय उसे यदि कोई इच्छित भोग नहीं प्राप्त होता, तो अज्ञानवश उसका क्रोध उद्दीप्त हो उठता है और वह शोकाकुल हो जाता है ॥ २८ ॥ देह के साथ-ही-साथ अभिमान और क्रोध बढ़ जाने के कारण वह कामपरवश जीव अपना ही नाश करने के लिये दुसरे कामी पुरुषों के साथ वैर ठानता है ॥ २९ ॥ खोटी बुद्धिवाला वह अज्ञानी जीव पञ्चभूतों से रचे हुए इस देह में मिथ्याभिनिवेश के कारण निरन्तर मैं-मेरेपन का अभिमान करने लगता है ॥ ३० ॥ जो शरीर इसे वृद्धावस्था आदि अनेक प्रकार के कष्ट ही देता है तथा अविद्या और कर्म के सूत्र से बँधा रहने के कारण सदा इसके पीछे लगा रहता है, उसके लिये यह तरह-तरह के कर्म करता रहता है — जिनमें बँध जाने के कारण इसे बार-बार संसार-चक्र में पड़ना होता है ॥ ३१ ॥

सन्मार्ग में चलते हुए यदि इसका किन्हीं जिह्वा और उपस्थेन्द्रिय के भोगों में लगे हुए विषयी पुरुषों से समागम हो जाता है, और यह उनमें आस्था करके उन्हीं का अनुगमन करने लगता है, तो पहले के समान ही फिर नारकी योनियों में पड़ता है ॥ ३२ ॥ जिनके सङ्ग से इसके सत्य, शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता), दया, वाणी का संयम, बुद्धि, धन-सम्पत्ति, लज्जा, यश, क्षमा, मन और इन्द्रियों का संयम तथा ऐश्वर्य आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं । उन अत्यन्त शोचनीय, स्त्रियों के क्रीडामृग (खिलौना), अशान्त, मूढ़ और देहात्मदर्शी असत्पुरुषों का सङ्ग कभी नहीं करना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥ क्योंकि इस जीव को किसी और का सङ्ग करने से ऐसा मोह और बन्धन नहीं होता, जैसा की स्त्री और स्त्रियों के सङ्गियों का सङ्ग करने से होता है ॥ ३५ ॥

एक बार अपनी पुत्री सरस्वती को देखकर ब्रह्माजी भी उसके रूप-लावण्य से मोहित हो गये थे और उसके मृगरूप होकर भागने पर उसके पीछे निर्लज्जतापूर्वक मृगरूप होकर दौड़ने लगे ॥ ३६ ॥ उन्हीं ब्रह्माजी ने मरीचि आदि प्रजापतियों की तथा मरीचि आदि ने कश्यपादि की और कश्यपादि ने देव-मनुष्यादि प्राणियों की सृष्टि की । अतः इनमें एक ऋषिप्रवर नारायण को छोड़कर ऐसा कौन पुरुष हो सकता है, जिसकी बुद्धि स्त्रीरुपिणी माया से मोहित न हो ॥ ३७ ॥ अहो ! मेरो इस स्त्रीरूपिणी माया का बल तो देखो, जो अपने भृकुटि-विलासमात्र से बड़े-बड़े दिग्विजयी वीरों को पैरों से कुचल देती है ॥ ३८ ॥

जो पुरुष योग के परम पद पर आरूढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवा के प्रभाव से आत्मा-अनात्मा का विवेक हो गया हो, वह स्त्रियों का सङ्ग कभी न करे; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुष के लिये नरक का खुला द्वार बताया गया है ॥ ३९ ॥ भगवान् की रची हुई यह जो स्त्रीरूपिणी माया धीरे-धीरे सेवा आदि के मिस से पास आती है, इसे तिनकों से ढके हुए कुएँ के समान अपनी मृत्यु ही समझे ॥ ४० ॥

स्त्री में आसक्त रहने के कारण तथा अन्त समय में स्त्री का ही ध्यान रहने से जीव को स्त्रीयोनि प्राप्त होती है । इस प्रकार स्त्रीयोनि को प्राप्त हुआ जीव पुरुषरूप में प्रतीत होनेवाली मेरी माया को ही धन, पुत्र और गृह आदि देनेवाला अपना पति मानता रहता है; सो जिस प्रकार व्याधे का गान कानों को प्रिय लगने पर भी बेचारे भोले-भाले पशु-पक्षियों को फँसाकर उनके नाश का ही कारण होता है उसी प्रकार उन पुत्र, पति और गृह आदि को विधाता की निश्चित की हुई अपनी मृत्यु ही जाने ॥ ४१-४२ ॥ देवि ! जीव के उपाधिभूत लिङ्गदेह के द्वारा पुरुष एक लोक से दूसरे लोक में जाता है और अपने प्रारब्धकर्मों को भोगता हुआ निरन्तर अन्य देहों की प्राप्ति के लिये दूसरे कर्म करता रहता है ॥ ४३ ॥ जीव का उपाधिरूप लिङ्गशरीर तो मोक्षपर्यन्त उसके साथ रहता है तथा भूत, इन्द्रिय और मन का कार्यरूप स्थूलशरीर इसका भोगाधिष्ठान है । इन दोनों का परस्पर संगठित होकर कार्य न करना ही प्राणी की ‘मृत्यु’ हैं और दोनों का साथ-साथ प्रकट होना जन्म’ कहलाता है ॥ ४४ ॥

पदार्थों की उपलब्धि के स्थानरूप इस स्थूलशरीर में जब उनसे ग्रहण करने की योग्यता नहीं रहती, यह उसका मरण है और यह स्थूलशरीर ही मैं हूँ — इस अभिमान के साथ उसे देखना उसका जन्म हैं ॥ ४५ ॥ नेत्रों में जब किसी दोष के कारण रूपादि को देखने की योग्यता नहीं रहती, तभी उनमें रहनेवाली चक्षु-इन्द्रिय भी रूप देखने में असमर्थ हो जाती है और जब नेत्र और उनमें रहनेवाली इन्द्रिय दोनों ही रूप देखने में असमर्थ हो जाते हैं, तभी इन दोनों के साक्षी जीव में भी वह योग्यता नहीं रहती ॥ ४६ ॥ अतः मुमुक्षु पुरुष को मरणादि से भय, दीनता अथवा मोह नहीं होगा चाहिये । उसे जीव के स्वरूप को जानकर धैर्यपूर्वक निःसङ्गभाव से विचरना चाहिये तथा इस मायामय संसार में योग-वैराग्ययुक्त सम्यक्ज्ञानमयी बुद्धि से शरीर को निक्षेप (धरोहर) की भाँति रखकर उसके प्रति अनासक्त रहते हुए विचरण करना चाहिये ॥ ४७-४८ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने जीवगतिर्नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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