January 27, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय ५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय पाँचवाँ अध्याय विदुरजी का प्रश्न और मैत्रेयजी का सृष्टिक्रमवर्णन श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परमज्ञानी मैत्रेय मुनि (हरिद्वार क्षेत्र में) विराजमान थे । भगवद्भक्ति से शुद्ध हुए हृदयवाले विदुरजी उनके पास जा पहुँचे और उनके साधुस्वभाव से आप्यायित होकर उन्होंने पूछा ॥ १ ॥ विदुरजी ने कहा — भगवन् ! संसार में सब लोग सुख के लिये कर्म करते हैं; परन्तु उनसे न तो उन्हें सुख ही मिलता है और न उनका दुःख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दुःख की वृद्धि ही होती है । अतः इस विषय में क्या करना उचित हैं, यह आप मुझे कृपा करके बतलाइये ॥ २ ॥ जो लोग दुर्भाग्यवश भगवान् श्रीकृष्ण से विमुख, अधर्मपरायण और अत्यन्त दुखी हैं, उनपर कृपा करने के लिये ही आप-जैसे भाग्यशाली भगवद्भक्त संसार में विचरा करते हैं ॥ ३ ॥ साधुशिरोमणे ! आप मुझे उस शान्तिप्रद साधन का उपदेश दीजिये, जिसके अनुसार आराधना करने से भगवान् अपने भक्तों के भक्तिपूत हदय में आकर विराजमान हो जाते हैं और अपने स्वरूप का अपरोक्ष अनुभव करानेवाला सनातन ज्ञान प्रदान करते हैं ॥ ४ ॥ त्रिलोकी के नियन्ता और परम स्वतन्त्र श्रीहरि अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ करते हैं; जिस प्रकार अकर्ता होकर भी उन्होंने कल्प के आरम्भ में इस सृष्टि की रचना की, जिस प्रकार इसे स्थापित कर वे जगत् वे जीवों की जीविका का विधान करते हैं, फिर जिस प्रकार इसे अपने हृदयाकाश में लीनकर वृत्तिशून्य हो योगमाया का आश्रय लेकर शयन करते हैं और जिस प्रकार वे योगेश्वरेश्वर प्रभु एक होनेपर भी इस ब्रह्माण्ड में अन्तर्यामीरूप से अनुप्रविष्ट होकर अनेक रूपों में प्रकट होते हैं — वह सब रहस्य आप हमें समझाइये ॥ ५-६ ॥ ब्राह्मण, गौ और देवताओं के कल्याण के लिये जो अनेकों अवतार धारण करके लीला से ही नाना प्रकार के दिव्य कर्म करते हैं, ये भी हमें सुनाइये । यशस्वियों के मुकुटमणि श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते हमारा मन तृप्त नहीं होता ॥ ७ ॥ हमें यह भी सुनाइये कि उन समस्त लोकपतियों के स्वामी श्रीहरि ने इन लोकों, लोकपालों और लोकालोक-पर्वत से बाहर के भागों को, जिनमें ये सब प्रकार के प्राणियों के अधिकारानुसार भिन्न-भिन्न भेद प्रतीत हो रहे हैं, किन तत्त्वों से रचा है ॥ ८ ॥ द्विजवर ! उन विश्वकर्ता स्वयम्भू श्रीनारायण ने अपनी प्रजा के स्वभाव, कर्म, रूप और नामों के भेद को किस प्रकार रचना की है ? भगवन् ! मैंने श्रीव्यासजी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म तो कई बार सुने हैं; किन्तु अब श्रीकृष्णकथामृत के प्रवाह को छोड़कर अन्य स्वल्पसुखदायक धर्मों से मेरा चित्त ऊब गया है ॥ ९-१० ॥ उन तीर्थपाद श्रीहरिके गुणानुवाद से तृप्त हो भी कौन सकता है । उनका तो नारदादि महात्मागण भी आप जैसे साधुओं के समाज में कीर्तन करते हैं तथा जब ये मनुष्यों के कर्णरन्धों में प्रवेश करते हैं, तब उनकी संसारचक्र में डालनेवाली घर-गृहस्थी की आसक्ति को काट डालते हैं ॥ ११ ॥ भगवन् ! आपके सखा मुनिवर कृष्णद्वैपायन ने भी भगवान् के गुणों का वर्णन करने की इच्छा से ही महाभारत रचा है । उसमें भी विषयसुखों का उल्लेख करते हुए मनुष्यों की बुद्धि को भगवान् की कथाओं की ओर लगाने का ही प्रयत्न किया गया है ॥ १२ ॥ यह भगवत्कथा की रुचि श्रद्धालु पुरूष के हृदय में जब बढ़ने लगती है, तब अन्य विषयों से उसे विरक्त कर देती है । वह भगवचरणों के निरन्तर चिन्तन से आनन्दमग्न हो जाता है और उस पुरुष के सभी दुःखों का तत्काल अन्त हो जाता है ॥ १३ ॥ मुझे तो उन शोचनीयों के भी शोचनीय अज्ञानी पुरुषों के लिये निरन्तर खेद रहता है, जो अपने पिछले पापों के कारण श्रीहरि की कथाऑ से विमुख रहते हैं । हाय ! कालभगवान् उनके अमूल्य जीवन को काट रहे हैं और वे वाणी, देह और मन से व्यर्थ वाद-विवाद, व्यर्थ चेष्टा और व्यर्थ चिन्तन में लगे रहते हैं ॥ १४ ॥ मैत्रेयजी ! आप दीनों पर कृपा करनेवाले हैं; अतः भौंरा जैसे फूलों में से रस निकाल लेता है, उसी प्रकार इन लौकिक कथाओं में से इनकी सारभूता परम कल्याणकारी पवित्रकीर्ति श्रीहरि की कथाएँ छाँटकर हमारे कल्याण के लिये सुनाइये ॥ १५ ॥ उन सर्वेश्वर ने संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने के लिये अपनी मायाशक्ति को स्वीकार कर राम-कृष्णादि अवतारों के द्वारा जो अनेको अलौकिक लीलाएँ की हैं, वे सब मुझे सुनाइये ॥ १६ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — जब विदुरजी ने जीवों के कल्याण के लिये इस प्रकार प्रश्न किया, तब तो मुनिश्रेष्ठ भगवान् मैत्रेयजी ने उनकी बहुत बड़ाई करते हुए यों कहा ॥ १७ ॥ श्रीमैत्रेयजी बोले — साधुस्वभाव विदुरजी ! आपने सब जीवों पर अत्यन्त अनुग्रह करके यह बड़ी अच्छी बात पूछी है । आपका चित्त तो सर्वदा श्रीभगवान् में ही लगा रहता है, तथापि इससे संसार में भी आपका बहुत सुयश फैलेगा ॥ १८ ॥ आप श्रीव्यासजी के औरस पुत्र हैं । इसलिये आपके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं हैं कि आप अनन्यभाव से सर्वेश्वर श्रीहरि के ही आश्रित हो गये हैं ॥ १९ ॥ आप प्रजा को दण्ड देनेवाले भगवान् यम ही हैं । माण्डव्य ऋषि का शाप होने के कारण ही आपने श्रीव्यासजी के वीर्य से उनके भाई विचित्रवीर्य की भोगपत्नी दासी के गर्भ से जन्म लिया है ॥ २० ॥ आप सर्वदा ही श्रीभगवान् और उनके भक्तों को अत्यन्त प्रिय हैं; इसीलिये भगवान् निजधाम पधारते समय मुझे आपको ज्ञानोपदेश करने की आज्ञा दे गये हैं ॥ २१ ॥ इसलिये अब मैं जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये योगमाया के द्वारा विस्तारित हुई भगवान् की विभिन्न लीलाओं का क्रमशः वर्णन करता हूँ ॥ २२ ॥ सृष्टिरचना के पूर्व समस्त आत्माओं के आत्मा एक पूर्ण परमात्मा ही थे — न द्रष्टा था न दृश्य ! सृष्टिकाल में अनेक वृत्तियों के भेद से जो अनेकता दिखायी पड़ती हैं, वह भी वही थे; क्योंकि उनकी इच्छा अकेले रहने की थी ॥ २३ ॥ वे ही द्रष्टा होकर देखने लगे, परन्तु उन्हें दृश्य दिखायी नहीं पड़ा; क्योंकि उस समय वे ही अद्वितीय रूप से प्रकाशित हो रहे थे । ऐसी अवस्था में वे अपने को असत् के समान समझने लगे । वस्तुतः वे असत् नहीं थे, क्योंकि उनकी शक्तियाँ ही सोयीं थी । उनके ज्ञान का लोप नहीं हुआ था ॥ २४ ॥ यह द्रष्टा और दृश्य का अनुसन्धान करनेवाली शक्ति ही — कार्य-कारणरूपी माया है । महाभाग विदुरजी ! इस भावाभावरूप अनिर्वचनीय माया के द्वारा ही भगवान् ने इस विश्व का निर्माण किया है ॥ २५ ॥ कालशक्ति से जब यह त्रिगुणमयी माया क्षोभ को प्राप्त हुई, तब उन इन्द्रियातीत चिन्मय परमात्मा ने अपने अंश पुरुषरूप से उसमें चिदाभासरुप बीज स्थापित किया ॥ २६ ॥ तब काल की प्रेरणा से उस अव्यक्त माया से महत्तत्त्व प्रकट हुआ । वह मिथ्या अज्ञान का नाशक होने के कारण विज्ञानस्वरूप और अपने में सूक्ष्मरूप से स्थित प्रपञ्च की अभिव्यक्ति करनेवाला था ॥ २७ ॥ फिर चिदाभास, गुण और काल के अधीन उस महत्त्व ने भगवान् की दृष्टि पड़ने पर इस विश्व की रचना के लिये अपना रूपान्तर किया ॥ २८ ॥ महत्तत्त्व विकृत होने पर अहङ्कार की उत्पत्ति हुई — जो कार्य (अधिभूत), कारण (अध्यात्म) और कर्ता (अधिदैव) रूप होने के कारण भूत, इन्द्रिय और मन का कारण है ॥ २९ ॥ वह अहङ्कार वैकारिक (सात्विक), तैजस (राजस) और तामस — भेद से तीन प्रकार का है; अतः अहंतत्त्व में विकार होने पर वैकारिक अहङ्कार से मन, और जिनसे विषयों का ज्ञान होता है वे इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता हुए ॥ ३० ॥ तैजस अहङ्कार से ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ हुई तथा तामस अहङ्कार से सूक्ष्म भूतों का कारण शब्दतन्मात्र हुआ, और उससे दृष्टान्तरूप से आत्मा का बोध करानेवाला आकाश उत्पन्न हुआ ॥ ३१ ॥ भगवान् की दृष्टि जब आकाश पर पड़ी, तब उससे फिर काल, माया और चिदाभास के योग से स्पर्शतन्मात्र हुआ और उसके विकृत होनेपर उससे वायु की उत्पत्ति हुई ॥ ३२ ॥ अत्यन्त बलवान् वायु ने आकाश के सहित विकृत होकर रूपतन्मात्र की रचना की और उससे संसार का प्रकाशक तेज उत्पन्न हुआ ॥ ३३ ॥ फिर परमात्मा की दृष्टि पड़ने पर वायुयुक्त तेज ने काल, माया और चिदंश के योग से विकृत होकर रसतन्मात्र के कार्य जल को उत्पन्न किया ॥ ३४ ॥ तदनन्तर तेज से युक्त जल ने ब्रह्म का दृष्टिपात होने पर कान, माया और चिदंश के योग से गन्धगुणमयी पृथ्वी को उत्पन्न किया ॥ ३५ ॥ विदुरजी ! इन आकाशादि भूतों में से जो-जो भूत पीछे-पीछे उत्पन्न हुए हैं, उनमें क्रमशः अपने पूर्व-पूर्व भूतों के गुण भी अनुगत समझने चाहिये ॥ ३६ ॥ महत्तवादि के अभिमानी विकार, विक्षेप और चेतनांश विशिष्ट देवगण श्रीभगवान् के ही अंश हैं । किन्तु पृथक्-पृथक् रहने के कारण जब वे विश्वरचनारूप अपने कार्य में सफल नहीं हुए, तब हाथ जोड़कर भगवान् से कहने लगे ॥ ३७ ॥ देवताओं ने कहा — देव ! हम आपके चरणकमलों को वन्दना करते हैं । ये अपनी शरण में आये हुए जीवों का ताप दूर करने के लिये छत्र के समान हैं तथा इनका आश्रय लेने से यतिजन अनन्त संसार-दुःख को सुगमता से ही दूर फेंक देते हैं ॥ ३८ ॥ जगत्कर्ता जगदीश्वर ! इस संसार में तापत्रय से व्याकुल रहने के कारण जीवों को जरा भी शान्ति नहीं मिलती । इसलिये भगवन् ! हम आपके चरण की ज्ञानमयी छाया का आश्रय लेते हैं ॥ ३९ ॥ मुनिजन एकान्त स्थान में रहकर आपके मुखकमल का आश्रय लेनेवाले वेदमन्त्ररूप पक्षियों के द्वारा जिनका अनुसन्धान करते रहते हैं तथा जो सम्पूर्ण पापनाशिनी नदियों में श्रेष्ठ श्रीगङ्गाजी के उद्गमस्थान हैं, आपके उन परम पावन पादपद्यों का हम आश्रय लेते हैं ॥ ४० ॥ हम आपके चरणकमलों की उस चौकी का आश्रय ग्रहण करते हैं, जिसे भक्तजन श्रद्धा और श्रवण-कीर्तनादिरूप भक्ति से परिमार्जित अन्तःकरण में धारण करके वैराग्यपुष्ट ज्ञान के द्वारा परम धीर हो जाते हैं ॥ ४१ ॥ ईश ! आप संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के लिये ही अवतार लेते हैं; अतः हम सब आपके उन चरणकमलों की शरण लेते हैं, जो अपना स्मरण करनेवाले भक्तजन को अभय कर देते हैं ॥ ४३ ॥ जिन पुरुषों का देह, गेह तथा उनसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य तुच्छ पदार्थों में अहंता, ममता का दृढ़ दुराग्रह है, उनके शरीर में (आपके अन्तर्यामीरूपसे) रहनेपर भी जो अत्यन्त दूर हैं; उन्हीं आपके चरणारविन्दों को हम भजते हैं ॥ ४३ ॥ परम यशस्वी परमेश्वर ! इन्द्रियों के विषयाभिमुख रहने के कारण जिनका मन सर्वदा बाहर ही भटका करता है, वे पामरलोग आपके विलासपूर्ण पादविन्यास की शोभा के विशेषज्ञ भक्तजन को दर्शन नहीं कर पाते, इसीसे वे आपके चरणों से दूर रहते हैं ॥ ४४ ॥ देव ! आपके कथामृत का पान करने से उमड़ी हुई भक्ति के कारण जिनका अन्तःकरण निर्मल हो गया है, वे लोग — वैराग्य ही जिसका सार है-ऐसा आत्मज्ञान प्राप्त करके अनायास ही आपके वैकुण्ठधाम को चले जाते हैं ॥ ४५ ॥ दूसरे धीर पुरुष चित्तनिरोधरूप. समाधि के बल से आपकी बलवती माया को जीतकर आपमें ही लीन तो हो जाते हैं, पर उन्हें श्रम बहुत होता है; किन्तु आपकी सेवाके मार्ग में कुछ भी कष्ट नहीं है ॥ ४६ ॥ आदिदेव ! आपने सृष्टि-रचना की इच्छा से हमें त्रिगुणमय रचा है । इसलिये विभिन्न स्वभाववाले होने के कारण हम आपस में मिल नहीं पाते और इससे आपकी क्रीड़ा के साधनरूप ब्रह्माण्ड की रचना करके उसे आपको समर्पित करने में असमर्थ हो रहे हैं ॥ ४५ ॥ अतः जन्मरहित भगवन् ! जिससे हम ब्रह्माण्ड रचकर आपको सब प्रकार के भोग समय पर समर्पित कर सके और जहां स्थित होकर हम भी अपनी योग्यता के अनुसार अन्न ग्रहण कर सकें तथा ये सब जीव भी सब प्रकार की विघ्न-बाधाओं से दूर रहकर हम और आप दोनों को भोग समर्पित करते हुए अपना-अपना अन्न भक्षण कर सकें, ऐसा कोई उपाय कीजिये ॥ ४८ ॥ आप निर्विकार पुराणपुरुष ही अन्य कार्यवर्ग के सहित हम देवताओं के आदि कारण हैं । देव ! पहले आप अजन्मा होने सत्त्वादि गुण और जन्मादि कर्मों के कारणरूपा मायाशक्ति में चिदाभासरूप वीर्य स्थापित किया था ॥ ४९ ॥ परमात्मदेव ! महत्तत्त्वादिरूप हम देवगण जिस कार्य के लिये उत्पन्न हुए हैं, उसके सम्बन्ध में हम क्या करें ? देव ! हमपर आप ही अनुग्रह करनेवाले हैं । इसलिये ब्रह्माण्ड रचना के लिये आप हमें क्रियाशक्ति के सहित अपनी ज्ञानशक्ति भी प्रदान कीजिये ॥ ५० ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related