January 29, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय ८ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय आठवाँ अध्याय ब्रह्माजी की उत्पत्ति श्रीमैत्रेयजी ने कहा — विदुरजी ! आप भगवद्भक्तों में प्रधान लोकपाल यमराज ही हैं; आपके पूरुवंश में जन्म लेने के कारण वह वंश साधुपुरुषों के लिये भी सेव्य हो गया है । धन्य हैं ! आप निरन्तर पद-पद पर श्रीहरि की कीर्तिमयी माला को नित्य नूतन बना रहे हैं ॥ १ ॥ अब मैं, क्षुद्र विषय-सुख की कामना से महान् दुःख को मोल लेनेवाले पुरुषों की दुःखनिवृत्ति के लिये, श्रीमद्भागवतपुराण प्रारम्भ करता हूँ — जिसे स्वयं श्रीसङ्कर्षणभगवान् ने सनकादि ऋषियों को सुनाया था ॥ २ ॥ अखण्ड ज्ञानसम्पन्न आदिदेव भगवान् सङ्कर्षण पाताललोक में विराजमान थे । सनत्कुमार आदि ऋषियों ने उनसे परम पुरुषोत्तम ब्रह्म का तत्त्व जानने के लिये उनसे प्रश्न किया ॥ ३ ॥ उस समय शेषजी अपने आश्रयस्वरूप उन परमात्मा की मानसिक पूजा कर रहे थे, जिनका वेद वासुदेव के नाम से निरूपण करते हैं । उनके कमलकोश सरीखे नेत्र बन्द थे । प्रश्न करनेपर सनत्कुमारादि ज्ञानीजनों के आनन्द के लिये उन्होंने अधखुले नेत्रों से देखा ॥ ४ ॥ सनत्कुमार आदि ऋषियों ने मन्दाकिनी जल से भीगे अपने जटासमूह से उनके चरणों की चौकी के रूप में स्थित कमल को स्पर्श किया, जिसकी नागराजकुमारियाँ अभिलषित वर की प्राप्ति के लिये प्रेमपूर्वक अनेकों उपहार-सामग्रियों से पूजा करती हैं ॥ ५ ॥ सनत्कुमारादि उनकी लीला के मर्मज्ञ हैं । उन्होंने बार-बार प्रेम-गद्गद वाणी से उनकी लीला का गान किया । उस समय शेषभगवान् के उठे हुए सहस्रों फण किरीटों की सहस्र-सहस्र श्रेष्ठ मणियों की छिटकती हुई रश्मियों से जगमगा रहे थे ॥ ६ ॥ भगवान् सङ्कर्षण ने निवृत्तिपरायण सनत्कुमारजी को यह भागवत सुनाया था — ऐसा प्रसिद्ध है । सनत्कुमारजी ने फिर इसे परम व्रतशील सांख्यायन मुनि को, उनके प्रश्न करनेपर सुनाया ॥ ७ ॥ परमहंसों में प्रधान श्रीसांख्यायनजी को जब भगवान् की विभूतियों का वर्णन करने की इच्छा हुई, तब उन्होंने इसे अपने अनुगत शिष्य, हमारे गुरु श्रीपराशरजी को और बृहस्पतिजी को सुनाया ॥ ८ ॥ इसके पश्चात् परम दयालु पराशरजी ने पुलस्त्य मुनि के कहने से वह आदिपुराण मुझसे कहा । वत्स ! श्रद्धालु और सदा अनुगत देखकर अब वही पुराण में तुम्हें सुनाता हूँ ॥ ९ ॥ सृष्टि के पूर्व यह सम्पूर्ण विश्व जल में डूबा हुआ था । उस समय एकमात्र श्रीनारायणदेव शेषशय्या पर पौढ़े हुए थे । वे अपनी ज्ञानशक्ति को अक्षुण्ण रखते हुए ही योगनिद्रा का आश्रय ले, अपने नेत्र मूंदे हुए थे । सृष्टिकर्म से अवकाश लेकर आत्मानन्द में मग्न थे । उनमें किसी भी क्रिया का उन्मेष नहीं था ॥ १० ॥ जिस प्रकार अग्नि अपनी दाहिका आदि शक्तियों से छिपाये हुए काष्ट में व्याप्त रहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान् ने सम्पूर्ण प्राणियों के सूक्ष्म शरीरों को अपने शरीर में लीन करके अपने आधारभूत उस जल में शयन किया, उन्हें सृष्टिकाल आनेपर पुनः जगाने के लिये केवल कालशक्ति को जाग्रत् रखा ॥ ११ ॥ इस प्रकार अपनी स्वरूपभूता चिच्छक्ति के साथ एक सहस्र चतुर्युगपर्यन्त जल में शयन करने के अनन्तर जब उन्हीं के द्वारा नियुक्त उनकी कालशक्ति ने उन्हें जीवों के कर्मों की प्रवृत्ति के लिये प्रेरित किया, तब उन्होंने अपने शरीर में लीन हुए अनन्त लोक देखे ॥ १२ ॥ जिस समय भगवान् की दृष्टि अपने में निहित लिङ्गशरीरादि सूक्ष्मतत्त्व पर पड़ी, तब वह कालाश्रित रजोगुण से क्षुभित होकर सृष्टिरचना के निमित्त उनके नाभिदेश से बाहर निकला ॥ १३ ॥ कर्मशक्ति को जाग्रत् करनेवाले काल के द्वारा विष्णुभगवान् की नाभि से प्रकट हुआ वह सूक्ष्मतत्त्व कमलकोश के रूप में सहसा ऊपर उठा और उसने सूर्य के समान अपने तेज से उस अपार जलराशि को देदीप्यमान कर दिया ॥ १४ ॥ सम्पूर्ण गुणों को प्रकाशित करनेवाले उस सर्वलोकमय कमल में वे विष्णुभगवान् ही अन्तर्यामीरूप से प्रविष्ट हो गये । तब उसमें से बिना पढ़ाये ही स्वयं सम्पूर्ण वेदों को जाननेवाले साक्षात् वेदमूर्ति श्रीब्रह्माजी प्रकट हुए, जिन्हें लोग स्वयम्भू कहते हैं ॥ १५ ॥ उस कमल की कर्णिका (गद्दी) में बैठे हुए ब्रह्माजी को जब कोई लोक दिखायी नहीं दिया, तब वे आँखें फाड़कर आकाश में चारों ओर गर्दन घुमाकर देखने लगे, इससे उनके चारों दिशाओं में चार मुख हो गये ॥ १६ ॥ उस समय प्रलयकालीन पवन के थपेड़ो से उछलती हुई जल की तरङ्गमालाओं के कारण उस जलराशि से ऊपर उठे हुए कमल पर विराजमान आदिदेव ब्रह्माजी को अपना तथा उस लोकतत्त्वरूप कमल का कुछ भी रहस्य न जान पड़ा ॥ १७ ॥ वे सोचने लगे, ‘इस कमल की कर्णिका पर बैठा हुआ मैं कौन हूँ ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधार के जल में कहाँ से उत्पन्न हो गया ? इसके नीचे अवश्य कोई ऐसी वस्तु होनी चाहिये, जिसके आधार पर यह स्थित है’ ॥ १८ ॥ ऐसा सोचकर वे उस कमल की नाल के सूक्ष्म छिद्रों में होकर उस जल में घुसे । किन्तु उस नाल के आधार को खोजते-खोजते नाभिदेश के समीप पहुँच जानेपर भी वे उसे पा न सके ॥ १९ ॥ विदुरजी ! उस अपार अन्धकार में अपने उत्पत्ति-स्थान को खोजते-खोजते ब्रह्माजी को बहुत काल बीत गया । यह काल ही भगवान् का चक्र है, जो प्राणियों को भयभीत (करता हुआ उनकी आयु को क्षीण) करता रहता है ॥ २३ ॥ अन्त में विफल मनोरथ हो वे वहाँ से लौट आये और पुनः अपने आधारभूत कमल पर बैठकर धीरे-धीरे प्राणवायु को जीतकर चित्त को निःसङ्कल्प किया और समाधि में स्थित हो गये ॥ २१ ॥ इस प्रकार पुरुष की पूर्ण आयु के बराबर कालतक (अर्थात् दिव्य सौ वर्षतक) अच्छी तरह योगाभ्यास करने पर ब्रह्माजी को ज्ञान प्राप्त हुआ; तब उन्होंने अपने उस अधिष्ठान को, जिसे वे पहले खोजने पर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अन्तःकरण में प्रकाशित होते देखा ॥ २२ ॥ उन्होंने देखा कि उस प्रलयकालीन जल में शेषजी के कमलनाल सदृश गौर और विशाल विग्रह की शय्या पर पुरुषोत्तम भगवान् अकेले ही लेटे हुए हैं । शेषजी के दस हजार फण छत्र के समान फैले हुए हैं । उनके मस्तक पर किरीट शोभायमान हैं, उनमें जो मणियाँ जड़ी हुई हैं, उनकी कान्ति से चारों ओर का अन्धकार दूर हो गया है ॥ २३ ॥ वे अपने श्याम शरीर की आभा से मरकतमणि के पर्वत की शोभा को लज्जित कर रहे हैं । उनकी कमर का पीतपट पर्वत के प्रान्त देश में छाये हुए सायंकाल के पीले-पीले चमकीले मेघों की आभा को मलिन कर रहा है, सिर पर सुशोभित सुवर्णमुकुट सुवर्णमय शिखरों का मान मर्दन कर रहा है । उनकी वनमाला पर्वत के रत्न, जलप्रपात, ओषधि और पुष्पों की शोभा को परास्त कर रही हैं तथा उनके भुजदण्ड वेणुदण्ड का और चरण वृक्षों का तिरस्कार करते हैं ॥ २४ ॥ उनका वह श्रीविग्रह अपने परिमाण से लम्बाई-चौड़ाई में त्रिलोकी का संग्रह किये हुए हैं । वह अपनी शोभा से विचित्र एवं दिव्य वस्त्राभूषणों की शोभा को सुशोभित करनेवाला होनेपर भी पीताम्बर आदि अपनी वेष-भूषा से सुसज्जित है ॥ ३५ ॥ अपनी-अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिये भिन्न-भिन्न मार्गों से पूजा करनेवाले भक्तजनों को कृपापूर्वक अपने भवाञ्छाकल्पतरु चरणकमल का दर्शन दे रहे हैं, जिनके सुन्दर अंगुलिदल नखचन्द्र की चन्द्रिका से अलग-अलग स्पष्ट चमकते रहते हैं ॥ २६ ॥ सुन्दर नासिक, अनुग्रहवर्षी भौंहें, कानों में झिलमिलाते हुए कुण्डलों की शोभा, बिम्बाफल के समान लाल-लाल अधरों की कान्ति एवं लोकार्तिहारी मुसकान से युक्त मुखारविन्द के द्वारा वे अपने उपासकों का सम्मान-अभिनन्दन कर रहे हैं ॥ २७ ॥ वत्स ! उनके नितम्बदेश में कदम्बकुसुम की केसर के समान पीतवस्त्र और सुवर्णमयी मेखला सुशोभित है तथा वक्षःस्थल में अमूल्य हार और सुनहरी रेखावाले श्रीवत्स चिह्न की अपूर्व शोभा हो रही है ॥ २८ ॥ ये अव्यक्तमूल चन्दनवृक्ष के समान हैं । महामूल्य केयूर और उत्तम-उत्तम मणियों से सुशोभित उनके विशाल भुजदण्ड ही मानो उसकी सहस्रों शाखाएँ हैं और चन्दन के वृक्षों में जैसे बड़े-बड़े साँप लिपटे रहते हैं, उसी प्रकार उनके कंधों को शेषजी के फणों ने लपेट रखा है ॥ २९ ॥ वे नागराज अनन्त के बन्धु श्रीनारायण ऐसे जान पड़ते हैं, मानो कोई जल से घिरे हुए पर्वतराज ही हों । पर्वत पर जैसे अनेकों जीव रहते हैं, उसी प्रकार वे सम्पूर्ण चराचर के आश्रय हैं; शेषजी के फणों पर जो सहस्रों मुकुट हैं वे ही मानो उस पर्वत के सुवर्णमण्डित शिखर हैं तथा वक्षःस्थल में विराजमान कौस्तुभमणि उसके गर्भ से प्रकट हुआ रत्न है ॥ ३० ॥ प्रभु के गले में वेदरूप भौंरों से गुञ्जायमान अपनी कीर्तिमयी वनमाला विराज रही है; सूर्य, चन्द्र, वायु और अग्नि आदि देवताओं की भी आप तक पहुँच नहीं हैं तथा त्रिभुवन में बेरोक-टोक विचरण करनेवाले सुदर्शनचक्रादि आयुध भी प्रभु के आसपास ही घूमते रहते हैं, उनके लिये भी आप अत्यन्त दुर्लभ हैं ॥ ३१ ॥ तब विश्वरचना की इच्छवाले लोकविधाता ब्रह्माजी ने भगवान् के नाभिसरोवर से प्रकट हुआ वह कमल, जल, आकाश, वायु और अपना शरीर केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, इनके सिवा और कुछ उन्हें दिखायी न दिया ॥ ३२ ॥ रजोगुण से व्याप्त ब्रह्माजी प्रजा की रचना करना चाहते थे । जब उन्होंने सृष्टि के कारणरूप केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, तब लोकरचना के लिये उत्सुक होने के कारण वे अचिन्त्यगति श्रीहरि में चित लगाकर उन परमपूजनीय प्रभु की स्तुति करने लगे ॥ ३३ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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