श्रीमद्भागवतमहापुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय १
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
पहला अध्याय
उद्धव और विदुर की भेंट

श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! जो बात तुमने पूछी है, वही पूर्वकाल में अपने सुख-समृद्धि से पूर्ण घर को छोड़कर वन में गये हुए विदुरजी ने भगवान् मैत्रेयजी से पूछी थी ॥ १ ॥ जब सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर गये थे, तब वे दुर्योधन के महलों को छोड़कर, उसी विदुरजी के घर में उसे अपना ही समझकर बिना बुलाये चले गये थे ॥ २ ॥

राजा परीक्षित् ने पूछा — प्रभो ! यह तो बतलाइये कि भगवान् मैत्रेय के साथ विदुरजी का समागम कहाँ और किस समय हुआ था ? ॥ ३ ॥ पवित्रात्मा विदुर ने महात्मा मैत्रेयजी से कोई साधारण प्रश्न नहीं किया होगा; क्योंकि उसे तो मैत्रेयजी – जैसे साधु-शिरोमणि ने अभिनन्दनपूर्वक उत्तर देकर महिमान्वित किया था ॥ ४ ॥

सूतजी कहते हैं — सर्वज्ञ शुकदेवजी ने राजा परीक्षित् के इस प्रकार पूछने पर अति प्रसन्न होकर कहा – सुनों ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहने लगे — परीक्षित् ! यह उन दिनों की बात है, जब अन्धे राजा धृतराष्ट्र ने अन्यायपूर्वक अपने दुष्ट पुत्रों का पालन-पोषण करते हुए अपने छोटे भाई पाण्डु के अनाथ बालकों को लाक्षाभवन में भेजकर आग लगवा दी ॥ ६ ॥ जब उनकी पुत्रवधू और महाराज युधिष्ठिर की पटरानी द्रौपदी के केश दुःशासन ने भरी सभा में खींचे, उस समय द्रौपदी की आँखों से आँसुओं की धारा बह चली और उस प्रवाह से उसके वक्षःस्थल पर लगा हुआ केसर भी बह चला; किन्तु धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों को उस कुकर्म से नहीं रोका ॥ ७ ॥ दुर्योधन ने सत्यपरायण और भोले-भाले युधिष्ठिर का राज्य जुएँ में अन्याय से जीत लिया और उन्हें वन में निकाल दिया । किन्तु वन से लौटने पर प्रतिज्ञानुसार जब उन्होंने अपना न्यायोचित पैतृक भाग माँगा, तब भी मोहवश उन्होंने उन अजातशत्रु युधिष्ठिर को उनका हिस्सा नहीं दिया ॥ ८ ॥

महाराज युधिष्ठिर के भेजने पर जब जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण ने कौरवों की सभा में हितभरे सुमधुर वचन कहे, जो भीष्मादि सज्जनों को अमृत-से लगे, पर कुरुराज ने उनके कथन को कुछ भी आदर नहीं दिया । देते कैसे ? उनके तो सारे पुण्य नष्ट हो चुके थे ॥ ९ ॥ फिर जब सलाह के लिये विदुरजी को बुलाया गया, तब मन्त्रियों में श्रेष्ठ विदुरजी ने राजभवन में जाकर बड़े भाई धृतराष्ट्र के पूछने पर उन्हें वह सम्मति दी, जिसे नीति-शास्त्र के जाननेवाले पुरुष ‘विदुरनीति’ कहते हैं ॥ १० ॥

उन्होंने कहा – ‘महाराज ! आप अजातशत्रु महात्मा युधिष्ठिर को उनका हिस्सा दे दीजिये । वे आपके न सहने योग्य अपराध को भी सह रहे हैं । भीमरूप काले नाग से तो आप भी बहुत डरते हैं; देखिये, वह अपने छोटे भाइयों के सहित बदला लेने के लिये बड़े क्रोध से फुफकारें मार रहा है ॥ ११ ॥ आपको पता नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को अपना लिया है । वे यदुवीरों के आराध्यदेव इस समय अपनी राजधानी द्वारकापुरी में विराजमान हैं । उन्होंने पृथ्वी के सभी बड़े-बड़े राजाओं को अपने अधीन कर लिया है तथा ब्राह्मण और देवता भी उन्हीं के पक्ष में हैं ॥ १२ ॥ जिसे आप पुत्र मानकर पाल रहे हैं तथा जिसकी हाँ-में-हाँ मिलाते जा रहे हैं, उस दुर्योधन के रूप में तो मूर्तिमान् दोष ही आपके घर में घुसा बैठा है । यह तो साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण से द्वेष करनेवाला है । इसके कारण आप भगवान् श्रीकृष्ण से विमुख होकर श्रीहीन हो रहे हैं । अतएव यदि आप अपने कुल की कुशल चाहते हैं तो इस दुष्ट को तुरंत ही त्याग दीजिये ॥ १३ ॥

विदुरजी का ऐसा सुन्दर स्वभाव था कि साधुजन भी उसे प्राप्त करने की इच्छा करते थे । किन्तु उनकी यह बात सुनते ही कर्ण, दुःशासन और शकुनि के सहित दुर्योधन के होठ अत्यन्त क्रोध से फड़कने लगे और उसने उनका तिरस्कार करते हुए कहा — ‘अरे ! इस कुटिल दासीपुत्र को यहाँ किसने बुलाया हैं ? यह जिनके टुकड़े खा-खाकर जीता है, उन्हीं के प्रतिकूल होकर शत्रु का काम बनाना चाहता है । इसके प्राण तो मत लो, परंतु इसे हमारे नगर से तुरन्त बाहर निकाल दो’ ॥ १४-१५ ॥

भाई के सामने ही कानों में बाण के समान लगनेवाले इन अत्यन्त कठोर वचनों से मर्माहत होकर भी विदुरजी ने कुछ बुरा न माना और भगवान् की माया को प्रबल समझकर अपना धनुष राजद्वार पर रख वे हस्तिनापुर से चल दिये ॥ १६ ॥ कौरवों को विदुर जैसे महात्मा बड़े पुण्य से प्राप्त हुए थे । वे हस्तिनापुर से चलकर पुण्य करने की इच्छा से भूमण्डल में तीर्थपाद भगवान् के क्षेत्रों में विचरने लगे, जहाँ श्रीहरि, ब्रह्मा, रुद्र, अनन्त आदि अनेक मूर्तियों के रूप में विराजमान हैं ॥ १७ ॥ जहाँ-जहाँ भगवान् की प्रतिमाओं से सुशोभित तीर्थस्थान, नगर, पवित्र वन, पर्वत, निकुञ्ज और निर्मल जल से भरे हुए नदी-सरोवर आदि थे, उन सभी स्थानों में वे अकेले ही विचरते रहे ॥ १८ ॥ वे अवधूत-वेष में स्वच्छन्दतापूर्वक पृथ्वी पर विचरते थे, जिससे आत्मीय-जन उन्हें पहचान न सकें । वे शरीर को सजाते न थे, पवित्र और साधारण भोजन करते, शुद्धवृत्ति से जीवन-निर्वाह करते, प्रत्येक तीर्थ में स्नान करते. जमीन पर सोते और भगवान् को प्रसन्न करनेवाले व्रतों का पालन करते रहते थे ॥ १९ ॥

इस प्रकार भारतवर्ष में ही विचरते-विचरते जबतक वे प्रभासक्षेत्र में पहुँचे, तबतक भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता से महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी का एकच्छत्र अखण्ड राज्य करने लगे थे ॥ २० ॥ वहाँ उन्होंने अपने कौरव बन्धुओं के विनाश का समाचार सुना, जो आपस की कलह के कारण परस्पर लड़-भिड़कर उसी प्रकार नष्ट हो गये थे, जैसे अपनी ही रगड़ से उत्पन्न हुई आग से बाँस का सारा जंगल जलकर खाक हो जाता है । यह सुनकर वे शोक करते हुए चुपचाप सरस्वती के तीर पर आये ॥ २१ ॥

वहाँ उन्होंने त्रित, उशना, मनु, पृथु, अग्नि, असित, वायु, सुदास, गौ, गुह और श्राद्धदेव के नामों से प्रसिद्ध ग्यारह तीर्थों का सेवन किया ॥ २२ ॥ इनके सिवा पृथ्वी में ब्राह्मण और देवताओं के स्थापित किये हुए जो भगवान् विष्णु के और भी अनेकों मन्दिर थे, जिनके शिखरों पर भगवान् के प्रधान आयुध चक्र के चिह्न थे और जिनके दर्शनमात्र से श्रीकृष्ण का स्मरण हो आता था; उनका भी सेवन किया ॥ २३ ॥ वहाँ से चलकर वे धन-धान्यपूर्ण सौराष्ट्र, सौवीर, मत्स्य और कुरुजाङ्गल आदि देशों में होते हुए जब कुछ दिनों में यमुना-तट पर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने परमभागवत उद्धवजी का दर्शन किया ॥ २४ ॥ वे भगवान् श्रीकृष्ण के प्रख्यात सेवक और अत्यन्त शान्तस्वभाव थे । पहले बृहस्पतिजी के शिष्य रह चुके थे । विदुरजी ने उन्हें देखकर प्रेम से गाढ़ आलिङ्गन किया और उनसे अपने आराध्य भगवान् श्रीकृष्ण और उनके आश्रित अपने स्वजनों का कुशल-समाचार पूछा ॥ २५ ॥

विदुरजी कहने लगे — उद्धवजी ! पुराणपुरुष बलरामजी और श्रीकृष्ण ने अपने ही नाभिकमल से उत्पन्न हुए ब्रह्माजी की प्रार्थना से इस जगत् में अवतार लिया है । वे पृथ्वी का भार उतारकर सबको आनन्द देते हुए अब श्रीवसुदेवजी के घर कुशल से रह रहे है न?॥ २६ ॥ प्रियवर ! हम कुरुवंशियों के परम सुहृद् और पूज्य वसुदेवजी, जो पिता के समान उदारतापूर्वक अपनी कुन्ती आदि बहिनों को उनके स्वामियों का सन्तोष कराते हुए उनकी सभी मनचाही वस्तुएँ देते आये हैं, आनन्दपूर्वक हैं न ? ॥ २७ ॥ प्यारे उद्धवजी ! यादवों के सेनापति वीरवर प्रद्युम्नजी तो प्रसन्न हैं न, जो पूर्वजन्म में कामदेव थे तथा जिन्हें देवी रुक्मिणजी ने ब्राह्मणों की आराधना करके भगवान् से प्राप्त किया था ॥ २८ ॥ सात्वत, वृष्णि, भोज और दाशार्हवंशी यादवों के अधिपति महाराज उग्रसेन तो सुख से हैं न, जिन्होंने राज्य पाने की आशा का सर्वथा परित्याग कर दिया था, किन्तु कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने जिन्हें फिर से राज्यसिंहासन पर बैठाया ॥ २९ ॥

सौम्य ! अपने पिता श्रीकृष्ण के समान समस्त रथियों में अग्रगण्य श्रीकृष्णतनय साम्ब सकुशल तो हैं ? ये पहले पार्वतीजी के द्वारा गर्भ में धारण किये हुए स्वामि-कार्तिक हैं । अनेक व्रत करके जाम्बवती ने इन्हें जन्म दिया था ॥ ३० ॥ जिन्होंने अर्जुन से रहस्ययुक्त धनुर्विद्या की शिक्षा पायी हैं, वे सात्यकि तो कुशलपूर्वक हैं ? वे भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा से अनायास ही भगवज्जनों की उस महान् स्थिति पर पहुँच गये हैं, जो बड़े-बड़े योगियों को भी दुर्लभ है ॥ ३१॥ भगवान् शरणागत निर्मल भक्त बुद्धिमान् अक्रूरजी भी प्रसन्न हैं न, जो श्रीकृष्ण के चरण-चिह्नों से अङ्कित व्रज के मार्ग की रज में प्रेम से अधीर होकर लोटने लगे थे ? ॥ ३२ ॥ भोजवंशी देवक की पुत्री देवकीजी अच्छी तरह हैं न, जो देवमाता अदिति के समान ही साक्षात् विष्णुभगवान् की माता हैं ? जैसे वेदत्रयी यज्ञविस्तार रूप अर्थ को अपने मन्त्रों में धारण किये रहती हैं, उसी प्रकार उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को अपने गर्भ धारण किया था ॥ ३३ ॥ आप भक्तजनों की कामनाएँ पूर्ण करनेवाले भगवान् अनिरुद्धजी सुखपूर्वक हैं न, जिन्हें शास्त्र वेदों के आदिकारण और अन्तःकरण चतुष्टय के चौथे अंश मन के अधिष्ठाता बतलाते हैं चित्त, अहंकार, बुद्धि और मन — ये अन्तःकरण के चार अंश हैं । इनके अधिष्ठाता क्रमशः वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध हैं। ॥ ३४ ॥ सौम्यस्वभाव उद्धवजी ! अपने हृदयेश्वर भगवान् श्रीकृष्णका अनन्यभाव से अनुसरण करनेवाले जो हृदीक, सत्यभामानन्दन चारुदेष्ण और गद आदि अन्य भगवान् के पुत्र हैं, वे सब भी कुशलपूर्वक हैं न? ॥ ३५ ॥

महाराज युधिष्ठिर अपनी अर्जुन और श्रीकृष्णरूप दोनों भुजाओं की सहायता से धर्ममर्यादा का न्यायपूर्वक पालन करते हैं न ? मय दानव की बनायी हुई सभा में इनके राज्यवैभव और दबदबे को देखकर दुर्योधन को बड़ा डाह हुआ था ॥ ३६ ॥ अपराधियों के प्रति अत्यन्त असहिष्णु भीमसेन ने सर्प के समान दीर्घकालीन क्रोध को छोड़ दिया है क्या ? जब वे गदायुद्ध में तरह-तरह के पैंतरे बदलते थे, तब उनके पैरों की धमक से धरती डोलने लगती थी ॥ ३७ ॥ जिनके बाणों के जाल से छिपकर किरातवेषधारी, अतएव किसी की पहचान में न आनेवाले भगवान् शङ्कर प्रसन्न हो गये थे, वे रथी और यूथपतियों का सुयश बढ़ानेवाले गाण्डीवधारी अर्जुन तो प्रसन्न हैं न ? अब तो उनके सभी शत्रु शान्त हो चुके होंगे ? ॥ ३८ ॥

पलक जिस प्रकार नेत्रों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुन्ती के पुत्र युधिष्ठिरादि जिनकी सर्वदा संभाल रखते हैं और कुन्ती ने ही जिनका लालन-पालन किया है, वे माद्री के यमज पुत्र नकुल-सहदेव कुशल से तो हैं न ? उन्होंने युद्ध में शत्रु से अपना राज्य उसी प्रकार छीन लिया, जैसे दो गरुड़ इन्द्र के मुख से अमृत निकाल लायें ॥ ३९ ॥ अहो ! बेचारी कुन्ती तो राजर्षिश्रेष्ठ पाण्डु के वियोग में मृतप्राय-सी होकर भी इन बालकों के लिये ही प्राण धारण किये हुए हैं । रथियों में श्रेष्ठ महाराज पाण्डु ऐसे अनुपम वीर थे कि उन्होंने केवल एक धनुष लेकर ही अकेले चारों दिशाओं को जीत लिया था ॥ ४० ॥ सौम्यस्वभाव उद्धवजी ! मुझे तो अधःपतन की ओर जानेवाले उन धृतराष्ट्र के लिये बार-बार शोक होता है, जिन्होंने पाण्डवों के रूप में अपने परलोकवासी भाई पाण्डु से ही द्रोह किया तथा अपने पुत्रों की हॉ-में-हाँ मिलाकर अपने हितचिन्तक मुझको भी नगर से निकलवा दिया ॥ ४१ ॥ किंतु भाई ! मुझे इसका कुछ भी खेद अथवा आश्चर्य नहीं हैं । जगद्विधाता भगवान् श्रीकृष्ण ही मनुष्यकी-सी लीलाएँ करके लोगों की मनोवृत्तियों को भ्रमित कर देते हैं । मैं तो उन्हीं की कृपा से उनकी महिमा को देखता हुआ दूसरों की दृष्टि से दूर हूँ ॥ ४२ ॥

यद्यपि कौरवों ने उनके बहुत-से अपराध किये, फिर भी भगवान् ने उनकी इसीलिये उपेक्षा कर दी थी कि वे उनके साथ उन दुष्ट राजाओं को भी मारकर अपने शरणागत का दुःख दूर करना चाहते थे, जो धन, विद्या और जाति के मद से अंधे होकर कुमार्गगामी हो रहे थे और बार-बार अपनी सेनाओं से पृथ्वी को कँपा रहे थे ॥ ४३ ॥ उद्धवजी ! भगवान् श्रीकृष्ण जन्म और कर्म से रहित हैं, फिर भी दुष्टों का नाश करने के लिये और लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये उनके दिव्य जन्म-कर्म हुआ करते हैं । नहीं तो, भगवान् की तो बात ही क्या — दूसरे जो लोग गुणों से पार हो गये हैं, उनमें भी ऐसा कौन है, जो इस कर्माधीन देह के बन्धन में पड़ना चाहेगा ॥ ४४ ॥ अतः मित्र ! जिन्होंने अजन्मा होकर भी अपनी शरण में आये हुए समस्त लोकपाल और आज्ञाकारी भक्तों का प्रिय करने के लिये यदुकुल में जन्म लिया है, उन पवित्रकीर्ति श्रीहरि की बातें सुनाओ ॥ ४५ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.