April 17, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय १ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय पहला अध्याय भगवान् के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह और कंस के द्वारा देवकी के छः पुत्रों की हत्या राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! आपने चन्द्रवंश और सूर्यवंश के विस्तार तथा दोनों वंशों के राजाओं का अत्यन्त अद्भुत चरित्र वर्णन किया । भगवान् के परम प्रेमी मुनिवर ! आपने स्वभाव से ही धर्मप्रेमी यदुवंश का भी विशद वर्णन किया । अब कृपा करके उसी वंश में अपने अंश श्रीबलरामजी के साथ अवतीर्ण हुए भगवान् श्रीकृष्ण के परम पवित्र चरित्र भी हमें सुनाइये ॥ १-२ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के जीवनदाता एवं सर्वात्मा हैं । उन्होंने यदुवंश में अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ कीं, उनका विस्तार से हमलोगों को श्रवण कराइये ॥ ३ ॥ जिनकी तृष्णा की प्यास सर्वदा के लिये बुझ चुकी है, वे जीवन्मुक्त महापुरुष जिसका पूर्ण प्रेम से अतृप्त रहकर गान किया करते हैं, मुमुक्षुजनों के लिये जो भव-रोग का रामबाण औषध है तथा विषयी लोगों के लिये भी उनके कान और मन को परम आह्लाद देनेवाला है, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ऐसे सुन्दर, सुखद, रसीले, गुणानुवाद से पशुघाती अथवा आत्मघाती मनुष्य के अतिरिक्त और ऐसा कौन हैं जो विमुख हो जाय, उससे प्रीति न करे ? ॥ ४ ॥ (श्रीकृष्ण तो मेरे कुलदेव ही हैं।) जब कुरुक्षेत्र में महाभारत-युद्ध हो रहा था और देवताओं को भी जीत लेनेवाले भीष्मपितामह आदि अतिरथियों से मेरे दादा पाण्डवों का युद्ध हो रहा था, उस समय कौरवों की सेना उनके लिये अपार समुद्र के समान थी जिसमें भीष्म आदि वीर बड़े-बड़े मच्छों को भी निगल जानेवाले तिमिङ्गिल मच्छों की भाँति भय उत्पन्न कर रहे थे । परन्तु मेरे स्वनामधन्य पितामह भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की नौका का आश्रय लेकर उस समुद्र को अनायास ही पार कर गये ठीक वैसे ही जैसे कोई मार्ग में चलता हुआ स्वभाव से ही बछड़े के खुर का गड़्ढा पार कर जाय ॥ ५ ॥ महाराज ! मेरा यह शरीर जो आपके सामने हैं तथा जो कौरव और पाण्डव दोनों ही वंश का एकमात्र सहारा था — अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जल चुका था । उस समय मेरी माता जब भगवान् की शरण में गयीं, तब उन्होंने हाथ में चक्र लेकर मेरी माता के गर्भ में प्रवेश किया और मेरी रक्षा की ॥ ६ ॥ (केवल मेरी ही बात नहीं,) वे समस्त शरीरधारियों के भीतर आत्मारूप से रहकर अमृतत्व का दान कर रहे हैं और बाहर कालरूप से रहकर मृत्यु का । मनुष्य के रूप में प्रतीत होना, यह तो उनकी एक लीला है । आप उन्हीं की ऐश्वर्य और माधुर्य से परिपूर्ण लीलाओं का वर्णन कीजिये ॥ ७ ॥ भगवन् ! आपने अभी बतलाया था कि बलरामजी रोहिणी के पुत्र थे । इसके बाद देवकी के पुत्रों में भी आपने उनकी गणना की । दूसरा शरीर धारण किये बिना दो माताओं का पुत्र होना कैसे सम्भव है ? ॥ ८ ॥ असुरों को मुक्ति देनेवाले और भक्तों को प्रेम वितरण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण अपने वात्सल्य-स्नेह से भरे हुए पिता का घर छोड़कर व्रज में क्यों चले गये ? यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल प्रभु ने नन्द आदि गोप-वधुओं के साथ कहाँ-कहाँ निवास किया ? ॥ ९ ॥ ब्रह्मा और शङ्कर का भी शासन करनेवाले प्रभु ने व्रज में तथा मधुपुरी में रहकर कौन-कौन-सी लीलाएँ कीं ? और महाराज ! उन्होंने अपनी माँ के भाई मामा कंस को अपने हाथों क्यों मार डाला ? वह मामा होने के कारण उनके द्वारा मारे जाने योग्य तो नहीं था ॥ १० ॥ मनुष्याकार सच्चिदानन्दमय विग्रह प्रकट करके द्वारकापुरी में यदुवंशियों के साथ उन्होंने कितने वर्षों तक निवास किया ? और उन सर्वशक्तिमान् प्रभु की पत्नियाँ कितनी थीं ? ॥ ११ ॥ मुने ! मैंने श्रीकृष्ण की जितनी लीलाएँ पूछी हैं और जो नहीं पूछी हैं, वे सब आप मुझे विस्तार से सुनाइये; क्योंकि आप सब कुछ जानते हैं और मैं बड़ी श्रद्धा के साथ उन्हें सुनना चाहता हूँ ॥ १२ ॥ भगवन् ! अन्न की तो बात ही क्या, मैंने जल का भी परित्याग कर दिया है । फिर भी वह असह्य भूख-प्यास (जिसके कारण मैंने मुनि के गले में मृत सर्प डालने का अन्याय किया था) मुझे तनिक भी नहीं सता रही हैं, क्योंकि मैं आपके मुखकमल से झरती हुई भगवान् की सुधामयी लीला-कथा का पान कर रहा हूँ ॥ १३॥ सूतजी कहते हैं — शौनकजी ! भगवान् के प्रेमियों में अग्रगण्य एवं सर्वज्ञ श्रीशुकदेवजी महाराज ने परीक्षित् का ऐसा समीचीन प्रश्न सुनकर (जो संतों की सभा में भगवान् की लीला के वर्णन का हेतु हुआ करता है) उनका अभिनन्दन किया और भगवान् श्रीकृष्ण की उन लीलाओं का वर्णन प्रारम्भ किया, जो समस्त कलिमलों को सदा के लिये धो डालती है ॥ १४ ॥ श्रीशुकदेवजी ने कहा — भगवान् के लीला-रस के रसिक राजर्षे ! तुमने जो कुछ निश्चय किया है, वह बहुत ही सुन्दर और आदरणीय है; क्योंकि सबके हदयाराध्य श्रीकृष्ण की लीला-कथा श्रवण करने में तुम्हें सहज एवं सुदढ़ प्रीति प्राप्त हो गयी है ॥ १५ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण की कथा के सम्बन्ध में प्रश्न करने से ही वक्ता, प्रश्नकर्ता और श्रोता तीनों ही पवित्र हो जाते हैं — जैसे गङ्गाजी का जल या भगवान् शालग्राम का चरणामृत सभी को पवित्र कर देता हैं ॥ १६ ॥ परीक्षित् ! उस समय लाखों दैत्यों के दल ने घमंडी राजाओं का रूप धारण कर अपने भारी भार से पृथ्वी को आक्रान्त कर रखा था । उससे त्राण पाने के लिये वह ब्रह्माजी की शरण में गयी ॥ १७ ॥ पृथ्वी ने उस समय गौ का रूप धारण कर रखा था । उसके नेत्रों से आँसू बह-बहकर मुंह पर आ रहे थे । उसका मन तो खिन्न था ही, शरीर भी बहुत कृश हो गया था । वह बड़े करुण स्वर से रँभा रही थीं । ब्रह्माजी के पास जाकर उसने उन्हें अपनी पूरी कष्ट-कहानी सुनायी ॥ १८ ॥ ब्रह्माजी ने बड़ी सहानुभूति के साथ उसकी दुःख-गाथा सुनी । उसके बाद वे भगवान् शङ्कर, स्वर्ग के अन्यान्य प्रमुख देवता तथा गौ के रूप में आयी हुई पृथ्वी को अपने साथ लेकर क्षीरसागर के तट पर गये ॥ १९ ॥ भगवान् देवताओं के भी आराध्यदेव हैं । वे अपने भक्तों की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण करते और उनके समस्त क्लेशों को नष्ट कर देते हैं । वे ही जगत् के एकमात्र स्वामी हैं । क्षीरसागर के तट पर पहुंचकर ब्रह्मा आदि देवताओं ने ‘पुरुषसूक्त’ के द्वारा उन्हीं परम पुरुष सर्वान्तर्यामी प्रभु की स्तुति की । स्तुति करते-करते ब्रह्माजी समाधिस्थ हो गये ॥ २० ॥ उन्होंने समाधि अवस्था में आकाशवाणी सुनी । इसके बाद जगत् के निर्माणकर्ता ब्रह्माजी ने देवताओं से कहा — ‘देवताओ ! मैंने भगवान् की वाणी सुनी है । तुम लोग भी उसे मेरे द्वारा अभी सुन लो और फिर वैसा ही करो । उसके पालन में विलम्ब नहीं होना चाहिये ॥ २१ ॥ भगवान् को पृथ्वी के कष्ट का पहले से ही पता है । वे ईश्वरों के भी ईश्वर हैं । अतः अपनी कालशक्ति के द्वारा पृथ्वी का भार हरण करते हुए वे जब तक पृथ्वी पर लीला करें, तब तक तुम लोग भी अपने-अपने अंशों के साथ यदुकुल में जन्म लेकर उनकी लीला में सहयोग दो ॥ २२ ॥ वसुदेवजी के घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान् प्रकट होंगे । उनकी और उनकी प्रियतमा (श्रीराधा) की सेवा के लिये देवाङ्गनाएँ जन्म ग्रहण करें ॥ २३ ॥ स्वयंप्रकाश भगवान् शेष भी, जो भगवान् की कला होने के कारण अनन्त हैं (अनन्त का अंश भी अनन्त ही होता है) और जिनके सहस्र मुख हैं, भगवान् के प्रिय कार्य करने के लिये उनसे पहले ही उनके बड़े भाई के रूप में अवतार ग्रहण करेंगे ॥ २४ ॥ भगवान् की वह ऐश्वर्यशालिनी योगमाया भी, जिसने सारे जगत् को मोहित कर रक्खा है, उनकी आज्ञा से उनकी लीला के कार्य सम्पन्न करने के लिये अंशरूप से अवतार ग्रहण करेगी’ ॥ २५ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! प्रजापतियों के स्वामी भगवान् ब्रह्माजी ने देवताओं को इस प्रकार आज्ञा दी और पृथ्वी को समझा-बुझाकर ढाढ़स बँधाया । इसके बाद वे अपने परम धाम को चले गये ॥ २६ ॥ प्राचीन काल में यदुवंशी राजा थे शूरसेन । वे मथुरापुरी में रहकर माथुरमण्डल और शूरसेनमण्डल का राज्यशासन करते थे ॥ २७ ॥ उसी समय से मथुरा ही समस्त यदुवंशी नरपतियों की राजधानी हो गयी थी । भगवान् श्रीहरि सर्वदा वहाँ विराजमान रहते हैं ॥ २८ ॥ एक बार मथुरा में शूर के पुत्र वसुदेवजी विवाह करके अपनी नवविवाहिता पत्नी देवकी के साथ घर जाने के लिये रथ पर सवार हुए ॥ २९ ॥ उग्रसेन का लड़का था कंस । उसने अपनी चचेरी बहिन देवकी को प्रसन्न करने के लिये उसके रथ के घोड़ों की रास पकड़ ली । वह स्वयं ही रथ हाँकने लगा, यद्यपि उसके साथ सैकड़ो सोने के बने हुए रथ चल रहे थे ॥ ३० ॥ देवकी के पिता थे देवक । अपनी पुत्री पर उनका बड़ा प्रेम था । कन्या को विदा करते समय उन्होंने उसे सोने के हारों से अलङ्कत चार सौ हाथी, पंद्रह हजार घोड़े, अठारह सौ रथ तथा सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषणों से विभूषित दो सौ सुकुमारी दासियाँ दहेज में दीं ॥ ३१-३२ ॥ विदाई के समय वर-वधू के मङ्गल के लिये एक ही साथ शङ्ख, तुरही, मृदङ्ग और दुन्दुभियां बजने लगीं ॥ ३३ ॥ मार्ग में जिस समय घोड़ों की रास पकड़कर कंस रथ हाँक रहा था, उस समय आकाशवाणी ने उसे सम्बोधन करके कहा — ‘अरे मूर्ख ! जिसको तू रथ में बैठाकर लिये जा रहा है, उसकी आठवें गर्भ की सन्तान तुझे मार डालेगी’ ॥ ३४ ॥ कंस बड़ा पापी था । उसकी दुष्टता की सीमा नहीं थी । वह भोजवंश का कलंक ही था । आकाशवाणी सुनते ही उसने तलवार खींच ली और अपनी बहिन की चोटी पकड़कर उसे मारने के लिये तैयार हो गया ॥ ३५ ॥ वह अत्यन्त क्रूर तो था ही, पाप-कर्म करते-करते निर्लज्ज भी हो गया था । उसका यह काम देखकर महात्मा वसुदेवजी उसको शान्त करते हुए बोले — ॥ ३६ ॥ वसुदेवजी ने कहा — राजकुमार ! आप भोजवंश के होनहार वंशधर तथा अपने कुल की कीर्ति बढ़ानेवाले हैं । बड़े-बड़े शूरवीर आपके गुणों की सराहना करते हैं । इधर यह एक तो स्त्री, दूसरे आपकी बहिन और तीसरे यह विवाह का शुभ अवसर ! ऐसी स्थिति में आप इसे कैसे मार सकते हैं ? ॥ ३७ ॥ वीरवर ! जो जन्म लेते हैं, उनके शरीर के साथ ही मृत्यु भी उत्पन्न होती हैं । आज हो या सौ वर्ष के बाद — जो प्राणी है, उसकी मृत्यु होगी ही ॥ ३८ ॥ जब शरीर का अन्त हो जाता है, तब जीव अपने कर्म के अनुसार दूसरे शरीर को ग्रहण करके अपने पहले शरीर को छोड़ देता है । उसे विवश होकर ऐसा करना पड़ता है ॥ ३९ ॥ जैसे चलते समय मनुष्य एक पैर जमाकर ही दूसरा पैर उठाता है और जैसे जोंक किसी अगले तिनके को पकड़ लेती हैं, तब पहले के पकड़े हुए तिनके को छोड़ती हैं — वैसे जीव भी अपने कर्म के अनुसार किसी शरीर को प्राप्त करने के बाद ही इस शरीर को छोड़ता है ॥ ४० ॥ जैसे कोई पुरुष जाग्रत्-अवस्था में राजा के ऐश्वर्य को देखकर और इन्द्रादि के ऐश्वर्य को सुनकर उसकी अभिलाषा करने लगता है और उसका चिन्तन करते-करते उन्हीं बातों में घुल-मिलकर एक हो जाता है तथा स्वप्न में अपने को राजा या इन्द्र रूप में अनुभव करने लगता है, साथ ही अपने दरिद्रावस्था के शरीर को भूल जाता है । कभी-कभी तो जाग्रत् अवस्था में ही मन-ही-मन उन बातों का चिन्तन करते-करते तन्मय हो जाता है और उसे स्थूल शरीर की सुधि नहीं रहती, वैसे ही जीव कर्मकृत कामना और कामनाकृत कर्म के वश होकर दूसरे शरीर को प्राप्त हो जाता है और अपने पहले शरीर को भूल जाता है ॥ ४१ ॥ जीव का मन अनेक विकारों का पुञ्ज है । देहान्त के समय वह अनेक जन्मों के सञ्चित और प्रारब्ध कर्मों की वासनाओं के अधीन होकर माया के द्वारा रचे हुए अनेक पाञ्चभौतिक शरीरों में से जिस किसी शरीर के चिन्तन में तल्लीन हो जाता है और मान बैठता है कि यह मैं हूँ, उसे वही शरीर ग्रहण करके जन्म लेना पड़ता है ॥ ४२ ॥ जैसे सूर्य, चन्द्रमा आदि चमकीली वस्तुएँ जल से भरे हुए घड़ों में या तेल आदि तरल पदार्थों में प्रतिबिम्बित होती हैं और वायु के झोंके से उनके जल आदि के हिलने-डोलने पर उनमें प्रतिबिम्बित वस्तुएँ भी चञ्चल जान पड़ती हैं — वैसे ही जीव अपने स्वरूप के अज्ञान द्वारा रचे हुए शरीरों में राग करके उन्हें अपना-आप मान बैठता हैं और मोहवश उनके आने-जाने को अपना आना-जाना मानने लगता है ॥ ४३ ॥ इसलिये जो अपना कल्याण चाहता है, उसे किसी से द्रोह नहीं करना चाहिये; क्योंकि जीव कर्म के अधीन हो गया है और जो किसी से भी द्रोह करेगा, उसको इस जीवन में शत्रु से और जीवन के बाद परलोक से भयभीत होना ही पड़ेगा ॥ ४४ ॥ कंस ! यह आपकी छोटी बहन अभी बच्ची और बहुत दीन है । यह तो आपको कन्या के समान है । इसपर, अभी-अभी इसका विवाह हुआ है, विवाह के मङ्गल चिह्न भी इसके शरीर पर से नहीं उतरे हैं । ऐसी दशा में आप जैसे दीनवत्सल पुरुष को इस बेचारी का वध करना उचित नहीं है ॥ ४५ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! इस प्रकार वसुदेवजी ने प्रशंसा आदि सामनीति और भय आदि भेदनीति से कंस को बहुत समझाया । परन्तु वह क्रूर तो राक्षसों का अनुयायी हो रहा था; इसलिये उसने अपने घोर संकल्प को नहीं छोड़ा ॥ ४६ ॥ वसुदेवजी ने कंस का विकट हठ देखकर यह विचार किया कि किसी प्रकार यह समय तो टाल ही देना चाहिये । तब वे इस निश्चय पर पहुँचे ॥ ४७ ॥ ‘बुद्धिमान् पुरुष को, जहाँ तक उसकी बुद्धि और बल साथ दें, मृत्यु को टालने का प्रयत्न करना चाहिये । प्रयत्न करने पर भी वह न टल सके, तो फिर प्रयत्न करनेवाले का कोई दोष नहीं रहता ॥ ४८ ॥ इसलिये इस मृत्युरूप कंस को अपने पुत्र दे देने की प्रतिज्ञा करके मैं इस दीन देवकी को बचा लूँ । यदि मेरे लड़के होंगे और तब तक यह कंस स्वयं नहीं मर जायगा, तब क्या होगा ? ॥ ४९ ॥ सम्भव है, उलटा ही हो । मेरा लड़का ही इसे मार डाले ! क्योंकि विधाता के विधान का पार पाना बहुत कठिन है । मृत्यु सामने आकर भी टल जाती हैं । और टली हुई भी लौट आती हैं ॥ ५० ॥ जिस समय वन में आग लगती हैं, उस समय कौन-सी लकड़ी जले और कौन-सी न जले, दूर की जल जाय और पास की बच रहे इन सब बातों में अदृष्ट के सिवा और कोई कारण नहीं होता । वैसे ही किस प्राणी का कौन-सा शरीर बना रहेगा और किस हेतु से कौन-सा शरीर नष्ट हो जायगा — इस बात का पता लगा लेना बहुत ही कठिन हैं ॥ ५१ ॥ अपनी बुद्धि के अनुसार ऐसा निश्चय करके वसुदेवजी ने बहुत सम्मान के साथ पापी कंस की बड़ी प्रशंसा की ॥ ५२ ॥ परीक्षित् ! कंस बड़ा क्रूर और निर्लज्ज था; अतः ऐसा करते समय वसुदेवजी के मन में बड़ी पीड़ा भी हो रही थी । फिर भी उन्होंने ऊपर से अपने मुख-कमल को प्रफुल्लित करके हँसते हुए कहा — ॥ ५३ ॥ वसुदेवजी ने कहा — सौम्य ! आपको देवकी से तो कोई भय है नहीं, जैसा कि आकाशवाणी ने कहा है । भय है पुत्रों से, सो इसके पुत्र में आपको लाकर सौंप दूँगा ॥ ५४ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! कंस जानता था कि वसुदेवजी के वचन झूठे नहीं होते और इन्होंने जो कुछ कहा है, वह युक्तिसंगत भी है । इसलिये उसने अपनी बहिन देवकी को मारने का विचार छोड़ दिया । इससे वसुदेवजी बहुत प्रसन्न हुए और उसकी प्रशंसा करके अपने घर चले आये ॥ ५५ ॥ देवकी बड़ी सती-साध्वी थी । सारे देवता उसके शरीर में निवास करते थे । समय आने पर देवकी के गर्भ से प्रतिवर्ष एक-एक करके आठ पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई ॥ ५६ ॥ पहले पुत्र का नाम था कीर्तिमान् । वसुदेवजी ने उसे लाकर कंस को दे दिया । ऐसा करते समय उन्हें कष्ट तो अवश्य हुआ, परन्तु उससे भी बड़ा कष्ट उन्हें इस बात का था कि कहीं मेरे वचन झूठे न हो जायें ॥ ५७ ॥ परीक्षित् ! सत्यसन्ध पुरुष बड़े-से-बड़ा कष्ट भी सह लेते हैं, ज्ञानियों को किसी बात की अपेक्षा नहीं होती, नीच पुरुष बुरे से बुरा काम भी कर सकते हैं और जो जितेन्द्रिय हैं जिन्होंने भगवान् को हृदय में धारण कर रखा है, वे सब कुछ त्याग सकते हैं ॥ ५८ ॥ जब कंस ने देखा कि वसुदेवजी का अपने पुत्र के जीवन और मृत्यु में समान भाव हैं एवं वे सत्य में पूर्ण निष्ठावान् भी हैं, तब वह बहुत प्रसन्न हुआ और उनसे हँसकर बोला ॥ ५९ ॥ ‘वसुदेवजी ! आप इस नन्हे-से-सुकुमार बालक को ले जाइये । इससे मुझे कोई भय नहीं है । क्योंकि आकाशवाणी ने तो ऐसा कहा था कि देवकी के आठवें गर्भ से उत्पन्न सन्तान के द्वारा मेरी मृत्यु होगी’ ॥ ६० ॥ वसुदेवजी ने कहा — ‘ठीक हैं और उस बालक को लेकर वे लौट आये । परन्तु उन्हें मालूम था कि कंस बड़ा दुष्ट है और उसका मन उसके हाथ में नहीं है । वह किसी क्षण बदल सकता हैं । इसलिये उन्होंने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया ॥ ६१ ॥ परीक्षित् ! इधर भगवान् नारद कंस के पास आये और उससे बोले कि ‘कंस ! व्रज में रहनेवाले नन्द आदि गोप, उनकी स्त्रियाँ, वसुदेव आदि वृष्णिवंशी यादव, देवकी आदि यदुवंश की स्त्रियाँ और नन्द, वसुदेव दोनों के सजातीय बन्धु-बान्धव और सगे-सम्बन्धी सब-के-सब देवता है, जो इस समय तुम्हारी सेवा कर रहे हैं, वे भी देवता ही हैं । उन्होंने यह भी बतलाया कि दैत्यों के कारण पृथ्वी का भार बढ़ गया है, इसलिये देवताओं की ओर से अब उनके वध की तैयारी की जा रही हैं’ ॥ ६२-६४ ॥ जब देवर्षि नारद इतना कहकर चले गये, तब कंस को यह निश्चय हो गया कि यदुवंशी देवता हैं और देवकी के गर्भ से विष्णुभगवान् ही मुझे मारने के लिये पैदा होनेवाले हैं । इसलिये उसने देवकी और वसुदेव को हथकड़ी-बेडी से जकड़कर कैद में डाल दिया और उन दोनों से जो-जो पुत्र होते गये, उन्हें वह मारता गया । उसे हर बार यह शंका बनी रहती कि कहीं विष्णु ही उस बालक के रूप में न आ गया हो ॥ ६५-६६ ॥ परीक्षित् ! पृथ्वी में यह बात प्रायः देखी जाती है कि अपने प्राणों का ही पोषण करनेवाले लोभी राजा अपने स्वार्थ के लिये माता-पिता, भाई-बन्धु और अपने अत्यन्त हितैषी इष्ट-मित्रों की भी हत्या कर डालते है ॥ ६७ ॥ कंस जानता था कि मैं पहले कालनेमि असुर था और विष्णु ने मुझे मार वाला था । इससे उसने यदुवंशियों से घोर विरोध ठान लिया ॥ ६८ ॥ कंस बड़ा बलवान् था । उसने यदु, भोज और अन्धक वंश के अधिनायक अपने पिता उग्रसेन को कैद कर लिया और शूरसेन-देश का राज्य वह स्वयं करने लगा ॥ ६९ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे प्रथमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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