May 11, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – द्वादशः स्कन्ध – अध्याय ५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय पाँचवाँ अध्याय श्रीशुकदेवजी का अन्तिम उपदेश श्रीशुकदेवजी कहते हैं — प्रिय परीक्षित् ! इस श्रीमद्भागवत महापुराण में बार-बार और सर्वत्र विश्वात्मा भगवान् श्रीहरि का ही संकीर्तन हुआ है । ब्रह्मा और रुद्र भी श्रीहरि से पृथक् नहीं हैं, उन्हीं की प्रसाद-लीला और क्रोध-लीला की अभिव्यक्ति हैं ॥ १ ॥ हे राजन् ! अब तुम यह पशुओंकी-सी अविवेकमूलक धारणा छोड़ दो कि मैं मरूँगा; जैसे शरीर पहले नहीं था और अब पैदा हुआ और फिर नष्ट हो जायगा, वैसे ही तुम भी पहले नहीं थे, तुम्हारा जन्म हुआ, तुम मर जाओगे — यह बात नहीं हैं ॥ २ ॥ जैसे बीज से अङ्कुर और अङ्कुर से बीज की उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक देह से दूसरे देह की और दूसरे देह से तीसरे की उत्पत्ति होती हैं । किन्तु तुम न तो किसी से उत्पन्न हुए हो और न तो आगे पुत्र-पौत्रादिकों के शरीर के रूप में उत्पन्न होओगे । अजी, जैसे आग लकड़ी से सर्वथा अलग रहती है — लकड़ी की उत्पत्ति और विनाश से सर्वथा परे, वैसे ही तुम भी शरीर आदि से सर्वथा अलग हो ॥ ३ ॥ स्वप्नावस्था में ऐसा मालूम होता है कि मेरा सिर कट गया है और में मर गया हूँ. मुझे लोग श्मशान में जला रहे हैं, परन्तु ये सब शरीर की ही अवस्थाएँ दीखती हैं, आत्मा की नहीं । देखनेवाला तो उन अवस्थाओं से सर्वथा परे, जन्म और मृत्यु से रहित, शुद्ध बुद्ध परम-तत्त्व-स्वरूप है ॥ ४ ॥ जैसे घड़ा फूट जाने पर आकाश पहले की ही भाँति अखण्ड रहता है, परन्तु घटाकाशता की निवृत्ति हो जाने से लोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि वह महाकाश से मिल गया है । वास्तव में तो वह मिला हुआ था ही, वैसे ही देहपात हो जाने पर ऐसा मालूम पड़ता है, मानो जीव ब्रह्म हो गया । वास्तव में तो वह ब्रह्म था ही, उसको अब्रह्मता तो प्रतीतिमात्र थी ॥ ५ ॥ मन ही आत्मा के लिये शरीर, विषय और कर्मों की कल्पना कर लेता है; और उस मन की सृष्टि करती है माया (अविद्या) । वास्तव में माया ही जीव के संसार-चक्र में पड़ने का कारण है ॥ ६ ॥ जब तक तेल, तेल रखने का पात्र, बत्ती और आग का संयोग रहता है, तभी तक दीपक में दीपकपना है, वैसे ही उनके ही समान जब तक आत्मा का कर्म, मन, शरीर और इनमें रहनेवाले चैतन्याध्यास के साथ सम्बन्ध रहता है तभी तक उसे जन्म-मृत्यु के चक्र संसार में भटकना पड़ता है और रजोगुण, सत्त्वगुण तथा तमोगुण की वृत्तियों से उसे उत्पन्न, स्थित एवं विनष्ट होना पड़ता है ॥ ७ ॥ परन्तु जैसे दीपक बुझ जाने से तत्त्वरूप तेज का विनाश नहीं होता, वैसे हीं संसार का नाश होने पर भी स्वयंप्रकाश आत्मा का नाश नहीं होता । क्योंकि वह कार्य और कारण, व्यक्त और अव्यक्त सबसे परे हैं, वह आकाश के समान सबका आधार है, नित्य और निश्चल हैं, वह अनन्त है । सचमुच आत्मा की उपमा आत्मा ही है ॥ ८ ॥ हे राजन् ! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धि को परमात्मा के चिन्तन से भरपूर कर लो और स्वयं ही अपने अन्तर में स्थित परमात्मा का साक्षात्कार करो ॥ ९ ॥ देखो, तुम मृत्युओं की भी मृत्यु हो । तुम स्वयं ईश्वर हो । ब्राह्मण के शाप से प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा । अजी, तक्षक की तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओं का समूह भी तुम्हारे पास तक न फटक सकेंगे ॥ १० ॥ तुम इस प्रकार अनुसंधान–चिन्तन करो कि ‘मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रहा हूँ । सर्वाधिष्ठान ब्रह्म मैं ही हूँ । इस प्रकार तुम अपने-आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूप में स्थित कर लो ॥ ११ ॥ उस समय अपनी विषैली जीभ लपलपाता हुआ, अपने होठों के कोने चाटता हुआ तक्षक आये और अपने विषपूर्ण मुखों से तुम्हारे पैरों में डस ले — कोई परवा नहीं । तुम अपने आत्मस्वरूप में स्थित होकर इस शरीर को और तो क्या, सारे विश्व को भी अपने से पृथक् न देखोगे ॥ १२ ॥ आत्मस्वरूप बेटा परीक्षित् ! तुमने विश्वात्मा भगवान् की लीला के सम्बन्ध में जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ?॥ १३ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe