श्रीमद्भागवतमहापुराण – द्वादशः स्कन्ध – अध्याय ६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
छठा अध्याय
परीक्षित की परमगति, जनमेजय को सर्पसत्र और वेदों के शाखाभेद

सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियो ! व्यासनन्दन श्रीशुकदेव मुनि समस्त चराचर जगत् को अपनी आत्मा के रूप में अनुभव करते हैं और व्यवहार में सबके प्रति समदृष्टि रखते हैं । भगवान् के शरणागत एवं उनके द्वारा सुरक्षित राजर्षि परीक्षित् ने उनका सम्पूर्ण उपदेश बड़े ध्यान से श्रवण किया । अब वे सिर झुकाकर उनके चरणों के तनिक और पास खिसक आये तथा अञ्जलि बाँधकर उनसे यह प्रार्थना करने लगे ॥ १ ॥

राजा परीक्षित् ने कहा —
भगवन् ! आप करुणा के मूर्तिमान् स्वरूप हैं । आपने मुझ पर परम कृपा करके अनादि-अनन्त, एकरस, सत्य भगवान् श्रीहरि के स्वरूप और लीलाओं का वर्णन किया हैं । अब मैं आपकी कृपा से परम अनुगृहीत और कृतकृत्य हो गया हूँ ॥ २ ॥ संसार के प्राणी अपने स्वार्थ और परमार्थ के ज्ञान से शून्य हैं और विभिन्न प्रकार के दुःखों के दावानल से दग्ध हो रहे हैं । उनके ऊपर भगवन्मय महात्माओं का अनुग्रह होना कोई नयी घटना अथवा आश्चर्य की बात नहीं हैं । यह तो उनके लिये स्वाभाविक ही है ॥ ३ ॥ मैंने और मेरे साथ और बहुत-से लोगों ने आपके मुखारविन्द से इस श्रीमद्भागवत महापुराण का श्रवण किया है । इस पुराण में पद-पद पर भगवान् श्रीहरि के उस स्वरूप और उन लीलाओं का वर्णन हुआ है, जिसके गान में बड़े-बड़े आत्माराम पुरुष रमते रहते हैं ॥ ४ ॥ भगवन् ! आपने मुझे अभयपद का, ब्रह्म और आत्मा की एकता का साक्षात्कार करा दिया है । अब मैं परम शान्तिस्वरूप ब्रह्म में स्थित हूँ । अब मुझे तक्षक आदि किसी भी मृत्यु के निमित्त से अथवा दल-के-दलं मृत्युओं से भी भय नहीं है । मैं अभय हो गया हूँ ॥ ५ ॥ ब्रह्मन् ! अब आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं अपनी वाणी बंद कर लूँ, मौन हो जाऊँ और साथ ही कामनाओं के संस्कार से भी रहित चित्त को इन्द्रियातीत परमात्मा के स्वरूप में विलीन करके अपने प्राणों का त्याग कर दूँ ॥ ६ ॥ आपके द्वारा उपदेश किये हुए ज्ञान और विज्ञान में परिनिष्ठित हो जाने से मेरा अज्ञान सर्वदा के लिये नष्ट हो गया । आपने भगवान् के परम कल्याणमय स्वरूप का मुझे साक्षात्कार करा दिया है ॥ ७ ॥

सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियो ! राजा परीक्षित् ने भगवान् श्रीशुकदेवजी से इस प्रकार कहकर बड़े प्रेम से उनकी पूजा की । अब वे परीक्षित् से विदा लेकर समागत त्यागी महात्माओं, भिक्षुओं के साथ वहाँ से चले गये ॥ ८ ॥ राजर्षि परीक्षित् ने भी बिना किसी बाह्य सहायता के स्वयं ही अपने अन्तरात्मा को परमात्मा के चिन्तन में समाहित किया और ध्यानमग्न हो गये । उस समय उनका श्वास-प्रश्वास भी नहीं चलता था, ऐसा जान पड़ता था मानो कोई वृक्ष का ठूँठ हो ॥ ९ ॥ उन्होंने गङ्गाजी के तट पर कुश को इस प्रकार बिछा रक्खा था, जिसमें उनका अग्रभाग पूर्व की ओर हो और उन पर स्वयं उत्तर मुँह होकर बैठे हुए थे । उनकी आसक्ति और संशय तो पहले ही मिट चुके थे । अब वे ब्रह्म और आत्मा की एकतारूप महायोग में स्थित होकर ब्रह्मस्वरूप हो गये ॥ १० ॥

शौनकादि ऋषियो ! मुनिकुमार शृङ्गी ने क्रोधित होकर परीक्षित् को शाप दे दिया था । अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प राजा परीक्षित् को डसने के लिये उनके पास चला । रास्ते में उसने कश्यप नाम के, एक ब्राह्मण को देखा ॥ ११ ॥ कश्यप ब्राह्मण सर्पविष की चिकित्सा करने में बड़े निपुण थे । तक्षक ने बहुत-साधन देकर कश्यप को वहीं से लौटा दिया, उन्हें राजा के पास न जाने दिया और स्वयं ब्राह्मण के रूप में छिपकर, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था, राजा परीक्षित् के पास गया और उन्हें डस लिया ॥ १२ ॥ राजर्षि परीक्षित् तक्षक के डसने के पहले ही ब्रह्म में स्थित हो चुके थे । अब तक्षक के विष की आग से उनका शरीर सबके सामने हो जलकर भस्म हो गया ॥ १३ ॥ पृथ्वी, आकाश और सब दिशाओं में बड़े जोर से ‘हाय-हाय’ की ध्वनि होने लगी । देवता, असुर, मनुष्य आदि सब-के-सब परीक्षित् की यह परम गति देखकर विस्मित हो गये ॥ १४ ॥ देवताओं की दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं । गन्धर्व और अप्सराएँ गान करने लगी । देवतालोग ‘साधु-साधु’ के नारे लगाकर पुष्पों की वर्षा करने लगे ॥ १५ ॥

जब जनमेजय ने सुना कि तक्षक ने मेरे पिताजी को डस लिया है, तो उसे बड़ा क्रोध हुआ । अब वह ब्राह्मण के साथ विधिपूर्वक सर्पों का अग्निकुण्ड में हवन करने लगा ॥ १६ ॥ तक्षक ने देखा कि जनमेजय के सर्प-सत्र की प्रज्वलित अग्नि में बड़े-बड़े महासर्प भस्म होते आ रहे हैं, तब वह अत्यन्त भयभीत होकर देवराज इन्द्र की शरण में गया ॥ १७ ॥ बहुत सर्पों के भस्म होने पर भी तक्षक न आया, यह देखकर परीक्षित् नन्दन राजा जनमेजय ने ब्राह्मणों से कहा कि ‘ब्राह्मणों ! अब तक सर्पाधम तक्षक क्यों नहीं भस्म हो रहा हैं ?॥ १८ ॥

ब्राह्मणों ने कहा — ‘राजेन्द्र ! तक्षक इस समय इन्द्र की शरण में चला गया है और वे उसकी रक्षा कर रहे हैं । उन्होंने ही तक्षक को स्तम्भित कर दिया है, इसीसे वह अग्निकुण्ड में गिरकर भस्म नहीं हो रहा हैं’ ॥ १९ ॥ परीक्षित् नन्दन जनमेजय बड़े ही बुद्धिमान् और वीर थे । उन्होंने ब्राह्मणों की बात सुनकर ऋत्विजों से कहा कि ‘ब्राह्मणो ! आपलोग इन्द्र के साथ तक्षक को क्यों नहीं अग्नि में गिरा देते ?’॥ २० ॥ जनमेजय की बात सुनकर ब्राह्मणों ने उस यज्ञ में इन्द्र के साथ तक्षक का अग्निकुण्ड में आवाहन किया । उन्होंने कहा — तक्षक ! तू मरुद्गण के सहचर इन्द्र के साथ इस अग्निकुण्ड में शीघ्र आ पड़’ ॥ २१ ॥ जब ब्राह्मणों ने इस प्रकार आकर्षण मन्त्र का पाठ किया, तब तो इन्द्र अपने स्थान–स्वर्गलोक से विचलित हो गये । विमान पर बैठे हुए इन्द्र तक्षक के साथ ही बहुत घबड़ा गये और उनका विमान भी चक्कर काटने लगा ॥ २२ ॥ अङ्गिरानन्दन बृहस्पतिजी ने देखा कि आकाश से देवराज इन्द्र विमान और तक्षक के साथ ही अग्निकुण्ड में गिर रहे हैं, तब उन्होंने राजा जनमेजय से कहा — ॥ २३ ॥

‘नरेन्द्र ! सर्पराज तक्षक को मार डालना आपके योग्य काम नहीं है । यह अमृत पी चुका है । इसलिये यह अजर और अमर है ॥ २४ ॥ राजन् ! जगत् के प्राणी अपने-अपने कर्म के अनुसार ही जीवन, मरण और मरणोत्तर गति प्राप्त करते हैं । कर्म के अतिरिक्त और कोई भी किसी को सुख-दुःख नहीं दे सकता ॥ २५ ॥ जनमेजय ! यों तो बहुत-से लोगों की मृत्यु साँप, चोर, आग, बिजली आदि से तथा भूख, प्यास, रोग आदि निमित्तों से होती है, परन्तु यह तो कहने की बात है । वास्तव में तो सभी प्राणी अपने प्रारब्ध-कर्म का ही उपभोग करते हैं ॥ २६ ॥ राजन् ! तुमने बहुत-से निरपराध सर्पों को जला दिया है । इस अभिचार-यज्ञ का फल केवल प्राणियों की हिंसा ही है । इसलिये इसे बन्द कर देना चाहिये । क्योंकि जगत् के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्धकर्म का ही भोग कर रहे हैं ॥ २३ ॥

सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियो ! महर्षि बृहस्पतिजी की बात का सम्मान करके जनमेजय ने कहा कि ‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है ।’ उन्होंने सर्प-सत्र बंद कर दिया और देवगुरु बृहस्पतिजी की विधिपूर्वक पूजा की ॥ २८ ॥ ऋषिगण ! (जिससे विद्वान् ब्राह्मण को भी क्रोध आया, राजा को शाप हुआ, मृत्यु हुई, फिर जनमेजय को क्रोध आया, सर्प मारे गये) यह वही भगवान् विष्णु की महामाया है । यह अनिर्वचनीय है, इससे भगवान् के स्वरूपभूत जीव क्रोधादि गुण-वृत्तियों के द्वारा शरीरों में मोहित हो जाते हैं, एक दूसरे को दुःख देते और भोगते हैं और अपने प्रयत्न से इसको निवृत्त नहीं कर सकते ॥ २९ ॥ (विष्णुभगवान् के स्वरूप का निश्चय करके उनका भजन करने से ही माया से निवृत्त होती है, इसलिये उनके स्वरूप का निरूपण सुनो — ) यह दम्भी हैं, कपटी है — इत्याकारक बुद्धि में बार-बार जो दम्भ-कपट का स्फुरण होता है, वही माया है । जब आत्मवादी पुरुष आत्मचर्चा करने लगते हैं, तब वह परमात्मा के स्वरूप में निर्भय रूप से प्रकाशित नहीं होती; किन्तु भयभीत होकर अपना मोह आदि कार्य न करती हुई ही किसी प्रकार रहती है । इस रूप में उसका प्रतिपादन किया गया हैं । माया के आश्रित नाना प्रकार के विवाद, मतवाद भी परमात्मा के स्वरूप में नहीं हैं; क्योंकि ये विशेष-विषयक हैं और परमात्मा निर्विशेष हैं । केवल वाद-विवाद की तो बात ही क्या, लोक-परलोक के विषयों के सम्बन्ध में सङ्कल्प-विकल्प करनेवाला मन भी शान्त हो जाता है ॥ ३० ॥

कर्म, उसके सम्पादन की सामग्री और उनके द्वारा साध्य-कर्म — इन तीनों से अन्वित अहङ्कारात्मक जीव — यह सब जिसमें नहीं हैं, वह आत्मस्वरूप परमात्मा न तो कभी किसी के द्वारा बाधित होता है और न तो किसी का विरोधी ही हैं । जो पुरुष उस परमपद के स्वरूप का विचार करता है, वह मन की मायामयी लहरों, अहङ्कार आदि का बाध करके स्वयं अपने आत्मस्वरूप में विहार करने लगता है ॥ ३१ ॥ जो मुमुक्षु एवं विचारशील पुरुष परमपद के अतिरिक्त वस्तु का परित्याग करते हुए ‘नेति-नेति’ के द्वारा उसका निषेध करके ऐसी वस्तु प्राप्त करते हैं, जिसका कभी निषेध नहीं हो सकता और न तो कभी त्याग ही, वहीं विष्णु-भगवान् का परमपद है; यह बात सभी महात्मा और श्रुतियाँ एक मत से स्वीकार करती हैं । अपने चित्त को एकाग्र करनेवाले पुरुष अन्तःकरण की अशुद्धियों को, अनात्म-भावना को सदा-सर्वदा के लिये मिटाकर अनन्य प्रेमभाव से परिपूर्ण हृदय के द्वारा उसी परमपद का आलिङ्गन करते हैं और उसमें समा जाते हैं ॥ ३२ ॥ विष्णु-भगवान् का यही वास्तविक स्वरूप है, यही उनका परम-पद हैं । इसकी प्राप्ति उन्हीं लोगों को होती हैं, जिनके अन्तःकरण में शरीर के प्रति अहंभाव नहीं हैं और न तो इसके सम्बन्धी गृह आदि पदार्थों में ममता ही । सचमुच जगत् की वस्तुओं में मैं-पन और मेरेपन का आरोप बहुत बड़ी दुर्जनता है ॥ ३३ ॥

शौनकजी ! जिसे इस परमपद की प्राप्ति अभीष्ट है, उसे चाहिये कि वह दूसरों की कटु वाणी सहन कर ले और बदले में किसी का अपमान न करे । इस क्षणभङ्गुर शरीर में अहंता-ममता करके किसी भी प्राणी से कभी वैर न करे ॥ ३४ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण का ज्ञान अनन्त हैं । उन्हीं के चरणकमलों के ध्यान से मैंने इस श्रीमद्भागवत महापुराण का अध्ययन किया है । मैं अब उन्हीं को नमस्कार करके यह पुराण समाप्त करता हूँ ॥ ३५ ॥

शौनकजी ने पूछा — साधुशिरोमणि सूतजी ! वेदव्यासजी के शिष्य पैल आदि महर्षि बड़े महात्मा और वेदों के आचार्य थे । उन लोगों ने कितने प्रकार से वेदों का विभाजन किया, यह बात आप कृपा करके हमें सुनाइये ॥ ३६ ॥

सूतजी ने कहा — ब्रह्मन् ! जिस समय परमेष्ठी ब्रह्माजी पूर्वसृष्टि का ज्ञान सम्पादन करने के लिये एकाग्र-चित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाश से कण्ठ- तालु आदि स्थानों के सङ्घर्ष से रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ । जब जीव अपनी मनोवृत्तियों को रोक लेता है, तब उसे भी उस अनाहत नाद का अनुभव होता हैं ॥ ३७ ॥ शौनकजी ! बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नाद की उपासना करते हैं और उसके प्रभाव से अन्तःकरण के द्रव्य (अधिभूत), क्रिया (अध्यात्म) और कारक (अधिदैव) रूप मल को नष्ट करके वह परमगतिरूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-मृत्युरुप संसार-चक्र नहीं हैं ॥ ३८ ॥ उसी अनाहत नाद से ‘अ’ कार, 3′ कार और म’ काररूप तीन मात्राओं से युक्त ॐ-कार प्रकट हुआ । इस ॐ-कार की शक्ति से ही प्रकृति अव्यक्त से व्यक्तरूप में परिणत हो जाती हैं । ॐ-कार स्वयं भी अव्यक्त एवं अनादि है और परमात्मस्वरूप होने के कारण स्वयंप्रकाश भी है । जिस परम वस्तु को भगवान् ब्रह्म अथवा परमात्मा के नाम से कहा जाता है, उसके स्वरूप का बोध भी ॐ-कार के द्वारा ही होता है ॥ ३९ ॥ जब श्रवणेन्द्रिय की शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस ॐ-कार को-समस्त अर्थों को प्रकाशित करनेवाले स्फोट तत्त्व को जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओं में सबके अभाव को भी जानता है, वही परमात्मा का विशुद्ध स्वरूप हैं । वहीं ॐ-कार परमात्मा से हृदयाकाश में प्रकट होकर वेदरूपा वाणी को अभिव्यक्त करता है ॥ ४० ॥ ॐ-कार अपने आश्रय परमात्मा परब्रह्म का साक्षात् वाचक है और ॐ-कार ही सम्पूर्ण मन्त्र, उपनिषद् और वेदों का सनातन बीज है ॥ ४१ ॥

शौनकजी ! ॐ-कार के तीन वर्ण हैं — ‘अ’, ‘उ’, और ‘म’ । ये ही तीनों वर्ण सत्व, रज, तम — इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम — इन तीन नामों; भूः, भुवः, स्वः — इन तीन अर्थों और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति — इन तीन वृत्तियों के रूप में तीन-तीन की संख्यावाले भावों को धारण करते हैं ॥ ४२ ॥ इसके बाद सर्वशक्तिमान् ब्रह्माजी ने ॐ-कार से ही अन्तःस्थ (य, र, ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (‘अ’ से ‘ॐ’ तक), स्पर्श (‘क’ से ‘ग’ तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणों से युक्त अक्षर — समाम्नाय अर्थात् वर्ण-माला की रचना की ॥ ४३ ॥ उसी वर्णमाला द्वारा उन्होंने अपने चार मुखों से होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा — इन चार ऋत्विजों के कर्म बतलाने के लिये ॐ-कार और व्याहृतियों के सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र ब्रह्मर्षि मरीचि आदि को वेदाध्ययन में कुशल देखकर उन्हें वेदों की शिक्षा दी । वे सभी जब धर्म का उपदेश करने में निपुण हो गये, तब उन्होंने अपने पुत्रों को उनका अध्ययन कराया ॥ ४४-४५ ॥ तदनन्तर, उन्हीं लोगों के नैष्टिक ब्रह्मचारी शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा चारों युगों में सम्प्रदाय के रूप में वेदों की रक्षा होती रही । द्वापर के अन्त में महर्षियों ने उनका विभाजन भी किया ॥ ४६ ॥ जब ब्रह्मवेत्ता ऋषियों ने देखा कि समय के फेर से लोगों की आयु, शक्ति और बुद्धि क्षीण हो गयी हैं, तब उन्होंने अपने हृदय-देश में विराजमान परमात्मा की प्रेरणा से वेदों के अनेकों विभाग कर दिये ॥ ४७ ॥

शौनकजी ! इस वैवस्वत मन्वन्तर में भी ब्रह्मा-शङ्कर आदि लोकपालों की प्रार्थना से अखिल विश्व के जीवनदाता भगवान् ने धर्म की रक्षा के लिये महर्षि पराशर द्वारा सत्यवती के गर्भ से अपने अंशांश-कलास्वरूप व्यास के रूप में अवतार ग्रहण किया है । परम भाग्यवान् शौनकजी ! उन्होंने ही वर्तमान युग में वेद के चार विभाग किये हैं ॥ ४८-४९ ॥ जैसे मणियों के समूह में से विभिन्न जाति की मणियाँ छाँटकर अलग-अलग कर दी जाती हैं, वैसे ही महामति भगवान् व्यासदेव ने मन्त्र समुदाय में से भिन्न-भिन्न प्रकरणों के अनुसार मन्त्रों का संग्रह करके उनसे ऋग, यजुः, साम और अथर्व — ये चार संहिताएँ बनायीं और अपने चार शिष्यों को बुलाकर प्रत्येक को एक-एक संहिता की शिक्षा दी ॥ ५०-५१ ॥ उन्होंने ‘ववृच’ नाम की पहली ऋक्संहिता पैल को, ‘निगद’ नाम की दूसरी यजुःसंहिता वैशम्पायन को, सामश्रुतियों की ‘छन्दोगसंहिता’ जैमिनि को और अपने शिष्य सुमन्तु को ‘अथर्वाङ्गिरस-संहिता’ का अध्ययन कराया ॥ ५२-५३ ॥

शौनकजी ! पैल मुनि ने अपनी संहिता के दो विभाग करके एक का अध्ययन इन्द्रप्रमिति को और दूसरे का बाष्कल को कराया । बाष्कल ने भी अपनी शाखा के चार विभाग करके उन्हें अलग-अलग अपने शिष्य बोध, याज्ञवल्क्य, पराशर और अग्निमित्र को पढ़ाया । परमसंयमी इन्द्रप्रमिति ने प्रतिभाशाली माण्डूकेय ऋषि को अपनी संहिता का अध्ययन कराया । माण्डूकेय के शिष्य थे — देवमित्र । उन्होंने सौभरि आदि ऋषियों को वेदों का अध्ययन कराया ॥ ५४-५६ ॥ माण्डूकेय के पुत्र का नाम था शाकल्य । उन्होंने अपनी संहिता के पाँच विभाग करके उन्हें वात्स्य, मुद्गल, शालीय, गोखल्य और शिशिर नामक शिष्यों को पढ़ाया ॥ ५७ ॥ शाकल्य के एक और शिष्य थे — जातूकर्ण्य मुनि । उन्होंने अपनी संहिता के तीन विभाग करके तत्सम्बन्धी निरुक्त के साथ अपने शिष्य बलाक, पैज, वैताल और विरज को पढ़ाया ॥ ५८ ॥ बाष्कल के पुत्र बाष्कलि ने सब शाखाओं से एक ‘वालखिल्य’ नाम की शाखा रची । उसे बालायनि, भज्य एवं कासार ने ग्रहण किया ॥ ५९ ॥ इन ब्रह्मर्षियों ने पूर्वोक्त सम्प्रदाय के अनुसार ऋग्वेदसम्बन्धी बह्वृच शाखाओं को धारण किया । जो मनुष्य यह वेदों के विभाजन का इतिहास श्रवण करता हैं, वह सब पापों से छूट जाता हैं । ६० ॥

शौनकजी ! वैशम्पायन के कुछ शिष्यों का नाम था चरकाध्वर्यु । इन लोगों ने अपने गुरुदेव के ब्रह्महत्या-जनित पाप का प्रायश्चित्त करने के लिए एक व्रत का अनुष्ठान किया । इसीलिये इनका नाम ‘चरकाध्वर्यु’ पड़ा ॥ ६१ ॥ वैशम्पायन के एक शिष्य याज्ञवल्क्य मुनि भी थे । उन्होंने अपने गुरुदेव से कहा — ‘अहो भगवन् ! ये चरकाध्वर्यु ब्राह्मण तो बहुत ही थोड़ी शक्ति रखते हैं । इनके व्रतपालन से लाभ ही कितना है ? मैं आपके प्रायश्चित्त के लिये बहुत ही कठिन तपस्या करूँगा’ ॥ ६२ ॥ याज्ञवल्क्य मुनि की यह बात सुनकर वैशम्पायन मुनि को क्रोध आ गया । उन्होंने कहा — ‘बस-बस , चुप रहो । तुम्हारे-जैसे ब्राह्मणों का अपमान करनेवाले शिष्य की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है । देखो, अब तक तुमने मुझसे जो कुछ अध्ययन किया है उसका शीघ्र-से-शीघ्र त्याग कर दो और यहाँ से चले जाओ’ ॥ ६३ ॥ याज्ञवल्क्यजी देवरात के पुत्र थे । उन्होंने गुरुजी की आज्ञा पाते ही उनके पढ़ाये हुए यजुर्वेद का वमन कर दिया और वे वहाँ से चले गये । जब मुनियों ने देखा कि याज्ञवल्क्य ने तो यजुर्वेद का वमन कर दिया, तब उनके चित्त में इस बात के लिये बड़ा लालच हुआ कि हमलोग किसी प्रकार इसको ग्रहण कर लें । परन्तु ब्राह्मण होकर उगले हुए मन्त्र को ग्रहण करना अनुचित हैं, ऐसा सोचकर वे तीतर बन गये और उस संहिता को चुग लिया । इसी से यजुर्वेद की वह परम रमणीय शाखा ‘तैत्तिरीय’ के नाम से प्रसिद्ध हुई ॥ ६४-६५ ॥ शौनकजी ! अब याज्ञवल्क्य ने सोचा कि मैं ऐसी श्रुतियाँ प्राप्त करूँ, जो मेरे गुरुजी के पास भी न हों । इसके लिये वे सूर्यभगवान् का उपस्थान करने लगे ॥ ६६ ॥

याज्ञवल्क्यजी इस प्रकार उपस्थान करते हैं — मैं ॐ-कार स्वरूप भगवान् सूर्य को नमस्कार करता हूँ । आप सम्पूर्ण जगत् के आत्मा और कालस्वरूप हैं । ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जितने भी जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज — चार प्रकार के प्राणी हैं, उन सबके हृदयदेश में और बाहर आकाश के समान व्याप्त रहकर भी आप उपाधि के धर्मों से असङ्ग रहनेवाले अद्वितीय भगवान् ही हैं । आप ही क्षण, लव, निमेष आदि अवयवों से सङ्घटित संवत्सरों के द्वारा एवं जल के आकर्षण-विकर्षण आदान-प्रदान के द्वारा समस्त लोकों की जीवन-यात्रा चलाते हैं ॥ ६७ ॥ प्रभो ! आप समस्त देवताओं में श्रेष्ठ । जो लोग प्रतिदिन तीनों समय वेद-विधि से आपकी उपासना करते हैं, उनके सारे पाप और दुःखो के बीजों को आप भस्म कर देते हैं । सूर्यदेव ! आप सारी सृष्टि के मूल कारण एवं समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी हैं । इसलिये हम आपके इस तेजोमय मण्डल की पूरी एकाग्रता के साथ ध्यान करते हैं ॥ ६८ ॥ आप सबके आत्मा और अन्तर्यामी हैं । जगत् में जितने चराचर प्राणी हैं, सब आपके ही आश्रित हैं । आप ही उनके अचेतन मन, इन्द्रिय और प्राणों के प्रेरक हैं [ ६७, ६८, ६९ — इन तीनों वाक्यों द्वारा क्रमश: गायत्रीमन्त्र के ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्,’ ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ और ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ — इन तीन चरणों की व्याख्या करते हुए भगवान् सूर्य की स्तुति की गयी है।] ॥ ६९ ॥ यह लोक प्रतिदिन अन्धकाररूप अजगर के विकराल मुँह में पड़कर अचेत और मुर्दा-सा हो जाता है । आप परम करुणास्वरूप हैं, इसलिये कृपा करके अपनी दृष्टिमात्र से ही इसे सचेत कर देते हैं और परम कल्याण के साधन समय-समय धर्मानुष्ठानों में लगाकर आत्माभिमुख करते हैं । जैसे राजा दुष्टों को भयभीत करता हुआ अपने राज्य में विचरण करता है, वैसे ही आप चोर-जार, आदि दुष्टों को भयभीत करते हुए विचरते रहते हैं ॥ ५० ॥ चारों ओर सभी दिक्पाल स्थान-स्थान पर अपनी कमल की कली के समान अञ्जलियों से आपको उपहार समर्पित करते हैं ॥ ७१ ॥ भगवन् ! आपके दोनों चरणकमल तीनों लोकों के गुरु-सदृश महानुभावों से भी वन्दित हैं । मैंने आपके युगल चरणकमलों की इसलिये शरण ली है कि मुझे ऐसे यजुर्वेद की प्राप्ति हो, जो अब तक किसी को न मिला हो ॥ ७२ ॥

सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियो ! जब याज्ञवल्क्य मुनि ने भगवान् सूर्य की इस प्रकार स्तुति की, तब ये प्रसन्न होकर उनके सामने अश्वरूप से प्रकट हुए और उन्हें यजुर्वेद के उन मन्त्रों का उपदेश किया, जो अब तक किसी को प्राप्त न हुए थे ॥ ७३ ॥ इसके बाद याज्ञवल्क्य मुनि ने यजुर्वेद असंख्य मन्त्रों से उसकी पंद्रह शाखाओं की रचना की । वही वाजसनेय शाखा के नाम से प्रसिद्ध हैं । उन्हें कण्व, माध्यन्दिन आदि ऋषियों ने ग्रहण किया ॥ ७४ । ।

यह बात मैं पहले ही कह चुका है कि महर्षि श्रीकृष्णद्वैपायन ने जैमिनि मुनि को सामसंहिता का अध्ययन कराया । उनके पुत्र थे सुमन्तु मुनि और पौत्र थे सुन्वान् । जैमिनि मुनि ने अपने पुत्र और पौत्र को एक-एक संहिता पढ़ायी ॥ ७५ ॥ जैमिनि मुनि के एक शिष्य का नाम था सुकर्मा । वह एक महान् पुरुष था । जैसे एक वृक्ष में बहुत-सी डालियाँ होती हैं, वैसे ही सुकर्मा ने सामवेद की एक हजार संहिताएँ बना दी ॥ ७६ ॥ सुकर्मा के शिष्य कोसलदेशनिवासी हिरण्यनाभ, पौष्यञ्जि और ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ आवन्त्य ने उन शाखाओं को ग्रहण किया ॥ ७ ॥ पौष्यञ्जि और आवन्त्य के पांच सौ शिष्य थे । वे उत्तर दिशा के निवासी होने के कारण औदीच्य सामवेदी कहलाते थे । उन्हीं को प्राच्य सामवेदी भी कहते हैं । उन्होंने एक-एक संहिता का अध्ययन किया ॥ ७८ ॥ पौष्यञ्जि के और भी शिष्य थे — लौगाक्षि, माङ्गलि, कुल्य, कुसीद और कुक्षि । इसमें से प्रत्येक ने सौ-सौं संहिताओं का अध्ययन किया ॥ ७९ ॥ हिरण्यनाभ का शिष्य था — कृत । उसने अपने शिष्यों को चौबीस संहिताएँ पढ़ायीं । शेष संहिताएँ परम संयमी आवन्त्य ने अपने शिष्यों को दी । इस प्रकार सामवेद का विस्तार हुआ ॥ ८० ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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