May 11, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – द्वादशः स्कन्ध – अध्याय ९ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नवाँ अध्याय मार्कण्डेयजी का माया-दर्शन सूतजी कहते हैं — जब ज्ञान-सम्पन्न मार्कण्डेय मुनि ने इस प्रकार स्तुति की, तब भगवान् नर-नारायण ने प्रसन्न होकर मार्कण्डेयजी से कहा ॥ १ ॥ भगवान् नारायण ने कहा — सम्मान्य ब्रह्मषि-शिरोमणि ! तुम चित्त की एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, संयम और मेरी अनन्य भक्ति से सिद्ध हो गये हो ॥ ३ ॥ तुम्हारे इस आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रत की निष्ठा देखकर हम तुम पर बहुत ही प्रसन्न हुए हैं । तुम्हारा कल्याण हो ! मैं समस्त वर देनेवालों का स्वामी हूँ । इसलिये तुम अपना अभीष्ट वर मुझसे माँग लो ॥ ३ ॥ मार्कण्डेय मुनि ने कहा — देवदेवेश ! शरणागतभयहारी अच्युत ! आपकी जय हो ! जय हो ! हमारे लिये बस इतना ही वर पर्याप्त है कि आपने कृपा करके अपने मनोहर स्वरूप का दर्शन कराया ॥ ४ ॥ ब्रह्मा-शङ्कर आदि देवगण योग-साधना के द्वारा एकाग्र हुए मन से ही आपके परम सुन्दर श्रीचरणकमलों का दर्शन प्राप्त करके कृतार्थ हो गये हैं । आज उन्हीं आपने मेरे नेत्रों के सामने प्रकट होकर मुझे धन्य बनाया हैं ॥ ५ ॥ पवित्रकीर्ति महानुभावों के शिरोमणि कमलनयन ! फिर भी आपकी आज्ञा के अनुसार में आपसे वर माँगता हूँ । में आपकी वह माया देखना चाहता हूँ, जिससे मोहित होकर सभी लोक और लोकपाल अद्वितीय वस्तु ब्रह्म में अनेकों प्रकार भेद-विभेद देखने लगते हैं ॥ ६ ॥ सूतजी कहते हैं — शौनकजी ! जब इस प्रकार मार्कण्डेय मुनि ने भगवान् नर-नारायण की इच्छानुसार स्तुति-पूजा कर ली एवं वरदान माँग लिया, तब उन्होंने मुसकराते हुए कहा — ‘ठीक है, ऐसा ही होगा ।’ इसके बाद वे अपने आश्रम बदरीवन को चले गये ॥ १७ ॥ मार्कण्डेय मुनि अपने आश्रम पर ही रहकर निरन्तर इस बात का चिन्तन करते रहते कि मुझे माया के दर्शन कब होंगे । वे अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं अन्तःकरण में — और तो क्या, सर्वत्र भगवान् का ही दर्शन करते हुए मानसिक वस्तुओं से उनका पूजन करते रहते । कभी-कभी तो उनके हृदय में प्रेम की ऐसी बाढ़ आ जाती कि वे उसके प्रवाह में डूबने-उतराने लगते, उन्हें इस बात की भी याद न रहती कि कब कहाँ किस प्रकार भगवान् की पूजा करनी चाहिये ? ॥ ८-९ ॥ शौनकजी ! एक दिन की बात है, सन्ध्या के समय पुष्यभद्रा नदी के तट पर मार्कण्डेय मुनि भगवान् की उपासना में तन्मय हो रहे थे । ब्रह्मन् ! उसी समय एकाएक बड़े जोर की आँधी चलने लगी ॥ १० ॥ उस समय आँधी के कारण बड़ी भयङ्कर आवाज होने लगी और बड़े विकराल बादल आकाश में मंडराने लगे । बिजली चमक-चमककर कड़कने लगी और रथ के धुरे के समान जल की मोटी-मोटी धाराएँ पृथ्वी पर गिरने लगीं ॥ ११ ॥ यही नहीं, मार्कण्डेय मुनि को ऐसा दिखायी पड़ा कि चारों ओर से चारों समुद्र समूची पृथ्वी को निगलते हुए उमड़े आ रहे हैं । आँधी के वेग से समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही हैं, बड़े भयङ्कर भँवर पड़ रहे हैं और भयङ्कर ध्वनि कान फाड़े डालती है । स्थान-स्थान पर बड़े-बड़े मगर उछल रहे हैं ॥ १२ ॥ उस समय बाहर-भीतर, चारों ओर जल-ही-जल दीखता था । ऐसा जान पड़ता था कि उस जलराशि में पृथ्वी ही नहीं, स्वर्ग भी डूबा जा रहा है । ऊपर से बड़े वेग से आँधी चल रही है और बिजली चमक रही है, जिससे सम्पूर्ण जगत् संतप्त हो रहा है । जब मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि इस जल-प्रलय से सारी पृथ्वी डूब गयी है, उद्धिज, स्वेदज्ञ, अण्ट्ज और जरायुज़ — चारों प्रकार के प्राणी तथा स्वयं वे भी अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं, तब वे उदास हो गये और साथ ही अत्यन्त भयभीत भी ॥ १३ ॥ उनके सामने ही प्रलय समुद्र में भयङ्कर लहरें उठ रही थीं, आँधी के वेग से जलराशि उछल रही थी और प्रलयकालीन बादल बरस-बरसकर समुद्र को और भी भरते जा रहे थे । उन्होंने देखा कि समुद्र ने द्वीप, वर्ष और पर्वतों के साथ सारी पृथ्वी को डुबा दिया ॥ १४ ॥ पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग, ज्योतिर्मण्डल (ग्रह, नक्षत्र एवं तारों का समूह) और दिशाओं के साथ तीनों लोक जल में डूब गये । बस, उस समय एकमात्र महामुनि मार्कण्डेय ही बच रहे थे । उस समय वे पागल और अंधे के समान जटा फैलाकर यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ भाग-भागकर अपने प्राण बचाने की चेष्टा कर रहे थे ॥ १५ ॥ वे भूख-प्यास से व्याकुल हो रहे थे । किसी ओर बड़े-बड़े मगर तो किसी ओर बड़े-बड़े तिमिङ्गिल मच्छ उनपर टूट पड़ते । किसी ओर से हवा का झोका आता, तो किसी ओर से लहरों के थपेड़े उन्हें घायल कर देते । इस प्रकार इधर-उधर भटकते-भटकते वे अपार अज्ञानान्धकार में पड़ गये — बेहोश हो गये और इतने थक गये कि उन्हें पृथ्वी और आकाश का भी ज्ञान न रहा ॥ १६ ॥ वे कभी बड़े भारी भँवर में पड़ जाते, कभी तरल तरङ्गों की चोट से चञ्चल हो उठते । जब कभी जल-जन्तु आपस में एक दूसरे पर आक्रमण करते, तब ये अचानक ही उनके शिकार बन जाते ॥ १५ ॥ कहीं शोकग्रस्त हो जाते, तो कहीं मोहग्रस्त । कभी दुःख-ही-दुःख के निमित्त आते, तो कभी तनिक सुख भी मिल जाता । कभी भयभीत होते, कभी मर जाते, तो कभी तरह-तरह के रोग उन्हें सताने लगते ॥ १८ ॥ इस प्रकार मार्कण्डेय मुनि विष्णुभगवान् की माया के चक्कर में मोहित हो रहे थे । उस प्रलयकाल के समुद्र में भटकते-भटकते उन्हें सैकड़ों-हजारों ही नहीं, लाखों-करोड़ों वर्ष बीत गये ॥ १९ ॥ शौनकजी ! मार्कण्डेय मुनि इसी प्रकार प्रलय के जल में बहुत समय तक भटकते रहे । एक बार उन्होंने पृथ्वी के एक टीले पर एक छोटा-सा बरगद का पेड़ देखा । उसमें हरे-हरे पत्ते और लाल-लाल फल शोभायमान हो रहे थे ॥ २० ॥ बरगद के पेड़ में ईशानकोण पर एक डाल थी, उसमें एक पत्तों का दोना-सा बन गया था । उसी पर एक बड़ा ही सुन्दर नन्हा-सा शिशु लेट रहा था । उसके शरीर से ऐसी उज्ज्वल छटा छिटक रही थी, जिससे आस-पास का अंधेरा दूर हो रहा था ॥ २१ ॥ वह शिशु मरकतमणि के समान साँवला-साँवला था । मुखकमल पर सारा सौन्दर्य फूटा पड़ता था । गरदन शङ्ख के समान उतार-चढ़ाववाली थी । छाती चौड़ी थी । तोते की चोंच के समान सुन्दर नासिका और भौहें बड़ी मनोहर थीं ॥ २२ ॥ काली-काली घुँघराली अलकें कपोलों पर लटक रहीं थी और श्वास लगने से कभी-कभी हिल भी जाती थीं । शङ्ख के समान घुमावदार कानों में अनार के लाल-लाल फूल शोभायमान हो रहे थे । मुँगे के समान लाल-लाल होठों की कान्ति से उनकी सुधामयी श्वेत मुसकान कुछ लालिमा-मिश्रित हो गयी थी ॥ २३ ॥ नेत्रों के कोने कमल के भीतरी भाग के समान तनिक लाल-लाल थे । मुसकान और चितवन बरबस हृदय को पकड़ लेती थी । बड़ी गम्भीर नाभि थी । छोटी-सी तोंद पीपल के पते के समान जान पड़ती और श्वास लेने के समय उस पर पड़ी हुई बलें तथा नाभि भी हिल जाया करती थी ॥ २४ ॥ नन्हे-नन्हे हाथों में बड़ी सुन्दर-सुन्दर अंगुलियाँ थीं । वह शिशु अपने दोनों करकमलों से एक चरणकमल को मुख में डालकर चूस रहा था । मार्कण्डेय मुनि यह दिव्य दृश्य देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये ॥ २५ ॥ शौनकजी ! उस दिव्य शिशु को देखते ही मार्कण्डेय मुनि की सारी थकावट जाती रही । आनन्द से उनके हृदय-कमल और नेत्रकमल खिल गये । शरीर पुलकित हो गया । उस नन्हे-से शिशु के इस अद्भुत भाव को देखकर उनके मन में तरह-तरह की शङ्काएँ — ‘यह कौन है’ इत्यादि-आने लगी और वे उस शिशु से ये बातें पूछने के लिये उसके सामने सरक गये ॥ २६ ॥ अभी मार्कण्डेयजी पहुँच भी न पाये थे कि उस शिशु के श्वास के साथ उसके शरीर के भीतर उसी प्रकार घुस गये, जैसे कोई मच्छर किसी के पेट में चला जाय । उस शिशु के पेट में जाकर उन्होंने सब-की-सब वहीं सृष्टि देखी, जैसी प्रलय के पहले उन्होंने देखी थी । वे वह सब विचित्र दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गये । वे मोहवश कुछ सोच-विचार भी न सके ॥ २७ ॥ उन्होंने उस शिशु के उदर में आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, पर्वत, समुद्र, द्वीप, वर्ष, दिशाएँ, देवता, दैत्य, वन, देश, नदियाँ, नगर, खाने, किसानों के गाँव, अहीरों की बस्तियाँ, आश्रम, वर्ण, उनके आचार-व्यवहार, पञ्चमहाभूत, भूतों से बने हुए प्राणियों के शरीर तथा पदार्थ, अनेक युग और कल्पों के भेद से युक्त काल आदि सब कुछ देखा । केवल इतना ही नहीं जिन देशों, वस्तुओं और कालों के द्वारा जगत् का व्यवहार सम्पन्न होता है, वह सब कुछ वहाँ विद्यमान था । कहाँ तक कहे, यह सम्पूर्ण विश्व न होने पर भी वहाँ सत्य के समान प्रतीत होते देखा ॥ २८-२९ ॥ हिमालय पर्वत, वहीं पुष्यभद्रा नदी, उसके तट पर अपना आश्रम और वहाँ रहनेवाले ऋषियों को भी मार्कण्डेयजी ने प्रत्यक्ष ही देखा । इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व को देखते-देखते ही वे उस दिव्य शिशु के श्वास के द्वारा ही बाहर आ गये और फिर प्रलय-कालीन समुद्र में गिर पड़े ॥ ३० ॥ अब फिर उन्होंने देखा कि समुद्र के बीच में पृथ्वी के टीले पर वही बरगद का पेड़ ज्यों-का-त्यों विद्यमान हैं और उसके पत्ते के दोने में वही शिशु सोया हुआ है । उसके अधरों पर प्रेमामृत से परिपूर्ण मन्द-मन्द मुसकान है और अपनी प्रेमपूर्ण चितवन से वह मार्कण्डेयजी को ओर देख रहा है ॥ ३१ ॥ अब मार्कण्डेय मुनि इन्द्रियातीत भगवान् को, जो शिशु के रूप में क्रीड़ा कर रहे थे और नेत्रों के मार्ग से पहले ही हृदय में विराजमान हो चुके थे, आलिङ्गन करने के लिये बड़े श्रम और कठिनाई से आगे बढ़े ॥ ३२ ॥ परन्तु शौनकजी ! भगवान् केवल योगियों के ही नहीं, स्वयं योग के भी स्वामी और सबके हृदय में छिपे रहनेवाले हैं । अभी मार्कण्डेय मुनि उनके पास पहुँच भी न पाये थे कि वे तुरंत अन्तर्धान हो गये ठोक वैसे ही, जैसे अभागे और असमर्थ पुरुषों के परिश्रम का पता नहीं चलता कि वह फल दिये बिना ही क्या हो गया ? ॥ ३३ ॥ शौनकजी ! उस शिशु के अन्तर्धान होते ही वह बरगद का वृक्ष तथा प्रलयकालीन दृश्य एवं जल भी तत्काल लीन हो गया और मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि मैं तो पहले के समान ही अपने आश्रम में बैठा हुआ हूँ ॥ ३४ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related