May 12, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – द्वादशः स्कन्ध – अध्याय ११ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ग्यारहवाँ अध्याय भगवान् के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधों का रहस्य तथा विभिन्न सूर्यगणों का वर्णन शौनकजी ने कहा — सूतजी ! आप भगवान् के परमभक्त और बहुज्ञों में शिरोमणि हैं । हमलोग समस्त शास्त्रों के सिद्धान्त के सम्बन्ध में आपसे एक विशेष प्रश्न पूछना चाहते हैं, क्योंकि आप उसके मर्मज्ञ हैं ॥ १ ॥ हम लोग क्रियायोग का यथावत् ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं । क्योंकि उसका कुशलतापूर्वक ठीक-ठीक आचरण करने से मरणधर्मा पुरुष अमरत्व प्राप्त कर लेता है । अतः आप हमें यह बतलाइये कि पाञ्चरात्रादि तन्त्रों की विधि जाननेवाले लोग केवल श्रीलक्ष्मीपति भगवान् की आराधना करते समय किन-किन तत्त्वों से उनके चरणादि अङ्ग, गरुडादि उपाङ्ग, सुदर्शनादि आयुध और कौस्तुभादि आभूषणों की कल्पना करते हैं ? भगवान् आपका कल्याण करें ॥ २-३ ॥ सूतजी ने कहा — शौनकजी ! ब्रह्मादि आचार्यों ने, वेदों ने और पाञ्चरात्रादि तन्त्र-ग्रन्थों ने विष्णुभगवान् की जिन विभूतियों का वर्णन किया है, मैं श्रीगुरुदेव के चरणों में नमस्कार करके आपलोगों को वहीं सुनाता हूँ ॥ ४ ॥ भगवान् के जिस चेतनाधिष्ठित विराट् रूप में यह त्रिलोकी दिखायी देती है, वह “प्रकृति, सूत्रात्मा, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा — इन नौ तत्त्वों के सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा पञ्चभूत — इन सोलह विकारों से बना हुआ हैं ॥ ५ ॥ यह भगवान् का ही पुरुषरूप हैं । पृथ्वी इसके चरण हैं, स्वर्ग मस्तक है, अन्तरिक्ष नाभि है, सूर्य नेत्र हैं, वायु नासिका है और दिशाएँ कान हैं ॥ ६ ॥ प्रजापति लिङ्ग है, मृत्यु गुदा है, लोकपालगण भुजाएँ हैं, चन्द्रमा मन है और यमराज भौहें हैं ॥ ७ ॥ लज्जा ऊपर का होठ हैं, लोभ नीचे का होठ हैं, चन्द्रमा की चाँदनी दन्तावली हैं, भ्रम मुसकान है, वृक्ष रोम हैं और बादल ही विराट् पुरूष के सिर पर उगे हुए बाल हैं ॥ ८ ॥ शौनकजी ! जिस प्रकार यह व्यष्टि पुरुष अपने परिमाण से सात बिते का है, उसी प्रकार वह समष्टि पुरुष भी इस लोक-संस्थिति के साथ अपने सात बिते का है ॥ ९ ॥ स्वयं भगवान् अजन्मा हैं । वे कौस्तुभमणि के बहाने जीव-चैतन्यरूप आत्मज्योति को ही धारण करते हैं और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभा को हो वक्षःस्थल पर श्रीवत्सरूप से, ॥ १० ॥ वे अपनी सत्त्व, रज आदि गुणोंवाली माया को वनमाला के रूप से, छन्द को पीताम्बर के रूप से तथा अ+उ+म् — इन तीन मात्रावाले प्रणव को यज्ञोपवीत के रूप में धारण करते हैं ॥ ११ ॥ देवाधिदेव भगवान् सांख्य और योगरूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकों को अभय करनेवाले ब्रह्मलोक को ही मुकुट के रूप में धारण करते हैं ॥ १२ ॥ मूलप्रकृति ही उनकी शेषशय्या हैं, जिस पर वे विराजमान रहते हैं और धर्म-ज्ञानादियुक्त सत्त्वगुण ही उनके नाभिकमल के रूप में वर्णित हुआ है ॥ १३ ॥ वे मन, इन्द्रिय और शरीरसम्बन्धी शक्तियों से युक्त प्राणतत्त्वरूप कौमोदकी गदा, जलतत्त्वरूप पाञ्चजन्य शङ्ख और तेजस्तत्त्वरूप सुदर्शनचक्र को धारण करते हैं ॥ १४ ॥ आकाश के समान निर्मल आकाश-स्वरूप खड्ग, तमोमय अज्ञानरूप ढाल, कालरूप शार्ङ्गधनुष और कर्म का ही तरकस धारण किये हुए हैं ॥ १५ ॥ इन्द्रियों को ही भगवान् के बाणों के रूप में कहा गया है । क्रियाशक्तियुक्त मन ही रथ है । तन्मात्राएँ रथ के बाहरी भाग हैं और वर-अभय आदि की मुद्राओं से उनकी वरदान, अभयदान आदि के रूप में क्रियाशीलता प्रकट होती है ॥ १६ ॥ सूर्यमण्डल अथवा अग्निमण्डल ही भगवान् की पूजा का स्थान हैं, अन्तःकरण की शुद्धि ही मन्त्रदीक्षा है और अपने समस्त पापों को नष्ट कर देना ही भगवान् की पूजा हैं ॥ १७ ॥ ब्राह्मणो ! समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य — इन छः पदार्थों का नाम ही लीला-कमल है, जिसे भगवान् अपने करकमल में धारण करते हैं । धर्म और यश को क्रमशः चँवर एवं व्यजन (पंखे) के रूप से तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठ को छत्ररूप से धारण किये हुए हैं । तीनों वेदों का ही नाम गरुड़ है । वे ही अन्तर्यामी परमात्मा को वहन करते हैं ॥ १८-१९ ॥ आत्मस्वरूप भगवान् की उनसे कभी न बिछुड़नेवाली आत्मशक्ति का ही नाम लक्ष्मी है । भगवान् के पार्षदों के नायक विश्वविश्रुत विष्वक्सेन पाञ्चरात्रादि आगमरूप हैं । भगवान् के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्टसिद्धियों को ही नन्द-सुनन्दादि आठ द्वारपाल कहते हैं ॥ ३० ॥ शौनकजी ! स्वयं भगवान् ही वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध — इन चार मूर्तियों के रूप में अवस्थित हैं । इसलिये उन्हीं को चतुर्व्यूह के रूप में कहा जाता है ॥ २१ ॥ वे ही जाग्रत्-अवस्था के अभिमानी ‘विश्व’ बनकर शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयों को ग्रहण करते और वे ही स्वप्नावस्था के अभिमानी ‘तेजस’ बनकर बाह्य विषयों के बिना ही मन-ही-मन अनेक विषयों को देखते और ग्रहण करते हैं । ये ही सुषुप्ति-अवस्था के अभिमानी ‘प्राज्ञ’ बनकर विषय और मन के संस्कारों से युक्त अज्ञान से ढक जाते हैं और वही सबके साक्षी “तुरीय’ रहकर समस्त ज्ञानों के अधिष्ठान रहते हैं ॥ २२ ॥ इस प्रकार अङ्ग, उपाङ्ग, आयुध और आभूषणों से युक्त तथा वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध — इन चार मूर्तियों के रूप में प्रकट सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि ही क्रमशः विश्व, तैजस, प्राज्ञ एवं तुरीयरूप से प्रकाशित होते हैं ॥ २३ ॥ शौनकजी ! वही सर्वस्वरूप भगवान् वेदों के मूल कारण हैं, वे स्वयंप्रकाश एवं अपनी महिमा से परिपूर्ण हैं । वे अपनी माया से ब्रह्मा आदि रूपों एवं नामों से इस विश्व की सृष्टि, स्थिति और संहार सम्पन्न करते हैं । इन सब कर्मों और नामों से उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता । यद्यपि शास्त्रों में भिन्न के समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य, परन्तु वे अपने भक्तों को आत्मस्वरूप से ही प्राप्त होते हैं ॥ २४ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप अर्जुन के सखा हैं । आपने यदुवंशशिरोमणि के रूप में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी के द्रोही भूपालों को भस्म कर दिया है । आपका पराक्रम सदा एकरस रहता है । व्रज की गोपबालाएँ और आपके नारदादि प्रेमी निरन्तर आपके पवित्र यश का गान करते रहते हैं । गोविन्द ! आपके नाम, गुण और लीलादि का श्रवण करने से ही जीव का मङ्गल हो जाता है । हम सब आपके सेवक हैं । आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये ॥ २५ ॥ पुरुषोत्तम भगवान् के चिह्नभूत अङ्ग, उपाङ्ग और आयुध आदि के इस वर्णन का जो मनुष्य भगवान् में ही चित्त लगाकर पवित्र होकर प्रातःकाल पाठ करेगा, उसे सबके हृदय में रहनेवाले ब्रह्मस्वरूप परमात्मा का ज्ञान हो जायगा ॥ २६ ॥ शौनकजी ने कहा — सूतजी ! भगवान् श्रीशुकदेवजी ने श्रीमद्भागवत-कथा सुनाते समय राजर्षो परीक्षित् से (पञ्चम स्कन्धमें) कहा था कि ऋषि, गन्धर्व, नाग, अप्सरा, यक्ष, राक्षस और देवताओं का एक सौरगण होता हैं और ये सातों प्रत्येक महीने में बदलते रहते हैं । ये बारह गण अपने स्वामी द्वादश आदित्यों के साथ रहकर क्या काम करते हैं और उनके अन्तर्गत व्यक्तियों के नाम क्या हैं ? सूर्य के रूप में भी स्वयं भगवान् ही हैं, इसलिये उनके विभाग को हम बड़ी श्रद्धा के साथ सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके कहिये ॥ २७-२८ ॥ सूतजी ने कहा — समस्त प्राणियों के आत्मा भगवान् विष्णु ही हैं । अनादि अविद्या से अर्थात् उनके वास्तविक स्वरूप के अज्ञान से ही समस्त लोकों के व्यवहार-प्रवर्तक प्राकृत सूर्यमण्डल का निर्माण हुआ है । वही लोकों मे भ्रमण किया करता हैं ॥ २९ ॥ असल में समस्त लोकों के आत्मा एवं आदिकर्ता एकमात्र श्रीहरि ही अन्तर्यामीरूप से सूर्य बने हुए हैं । वे यद्यपि एक ही हैं, तथापि ऋषियों ने उनका बहुत रूपों में वर्णन किया हैं, वे ही समस्त वैदिक क्रियाओं के मूल हैं ॥ ३० ॥ शौनकजी ! एक भगवान् ही माया के द्वारा काल, देश, यज्ञादि क्रिया, कर्ता, स्रुवा आदि करण, यागादि कर्म, वेदमन्त्र, शाकल्य आदि द्रव्य और फलरूप से नौ प्रकार के कहे जाते हैं ॥ ३१ ॥ कालरूपधारी भगवान् सूर्य लोकों का व्यवहार ठीक-ठीक चलाने के लिये चैत्रादि बारह महीनों में अपने भिन्न-भिन्न बारह गणों के साथ चक्कर लगाया करते हैं ॥ ३३ ॥ शौनकजी ! धाता नामक सूर्य, कृतस्थली अप्सरा, हेति राक्षस, वासुकि सर्प, रथकृत् यक्ष, पुलस्त्य ऋषि और तुम्बुरु गन्धर्व — ये चैत्र मास में अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं ॥ ३३ ॥ अर्यमा सूर्य, पुलह ऋषि, अथौजा यक्ष, प्रहेति राक्षस, पुञ्जिकस्थली अप्सरा, नारद गन्धर्व और कच्छनीर सर्प — ये वैशाख मास के कार्यनिर्वाहक हैं ॥ ३४ ॥ मित्र सूर्य, अत्रि ऋषि, पौरुषेय राक्षस, तक्षक सर्प, मेनका अप्सरा, हाहा गन्धर्व और रथस्वन यक्ष — ये ज्येष्ठ मास के कार्यनिर्वाहक हैं ॥ ३५ ॥ आषाढ़ में वरुण नामक सूर्य के साथ वसिष्ठ ऋषि, रम्भा अप्सरा, सहजन्य यक्ष, हूहू गन्धर्व, शुक्र नाग और चित्रवन राक्षस — अपने-अपने कार्य का निर्वाह करते हैं ॥ ३६ ॥ श्रावण मास इन्द्र नामक सूर्य का कार्यकाल है । उनके साथ विश्वावसु गन्धर्व, श्रोता यक्ष, एलापत्र नाग, अङ्गिरा ऋषि, प्रम्लोचा अप्सरा एवं वर्य नामक राक्षस अपने कार्य का सम्पादन करते हैं ॥ ३७ ॥ भाद्रपद के सूर्य का नाम है — विवस्वान् । उनके साथ उग्रसेन गन्धर्व, व्याघ्र राक्षस, आसारण यक्ष, भृगु ऋषि, अनुम्लोचा अप्सरा और शङ्पाल नाग रहते हैं ॥ ३८ ॥ शौनकजी ! माघ मास में पूषा नाम के सूर्य रहते हैं । उनके साथ धनञ्जय नाग, वात राक्षस, सुषेण गन्धर्व, सुरुचि यक्ष, घृताची अप्सरा और गौतम ऋषि रहते हैं ॥ ३९ ॥ फाल्गुन मास का कार्यकाल — पर्जन्य नामक सूर्य का है । उनके साथ क्रतु यक्ष, वर्चा राक्षस, भरद्वाज ऋषि, सेनजित् अप्सरा, विश्व गन्धर्व और ऐरावत सर्प रहते हैं ॥ ४० ॥ मार्गशीर्ष मास में सूर्य का नाम होता है — अंश । उनके साथ कश्यप ऋषि, तार्क्ष्य यक्ष, ऋतसेन गन्धर्व, उर्वशी अप्सरा, विद्युच्छत्रु राक्षस और महाशङ्ख नाग रहते हैं ॥ ४१ ॥ पौष मास में — भग नामक सूर्य के साथ स्फूर्ज राक्षस, अरिष्टनेमि गन्धर्व, ऊर्ण यक्ष, आयु ऋषि , पूर्वचित्ति अप्सरा और कर्कोटक नाग रहते हैं ॥ ४२ ॥ आश्विन मास में — त्वष्टा सूर्य, जमदग्नि ऋषि, कम्बल नाग, तिलोतमा अप्सरा, ब्रह्मापेत राक्षस, शतजित् यक्ष और धृतराष्ट्र गन्धर्व का कार्यकाल है ॥ ४३ ॥ तथा कार्तिक में — विष्णु नामक सूर्य के साथ अश्वतर नाग, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित् यक्ष, विश्वामित्र ऋषि और मखापेत राक्षस अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं ॥ ४४ ॥ शौनकजी ! वे सब सूर्यरूप भगवान् की विभूतियाँ हैं । जो लोग इनका प्रतिदिन प्रातःकाल और सायङ्काल स्मरण करते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ४५ ॥ ये सूर्यदेव अपने छः गणों के साथ बारहों महीने सर्वत्र विचरते रहते हैं और इस लोक तथा परलोक में विवेकबुद्धि का विस्तार करते हैं ॥ ४६ ॥ सूर्यभगवान् के गणों में ऋषिलोग तो सूर्यसम्बन्धी ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्रों द्वारा उनकी स्तुति करते हैं और गंधर्व उनके सुयश का गान करते रहते हैं । अप्सराएँ आगे-आगे नृत्य करती चलती हैं ॥ ४७ ॥ नागगण रस्सी की तरह उनके रथ को कसे रहते हैं । यक्षगण रथ का साज सजाते हैं और बलवान् राक्षस उसे पीछे से ढकेलते हैं ॥ ४८ ॥ इनके सिवा वालखिल्य नाम के साठ हजार निर्मलस्वभाव ब्रह्मर्षि सूर्य की ओर मुँह करके उनके आगे-आगे स्तुतिपाठ करते चलते हैं ॥ ४९ ॥ इस प्रकार अनादि, अनन्त, अजन्मा भगवान् श्रीहरि ही कल्प-कल्प में अपने स्वरूप का विभाग करके लोक का पालन-पोषण करते-रहते हैं ॥ ५० ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे एकादशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related