श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय ३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
तीसरा अध्याय
भगवान् श्रीकृष्ण का प्राकट्य

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! अब समस्त शुभ गुणों से युक्त बहुत सुहावना समय आया । रोहिणी नक्षत्र था । आकाश के सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त-सौम्य हो रहे थे ॥ १ ॥ दिशाएँ स्वच्छ प्रसन्न थी । निर्मल आकाश में तारे जगमगा रहे थे । पृथ्वी के बड़े-बड़े नगर, छोटे-छोटे गाँव, अहीरों की बस्तियाँ और हीरे आदि की खाने मङ्गलमय हो रहीं थीं ॥ २ ॥ नदियों का जल निर्मल हो गया था । रात्रि के समय भी सरोवरों में कमल खिल रहे थे । वन में वृक्षों की पंक्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पों के गुच्छों से लद गयी थीं । कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भौरै गुनगुना रहे थे ॥ ३ ॥ उस समय परम पवित्र और शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु अपने स्पर्श से लोगों को सुखदान करती हुई बह रही थी । ब्राह्मणों के अग्निहोत्र की कभी न बुझनेवाली अग्नियाँ, जो कंस के अत्याचार से बुझ गयी थी, वे इस समय अपने-आप जल उठीं ॥ ४ ॥

संत पुरुष पहले से ही चाहते थे कि असुरों की बढ़ती न होने पाये । अब उनका मन सहसा प्रसन्नता से भर गया । जिस समय भगवान् के आविर्भाव का अवसर आया, स्वर्ग में देवताओं की दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं ॥ ५ ॥ किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वर में गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान् के मङ्गलमय गुणों की स्तुति करने लगे । विद्याधरियाँ अप्सराओं के साथ नाचने लगीं ॥ ६ ॥ बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्द से भरकर पुष्पों की वर्षा करने लगे । जल से भरे हुए बादल समुद के पास जाकर धीरे-धरि गर्जना करने लगे ॥ ७ ॥ जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ानेवाले जनार्दन के अवतार का समय था निशीथ । चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य था । उसी समय सबके हृदय में विराजमान भगवान् विष्णु देवरूपिणी देवकी के गर्भ से प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशा में सोलह कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा का उदय हो गया हो ॥ ८ ॥

वसुदेवजी ने देखा, उनके सामने एक अद्भुत बालक है । उसके नेत्र कमल के समान कोमल और विशाल हैं । चार सुन्दर हाथों में शङ्ख, गदा, चक्र और कमल लिये हुए हैं । वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न — अत्यन्त सुन्दर सुवर्णमयी रेखा है । गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही हैं । वर्षाकालीन मेघ के समान परम सुन्दर श्यामल शरीर पर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है । बहुमूल्य वैदूर्यमणि के किरीट और कुण्डल की कान्ति से सुन्दर-सुन्दर घुँघराले बाल सूर्य की किरणों के समान चमक रहे हैं । कमर में चमचमाती करधनी की लड़ियाँ लटक रही हैं । बाँहों में बाजूबँद और कलाइयों में कङ्कण शोभायमान हो रहे हैं । इन सब आभूषणों से सुशोभित बालक के अङ्ग-अङ्ग से अनोखी छटा छिटक रहीं है ॥ ९-१० ॥ जब वसुदेवजी ने देखा कि मेरे पुत्र के रूप में तो स्वयं भगवान् ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनन्द से उनकी आँखें खिल उठीं । उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्न हो गया । श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाने की उतावली में उन्होंने उसी समय ब्राह्मणों के लिये दस हजार गायों का सङ्कल्प कर दिया ॥ ११ ॥

परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण अपनी अङ्ग-कान्ति से सूतिका-गृह को जगमग कर रहे थे । जब वसुदेवजी को यह निश्चय हो गया कि ये तो परम पुरुष परमात्मा ही हैं, तब भगवान् का प्रभाव जान लेने से उनका सारा भय जाता रहा । अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान् के चरणों में अपना सिर झुका दिया और वे उनकी स्तुति करने लगे — ॥ १२ ॥

वसुदेवजी ने कहा — मैं समझ गया कि आप प्रकृति से अतीत साक्षात् पुरुषोत्तम हैं । आपका स्वरूप हैं केवल अनुभव और केवल आनन्द । आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं ॥ १३ ॥ आप ही सर्ग के आदि में अपनी प्रकृति से इस त्रिगुणमय जगत् की सृष्टि करते हैं । फिर उसमें प्रविष्ट न होने पर भी आप प्रविष्ट के समान जान पड़ते हैं ॥ १४ ॥ जैसे जब तक महत्तत्त्व आदि कारण-तत्त्व पृथक्-पृथक् रहते हैं, तब तक उनकी शक्ति भी पृथक्-पृथक् होती है; जब वे इन्द्रियादि सोलह विकारों के साथ मिलते हैं, तभी इस ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसीमें अनुप्रविष्ट-से जान पड़ते हैं; परंतु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थ में प्रवेश नहीं करते । ऐसा होने का कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु है, उसमें वे पहले से ही विद्यमान रहते हैं ॥ १५-१६ ॥ ठीक वैसे ही बुद्धि के द्वारा केवल गुणों के लक्षणों का ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियों के द्वारा केवल गुणमय विषयों का ही ग्रहण होता है । यद्यपि आप उनमें रहते हैं, फिर भी उन गुणों के ग्रहण से आपका ग्रहण नहीं होता । इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप है । गुणों का आवरण आपको ढक नहीं सकता । इसलिये आप में न बाहर है न भीतर । फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे ? (इसलिये प्रवेश न करने पर भी आप प्रवेश किये हुए के समान दीखते हैं) ॥ १७ ॥

जो अपने इन दृश्य गुणों को अपने से पृथक् मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी हैं । क्योंकि विचार करने पर ये देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलास के सिवा और कुछ नहीं सिद्ध होते । विचार के द्वारा जिस वस्तु का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य माननेवाला पुरुष बुद्धिमान् कैसे हो सकता है ? ॥ १८ ॥ प्रभो ! कहते हैं कि आप स्वयं समस्त क्रियाओं, गुणों और विकारों से रहित हैं । फिर भी इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं । यह बात परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म परमात्मा आपके लिये असंगत नहीं है । क्योंकि तीनों गुणों के आश्रय आप ही हैं, इसलिये उन गुणों के कार्य आदि का आपमें ही आरोप किया जाता है ॥ १९ ॥ आप ही तीनों लोकों की रक्षा करने के लिये अपनी माया से सत्त्वमय शुक्लवर्ण (पोषणकारी विष्णुरूप) धारण करते हैं, उत्पत्ति के लिये रजःप्रधान रक्तवर्ण (सुजनकारी ब्रह्मारूप) और प्रलय के समय तमोगुण-प्रधान कृष्णवर्ण (संहारकारी रुद्ररूप) स्वीकार करते हैं ॥ २० ॥ प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान् और सबके स्वामी हैं । इस संसार की रक्षा के लिये ही आपने मेरे घर अवतार लिया है । आजकल कोटि-कोटि असुर सेनापतियों ने राजा का नाम धारण कर रखा है और अपने अधीन बड़ी-बड़ी सेनाएँ कर रखी हैं । आप उन सबका संहार करेंगे ॥ २१ ॥ देवताओं के भी आराध्यदेव प्रभो ! यह कंस बड़ा दुष्ट है । इसे जब मालूम हुआ कि आपका अवतार हमारे घर होनेवाला है, तब उसने आपके भय से आपके बड़े भाइयों को मार डाला । अभी उसके दूत आपके अवतार का समाचार उसे सुनायेंगे और वह अभी-अभी हाथ में शस्त्र लेकर दौड़ा आयेगा ॥ २२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! इधर देवकी ने देखा कि मेरे पुत्र में तो पुरुषोत्तम भगवान् के सभी लक्षण मौजूद हैं । पहले तो उन्हें कंस से कुछ भय मालूम हुआ, परन्तु फिर वे बड़े पवित्र भाव से मुसकराती हुई स्तुति करने लगीं ॥ २३ ॥

माता देवकी ने कहा —
प्रभो ! वेदों ने आपके जिस रूप को अव्यक्त और सबका कारण बतलाया है, जो ब्रह्म, ज्योतिःस्वरूप, समस्त गुणों से रहित और विकारहीन है, जिसे विशेषण-रहित-अनिर्वचनीय, निष्क्रिय एवं केवल विशुद्ध सत्ता के रूप में कहा गया हैं — वही बुद्धि आदि के प्रकाशक विष्णु आप स्वयं हैं ॥ २४ ॥ जिस समय ब्रह्मा की पूरी आयु — दो परार्ध समाप्त हो जाते हैं, काल शक्ति के प्रभाव से सारे लोक नष्ट हो जाते हैं, पञ्च महाभूत अहङ्कार में, अहङ्कार महत्तत्त्व में और महत्तत्त्व प्रकृति में लीन हो जाता है — उस समय एकमात्र आप ही शेष रह जाते हैं । इसी से आपका एक नाम ‘शेष’ भी है ॥ २५ ॥ प्रकृति के एकमात्र सहायक प्रभो ! निमेष से लेकर वर्ष-पर्यन्त अनेक विभागों में विभक्त जो काल हैं, जिसकी चेष्टा से यह सम्पूर्ण विश्व सचेष्ट हो रहा है और जिसकी कोई सीमा नहीं है, वह आपकी लीलामात्र है । आप सर्वशक्तिमान् और परम कल्याण के आश्रय हैं । मैं आपकी शरण लेती हूँ ॥ २६ ॥

प्रभो ! यह जीव मृत्युग्रस्त हो रहा है । यह मृत्युरूप कराल व्याल से भयभीत होकर सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों में भटकता रहा है, परन्तु इसे कभी कहीं भी ऐसा स्थान न मिल सका, जहाँ यह निर्भय होकर रहे । आज बड़े भाग्य से इसे आपके चरणारविन्दों की शरण मिल गयी । अतः अब यह स्वस्थ होकर सुख की नींद सो रहा है । औरों की तो वात ही क्या, स्वयं मृत्यु भी इससे भयभीत होकर भाग गयी है ॥ २७ ॥ प्रभो ! आप हैं भक्तभयहारी । और हमलोग इस दुष्ट कंस से बहुत ही भयभीत हैं । अतः आप हमारी रक्षा कीजिये । आपका यह चतुर्भुज दिव्यरूप ध्यान की वस्तु है । इसे केवल मांस-मज्जामय शरीर पर ही दृष्टि रखनेवाले देहाभिमानी पुरुषों के सामने प्रकट मत कीजिये ॥ २८ ॥ मधुसूदन ! इस पापी कंस को यह बात मालूम न हो कि आपका जन्म मेरे गर्भ से हुआ है । मेरा धैर्य टूट रहा है । आपके लिये मैं कंस से बहुत डर रही हूँ ॥ २९ ॥ विश्वात्मन् ! आपका यह रूप अलौकिक है । आप शङ्ख, चक्र, गदा और कमल की शोभा से युक्त अपना यह चतुर्भुजरूप छिपा लीजिये ॥ ३० ॥ प्रलय के समय आप इस सम्पूर्ण विश्व को अपने शरीर में वैसे ही स्वाभाविक रूप से धारण करते हैं, जैसे कोई मनुष्य अपने शरीर में रहनेवाले छिद्ररूप आकाश को । वही परम पुरुष परमात्मा आप मेरे गर्भवासी हुए, यह आपकी अद्भुत मनुष्य-लीला नहीं तो और क्या है ? ॥ ३१ ॥

श्रीभगवान् ने कहा —
देवि ! स्वायम्भुव मन्वन्तर में जब तुम्हारा पहला जन्म हुआ था, उस समय तुम्हारा नाम था पृश्नि और ये वसुदेव सुतपा नाम के प्रजापति थे । तुम दोनों के हृदय बड़े ही शुद्ध थे ॥ ३२ ॥ जब ब्रह्माजी ने तुम दोनों को सन्तान उत्पन्न करने की आज्ञा दी, तब तुम लोगों ने इन्द्रियों का दमन करके उत्कृष्ट तपस्या की ॥ ३३ ॥ तुम दोनों ने वर्षा, वायु, घाम, शीत, उष्ण आदि काल के विभिन्न गुणों का सहन किया और प्राणायाम के द्वारा अपने मन के मल धो डाले ॥ ३४ ॥ तुम दोनों कभी सूखे पत्ते खा लेते और कभी हवा पीकर ही रह जाते । तुम्हारा चित्त बड़ा शान्त था । इस प्रकार तुम लोगों ने मुझसे अभीष्ट वस्तु प्राप्त करने की इच्छा से मेरी आराधना की ॥ ३५ ॥ मुझमें चित्त लगाकर ऐसा परम दुष्कर और घोर तप करते-करते देवताओं के बारह हजार वर्ष बीत गये ॥ ३६ ॥ पुण्यमयी देवि ! उस समय में तुम दोनों पर प्रसन्न हुआ । क्योंकि तुम दोनों ने तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्ति से अपने हृदय में नित्य-निरन्तर मेरी भावना की थी । उस समय तुम दोनों की अभिलाषा पूर्ण करने के लिये वर देनेवालों का राजा मैं इसी रूप से तुम्हारे सामने प्रकट हुआ । जब मैंने कहा कि ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो’, तब तुम दोनों ने मेरे-जैसा पुत्र माँगा ॥ ३७-३८ ॥

उस समय तक विषय-भोगों से तुम लोगों का कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था । तुम्हारे कोई सन्तान भी न थी । इसलिये मेरी माया से मोहित होकर तुम दोनों ने मुझसे मोक्ष नहीं माँगा ॥ ३९ ॥ तुम्हें मेरे-जैसा पुत्र होने का वर प्राप्त हो गया और मैं वहाँ से चला गया । अब सफल मनोरथ होकर तुम लोग विषयों का भोग करने लगे ॥ ४० ॥ मैंने देखा कि संसार में शील-स्वभाव, उदारता तथा अन्य गुणों में मेरे-जैसा दूसरा कोई नहीं है; इसलिये मैं ही तुम दोनों का पुत्र हुआ और उस समय मैं ‘पृश्नि-गर्भ के नाम से विख्यात हुआ ॥ ४१ ॥ फिर दूसरे जन्म में तुम हुई अदिति और वसुदेव हुए कश्यप । उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ । मेरा नाम था ‘उपेन्द्र’ । शरीर छोटा होने के कारण लोग मुझे ‘वामन” भी कहते थे ॥ ४२ ॥ सती देवकी ! तुम्हारे इस तीसरे जन्म में भी मैं उसी रूप से फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हैं । मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है ॥ ४३ ॥ मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिये दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारों का स्मरण हो जाय । यदि में ऐसा नहीं करता, तो केवल मनुष्य-शरीर से मेरे अवतार की पहचान नहीं हो पाती ॥ ४४ ॥ तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव तथा निरन्तर ब्रह्मभाव रखना । इस प्रकार वात्सल्य-स्नेह और चिन्तन के द्वारा तुम्हें मेरे परम पद की प्राप्ति होगी ॥ ४५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं —
भगवान् इतना कहकर चुप हो गये । अब उन्होंने अपनी योगमाया से पिता-माता के देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया ॥ ४६ ॥ तब वसुदेवजी ने भगवान् की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर सूतिकागृह से बाहर निकलने की इच्छा की । उसी समय नन्दपत्नी यशोदा के गर्भ से उस योगमाया का जन्म हुआ, जो भगवान् की शक्ति होने के कारण उनके समान ही जन्म-रहित है ॥ ४७ ॥ उसी योगमाया ने द्वारपाल और पुरवासियों की समस्त इन्द्रिय वृत्तियों की चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गये । बंदीगृह के सभी दरवाजे बंद थे । उनमें बड़े-बड़े किवाड़, लोहे की जंजीरें और ताले जड़े हुए थे । उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परन्तु वसुदेवजी भगवान् श्रीकृष्ण को गोद में लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गये । ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है । इस समय बादल धीरे-धीरे गरजकर जल की फुहारें छोड़ रहे थे । इसलिये शेषजी अपने फनों से जल को रोकते हुए भगवान् के पीछे-पीछे चलने लगे ॥ ४८-४९ ॥

उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इससे यमुनाजी बहुत बढ़ गयी थीं । उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था । तरल तरङ्गों के कारण जल पर फेन-ही-फेन हो रहा था । सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे । जैसे सीतापति भगवान् श्रीरामजी को समुद्र ने मार्ग दे दिया था, वैसे ही यमुनाजी ने भगवान् को मार्ग दे दिया ॥ ५० ॥ वसुदेवजी ने नन्दबाबा के गोकुल में जाकर देखा कि सब-के-सब गोप नींद से अचेत पड़े हुए हैं । उन्होंने अपने पुत्र को यशोदाजी की शय्या पर सुला दिया और उनकी नवजात कन्या लेकर वे बंदीगृह में लौट आये ॥ ५१ ॥ जेल में पहुँचकर वसुदेवजी ने उस कन्या को देवकी की शय्यापर सुला दिया और अपने पैरों में बेड़ियाँ डाल ली तथा पहले की तरह वे बंदीगृह में बंद हो गये ॥ ५२ ॥ उधर नन्दपत्नी यशोदाजी को इतना तो मालूम हुआ कि कोई सन्तान हुई है, परन्तु वे यह न जान सकीं कि पुत्र है या पुत्री । क्योंकि एक तो उन्हें बड़ा परिश्रम हुआ था और दूसरे योगमाया ने उन्हें अचेत कर दिया था ॥ ५३ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे तृतीयोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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