April 18, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय ७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सातवाँ अध्याय शकट-भञ्जन और तृणावर्त-उद्धार राजा परीक्षित् ने पूछा — प्रभो ! सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि अनेकों अवतार धारण करके बहुत-सी सुन्दर एवं सुनने में मधुर लीलाएँ करते हैं । वे सभी मेरे हृदय को बहुत प्रिय लगती हैं ॥ १ ॥ उनके श्रवणमात्र से भगवत्-सम्बन्धी कथा से अरुचि और विविध विषयों की तृष्णा भाग जाती है । मनुष्य का अन्तःकरण शीघ्र-से-शीघ्र शुद्ध हो जाता है । भगवान् के चरणों में भक्ति और उनके भक्तजनों से प्रेम भी प्राप्त हो जाता है । यदि आप मुझे उनके श्रवण का अधिकारी समझते हों, तो भगवान् की उन्हीं मनोहर लीलाओं का वर्णन कीजिये ॥ २ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने मनुष्य-लोक में प्रकट होकर मनुष्य-जाति के स्वभाव का अनुसरण करते हुए जो बाललीलाएँ की हैं, अवश्य ही वे अत्यन्त अद्भुत हैं, इसलिये आप अब उनकी दूसरी बाल-लीलाओं का भी वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! एक बार भगवान् श्रीकृष्ण के करवट बदलने का अभिषेक-उत्सव मनाया जा रहा था । उसी दिन उनका जन्मनक्षत्र भी था । घर में बहुत-सी स्त्रियों की भीड़ लगी हुई थी । गाना-बजाना हो रहा था । उन्हीं स्त्रियों के बीच में खड़ी हुई सती साध्वी यशोदाजी ने अपने पुत्र का अभिषेक किया । उस समय ब्राह्मणलोग मन्त्र पढ़कर आर्शीवाद दे रहे थे ॥ ४ ॥ नन्दरानी यशोदाजी ने ब्राह्मणों का खूब पूजन-सम्मान किया । उन्हें अन्न, वस्त्र, माला, गाय आदि मुंहमाँगी वस्तुएँ दीं । जब यशोदा ने उन ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन कराकर स्वयं बालक के नहलाने आदि का कार्य सम्पन्न कर लिया, तब यह देखकर कि मेरे लल्ला के नेत्रों में नींद आ रही है, अपने पुत्र को धीर से शय्या पर सुला दिया ॥ ५ ॥ थोड़ी देर में श्यामसुन्दर की आँखें खुलीं, तो वे स्तन-पान के लिये रोने लगे । उस समय मनस्विनी यशोदाजी उत्सव में आये हुए व्रजवासियों के स्वागत-सत्कार में बहुत ही तन्मय हो रहीं थीं । इसलिये उन्हें श्रीकृष्ण का रोना सुनायी नहीं पड़ा । तब श्रीकृष्ण रोते-रोते अपने पाँव उछालने लगे ॥ ६ ॥ शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़े के नीचे सोये हुए थे (हिरण्याक्ष का पुत्र था उत्कच । वह बात बलवान् एवं मोटा-तगड़ा था । एक बार यात्रा करते समय उसने लोमश ऋषि के आश्रम के वृक्षों को कुचल डाला । लोमश ऋषि ने क्रोध करके शाप दे दिया — “अरे दुष्ट ! जा, तू देहरहित हो जा ।’ उसी समय साँप के केंचुल के समान उसका शरीर गिरने लगा । वह धड़ाम से लोमश ऋषि के चरणों पर गिर पद्म और प्रार्थना की — ‘कृपासिन्धो ! मुझ पर कृपा कीजिये । मुझे आपके प्रभाव का ज्ञान नहीं था । मेरा शरीर लौटा दीजिये ।’ लोमशजी प्रसन्न हो गये । महात्माओं का शाप भी वर हो जाता है । उन्होंने कहा — ‘वैवस्वत मन्वन्तर में श्रीकृष्ण के चरण-स्पर्श से तेरी मुक्त हो जायगी ।’ वही असुर छकड़े में आकर बैठ गया था और भगवान् श्रीकृष्ण के चरणस्पर्श से मुक्त हो गया ।)। उनके पाँव अभी लाल-लाल कोपलों के समान बड़े ही कोमल और नन्हे-नन्हे थे । परन्तु वह नन्हा-सा पाँव लगते ही विशाल छकड़ा उलट गया । उस छकडे पर दूध-दही आदि अनेक रसों से भरी हुई मटकियाँ और दूसरे बर्तन रक्खे हुए थे । वे सब-के-सब फूट-फाट गये और छकड़े के पहिये तथा धुरे अस्त-व्यस्त हो गये, उसका जुआ फट गया ॥ ७ ॥ करवट बदलने के उत्सव में जितनी भी स्त्रियाँ आयी हुई थीं, वे सब और यशोदा, रोहिणी, नन्दबाबा और गोपगण इस विचित्र घटना को देखकर व्याकुल हो गये । वे आपस में कहने लगे — ‘अरे, यह क्या हो गया ? यह छकड़ा अपने-आप कैसे उलट गया ?’ ॥ ८ ॥ वे इसका कोई कारण निश्चित न कर सके । वहाँ खेलते हुए बालकों ने गोपों और गोपियों से कहा कि इस कृष्ण ने ही तो रोते-रोते अपने पाँव की ठोकर से इसे उलट दिया है, इसमें कोई सन्देह नहीं’ ॥ ९ ॥ परन्तु गोपों ने उसे बालकों की बात’ मानकर उस पर विश्वास नहीं किया । ठीक ही है, वे गोप उस बालक के अनन्त बल को नहीं जानते थे ॥ १० ॥ यशोदाजी ने समझा यह किसी ग्रह आदि का उत्पात है । उन्होंने अपने रोते हुए लाड़ले लाल को गोद में लेकर, ब्राह्मणों से वेदमन्त्रों के द्वारा शान्तिपाठ कराया और फिर वे उसे स्तन पिलाने लगीं ॥ ११ ॥ बलवान् गोपों ने छकड़े को फिर सीधा कर दिया । उस पर पहले की तरह सारी सामग्री रख दी गयी । ब्राह्मणों ने हवन किया और दही, अक्षत, कुश तथा जल के द्वारा भगवान् और उस छकडे की पूजा की ॥ १२ ॥ जो किसी के गुणों में दोष नहीं निकालते, झूठ नहीं बोलते, दम्भ, ईर्ष्या और हिंसा नहीं करते तथा अभिमान से रहित हैं — उन सत्यशील ब्राह्मणों का आशीर्वाद कभी विफल नहीं होता ॥ १३ ॥ यह सोचकर नन्दबाबा ने बालक को गोद में उठा लिया और ब्राह्मणों से साम, ऋक् और यजुर्वेद के मन्त्रों द्वारा संस्कृत एवं पवित्र ओषधियों से युक्त जल से अभिषेक कराया ॥ १४ ॥ उन्होंने बड़ी एकाग्रता से स्वस्त्ययनपाठ और हवन कराकर ब्राह्मणों को अति उत्तम अन्न का भोजन कराया ॥ १५ ॥ इसके बाद नन्दबाबा ने अपने पुत्र की उन्नति और अभिवृद्धि की कामना से ब्राह्मणों को सर्वगुणसम्पन्न बहुत-सी गौएँ दीं । वे गौएँ वस्त्र, पुष्पमाला और सोने के हारों से सजी हुई थीं । ब्राह्मणों ने उन्हें आशीर्वाद दिया ॥ १६ ॥ यह बात स्पष्ट है कि जो वेदवेत्ता और सदाचारी ब्राह्मण होते हैं, उनका आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता ॥ १७ ॥ एक दिन की बात है, सती यशोदाजी अपने प्यारे लल्ला को गोद में लेकर दुलार रही थी । सहसा श्रीकृष्ण चट्टान के समान भारी बन गये । वे उनका भार न सह सकीं ॥ १८ ॥ उन्होंने भार से पीड़ित होकर श्रीकृष्ण को पृथ्वी पर बैठा दिया । इस नयी घटना से वे अत्यन्त चकित हो रही थीं । इसके बाद उन्होंने भगवान् पुरुषोत्तम का स्मरण किया और घर के काम में लग गयीं ॥ १९ ॥ तृणावर्त नाम का एक दैत्य था (पाण्डुदेश में सहस्राक्ष नाम के एक राजा थे । वे नर्मदा तट पर अपनी रानियों के साथ विहार कर रहे थे । उधर से दुर्वासा ऋषि निकले, परन्तु उन्होंने प्रणाम नहीं किया । ऋषि ने शाप दिया — ‘तू राक्षस हो ।’ जब वह उनके चरणों पर गिरकर गिड़गिड़ाया, तब दुर्वासा ने कह दिया — ‘भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह का स्पर्श होते ही तू मुक्त हो जायगा ।’ यही राजा तृणावर्त होकर आया था और श्रीकृष्ण का संस्पर्श प्राप्त करके मुक्त हो गया ।)। वह कंस का निजी सेवक था । कंस की प्रेरणा से ही बवंडर के रूप में वह गोकुल में आया और बैठे हुए बालक श्रीकृष्ण को उड़ाकर आकाश में ले गया ॥ २० ॥ उसने ब्रजरज से सारे गोकुल को ढक दिया और लोगों की देखने की शक्ति हर ली । उसके अत्यन्त भयङ्कर शब्द से दसों दिशाएँ काँप उठीं ॥ २१ ॥ सारा ब्रज दो घड़ी तक रज और तम से ढका रहा । यशोदाजी ने अपने पुत्र को जहाँ बैठा दिया था, वहाँ जाकर देखा तो श्रीकृष्ण वहाँ नहीं थे ॥ २२ ॥ उस समय तृणावर्त ने बवंडररूप से इतनी बालू उड़ा रक्खी थी कि सभी लोग अत्यन्त उद्विग्न और बेसुध हो गये थे । उन्हें अपना-पराया कुछ भी नहीं सूझ रहा था ॥ २३ ॥ उस जोर की आँधी और धूल की वर्षा में अपने पुत्र का पता न पाकर यशोदा को बड़ा शोक हुआ । वे अपने पुत्र की याद करके बहुत ही दीन हो गयी और बछड़े के मर जाने पर गाय की जो दशा हो जाती है, वही दशा उनकी हो गयी । वे पृथ्वी पर गिर पड़ीं ॥ २४ ॥ बवंडर के शान्त होने पर जब धूल की वर्षा का वेग कम हो गया, तब यशोदाजी के रोने का शब्द सुनकर दूसरी गोपियाँ वहाँ दौड़ आयीं । नन्दनन्दन श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण को न देखकर उनके हृदय में भी बड़ा संताप हुआ, आँखों से आँसू की धारा बहने लगी । वे फूट-फूटकर रोने लगीं ॥ २५ ॥ इधर तृणावर्त बवंडररूप से जब भगवान् श्रीकृष्ण को आकाश में उठा ले गया, तब उनके भारी बोझ को न सम्हाल सकने के कारण उसका वेग शान्त हो गया । वह अधिक चल न सका ॥ २६ ॥ तृणावर्त अपने से भी भारी होने के कारण श्रीकृष्ण नीलगिरि की चट्टान समझने लगा । उन्होंने उसका गला ऐसा पकड़ा कि वह उस अद्भुत शिशु को अपने से अलग नहीं कर सका ॥ २७ ॥ भगवान् ने इतने जोर से उसका गला पकड़ रक्खा था कि वह असुर निचेष्ट हो गया । उसकी आँखें बाहर निकल आयीं । बोलती बंद हो गयी । प्राण-पखेरू उड़ गये और बालक श्रीकृष्ण के साथ वह व्रज में गिर पड़ा ॥ २८ ॥ वहाँ जो स्त्रियाँ इकट्ठी होकर रो रही थीं, उन्होंने देखा कि वह विकराल दैत्य आकाश से एक चट्टान पर गिर पड़ा और उसका एक-एक अङ्ग चकनाचूर हो गया — ठीक वैसे ही जैसे भगवान् शङ्कर के बाण से आहत हो त्रिपुरासुर गिरकर चूर-चूर हो गया था ॥ २९ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण उसके वक्षःस्थल पर लटक रहे थे । यह देखकर गोपियाँ विस्मित हो गयीं । उन्होंने झटपट वहाँ जाकर श्रीकृष्ण को गोद में ले लिया और लाकर उन्हें माता को दे दिया । बालक मृत्यु के मुख से सकुशल लौट आया । यद्यपि उसे राक्षस आकाश में उठा ले गया था, फिर भी वह बच गया । इस प्रकार बालक श्रीकृष्ण को फिर पाकर यशोदा आदि गोपियों तथा नन्द आदि गोप को अत्यन्त आनन्द हुआ ॥ ३० ॥ वे कहने लगे — ‘अहो ! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है । देखो तो सहीं, यह कितनी अद्भुत घटना घट गयी ! यह बालक राक्षस के द्वारा मृत्यु के मुख में डाल दिया गया था, परन्तु फिर जीता-जागता आ गया और उस हिंसक दुष्ट को उसके पाप ही खा गये ! सच है, साधुपुरुष अपनी समता से ही सम्पूर्ण भयों से बच जाता है ॥ ३१ ॥ हमने ऐसा कौन-सा तप, भगवान् की पूजा, प्याऊ-पौसला, कुआँ-बावली, बाग-बगीचे आदि पूर्त, यज्ञ, दान अथवा जीवों की भलाई की थी, जिसके फल से हमारा यह बालक मरकर भी अपने स्वजनों को सुखी करने के लिये फिर लौट आया ? अवश्य ही यह बड़े सौभाग्य की बात हैं ॥ ३२ ॥ जब नन्दबाबा ने देखा कि महावन में बहुत-सी अद्भुत घटनाएँ घटित हो रही हैं, तब आश्चर्यचकित होकर उन्होंने वसुदेवजी की बात का बार-बार समर्थन किया ॥ ३३ ॥ एक दिन की बात है, यशोदाजी अपने प्यारे शिशु को अपनी गोद में लेकर बड़े प्रेम से स्तन-पान करा रही थीं । वे वात्सल्य-स्नेह से इस प्रकार सराबोर हो रही थीं कि उनके स्तनों से अपने-आप ही दूध झरता जा रहा था ॥ ३४ ॥ जब वे प्रायः दूध पी चुके और माता यशोदा उनके रुचिर मुसकान से युक्त मुख को चूम रही थीं उसी समय श्रीकृष्ण को जँभाई आ गयी और माता ने उनके मुख में यह देखा ॥ ३५ ॥ उसमें आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, दिशाएँ, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदियाँ, वन और समस्त चराचर प्राणी स्थित हैं ॥ ३६ ॥ परीक्षित् । अपने पुत्र के मुँह में इस प्रकार सहसा सारा जगत् देखकर मृगशावकनयनी यशोदाजी का शरीर काँप उठा । उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें बन्द कर ली । वे अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गयीं ॥ ३७ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे सप्तमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related