April 18, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय ८ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय आठवाँ अध्याय नामकरण-संस्कार और बाललीला श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! यदुवंशियों के कुल-पुरोहित थे श्रीगर्गाचार्यजी । वे बड़े तपस्वी थे । वसुदेवजी की प्रेरणा से वे एक दिन नन्दबाबा के गोकुल में आये ॥ १ ॥ उन्हें देखकर नन्दबाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई । वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए । उनके चरणों में प्रणाम किया । इसके बाद ‘ये स्वयं भगवान् ही हैं’ — इस भाव से उनकी पूजा की ॥ २ ॥ जब गर्गाचार्यजी आराम से बैठ गये और विधिपूर्वक उनका आतिथ्य-सत्कार हो गया, तब नन्दबाबा ने बड़ी ही मधुर वाणी से उनका अभिनन्दन किया और कहा — ‘भगवन् ! आप तो स्वयं पूर्णकाम हैं, फिर मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ॥ ३ ॥ आप-जैसे महात्माओं का हमारे जैसे गृहस्थों के घर आ जाना ही हमारे परम कल्याण का कारण हैं । हम तो घरों में इतने उलझ रहे हैं और इन प्रपञ्चों में हमारा चित्त इतना दीन हो रहा है कि हम आपके आश्रम तक जा भी नहीं सकते । हमारे कल्याण के सिवा आपके आगमन का और कोई हेतु नहीं है ॥ ४ ॥ प्रभो ! जो बात साधारणतः इन्द्रियों की पहुँच के बाहर है अथवा भूत और भविष्य के गर्भ में निहित है, वह भी ज्यौतिष-शास्त्र के द्वारा प्रत्यक्ष जान ली जाती है । आपने उसी ज्यौतिष-शास्त्र की रचना की है ॥ ५ ॥ आप ब्राह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं । इसलिये मेरे इन दोनों बालकों के नामकरणादि संस्कार आप ही कर दीजिये; क्योंकि ब्राह्मण जन्म से ही मनुष्यमात्र का गुरु हैं ॥ ६ ॥ गर्गाचार्यजी ने कहा — नन्दजी ! मैं सब जगह यदुवंशियों के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हूँ । यदि मैं तुम्हारे पुत्र के संस्कार करूँगा, तो लोग समझेंगे कि यह तो देवकी का पुत्र है ॥ ७ ॥ कंस की बुद्धि बुरी है, वह पाप ही सोचा करती हैं । वसुदेवजी के साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है । जबसे देवकी की कन्या से उसने यह बात सुनी है कि उसको मारनेवाला और कहीं पैदा हो गया है, तबसे वह यहीं सोचा करता है कि देवकी के आठवें गर्भ से कन्या का जन्म नहीं होना चाहिये । यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार कर दूँ और वह इस बालक को वसुदेवजी का लड़का समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा अन्याय हो जायगा ॥ ८-९ ॥ नन्दबाबा ने कहा — आचार्यजी ! आप चुपचाप इस एकान्त गोशाला में केवल स्वस्तिवाचन करके इस बालक का द्विजाति समुचित नामकरण-संस्कार मात्र कर दीजिये । औरों की कौन कहे, मेरे सगे-सम्बन्धी भी इस बात को न जानने पावें ॥ १० ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — गर्गाचार्यजी तो संस्कार करना चाहते ही थे । जब नन्दबाबा ने उनसे इस प्रकार प्रार्थना कीं, तब उन्होंने एकान्त में छिपकर गुप्तरूप से दोनों बालकों का नामकरण-संस्कार कर दिया ॥ ११ ॥ गर्गाचार्यजी ने कहा — ‘यह रोहिणी का पुत्र है । इसलिये इसका नाम होगा रौहिणेय । यह अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा, इसलिये इसका दूसरा नाम होगा ‘राम’ । इसके बल की कोई सीमा नहीं हैं, अतः इसका एक नाम ‘बल’ भी हैं । यह यादवों में और तुमलोगों में कोई भेदभाव नहीं रक्खेगा और लोगों में फूट पड़ने पर मेल करावेगा, इसलिये इसका एक नाम ‘सङ्कर्षण’ भी हैं ॥ १२ ॥ और यह जो साँवला-साँवला है, यह प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण करता हैं । पिछले युगों में इसने क्रमशः श्वेत, रक्त और पीत — ये तीन विभिन्न रंग स्वीकार किये थे । अबकी यह कृष्णवर्ण हुआ है । इसलिये इसका नाम ‘कृष्ण’ होगा ॥ १३ ॥ नन्दजी ! यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी वसुदेवजी के घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्य को जाननेवाले लोग इसे ‘श्रीमान् वासुदेव’ भी कहते हैं ॥ १४ ॥ तुम्हारे पुत्र के और भी बहुत-से नाम हैं तथा रूप भी अनेक है । इसके जितने गुण हैं और जितने कर्म, उन सबके अनुसार अलग-अलग नामं पड़ जाते हैं । मैं तो उन नाम को जानता हूँ, परन्तु संसार के साधारण लोग नहीं जानते ॥ १५ ॥ यह तुम लोगों का परम कल्याण करेगा । समस्त गोप और गौओं को यह बहुत ही आनन्दित करेगा । इसकी सहायता से तुम लोग बड़ी-बड़ी विपत्तियों को बड़ी सुगमता से पार कर लोगे ॥ १६ ॥ व्रजराज ! पहले युग की बात है । एक बार पृथ्वी में कोई राजा नहीं रह गया था । डाकुओं ने चारों ओर लूट-खसोट मचा रखी थी । तब तुम्हारे इसी पुत्र ने सज्जन पुरुषों की रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगों ने लुटेरों पर विजय प्राप्त की ॥ १७ ॥ जो मनुष्य तुम्हारे इस साँवले सलोने शिशु से प्रेम करते हैं । वे बड़े भाग्यवान् हैं । जैसे विष्णुभगवान् के कर-कमलों की छत्र-छाया में रहनेवाले देवताओं को असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करनेवालों को भीतर या बाहर किसी भी प्रकार के शत्रु नहीं जीत सकते ॥ १८ ॥ नन्दजी ! चाहे जिस दृष्टि से देखें — गुण में, सम्पत्ति और सौन्दर्य में, कीर्ति और प्रभाव में तुम्हारा यह बालक साक्षात् भगवान् नारायण के समान है । तुम बड़ी सावधानी और तत्परता से इसकी रक्षा करो’ ॥ १९ ॥ इस प्रकार नन्दबाबा को भलीभाँति समझाकर, आदेश देकर गर्गाचार्यजी अपने आश्रम को लौट गये । उनकी बात सुनकर नन्दबाबा को बड़ा ही आनन्द हुआ । उन्होंने ऐसा समझा कि मेरी सब आशा-लालसाएँ पूरी हो गयीं, मैं अब कृतकृत्य हूँ ॥ २० ॥ परीक्षित् ! कुछ ही दिनों में राम और श्याम घुटनों और हाथों के बल बकैयाँ चल-चलकर गोकुल में खेलने लगे ॥ २१ ॥ दोनों भाई अपने नन्हे-नन्हें पाँवों को गोकुल की कीचड़ में घसीटते हुए चलते । उस समय उनके पाँव और कमर के घुँघरू रुन-झुन बजने लगते । वह शब्द बड़ा भला मालूम पड़ता । वे दोनों स्वयं वह ध्वनि सुनकर खिल उठते । कभी-कभी वे रास्ते चलते किसी अज्ञात व्यक्ति के पीछे हो लेते । फिर जब देखते कि यह तो कोई दूसरा हैं, तब झक-से रह जाते और डरकर अपनी माताओं — रोहिणीजी और यशोदाजी के पास लौट आते ॥ २२ ॥ माताएँ यह सब देख-देखकर स्नेह से भर जातीं । उनके स्तनों से दूध की धारा बहने लगती थी । जब उनके दोनों नन्हे-नन्हे से शिशु अपने शरीर में कीचड़ का अङ्गराग लगाकर लौटते, तब उनकी सुन्दरता और भी बढ़ जाती थी । माताएँ उन्हें आते ही दोनों हाथों से गोद में लेकर हृदय से लगा लेतीं और स्तनपान कराने लगतीं, जब वे दूध पीने लगते और बीच-बीच में मुसकरा-मुसकराकर अपनी माताओं की ओर देखने लगते, तब वे उनकी मन्द-मन्द मुसकान, छोटी-छोटी दँतुलियाँ और भोला-भाला मुँह देखकर आनन्द के समुद्र में डूबने-उतराने लगतीं ॥ २३ ॥ जब राम और श्याम दोनों कुछ और बड़े हुए, तब व्रज में घर के बाहर ऐसी-ऐसी बाल-लीलाएँ करने लगे, जिन्हें गोपियाँ देखती ही रह जातीं । जब वे किसी बैठे हुए बछड़े की पूँछ पकड़ लेते और बछड़े डरकर इधर-उधर भागते, तब वे दोनों और भी जोर से पूँछ पकड़ लेते और बछड़े उन्हें घसीटते हुए दौड़ने लगते । गोपियाँ अपने घर का काम-धंधा छोड़कर यहीं सब देखती रहतीं और हँसते-हँसते लोटपोट होकर परम आनन्द में मग्न हो जातीं ॥ २४ ॥ कन्हैया और बलदाऊ दोनों ही बड़े चञ्चल और बड़े खिलाड़ी थे । वे कहीं हरिन, गाय आदि सींगवाले पशुओं के पास दौड़ जाते, तो कहीं धधकती हुई आग से खेलने के लिये कूद पड़ते । कभी दाँत से काटनेवाले कुत्तों के पास पहुँच जाते, तो कभी आँख बचाकर तलवार उठा लेते । कभी कुएँ या गड्ढे के पास जल में गिरते-गिरते बचते, कभी मोर आदि पक्षियों के निकट चले जाते और कभी काँटों की ओर बढ़ जाते थे । माताएँ उन्हें बहुत बरजतीं, परन्तु उनकी एक न चलती । ऐसी स्थिति में वे घर का काम-धंधा भी नहीं सम्हाल पातीं । उनका चित्त बच्चों को भय की वस्तुओं से बचाने की चिन्ता से अत्यन्त चञ्चल रहता था ॥ २५ ॥ राजर्षे ! कुछ ही दिनों में यशोदा और रोहिणी के लाड़ले लाल घुटनों का सहारा लिये बिना अनायास ही खड़े होकर गोकुल में चलने-फिरने लगे ॥ २६ ॥ ये व्रजवासियों के कन्हैया स्वयं भगवान् हैं, परम सुन्दर और परम मधुर ! अब वे और बलराम अपनी ही उम्र के ग्वाल-बालों को अपने साथ लेकर खेलने के लिये व्रज में निकल पड़ते और व्रज की भाग्यवती गोपियों को निहाल करते हुए तरह-तरह के खेल खेलते ॥ २७ ॥ उनके बचपन की चञ्चलताएँ बड़ी ही अनोखी होती थीं । गोपियों को तो वे बड़ी ही सुन्दर और मधुर लगतीं । एक दिन सब-की-सब इकट्ठी होकर नन्दबाबा के घर आयीं और यशोदा माता को सुना-सुनाकर कन्हैया के करतूत कहने लगीं ॥ २८ ॥ ‘अरी यशोदा ! यह तेरा कान्हा बड़ा नटखट हो गया है । गाय दुहने का समय न होने पर भी यह बछड़ों को खोल देता है और हम डाँटती हैं, तो ठठा-ठठाकर हँसने लगता है । यह चोरी के बड़े-बड़े उपाय करके हमारे मोठे-मीठे दही-दूध चुरा-चुराकर खा जाता है । केवल अपने ही खाता तो भी एक बात थीं, यह तो सारा दही-दूध वानरों को बाँट देता है और जब वे भी पेट भर जाने पर नहीं खा पाते, तब यह हमारे माटों को ही फोड़ डालता है । यदि घर में कोई वस्तु इसे नहीं मिलती तो यह घर और घरवालों पर बहुत खीझता है और हमारे बच्चों को रुलाकर भाग जाता है ॥ २९ ॥ जब हम दही-दूध को छीकों पर रख देती हैं और इसके छोटे-छोटे हाथ वहाँ तक नहीं पहुँच पाते, तब यह बड़े-बड़े उपाय रचता है । कहीं दो-चार पीढ़ों को एक के ऊपर एक रख देता है । कहीं ऊखल पर चढ़ जाता है तो कहीं ऊखल पर पीढ़ा रख देता है, (कभी-कभी तो अपने किसी साथी के कंधे पर ही चढ़ जाता हैं ।) जब इतने पर भी काम नहीं चलता, तब यह नीचे से ही उन बर्तनों में छेद कर देता है । इसे इस बात की पक्की पहचान रहती है कि किस छीके पर किस बर्तन में क्या रखा है । और ऐसे ढँग से छेद करना जानता है कि किसी को पता तक न चले । जब हम अपनी वस्तुओं को बहुत अँधेरे में छिपा देती है, तब नन्दरानी ! तुमने जो इसे बहुत-से मणिमय आभूषण पहना रक्खे हैं, उनके प्रकाश से अपने-आप ही सब कुछ देख लेता है । इसके शरीर में भी ऐसी ज्योति है कि जिससे इसे सब कुछ दीख जाता है । यह इतना चालाक है कि कब कौन कहाँ रहता है, इसका पता रखता है और जब हम सब घर के काम-धंधों में उलझी रहती हैं, तब यह अपना काम बना लेता है ॥ ३० ॥ ऐसा करके भी ढिठाई की बातें करता है — उलटे हमें ही चोर बनाता और अपने घर का मालिक बन जाता है । इतना ही नहीं, यह हमारे लिपे-पुते स्वच्छ घरों में मूत्र आदि भी कर देता है । तनिक देखो तो इसकी ओर, वहाँ तो चोरी के अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है, मानो पत्थर की मूर्ति खड़ी हो ! वाह रे भोले-भाले साधु !’ इस प्रकार गोपियाँ कहती जातीं और श्रीकृष्ण के भीत-चकित नेत्रों से युक्त मुखमण्डल को देखती जातीं । उनकी यह दशा देखकर नन्दरानी यशोदाजी उनके मन का भाव ताड़ लेतीं और उनके हृदय में स्नेह और आनन्द की बाढ़ आ जाती । वे इस प्रकार हँसने लगतीं कि अपने लाड़ले कन्हैया को इस बात का उलाहना भी न दे पातीं, डाँटने की बात तक नहीं सोच पाती ॥ ३१ ॥ एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्ण साथ खेल रहे थे । उन लोगों ने मा यशोदा के पास आकर कहा — ‘मा ! कन्हैया ने मिट्टी खायी है ॥ ३२ ॥ हितैषिणी यशोदा ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया । उस समय श्रीकृष्ण की आँखें डर के मारे नाच रही थीं । यशोदा मैया ने डाँटकर कहा — ॥ ३३ ॥ ‘क्यों रे नटखट ! तू बहुत ढीठ हो गया है । तूने अकेले में छिपकर मिट्टी क्यों खायी ? देख तो तेरे दल के तेरे सखा क्या कह रहे हैं ! तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हीं की ओर से गवाही दे रहे हैं ॥ ३४ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — ‘मा ! मैंने मिट्टी नहीं खायी । ये सब झूठ बक रहे हैं । यदि तुम इन्हीं की बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखों से देख लो ॥ ३५ ॥ यशोदाजी ने कहा — ‘अच्छी बात । यदि ऐसा है, तो मुँह खोल ।’ माता के ऐसा कहने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया । परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य अनन्त है । वे केवल लीला के लिये ही मनुष्य के बालक बने हुए हैं ॥ ३६ ॥ यशोदाजी ने देखा कि उनके मुँह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत् विद्यमान है । आकाश (वह शून्य जिसमें किसी की गति नहीं) दिशाएँ, पहाड़, द्वीप, और समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहनेवाली वायु, वैद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वियत् (प्राणियों के चलने-फिरने का आकाश), वैकारिक अहङ्कार के कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पञ्चतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्ण के मुख में दीख पड़े ॥ ३७-३८ ॥ परीक्षित् ! जीव, काल, स्वभाव, कर्म, उनकी वासना और शरीर आदि के द्वारा विभिन्न रूपों में दीखनेवाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण व्रज और अपने-आपको भी यशोदाजी ने श्रीकृष्ण के नन्हे से खुले हुए मुख में देखा । वे बड़ी शङ्का में पड़ गयीं ॥ ३९ ॥ वे सोचने लगीं कि ‘यह कोई स्वप्न हैं या भगवान् की माया ? कहीं मेरी बुद्धि में ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया है ? सम्भव है, मेरे इस बालक में ही कोई जन्म-जात योग-सिद्धि हो’ ॥ ४० ॥ जो चित्त, मन, कर्म और वाणी के द्वारा ठीक-ठीक तथा सुगमता से अनुमान के विषय नहीं होते, यह सारा विश्व जिनके आश्रित है, जो इसके प्रेरक हैं और जिनकी सत्ता से ही इसकी प्रतीति होती है, जिनका स्वरूप सर्वथा अचिन्त्य हैं — उन प्रभु को मैं प्रणाम करती हूँ ॥ ४१ ॥ यह मैं हूँ और ये मेरे पति तथा यह मेरा लड़का है, साथ ही मैं व्रजराज की समस्त सम्पत्तियों की स्वामिनी धर्मपत्नी हूँ, ये गोपियाँ, गोप और गोधन मेरे अधीन हैं — जिनकी माया से मुझे इस प्रकार की कुमति घेरे हुए है, वे भगवान् ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं — मैं उन्हीं की शरण में हूँ ॥ ४२ ॥ जब इस प्रकार यशोदा माता श्रीकृष्ण का तत्त्व समझ गयीं, तब सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक प्रभु ने अपनी पुत्रस्नेहमयी वैष्णवी योगमाया का उनके हृदय में संचार कर दिया ॥ ४३ ॥ यशोदाजी को तुरंत वह घटना भूल गयी । उन्होंने अपने दुलारे लाल को गोद में उठा लिया । जैसे पहले उनके हृदय में प्रेम का समुद्र उमड़ता रहता था, वैसे ही फिर उमड़ने लगा ॥ ४४ ॥ सारे वेद, उपनिषद्, सांख्य, योग और भक्तजन जिनके माहात्म्य का गीत गाते-गाते अघाते नहीं उन्हीं भगवान् को यशोदाजी अपना पुत्र मानती थी ॥ ४५ ॥ राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! नन्दबाबा ने ऐसा कौन-सा बहुत बड़ा मङ्गलमय साधन किया था ? और परमभाग्यवती यशोदाजी ने भी ऐसी कौन-सी तपस्या की थीं जिसके कारण स्वयं भगवान् ने अपने श्रीमुख से उनका स्तनपान किया ॥ ४६ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण की वे बाललीलाएँ, जो वे अपने ऐश्वर्य और महत्ता आदि को छिपाकर ग्वालबालों में करते हैं, इतनी पवित्र हैं कि उनका श्रवण-कीर्तन करनेवाले लोगों के भी सारे पाप-ताप शान्त हो जाते हैं । त्रिकालदर्शी ज्ञानी पुरुष आज भी उनका गान करते रहते हैं । वे ही लीलाएँ उनके जन्मदाता माता-पिता देवकी-वसुदेवजी को तो देखने तक को न मिलीं और नन्द-यशोदा उनका अपार सुख लूट रहे हैं । इसका क्या कारण है ? ॥ ४७ ॥ श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! नन्दबाबा पूर्वजन्म में एक श्रेष्ठ वसु थे । उनका नाम था द्रोण और उनकी पत्नी का नाम था धरा । उन्होंने ब्रह्माजी के आदेशों का पालन करने की इच्छा से उनसे कहा — ॥ ४८ ॥ ‘भगवन् ! जब हम पृथ्वी पर जन्म लें, तब जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण में हमारी अनन्य प्रेममयी भक्ति हो — जिस भक्ति के द्वारा संसार में लोग अनायास ही दुर्गतियों को पार कर जाते हैं ॥ ४९ ॥ ब्रह्माजी ने कहा — ‘ऐसा ही होगा ।’ वे ही परमयशस्वी भगवन्मय द्रोण व्रज में पैदा हुए और उनका नाम हुआ नन्द । और वे ही धरा इस जन्म में यशोदा के नाम से उनकी पत्नी हुई ॥ ५० ॥ परीक्षित् ! अब इस जन्म में जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ानेवाले भगवान् उनके पुत्र हुए और समस्त गोप-गोपियों की अपेक्षा इन पति-पत्नी नन्द और यशोदाजी का उनके प्रति अत्यन्त प्रेम हुआ ॥ ५१ ॥ ब्रह्माजी की बात सत्य करने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ व्रज में रहकर समस्त व्रजवासियों को अपनी बाल-लीला से आनन्दित करने लगे ॥ ५२ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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