April 19, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय १२ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय बारहवाँ अध्याय अघासुर का उद्धार श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! एक दिन नन्दनन्दन श्यामसुन्दर वन में ही कलेवा करने के विचार से बड़े तड़के उठ गये और सिंगी बाजे की मधुर मनोहर ध्वनि से अपने साथी ग्वालबालों को मन की बात जनाते हुए उन्हें जगाया और बछड़ों को आगे करके वे व्रजमण्डल से निकल पड़े ॥ १ ॥ श्रीकृष्ण के साथ ही उनके प्रेमी सहस्रों ग्वालबाल सुन्दर छीके, बेंत, सिंगी और बाँसुरी लेकर तथा अपने सहस्रों बछड़ों को आगे करके बड़ी प्रसन्नता से अपने-अपने घरों से चल पड़े ॥ २ ॥ उन्होंने श्रीकृष्ण के अगणित बछड़ों में अपने-अपने बछड़े मिला दिये और स्थान-स्थान पर बालोचित खेल खेलते हुए विचरने लगे ॥ ३ ॥ यद्यपि सब-के-सब ग्वालबाल काँच, घुँघची, मणि और सुवर्ण के गहने पहने हुए थे, फिर भी उन्होंने वृन्दावन के लाल-पीले-हरे फलों से, नयी-नयी कोंपलों से, गुच्छों से, रंग-बिरंगे फूलों और मोरपंखों से तथा गेरू आदि रंगीन धातुओं से अपने को सजा लिया ॥ ४ ॥ कोई किसी का छीका चुरा लेता, तो कोई किसी की बेंत या बाँसुरी । जब उन वस्तुओं के स्वामी को पता चलता, तब उन्हें लेनेवाला किसी दूसरे के पास दूर फेंक देता, दूसरा तीसरे के और तीसरा और भी दूर चौथे के पास । फिर वे हंसते हुए उन्हें लौटा देते ॥ ५ ॥ यदि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण वन की शोभा देखने के लिये कुछ आगे बढ़ जाते, तो पहले मैं छुऊँगा, पहले मैं छुऊँगा’ — इस प्रकार आपस में होड़ लगाकर सब-के-सब उनकी ओर दौड़ पड़ते और उन्हें छू-छूकर आनन्दमग्न हो जाते ॥ ६ ॥ कोई बाँसुरी बजा रहा है, तो कोई सिंगी ही फूँक रहा है । कोई-कोई भौंरो के साथ गुनगुना रहे हैं, तो बहुत-से कोयलों के स्वर में स्वर मिलाकर ‘कुहू कुहू’ कर रहे हैं ॥ ७ ॥ एक ओर कुछ ग्वालबाल आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की छाया के साथ दौड़ लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर कुछ हंसों की चाल की नकल करते हुए उनके साथ सुन्दर गति से चल रहे हैं । कोई बगुले के पास उसी के समान आँखें मूंदकर बैठ रहे हैं, तो कोई मोरों को नाचते देख उन्हीं की तरह नाच रहे हैं ॥ ८ ॥ कोई-कोई बंदरों की पूँछ पकड़कर खींच रहे है, तो दूसरे उनके साथ इस पेड़ से उस पेड़ पर चढ़ रहे हैं । कोई-कोई उनके साथ मुँह बना रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ एक डाल से दूसरी डाल पर छलाँग मार रहे हैं ॥ ९ ॥ बहुत-से ग्वालबाल तो नदी के कछार में छपका खेल रहे हैं और उसमें फुदकते हुए मेढ़कों के साथ स्वयं भी फुदक रहे हैं । कोई पानी में अपनी परछाई देखकर उसकी हँसी कर रहे हैं, तो दूसरे अपने शब्द की प्रतिध्वनि को ही बुरा-भला कह रहे हैं ॥ १० ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ज्ञानी संतों के लिये स्वयं ब्रह्मानन्द के मूर्तिमान् अनुभव हैं । दास्यभाव से युक्त भक्तों के लिये वे उनके आराध्यदेव, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर हैं । और माया-मोहित विषयान्धों के लिये वे केवल एक मनुष्य-बालक हैं । उन्हीं भगवान् के साथ वे महान् पुण्यात्मा ग्वालबाल तरह-तरह के खेल खेल रहे हैं ॥ ११ ॥ बहुत जन्मों तक श्रम और कष्ट उठाकर जिन्होंने अपनी इन्द्रियों और अन्तःकरण को वश में कर लिया है, उन योगियों के लिये भी भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की रज अप्राप्य है । वही भगवान् स्वयं जिन व्रजवासी ग्वालबालों की आँखों के सामने रहकर सदा खेल खेलते हैं, उनके सौभाग्य की महिमा इससे अधिक क्या कही जाय ॥ १३ ॥ परीक्षित् ! इसी समय अघासुर नाम का महान् दैत्य आ धमका । उससे श्रीकृष्ण और ग्वालबालों की सुखमयी क्रीडा देखी न गयी । उसके हृदय में जलन होने लगी । वह इतना भयङ्कर था कि अमृतपान करके अमर हुए देवता भी उससे अपने जीवन की रक्षा करने के लिये चिन्तित रहा करते थे और इस बात की बाट देखते रहते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाय ॥ १३ ॥ अघासुर पूतना और बकासुर का छोटा भाई तथा कंस का भेजा हुआ था । वह श्रीकृष्ण, श्रीदामा आदि ग्वालबालों को देखकर मन-ही-मन सोचने लगा कि ‘यही मेरे सगे भाई और बहन को मारनेवाला है । इसलिये आज मैं इन ग्वालबालों के साथ इसे मार डालूंगा ॥ १४ ॥ जब ये सब मरकर मेरे उन दोनों भाई-बहिनों के मृत-तर्पण की तिलाञ्जलि बन जायेंगे, तब व्रजवासी अपने आप मरे-जैसे हो जायेंगे । सन्तान ही प्राणियों के प्राण हैं । जब प्राण ही न रहेंगे, तब शरीर कैसे रहेगा ? इसकी मृत्यु से व्रजवासी अपने आप मर जायँगे ॥ १५ ॥ ऐसा निश्चय करके वह दुष्ट दैत्य अजगर का रूप धारण कर मार्ग में लेट गया । उसका वह अजगर-शरीर एक योजन लंबे बड़े पर्वत के समान विशाल एवं मोटा था । वह बहुत ही अद्भुत था । उसकी नीयत सब बालकों को निगल जाने की थी, इसलिये उसने गुफा के समान अपना बहुत बड़ा मुँह फाड़ रखा था ॥ १६ ॥ उसका नीचे का होठ पृथ्वी से और ऊपर का होठ बादलों से लग रहा था । उसके जबड़े कन्दराओं के समान थे और दाढ़ें पर्वत के शिखर-सी जान पड़ती थीं । मुँह के भीतर घोर अन्धकार था । जीभ एक चौड़ी लाल सड़क-सी दीखती थी । साँस आँधी के समान थी और आँखें दावानल के समान दहक रही थीं ॥ १७ ॥ अघासुर का ऐसा रूप देखकर बालकों ने समझा कि यह भी वृन्दावन की कोई शोभा है । वे कौतुकवश खेल-ही-खेल में उत्प्रेक्षा करने लगे कि यह मानो अजगर का खुला हुआ मुँह है ॥ १८ ॥ कोई कहता — ‘मित्रो ! भला बतलाओ तो, यह जो हमारे सामने कोई जीव-सा बैठा हैं, यह हमें निगलने के लिये खुले हुए किसी अजगर के मुँह-जैसा नहीं है ?’ ॥ १९ ॥ दूसरे ने कहा — ‘सचमुच सूर्य की किरणें पड़ने से ये जो बादल लाल-लाल हो गये हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं, मानो ठीक-ठीक इसका ऊपरी होठ ही हो । और उन्हीं बादलों की परछाईं से यह जो नीचे की भूमि कुछ लाल-लाल दीख रही है, वहीं इसका नीचे का होठ जान पड़ता हैं’ ॥ २० ॥ तीसरे ग्वालबाल ने कहा — ‘हाँ, सच तो है । देखो तो सहीं, क्या ये दायीं और बायीं ओर की गिरि-कन्दराएँ अजगर के जबड़ों की होड़ नहीं करतीं ? और ये ऊँची-ऊँची शिखर-पंक्तियाँ तो साफ-साफ इसकी दाढ़े मालूम पड़ती हैं ॥ २१ ॥ चौथे ने कहा — ‘अरे भाई ! यह लंबी-चौड़ी सड़क तो ठीक अजगर की जीभ सरीखी मालूम पड़ती है और इन गिरिशृङ्गों के बीच का अन्धकार तो उसके मुंह के भीतरी भाग को भी मात करता हैं’ ॥ २२ ॥ किसी दूसरे ग्वालबाल ने कहा — ‘देखो, देखो ! ऐसा जान पड़ता है कि कहीं इधर जंगल में आग लगी हैं । इससे यह गरम और तीखी हवा आ रही है । परन्तु अजगर की साँस के साथ इसका क्या ही मेल बैठ गया है । और उसी आग से जले हुए प्राणियों की दुर्गन्ध ऐसी जान पड़ती है, मानो अजगर के पेट में मरे हुए जीवों के मांस की ही दुर्गन्ध हो’ ॥ २३ ॥ तब उन्हीं में से एक ने कहा — ‘यदि हम लोग इसके मुँह में घुस जायें, तो क्या यह हमें निगल जायगा ? अजी ! यह क्या निगलेगा ! कहीं ऐसा करने की ढिठाई की तो एक क्षण में यह भी बकासुर के समान नष्ट हो जायगा । हमारा यह कन्हैया इसको छोड़ेगा थोड़े ही । इस प्रकार कहते हुए वे ग्वालबाल बकासुर को मारनेवाले श्रीकृष्ण का सुन्दर मुख देखते और ताली पीट-पीटकर हँसते हुए अघासुर के मुँह में घुस गये ॥ २४ ॥ इन अनजान बच्चों की आपस में की हुई भ्रमपूर्ण बातें सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने सोचा कि ‘अरे, इन्हें तो सच्चा सर्प भी झूठा प्रतीत होता है !’ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण जान गये कि यह राक्षस है । भला, उनसे क्या छिपा रहता ? वे तो समस्त प्राणियों के हृदय में ही निवास करते हैं । अब उन्होंने यह निश्चय किया कि अपने सखा ग्वालबालों को उसके मुंह में जाने से बचा लें ॥ २५ ॥ भगवान् इस प्रकार सोच ही रहे थे कि सब-के-सब ग्वालबाल बछड़ों के साथ उस असुर के पेट में चले गये । परन्तु अघासुर ने अभी उन्हें निगला नहीं, इसका कारण यह था कि अघासुर अपने भाई बकासुर और बहिन पूतना के वध की याद करके इस बात की बाट देख रहा था कि उनको मारनेवाले श्रीकृष्ण मुँह में आ जायँ, तब सबको एक साथ ही निगल जाऊँ ॥ २६ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण सबको अभय देनेवाले हैं । जब उन्होंने देखा कि ये बेचारे ग्वालबाल — जिनका एकमात्र रक्षक में ही हूँ — मेरे हाथ से निकल गये और जैसे कोई तिनका उड़कर आग में गिर पड़े, वैसे ही अपने-आप मृत्युरूप अघासुर की जठराग्नि के ग्रास बन गये, तब दैव की इस विचित्र लीला पर भगवान् को बड़ा विस्मय हुआ और उनका हृदय दया से द्रवित हो गया ॥ २७ ॥ वे सोचने लगे कि ‘अब मुझे क्या करना चाहिये ? ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे इस दुष्ट की मृत्यु भी हो जाय और इन संत-स्वभाव भोले-भाले बालकों की हत्या भी न हो ? ये दोनों काम कैसे हो सकते हैं ?’ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण भूत, भविष्य, वर्तमान — सबको प्रत्यक्ष देखते रहते हैं । उनके लिये यह उपाय जानना कोई कठिन न था । वे अपना कर्तव्य निश्चय करके स्वयं उसके मुँह में घुस गये ॥ २८ ॥ उस समय बादलों में छिपे हुए देवता भयवश ‘हाय-हाय’ पुकार उठे और अघासुर के हितैषी कंस आदि राक्षस हर्ष प्रकट करने लगे ॥ २९ ॥ अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान् श्रीकृष्ण को अपनी दाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था । परन्तु उसी समय अविनाशी श्रीकृष्ण ने देवताओं की ‘हाय-हाय’ सुनकर उसके गले में अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से बढ़ा लिया ॥ ३० ॥ इसके बाद भगवान् ने अपने शरीर को इतना बड़ा कर लिया कि उसका गला ही रुँध गया । आँखें उलट गयीं । वह व्याकुल होकर बहुत ही छटपटाने लगा । साँस रुककर सारे शरीर में भर गयी और अन्त में उसके प्राण ब्रह्मरन्ध्र फोड़कर निकल गये ॥ ३१ ॥ उसी मार्ग से प्राणों के साथ उसकी सारी इन्द्रियाँ भी शरीर से बाहर हो गयीं । उसी समय भगवान् मुकुन्द ने अपनी अमृतमयी दृष्टि से मरे हुए बछड़ों और ग्वालबालों को जिला दिया और उन सबको साथ लेकर वे अघासुर के मुंह से बाहर निकल आये ॥ ३२ ॥ उस अजगर के स्थूल शरीर से एक अत्यन्त अद्भुत और महान् ज्योति निकली, उस समय उस ज्योति प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं । वह थोड़ी देर तक तो आकाश में स्थित होकर भगवान् के निकलने की प्रतीक्षा करती रही । जब वे बाहर निकल आये, तब वह सब देवताओं के देखते-देखते उन्हीं में समा गयी ॥ ३३ ॥ उस समय देवताओं ने फूल बरसाकर, अप्सराओं ने नाचकर, गन्धर्वों ने गाकर, विद्याधरों ने बाजे बजाकर, ब्राह्मणों ने स्तुति-पाठकर और पार्षदों ने जय-जयकार के नारे लगाकर बड़े आनन्द से भगवान् श्रीकृष्ण का अभिनन्दन किया । क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण ने अघासुर को मारकर उन सबका बहुत बड़ा काम किया था ॥ ३४ ॥ इन अद्भुत स्तुतियों, सुन्दर बाजों, मङ्गलमय गीतों, जय-जयकार और आनन्दोत्सव की मङ्गलध्वनि ब्रह्मलोक के पास पहुँच गयी । जब ब्रह्माजी ने वह ध्वनि सुनी, तब वे बहुत ही शीघ्र अपने वाहन पर चढ़कर वहाँ आये और भगवान् श्रीकृष्ण की यह महिमा देखकर आश्चर्यचकित हो गये ॥ ३५ ॥ परीक्षित् ! जब वृन्दावन में अजगर का वह चाम सूख गया, तब वह व्रजवासियों के लिये बहुत दिनों तक खेलने की एक अद्भुत गुफ़ा-सी बना रहा ॥ ३६ ॥ यह जो भगवान् ने अपने ग्वालबालों को मृत्यु के मुख से बचाया था और अघासुर को मोक्ष-दान किया था, वह लीला भगवान् ने अपनी कुमार अवस्था में अर्थात् पाँचवें वर्ष में ही की थी । ग्वालबालों ने उसे उसी समय देखा भी था, परन्तु पौगण्ड अवस्था अर्थात् छठे वर्ष में अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर व्रज में उसका वर्णन किया ॥ ३७ ॥ अघासुर मूर्तिमान् अघ (पाप) ही था । भगवान् के स्पर्शमात्र से उसके सारे पाप धुल गये और उसे उस सारूप्य-मुक्ति की प्राप्ति हुई, जो पापियों को कभी मिल नहीं सकती । परन्तु यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है । क्योंकि मनुष्य-बालक की-सी लीला रचनेवाले ये वे ही परमपुरुष परमात्मा हैं, जो व्यक्त-अव्यक्त और कार्य-कारणरूप समस्त जगत् के एकमात्र विधाता हैं ॥ ३८ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण के किसी एक अङ्ग की भावनिर्मित प्रतिमा यदि ध्यान के द्वारा एक बार भी हदय में बैठा ली जाय, तो वह सालोक्य, सामीप्य आदि गति का दान करती है, जो भगवान् के बड़े-बड़े भक्तों को मिलती है । भगवान् आत्मानन्द के नित्य साक्षात्कारस्वरूप हैं । माया उनके पास तक नहीं फटक पाती । वे ही स्वयं अघासुर के शरीर में प्रवेश कर गये । क्या अब भी उसकी सद्गति के विषय में कोई सन्देह है ? ॥ ३९ ॥ सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियो ! यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ने ही राजा परीक्षित् को जीवन-दान दिया था । उन्होंने जब अपने रक्षक एवं जीवन-सर्वस्व का यह विचित्र चरित्र सुना, तब उन्होंने फिर श्रीशुकदेवजी महाराज से उन्हीं की पवित्र लीला के सम्बन्ध में प्रश्न किया । इसका कारण यह था कि भगवान् की अमृतमयी लीला ने परीक्षित् के चित्त को अपने वश में कर रक्खा था ॥ ४० ॥ राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! आपने कहा था कि ग्वालबालों ने भगवान् की की हुई पाँचवें वर्ष की लीला व्रज में छठे वर्ष में जाकर कहीं । अब इस विषय में आप कृपा करके यह बतलाइये कि एक समय की लीला दुसरे समय में वर्तमानकालीन कैसे हो सकती है ? ॥ ४१ ॥ महायोगी गुरुदेव ! मुझे इस आश्चर्यपूर्ण रहस्य को जानने के लिये बड़ा कौतूहल हो रहा है । आप कृपा करके बतलाइये । अवश्य ही इसमें भगवान् श्रीकृष्ण की विचित्र घटनाओं को घटित करनेवाली माया का कुछ-न-कुछ काम होगा । क्योंकि और किसी प्रकार ऐसा नहीं हो सकता ॥ ४२ ॥ गुरूदेव ! यद्यपि क्षत्रियोचित धर्म ब्राह्मणसेवा से विमुख होने के कारण मैं अपराधी नाममात्र का क्षत्रिय हूँ, तथापि हमारा अहोभाग्य है कि हम आपके मुखारविन्द से निरन्तर झरते हुए परम पवित्र मधुमय श्रीकृष्ण-लीलामृत का बार-बार पान कर रहे हैं ॥ ४३ ॥ सूतजी कहते हैं — भगवान् के परम प्रेमी भक्तों में श्रेष्ठ शौनकजी ! जब राजा परीक्षित् ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब श्रीशुकदेवजी को भगवान् की वह लीला स्मरण हो आयी और उनकी समस्त इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण विवश होकर भगवान् की नित्यलीला में खिंच गये । कुछ समय के बाद धीरे-धीरे श्रम और कष्ट से उन्हें बाह्यज्ञान हुआ । तब वे परीक्षित् से भगवान् की लीला का वर्णन करने लगे ॥ ४४ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे द्वादशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related