श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय १६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
सोलहवाँ अध्याय
कालिय पर कृपा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि महाविषधर कालिय नाग ने यमुनाजी का जल विषैला कर दिया है । तब यमुनाजी को शुद्ध करने के विचार से उन्होंने वहाँ से उस सर्प को निकाल दिया ॥ १ ॥

राजा परीक्षित् ने पूछा — ब्रह्मन् ! भगवान् श्रीकृष्ण ने यमुनाजी के अगाध जल में किस प्रकार उस सर्प का दमन किया ? फिर कालिय नाग तो जलचर जीव नहीं था, ऐसी दशा में वह अनेक युगों तक जल में क्यों और कैसे रहा ? सो बतलाइये ॥ २ ॥ ब्रह्मस्वरूप महात्मन् ! भगवान् अनन्त हैं । वे अपनी लीला प्रकट करके स्वच्छन्द विहार करते हैं । गोपालरूप से उन्होंने जो उदार लीला की है, वह तो अमृतस्वरूप है । भला, उसके सेवन से कौन तृप्त हो सकता है ? ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! यमुनाजी में कालिय नाग का एक कुण्ड था । उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था । यहाँ तक कि उसके ऊपर उड़नेवाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे ॥ ४ ॥ उसके विषैले जल की उत्ताल तरङ्ग का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी बूंदें लेकर जब वायु बाहर आती और तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि का स्पर्श करती, तब वे उसी समय मर जाते थे ॥ ५ ॥ परीक्षित् ! भगवान् का अवतार तो दुष्टों का दमन करने के लिये होता ही है । जब उन्होंने देखा कि उस साँप के विष का वेग वड़ा प्रचण्ड (भयंकर) है और वह भयानक विष ही उसका महान् बल है तथा उसके कारण मेरे विहार का स्थान यमुनाजी भी दूषित हो गयी हैं, तब भगवान् श्रीकृष्ण अपनी कमर का फेंटा कसकर एक बहुत ऊँचे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गये और वहाँ से ताल ठोंककर उस विषैले जल में कूद पड़े ॥ ६ ॥ यमुनाजी का जल सर्प के विष के कारण पहले से ही खौल रहा था । उसकी तरङ्गे लाल-पीली और अत्यन्त भयङ्कर उठ रही थीं । पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के कूद पड़ने से उसका जल और भी उछलने लगा । उस समय तो कालियदह का जल इधर-उधर उछलकर चार सौ हाथ तक फैल गया । अचिन्त्य अनन्त बलशाली भगवान् श्रीकृष्ण के लिये इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है ॥ ७ ॥

प्रिय परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण कालियदह में कूदकर अतुल बलशाली मतवाले गजराज के समान जल उछालने लगे । इस प्रकार जल-क्रीड़ा करने पर उनकी भुजाओं की टक्कर से जल में बड़े जोर का शब्द होने लगा । आँख से ही सुननेवाले कालिय नाग ने वह आवाज सुनी और देखा कि कोई मेरे निवासस्थान का तिरस्कार कर रहा है । उसे यह सहन न हुआ । वह चिढ़कर भगवान् श्रीकृष्ण के सामने आ गया ॥ ८ ॥ उसने देखा कि सामने एक साँवला-सलोना बालक है । वर्षाकालीन मेघ के समान अत्यन्त सुकुमार शरीर हैं, उसमें लगकर आँखें हटने का नाम ही नहीं लेतीं । उसके वक्षःस्थल पर एक सुनहली रेखा–श्रीवत्स का चिह्न है और वह पीले रंग का वस्त्र धारण किये हुए हैं । बड़े मधुर एवं मनोहर मुख पर मन्द-मन्द मुसकान अत्यन्त शोभायमान हो रही है । चरण इतने सुकुमार और सुन्दर हैं, मानो कमल की गद्दी हो । इतना आकर्षक रूप होने पर भी जब कालिय नाग ने देखा कि बालक तनिक भी न डरकर इस विषैले जल में मौज से खेल रहा है, तब उसका क्रोध और भी बढ़ गया । उसने श्रीकृष्ण को मर्मस्थानों में डँसकर अपने शरीर के बन्धन से उन्हें जकड़ लिया ॥ ९ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण नागपाश में बँधकर निश्चेष्ट हो गये । यह देखकर उनके प्यारे सखा ग्वालबाल बहुत ही पीड़ित हुए और उसी समय दुःख, पश्चात्ताप और भय से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े । क्योंकि उन्होंने अपने शरीर, सुहृद्, धन-सम्पत्ति, स्त्री, पुत्र, भोग और कामनाएँ — सब कुछ भगवान् श्रीकृष्ण को ही समर्पित कर रखा था ॥ १० ॥ गाय, बैल, बछिया और बछड़े बड़े दुःख से डकराने लगे । श्रीकृष्ण की ओर ही उनकी टकटकी बँध रही थी । वे डरकर इस प्रकार खड़े हो गये, मानो रो रहे हों । उस समय उनका शरीर हिलता-डोलता तक न था ॥ ११ ॥

इधर व्रज में पृथ्वी, आकाश और शरीरों में बड़े भयङ्कर-भयङ्कर तीनों प्रकार के उत्पात उठ खड़े हुए, जो इस बात की सूचना दे रहे थे कि बहुत ही शीघ्र कोई अशुभ घटना घटनेवाली है ॥ १२ ॥ नन्दबाबा आदि गोपों ने पहले तो उन अपशकुनों को देखा और पीछे से यह जाना कि आज श्रीकृष्ण बिना बलराम के ही गाय चराने चले गये । वे भय से व्याकुल हो गये ॥ १३ ॥ वे भगवान् का प्रभाव नहीं जानते थे । इसीलिये उन अपशकुनों को देखकर उनके मन में यह बात आयी कि आज तो श्रीकृष्ण की मृत्यु ही हो गयी होगी । वे उसी क्षण दुःख, शोक और भय से आतुर हो गये । क्यों न हों, श्रीकृष्ण ही उनके प्राण, मन और सर्वस्व जो थे ॥ १४ ॥ प्रिय परीक्षित् ! व्रज के बालक, वृद्ध और स्त्रियों का स्वभाव गायों — जैसा ही वात्सल्यपूर्ण था । वे मन में ऐसी बात आते ही अत्यन्त दीन हो गये और अपने प्यारे कन्हैया को देखने की उत्कट लालसा से घर-द्वार छोड़कर निकल पड़े ॥ १५ ॥ बलरामजी स्वयं भगवान् के स्वरूप और सर्वशक्तिमान् हैं । उन्होंने जब व्रजवासियों को इतना कातर और इतना आतुर देखा, तब उन्हें हँसी आ गयी । परन्तु वे कुछ बोले नहीं, चुप ही रहे । क्योंकि वे अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण का प्रभाव भलीभाँति जानते थे ॥ १६ ॥ व्रजवासी अपने प्यारे श्रीकृष्ण को ढूँढ़ने लगे । कोई अधिक कठिनाई न हुई; क्योंकि मार्ग में उन्हें भगवान् के चरणचिह्न मिलते जाते थे । जौ, कमल, अङ्कुश आदि से युक्त होने के कारण उन्हें पहचान होती जाती थी । इस प्रकार वे यमुना-तट की ओर जाने लगे ॥ १७ ॥

परीक्षित् ! मार्ग में गौओं और दूसरों के चरणचिह्नों के बीच-बीच में भगवान् के चरणचिह्न भी दीख जाते थे । उनमें कमल, जौ, अङ्कुश, वज्र और ध्वजा के चिह्न बहुत ही स्पष्ट थे । उन्हें देखते हुए वे बहुत शीघ्रता से चले ॥ १८ ॥ उन्होंने दूर से ही देखा कि कालियदह में कालिय नाग के शरीर से बँधे हुए श्रीकृष्ण चेष्टाहीन हो रहे हैं । कुण्ड के किनारे पर ग्वालबाल अचेत हुए पड़े हैं और गौएँ बैल, बछडे आदि बड़े आर्तस्वर से डकरा रहे हैं । यह सब देखकर वे सब गोप अत्यन्त व्याकुल और अन्त में मूर्च्छित हो गये ॥ १९ ॥ गोपियों का मन अनन्त गुणगणनिलय भगवान् श्रीकृष्ण के प्रेम के रंग में रंगा हुआ था । वे तो नित्य-निरन्तर भगवान् के सौहार्द, उनकी मधुर मुसकान, प्रेमभरी चितवन तथा मीठी वाणी का ही स्मरण करती रहती थीं । जब उन्होंने देखा कि हमारे प्रियतम श्यामसुन्दर को काले साँप ने जकड़ रक्खा है, तब तो उनके हृदय में बड़ा ही दुःख और बड़ी ही जलन हुई । अपने प्राणवल्लभ जीवनसर्वस्व के बिना उन्हें तीनों लोक सूने दीखने लगे ॥ २० ॥ माता यशोदा तो अपने लाड़ले लाल के पीछे कालियदह में कूदने ही जा रही थीं, परन्तु गोपियों ने उन्हें पकड़ लिया । उनके हृदय में भी वैसी हीं पीड़ा थी । उनकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी । सबकी आँखें श्रीकृष्ण के मुखकमल पर लगी थीं । जिनके शरीर में चेतना थी, वे व्रजमोहन श्रीकृष्ण की पूतना-वध आदि की प्यारी-प्यारी ऐश्वर्य की लीलाएँ कह-कहकर यशोदाजी को धीरज बँधाने लगीं । किन्तु अधिकांश तो मुर्दे की तरह पड़ हो गयी थी ॥ २१ ॥ परीक्षित् ! नन्दबाबा आदि के जीवन-प्राण तो श्रीकृष्ण ही थे । वे श्रीकृष्ण के लिये कालियदह में घुसने लगे । यह देखकर श्रीकृष्ण का प्रभाव जाननेवाले भगवान बलरामजी ने किन्हीं को समझा-बुझाकर, किन्हीं को बलपूर्वक और किन्हीं को उनके हृदयों में प्रेरणा करके रोक दिया ॥ २२ ॥

परीक्षित् ! यह साँप के शरीर से बँध जाना तो श्रीकृष्ण की मनुष्यों-जैसी एक लीला थी । जब उन्होंने देखा कि व्रज के सभी लोग स्त्री और बच्चों के साथ मेरे लिये इस प्रकार अत्यन्त दुखी हो रहे हैं और सचमुच मेरे सिवा इनका कोई दूसरा सहारा भी नहीं है, तब वे एक मुहूर्त तक सर्प के बन्धन में रहकर बाहर निकल आये ॥ २३ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने उस समय अपना शरीर फुलाकर खूब मोटा कर लिया । इससे साँप का शरीर टूटने लगा । वह अपना नागपाश छोड़कर अलग खड़ा हो गया और क्रोध से आगबबूला हो अपने फण ऊँचा करके फुफकारें मारने लगा । घात मिलते ही श्रीकृष्ण पर चोट करने के लिये वह उनकी ओर टकटकी लगाकर देखने लगा । उस समय उसके नथुनों से विष की फुहारें निकल रही थीं । उसकी आँखें स्थिर थीं और इतनी लाल-लाल हो रही थीं, मानो भट्ठी पर तपाया हुआ खपड़ा हो । उसके मुँह से आग की लपटें निकल रही थीं ॥ २४ ॥ उस समय कालिय नाग अपनी दुहरी जीभ लपलपाकर अपने होठों के दोनों किनारों को चाट रहा था और अपनी कराल आँखों से विष की ज्वाला उगलता जा रहा था । अपने वाहन गरुड़ के समान भगवान् श्रीकृष्ण उसके साथ खेलते हुए पैंतरा बदलने लगे और वह साँप भी उन पर चोट करने का दाँव देखता हुआ पैंतरा बदलने लगा ॥ २५ ॥

इस प्रकार पैंतरा बदलते-बदलते उसका बल क्षीण हो गया । तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उसके बड़े-बड़े सिरों को तनिक दबा दिया और उछलकर उन पर सवार हो गये । कालिय नाग के मस्तकों पर बहुत-सी लाल-लाल मणियाँ थीं । उनके स्पर्श से भगवान् के सुकुमार तलुओं की लालिमा और भी बढ़ गयी । नृत्य-गान आदि समस्त कलाओं के आदिप्रवर्तक भगवान् श्रीकृष्ण उसके सिरों पर कलापूर्ण नृत्य करने लगे ॥ २६ ॥ भगवान् के प्यारे भक्त, गन्धर्व, सिद्ध, देवता, चारण और देवाङ्गनाओं ने जब देखा कि भगवान् नृत्य करना चाहते हैं, तव वे बड़े प्रेम से मृदङ्ग, ढोल, नगारे आदि बाजे बजाते हुए, सुन्दर-सुन्दर गीत गाते हुए, पुष्पों की वर्षा करते हुए और अपने को निछावर करते हुए भेंट ले-लेकर उसी समय भगवान् के पास आ पहुँचे ॥ २७ ॥ परीक्षित् ! कालिय नाग के एक सौ एक सिर थे । वह अपने जिस सिर को नहीं झुकाता था, उसी को प्रचण्ड दण्डधारी भगवान् अपने पैरों की चोट से कुचल डालते । इससे कालियनाग की जीवनशक्ति क्षीण हो चली, वह मुँह और नथुनों से खून उगलने लगा । अन्त में चक्कर काटते-काटते वह बेहोश हो गया ॥ २८ ॥ तनिक भी चेत होता तो वह अपनी आँखों से विष उगलने लगता और क्रोध के मारे जोर-जोर से फुफकारें मारने लगता । इस प्रकार वह अपने सिरों में से जिस सिर को ऊपर उठाता, उसी को नाचते हुए भगवान् श्रीकृष्ण अपने चरणों की ठोकर से झुकाकर रौंद डालते । उस समय पुराण-पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों पर जो खून की बूंदें पड़ती थीं, उनसे ऐसा मालूम होता, मानो रक्त-पुष्पों से उनकी पूजा की जा रही हो ॥ २९ ॥

परीक्षित् ! भगवान् के इस अद्भुत ताण्डव-नृत्य से कालिय के फणरूप छत्ते छिन्न-भिन्न हो गये । उसका एक-एक अंग चूर-चूर हो गया और मुँह से खून की उलटी होने लगी । अब उसे सारे जगत् के आदि शिक्षक पुराणपुरुष भगवान् नारायण की स्मृति हुई । वह मन-ही-मन भगवान् की शरण में गया ॥ ३० ॥ भगवान् श्रीकृष्णा के उदर में सम्पूर्ण विश्व हैं । इसलिये उनके भारी बोझ से कालिय नाग के शरीर की एक-एक गाँठ ढीली पड़ गयी । उनकी एड़ियों की चोट से उसके छत्र के समान फण छिन्न-भिन्न हो गये । अपने पति की यह दशा देखकर उसकी पत्नियाँ भगवान् की शरण में आयीं । वे अत्यन्त आतुर हो रही थी । भय के मारे उनके वस्त्राभूषण अस्त-व्यस्त हो रहे थे और केश की चोटियाँ भी बिखर रही थीं ॥ ३१ ॥ उस समय उन साध्वी नागपत्नियों के चित्त में बड़ी घबराहट थी । अपने बालकों को आगे करके वे पृथ्वी पर लोट गयीं और हाथ जोड़कर उन्होंने समस्त प्राणियों के एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम किया । भगवान् श्रीकृष्ण को शरणागत-वत्सल जानकर अपने अपराधी पति को छुड़ाने की इच्छा से उन्होंने उनकी शरण ग्रहण की ॥ ३२ ॥

नागपत्नियों ने कहा — प्रभो ! आपका यह अवतार ही दुष्टों को दण्ड देने के लिये हुआ है । इसलिये इस अपराधी को दण्ड देना सर्वथा उचित हैं । आपकी दृष्टि में शत्रु और पुत्र का कोई भेदभाव नहीं है । इसलिये आप जो किसी को दण्ड देते हैं, वह उसके पापों का प्रायश्चित्त कराने और उसका परम कल्याण करने के लिये ही ॥ ३३ ॥ आपने हमलोगों पर यह बड़ा ही अनुग्रह किया । यह तो आपका कृपा-प्रसाद ही है । क्योंकि आप जो दुष्टों को दण्ड देते हैं, उससे उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । इस सर्प के अपराधी होने में तो कोई सन्देह ही नहीं है । यदि यह अपराधी न होता, तो इसे सर्प की योनि ही क्यों मिलती ? इसलिये हम सच्चे हृदय से आपके इस क्रोध को भी आपका अनुग्रह ही समझती हैं ॥ ३४ ॥ अवश्य ही पूर्वजन्म में इसने स्वयं मानरहित होकर और दूसरों का सम्मान करते हुए कोई बहुत बड़ी तपस्या की है । अथवा सब जीवों पर दया करते हुए इसने कोई बहुत बड़ा धर्म किया है । तभी तो आप इसके ऊपर सन्तुष्ट हुए हैं । क्योंकि सर्व-जीवस्वरूप आपकी प्रसन्नता का यहीं उपाय है ॥ ३५ ॥ भगवन् ! हम नहीं समझ पातीं कि यह इसकी किस साधना का फल है, जो यह आपके चरणकमलों की धूल का स्पर्श पाने का अधिकारी हुआ है । आपके चरणों की रज इतनी दुर्लभ है कि उसके लिये आपकी अद्धाङ्गिनी लक्ष्मीजी को भी बहुत दिनों तक समस्त भोगों का त्याग करके नियमों का पालन करते हुए तपस्या करनी पड़ी थी ॥ ३६ ॥

प्रभो ! जो आपके चरणों की धूल की शरण ले लेते हैं, ये भक्तजन स्वर्ग का राज्य या पृथ्वी की बादशाही नहीं चाहते । न वे रसातल का ही राज्य चाहते और न तो ब्रह्मा का पद ही लेना चाहते हैं । उन्हें अणिमादि योग-सिद्धियों की भी चाह नहीं होती । यहाँतक कि वे जन्म-मृत्यु से छुड़ानेवाले कैवल्य-मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते ॥ ३७ ॥ स्वामी ! यह नागराज तमोगुणी योनि में उत्पन्न हुआ है और अत्यन्त क्रोधी है । फिर भी इसे आपकी वह परम पवित्र चरणरज प्राप्त हुई, जो दूसरों के लिये सर्वथा दुर्लभ है; तथा जिसको प्राप्त करने की इच्छमात्र से ही संसारचक्र में पड़े हुए जीव को संसार के वैभव-सम्पत्ति की तो बात ही क्या — मोक्ष की भी प्राप्ति हो जाती है ॥ ३८ ॥

प्रभो ! हम आपको प्रणाम करती हैं । आप अनन्त एवं अचिन्त्य ऐश्वर्य के नित्य निधि हैं । आप सबके अन्तःकरणों में विराजमान होने पर भी अनन्त हैं । आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के आश्रय तथा सब पदार्थों के रूप में भी विद्यमान हैं । आप प्रकृति से परे स्वयं परमात्मा हैं ॥ ३९ ॥ आप सब प्रकार के ज्ञान और अनुभवों के खजाने हैं । आपकी महिमा और शक्ति अनन्त है । आपका स्वरूप अप्राकृत-दिव्य चिन्मय हैं, प्राकृतिक गुणों एवं विकारों का आप कभी स्पर्श ही नहीं करते । आप ही ब्रह्म हैं, हम आपको नमस्कार कर रही हैं ॥ ४० ॥ आप प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करनेवाले काल हैं, कालशक्ति के आश्रय हैं और काल के क्षण-कल्प आदि समस्त अवयवों के साक्षी हैं । आप विश्वरूप होते हुए भी उससे अलग रहकर उसके द्रष्टा हैं । आप उसके बनानेवाले निमित्तकारण तो हैं ही, उसके रूप में बननेवाले उपादानकारण भी हैं ॥ ४१ ॥ प्रभो ! पञ्चभूत, उनकी तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि और इन सबका खजाना चित्त — ये सब आप ही हैं । तीनों गुण और उनके कार्यों में होनेवाले अभिमान के द्वारा आपने अपने साक्षात्कार को छिपा रखा है ॥ ४२ ॥

आप देश, काल और वस्तुओं की सीमा से बाहर — अनन्त हैं । सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और कार्य-कारणों के समस्त विकारों में भी एकरस, विकाररहित और सर्वज्ञ हैं । ईश्वर हैं कि नहीं है, सर्वज्ञ हैं कि अल्पज्ञ इत्यादि अनेक मतभेद के अनुसार आप उन-उन मतवादियों को उन्हीं-उन्हीं रूपों में दर्शन देते हैं । समस्त शब्दों के अर्थ के रूप में तो आप हैं ही, शब्दों के रूप में भी हैं तथा उन दोनों को सम्बन्ध जोड़नेवाली शक्ति भी आप ही हैं । हम आपको नमस्कार करती हैं ॥ ४३ ॥ प्रत्यक्ष, अनुमान आदि जितने भी प्रमाण हैं, उनको प्रमाणित करनेवाले मूल आप ही हैं । समस्त शास्त्र आपसे ही निकले हैं और आपका ज्ञान स्वतःसिद्ध हैं । आप ही मन को लगाने की विधि के रूप में और उसको सब कहीं से हटा लेने की आज्ञा के रूप में प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग हैं । इन दोनों के मूल वेद भी स्वयं आप ही हैं । हम आपको बार-बार नमस्कार करती हैं ॥ ४४ ॥

आप शुद्धसत्त्वमय वसुदेव के पुत्र वासुदेव, सङ्कर्षण एवं प्रद्युम्न और अनिरुद्ध भी हैं । इस प्रकार चतुर्व्यूह के रूप में आप भक्तों तथा यादवों के स्वामी हैं । श्रीकृष्ण ! हम आपको नमस्कार करती हैं ॥ ४५ ॥ आप अन्तःकरण और उसकी वृत्तियों के प्रकाशक हैं और उन्हीं के द्वारा अपने-आपको ढक रखते हैं । उन अन्तःकरण और वृत्तियों के द्वारा ही आपके स्वरूप का कुछ-कुछ संकेत भी मिलता है । आप उन गुणों और उनकी वृत्तियों के साक्षी तथा स्वयंप्रकाश हैं । हम आपको नमस्कार करती हैं ॥ ४६ ॥ आप मूलप्रकृति में नित्य विहार करते रहते हैं । समस्त स्थूल और सूक्ष्म जगत् की सिद्धि आपसे ही होती है । हृषीकेश ! आप मननशील आत्माराम हैं । मौन ही आपका स्वभाव है । आपको हमारा नमस्कार है ॥ ४७ ॥ आप स्थूल, सूक्ष्म समस्त गतियों के जाननेवाले तथा सबके साक्षी हैं । आप नामरूपात्मक विश्वप्रपञ्च के निषेध की अवधि तथा उसके अधिष्ठान होने के कारण विश्वरूप भी हैं । आप विश्व के अध्यास तथा अपवाद के साक्षी हैं एवं अज्ञान के द्वारा उसकी सत्यत्वभ्रान्ति एवं स्वरूपज्ञान के द्वारा उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति के भी कारण हैं । आपको हमारा नमस्कार है ॥ ४८ ॥

प्रभो ! यद्यपि कर्तापन न होने के कारण आप कोई भी कर्म नहीं करते, निष्क्रिय हैं — तथापि अनादि कालशक्ति को स्वीकार करके प्रकृति के गुणों के द्वारा आप इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला करते हैं । क्योंकि आपकी लीलाएँ अमोघ हैं । आप सत्यसङ्कल्प हैं । इसलिये जीवों के संस्काररूप से छिपे हुए स्वभाव को अपनी दृष्टि से जाग्रत् कर देते हैं ॥ ४९ ॥ त्रिलोकी में तीन प्रकार की योनियाँ हैं — सत्त्वगुणप्रधान शान्त, रजोगुणप्रधान अशान्त और तमोगुणप्रधान मूढ़ । वे सब-की-सब आपकी लीलामूर्तियाँ हैं । फिर भी इस समय आपको सत्त्वगुणप्रधान शान्तजन ही विशेष प्रिय हैं, क्योंकि आपका यह अवतार और ये लीलाएँ साधुजनों की रक्षा तथा धर्म की रक्षा एवं विस्तार के लिये ही हैं ॥ ५० ॥ शान्तात्मन् ! स्वामी को एक बार अपनी प्रजा का अपराध सह लेना चाहिये । यह मूढ़ है, आपको पहचानता नहीं हैं, इसलिये इसे क्षमा कर दीजिये ॥ ५१ ॥ भगवन् ! कृपा कीजिये; अब यह सर्प मरने ही वाला है । साधुपुरुष सदा से ही हम अबलाओं पर दया करते आये हैं । अतः आप हमें हमारे प्राणस्वरूप पतिदेव को दे दीजिये ॥ ५२ ॥ हम आपकी दासी हैं । हमें आप आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें ? क्योंकि जो श्रद्धा के साथ आपकी आज्ञाओं का पालन-आपकी सेवा करता है, वह सब प्रकार के भयों से छुटकारा पा जाता है ॥ ५३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! भगवान् के चरणों की ठोकरों से कालिय नाग के फण छिन्न-भिन्न हो गये थे । वह बेसुध हो रहा था । जब नागपत्नियों ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की, तब उन्होंने दया करके उसे छोड़ दिया ॥ ५४ ॥ धीरे-धीरे कालियनाग ने इन्द्रियों और प्राणों में कुछ-कुछ चेतना आ गयी । वह बड़ी कठिनता से श्वास लेने लगा और थोड़ी देर के बाद बड़ी दीनता से हाथ जोड़कर भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोला ॥ ५५ ॥

[कालिय नाग ने कहा —] नाथ ! हम जनम से ही दुष्ट, तमोगुणी और बहुत दिनों के बाद भी बदला लेनेवाले — बड़े क्रोधी जीव हैं । जीवों के लिये अपना स्वभाव छोड़ देना बहुत कठिन है । इसी के कारण संसार के लोग नाना प्रकार के दुराग्रहों में फँस जाते हैं ॥ ५६ ॥ विश्वविधाता ! आपने ही गुणों के भेद से इस जगत् में नाना प्रकार के स्वभाव, वीर्य, बल, योनि, बीज, चित्त और आकृतियों का निर्माण किया है ॥ ५७ ॥ भगवन् ! आपकी ही सृष्टि में हम सर्प भी हैं । हम जन्म से ही बड़े क्रोधी होते हैं । हम इस माया के चक्कर में स्वयं मोहित हो रहे हैं । फिर अपने प्रयत्न से इस दुस्त्यज माया का त्याग कैसे करें ॥ ५८ ॥ आप सर्वज्ञ और सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं । आप ही हमारे स्वभाव और इस माया के कारण हैं । अब आप अपनी इच्छासे — जैसा ठीक समझे कृपा कीजिये या दण्ड दीजिये ॥ ५९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — कालियनाग की बात सुनकर लीला-मनुष्य भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — ‘सर्प ! अब तुझे यहाँ नहीं रहना चाहिये । तू अपने जाति-भाई, पुत्र और स्त्रियों के साथ शीघ्र ही यहाँ से समुद्र में चला जा । अब गौएँ और मनुष्य यमुना-जल का उपभोग करें ॥ ६० ॥ जो मनुष्य दोनों समय तुझको दी हुई मेरी इस आज्ञा का स्मरण तथा कीर्तन करे, उसे साँपों से कभी भय न हो ॥ ६१ ॥ मैंने इस कालियदह में क्रीड़ा की है । इसलिये जो पुरुष इसमें स्नान करके जल से देवता और पितरों का तर्पण करेगा, एवं उपवास करके मेरा स्मरण करता हुआ मेरी पूजा करेगा — वह सब पापों से मुक्त हो जायगा ॥ ६२ ॥ मैं जानता हूँ कि तू गरुड के भय से रमणक द्वीप छोड़कर इस दह में आ बसा था । अब तेरा शरीर मेरे चरणचिह्नों से अङ्कित हो गया है । इसलिये जा, अब गरुड तुझे खायेंगे नहीं ॥ ६३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — भगवान् श्रीकृष्ण की एक-एक लीला अद्भुत हैं । उनकी ऐसी आज्ञा पाकर कालिय नाग और उसकी पत्नियों ने आनन्द से भरकर बड़े आदर से उनकी पूजा की ॥ ६४ ॥ उन्होंने दिव्य वस्त्र, पुष्पमाला, मणि, बहुमूल्य आभूषण, दिव्य गन्ध, चन्दन और अति उत्तम कमलों की माला से जगत् के स्वामी गरुडध्वज भगवान् श्रीकृष्ण का पूजन करके उन्हें प्रसन्न किया । इसके बाद बड़े प्रेम और आनन्द से उनकी परिक्रमा की, वन्दना की और उनसे अनुमति ली । तब अपनी पत्नियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवों के साथ रमणक द्वीप की, जो समुद्र में सर्पों के रहने का एक स्थान है, यात्रा की । लीला-मनुष्य भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से यमुनाजी का जल केवल विषहीन ही नहीं, बल्कि उसी समय अमृत के समान मधुर हो गया ॥ ६५-६७ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे षोडशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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