श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय २०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
बीसवाँ अध्याय
वर्षा और शरद् ऋतु का वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! ग्वालबालों ने घर पहुँचकर अपनी मा, बहिन आदि स्त्रियों से श्रीकृष्ण और बलराम ने जो कुछ अद्भुत कर्म किये थे — दावानल से उनको बचाना, प्रलम्ब को मारना इत्यादि — सबका वर्णन किया ॥ १ ॥ बड़े-बड़े बूढ़े गोप और गोपियाँ भी राम और श्याम की अलौकिक लीलाएँ सुनकर विस्मित हो गयीं । वे सब ऐसा मानने लगे कि “श्रीकृष्ण और बलराम के वेष में कोई बहुत बड़े देवता ही व्रज में पधारे हैं ॥ ३ ॥

इसके बाद वर्षा ऋतु का शुभागमन हुआ । इस ऋतु में सभी प्रकार के प्राणियों की बढ़ती हो जाती है । उस समय सूर्य और चन्द्रमा पर बार-बार प्रकाशमय मण्डल बैठने लगे । बादल, वायु, चमक, कड़क आदि से आकाश क्षुब्ध-सा दीखने लगा ॥ ३ ॥ आकाश में नीले और घने बादल घिर आते, बिजली कौंधने लगती, बार-बार गड़गड़ाहट सुनायी पड़ती; सूर्य, चन्द्रमा और तारे ढके रहते । इससे आकाश की ऐसी शोभा होती, जैसे ब्रह्मस्वरूप होने पर भी गुणों से ढक जाने पर जीव की होती हैं ॥ ४ ॥ सूर्य ने राजा की तरह पृथ्वीरूप प्रजा से आठ महीने तक जल का कर ग्रहण किया था, अब समय आने पर वे अपनी किरण-करों से फिर उसे बाँटने लगे ॥ ५ ॥ जैसे दयालु पुरुष जब देखते हैं कि प्रजा बहुत पीड़ित हो रही हैं, तब वे दयापरवश होकर अपने जीवन-प्राण तक निछावर कर देते हैं — वैसे ही बिजली की चमक से शोभायमान घनघोर बादल तेज हवा की प्रेरणा से प्राणियों के कल्याण के लिये अपने जीवनस्वरूप जल को बरसाने लगे ॥ ६ ॥

जेठ-आषाढ़ की गर्मी से पृथ्वी सूख गयी थी । अब वर्षा के जल से सिंचकर वह फिर हरी-भरी हो गयी — जैसे सकामभाव से तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है, परन्तु जब उसका फल मिलता है, तब हृष्ट-पुष्ट हो जाता है ॥ ७ ॥ वर्षा के सायंकाल में बादलों से घना अँधेरा छा जाने पर ग्रह और तारों का प्रकाश तो नहीं दिखलायी पड़ता, परन्तु जुगनू चमकने लगते हैं — जैसे कलियुग में पाप की प्रबलता हो जाने से पाखण्ड मतों का प्रचार हो जाता है और वैदिक सम्प्रदाय लुप्त हो जाते हैं ॥ ८ ॥ जो मेढक पहले चुपचाप सो रहे थे, अब वे बादलों की गरज सुनकर टर्र-टर्र करने लगे जैसे नित्य-नियम से निवृत होने पर गुरु के आदेशानुसार ब्रह्मचारी लोग वेदपाठ करने लगते हैं ॥ ९ ॥ छोटी-छोटी नदियाँ, जो जेठ-आषाढ़ में बिल्कुल सूखने को आ गयी थीं, वे अब उमड़-घुमड़कर अपने घेरे से बाहर बहने लगीं — जैसे अजितेन्द्रिय पुरुष के शरीर और धन सम्पत्तियों का कुमार्ग में उपयोग होने लगता है ॥ १० ॥ पृथ्वी पर कहीं-कहीं हरी-हरी घास की हरियाली थी, तो कहीं-कहीं बीर-बहूटियों की लालिमा और कहीं-कहीं बरसाती छत्तों (सफेद कुकुरमुत्तो) के कारण वह सफेद मालूम देती थी । इस प्रकार उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो किसी राजा की रंग-बिरंगी सेना हो ॥ ११ ॥

सब खेत अनाजों से भरे-पूरे लहलहा रहे थे । उन्हें देखकर किसान तो मारे आनन्द के फूले न समाते थे, परन्तु सब कुछ प्रारब्ध के अधीन है — यह बात न जानने वाले धनियों के चित्त में बड़ी जलन हो रही थी कि अब हम इन्हें अपने पंजे में कैसे रख सकेंगे ॥ १२ ॥ नये बरसाती जल के सेवन से सभी जलचर और थलचर प्राणियों की सुन्दरता बढ़ गयी थी, जैसे भगवान् की सेवा करने से बाहर और भीतर के दोनों ही रूप सुघड़ हो जाते हैं ॥ १३ ॥ वर्षा-ऋतु में हवा के झोकों से समुद्र एक तो यों ही उत्ताल तरङ्गों से युक्त हो रहा था, अब नदियों के संयोग से वह और भी क्षुब्ध हो उठा — ठीक वैसे ही जैसे वासनायुक्त योगी का चित्त विषयों का सम्पर्क होने पर कामनाओं के उभार से भर जाता है ॥ १४ ॥ मूसलधार वर्षा की चोट खाते रहने पर भी पर्वत को कोई व्यथा नहीं होती थी — जैसे दुःखों की भरमार होने पर भी उन पुरुषों को किसी प्रकार की व्यथा नहीं होती, जिन्होंने अपना चित्त भगवान् को ही समर्पित कर रक्खा है ॥ १५ ॥ जो मार्ग कभी साफ नहीं किये जाते थे, वे घास से ढक गये और उनको पहचानना कठिन हो गया — जैसे जब द्विजाति वेदों का अभ्यास नहीं करते, तब कालक्रम से वे उन्हें भूल जाते हैं ॥ १६ ॥

यद्यपि बादल बड़े लोकोपकारी हैं, फिर भी बिजलियाँ उनमें स्थिर नहीं रहतीं — ठीक वैसे ही, जैसे चपल अनुरागवाली कामिनी स्त्रियाँ गुणी पुरुषों के पास भी स्थिरभाव से नहीं रहतीं ॥ १७ ॥ आकाश मेघों के गर्जन-तर्जन से भर रहा था । उसमें निर्गुण (बिना डोरी के) इन्द्र-धनुष की वैसी ही शोभा हुई, जैसी सत्त्व-रज आदि गुणों के क्षोभ से होनेवाले विश्व के बखेड़े में निर्गुण ब्रह्म की ॥ १८ ॥ यद्यपि चन्द्रमा की उज्ज्वल चाँदनी से बादलों का पता चलता था, फिर भी उन बादलों ने ही चन्द्रमा को ढककर शोभाहींन भी बना दिया था — ठीक वैसे ही जैसे पुरुष के आभास से आभासित होनेवाला अहङ्कार ही उसे ढककर प्रकाशित नहीं होने देता ॥ १९ ॥ बादलों के शुभागमन से मोरों का रोम-रोम खिल रहा था, वे अपनी कुहक और नृत्य के द्वारा आनन्दोत्सव मना रहे थे — ठीक वैसे ही, जैसे गृहस्थी के जंजाल में फंसे हुए लोग, जो अधिकतर तीनों तापों से जलते और घबराते रहते हैं, भगवान् के भक्तों के शुभागमन से आनन्दमग्न हो जाते हैं ॥ २० ॥ जो वृक्ष जेठ-आषाढ़ में सूख गये थे, वे अब अपनी जड़ों से जल पीकर पत्ते, फूल तथा डालियों से खूब सज-धज गये — जैसे सकामभाव से तपस्या करनेवाले पहले तो दुर्बल हो जाते हैं, परन्तु कामना पूरी होने पर मोटे-तगड़े हो जाते हैं ॥ २१ ॥

परीक्षित् ! तालाबों के तट काँटे-कीचड़ और जल के बहाव के कारण प्रायः अशान्त ही रहते थे, परन्तु सारस एक क्षण के लिये भी उन्हें नहीं छोड़ते थे — जैसे अशुद्ध हृदयवाले विषयी पुरुष काम-धँधों की झंझट से कभी छुटकारा नहीं पाते, फिर भी घरों में ही पड़े रहते हैं ॥ २२ ॥ वर्षा ऋतु में इन्द्र की प्रेरणा से मूसलधार वर्षा होती है, इससे नदियों के बाँध और खेतों की मेड़े टूट-फूट जाती हैं जैसे कलियुग में पाखण्डियों के तरह-तरह मिथ्या मतवादों से वैदिक मार्ग की मर्यादा ढीली पड़ जाती है ॥ २३ ॥ वायु की प्रेरणा से घने बादल प्राणियों के लिये अमृतमय जल की वर्षा करने लगते हैं — जैसे ब्राह्मणों की प्रेरणा से धनीलोग समय-समय पर दान के द्वारा प्रजा की अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं ॥ २४ ॥

वर्षा ऋतु में वृन्दावन इसी प्रकार शोभायमान और पके हुए खजूर तथा जामुनों से भर रहा था । उसी वन में विहार करने के लिये श्याम और बलराम ने ग्वालबाल और गौओं के साथ प्रवेश किया ॥ २५ ॥ गौएँ अपने थनों के भारी भार के कारण बहुत ही धीरे-धीरे चल रही थीं । जब भगवान् श्रीकृष्ण उनका नाम लेकर पुकारते, तब वे प्रेमपरवश होकर जल्दी-जल्दी दौड़ने लगतीं । उस समय उनके थनों से दूध की धारा गिरती जाती थी ॥ २६ ॥ भगवान् ने देखा कि वनवासी भील और भीलनियाँ आनन्दमग्न है । वृक्ष की पंक्तियाँ मधुधारा उँड़ेल रही हैं । पर्वतों से झर-झर करते हुए झरने झर रहे हैं । उनकी आवाज बड़ी सुरीली जान पड़ती है और साथ ही वर्षा होने पर छिपने के लिये बहुत-सी गुफाएँ भी हैं ॥ २७ ॥ जब वर्षा होने लगती, तब श्रीकृष्ण कभी किसी वृक्ष की गोद में या खोड़र में जा छिपते । कभी-कभी किसी गुफा में ही जा बैठते और कभी कन्द-मूल-फल खाकर ग्वालबालों के साथ खेलते रहते ॥ २८ ॥ कभी जल के पास ही किसी चट्टान पर बैठ जाते और बलरामजी तथा ग्वालबालों के साथ मिलकर घर से लाया हुआ दही-भात दाल-शाक आदि के साथ खाते ॥ २९ ॥ वर्षा ऋतु में बैल, बछड़े और थन के भारी भार से थकी हुई गौएँ थोड़ी ही देर में भरपेट घास चर लेतीं और हरी-हरी घास पर बैठकर ही आँख मूँदकर जुगाली करती रहतीं । वर्षा ऋतु की सुन्दरता अपार थी । वह सभी प्राणियों को सुख पहुँचा रही थी । इसमें सन्देह नहीं कि वह ऋतु, गाय, बैल, बछड़े — सब-के-सब भगवान् की लीला के ही विलास थे । फिर भी उन्हें देखकर भगवान् बहुत प्रसन्न होते और बार-बार उनकी प्रशंसा करते ॥ ३०-३१ ॥

इस प्रकार श्याम और बलराम बड़े आनन्द से व्रज में निवास कर रहे थे । इसी समय वर्षा बीतने पर शरद् ऋतु आ गयी । अब आकाश में बादल नहीं रहे, जल निर्मल हो गया, वायु बड़ी धीमी गति से चलने लगी ॥ ३२ ॥ शरद् ऋतु में कमलों की उत्पत्ति से जलाशय के जल ने अपनी सहज स्वच्छता प्राप्त कर ली — ठीक वैसे ही, जैसे योगभ्रष्ट पुरुष का चित्त फिर से योग का सेवन करने से निर्मल हो जाता है ॥ ३३ ॥ शरद् ऋतु ने आकाश के बादल, वर्षा-काल के बढ़े हुए जीव, पृथ्वी को कीचड़ और जल के मटमैलेपन को नष्ट कर दिया — जैसे भगवान् की भक्ति ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासियों के सब प्रकार के कष्टों और अशुभों का झटपट नाश कर देती है ॥ ३४ ॥ बादल अपने सर्वस्व जल का दान करके उज्ज्वल कान्ति से सुशोभित होने लगे — ठीक वैसे ही, जैसे लोक-परलोक, स्त्री-पुत्र और धन-सम्पत्ति सम्बन्धी चिन्ता और कामनाओं का परित्याग कर देने पर संसार के बन्धन से छूटे हुए परम शान्त संन्यासी शोभायमान होते हैं ॥ ३५ ॥ अब पर्वतों से कहीं-कहीं झरने झरते थे और कहीं-कहीं वे अपने कल्याणकारी जल को नहीं भी बहाते थे — जैसे ज्ञानी पुरुष समय पर अपने अमृतमय ज्ञान का दान किसी अधिकारी को कर देते हैं और किसी-किसी को नहीं भी करते ॥ ३६ ॥ छोटे-छोटे गड्ढों में भरे हुए जल के जलचर यह नहीं जानते कि इस गड्ढे जल दिन-पर-दिन सूखता जा रहा है — जैसे कुटुम्ब के भरण-पोषण में भूले हुए मूढ़ यह नहीं जानते कि हमारी आयु क्षण-क्षण क्षीण हो रही है ॥ ३७ ॥

थोड़े जल में रहनेवाले प्राणियों को शरत्कालीन सूर्य की प्रखर किरणों से बड़ी पीड़ा होने लगी —जैसे अपनी इन्द्रियों के वश में रहनेवाले कृपण एवं दरिद्र कुटुम्बी को तरह-तरह के ताप सताते ही रहते हैं ॥ ३८ ॥ पृथ्वी धीरे-धीरे अपना कीचड़ छोड़ने लगी और घास-पात धीरे-धीरे अपनी कचाई छोड़ने लगे — ठीक वैसे ही, जैसे विवेक सम्पन्न साधक धीरे-धीरे शरीर आदि अनात्म पदार्थों में से ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ यह अहंता और ममता छोड़ देते हैं ॥ ३९ ॥ शरद् ऋतु में समुद्र का जल स्थिर, गम्भीर और शान्त हो गया — जैसे मन के निःसङ्कल्प हो जाने पर आत्माराम पुरुष कर्मकाण्ड का झमेला छोड़कर शान्त हो जाता है ॥ ४० ॥ किसान खेतों की मेड़ मजबूत करके जल का बहना रोकने लगे — जैसे योगीजन अपनी इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से रोककर, प्रत्याहार करके उनके द्वारा क्षीण होते हुए ज्ञान की रक्षा करते हैं ॥ ४१ ॥ शरद् ऋतु में दिन के समय बड़ी कड़ी धूप होती, लोगों को बहुत कष्ट होता; परन्तु चन्द्रमा रात्रि के समय लोगों का सारा सन्ताप वैसे ही हर लेते — जैसे देहाभिमान से होनेवाले दुःख को ज्ञान और भगवद्विरह से होनेवाले गोपियों के दुःख को श्रीकृष्ण नष्ट कर देते हैं ॥ ४२ ॥

जैसे वेदों के अर्थ को स्पष्ट रूप से जाननेवाला सत्त्वगुणी चित्त अत्यन्त शोभायमान होता है, वैसे ही शरद् ऋतु में रात के समय मेघों से रहित निर्मल आकाश तारों की ज्योति से जगमगाने लगा ॥ ४३ ॥ परीक्षित् ! जैसे पृथ्वीतल में यदुवंशियों के बीच यदुपति भगवान् श्रीकृष्ण की शोभा होती है, वैसे ही आकाश में तारों के बीच पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होने लगा ॥ ४४ ॥ फूलों से लदे हुए वृक्ष और लताओं में होकर बड़ी ही सुन्दर वायु बहती; वह न अधिक ठंडी होती और न अधिक गरम । उस वायु के स्पर्श से सब लोगों की जलन तो मिट जाती, परन्तु गोपियों की जलन और भी बढ़ जाती; क्योंकि उनका चित्त उनके हाथ में नहीं था, श्रीकृष्ण ने उसे चुरा लिया था ॥ ४५ ॥ शरद् ऋतु में गौएँ, हरिनियाँ, चिड़ियाँ और नारियाँ ऋतुमती — सन्तानोत्पत्ति की कामना से युक्त हो गयी तथा साँड़, हरिन, पक्षी और पुरुष उनका अनुसरण करने लगे — ठीक वैसे ही, जैसे समर्थ पुरुष के द्वारा की हुई क्रियाओं का अनुसरण उनके फल करते हैं ॥ ४६ ॥

परीक्षित् ! जैसे राजा के शुभागमन से डाकू चोरों के सिवा और सब लोग निर्भय हो जाते हैं, वैसे ही सूर्योदय के कारण कुमुदिनी (कुँई या कोई) के अतिरिक्त और सभी प्रकार के कमल खिल गये ॥ ४७ ॥ उस समय बड़े-बड़े शहरों और गाँवों में नवान्नप्राशन और इन्द्रसम्बन्धी उत्सव होने लगे । खेतों में अनाज पक गये और पृथ्वी भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी की उपस्थिति से अत्यन्त सुशोभित होने लगी ॥ ४८ ॥ साधना करके सिद्ध हुए पुरुष जैसे समय आने पर अपने देव आदि शरीरों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैश्य, संन्यासी, राजा और स्नातक — जो वर्षा के कारण एक स्थान पर रुके हुए थे — वहाँ से चलकर अपने-अपने अभीष्ट काम-काज में लग गये ॥ ४९ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे विंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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