April 21, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय २५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय पचीसवाँ अध्याय गोवर्धनधारण श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! जब इन्द्र को पता लगा कि मेरी पूजा बंद कर दी गयी है, तब वे नन्दबाबा आदि गोपों पर बहुत ही क्रोधित हुए । परन्तु उनके क्रोध करने से होता क्या, उन गोपों के रक्षक तो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण थे ॥ १ ॥ इन्द्र को अपने पद का बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकी का ईश्वर हूँ । उन्होंने क्रोध से तिलमिलाकर प्रलय करनेवाले मेघों के सांवर्तक नामक गण को व्रज पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी और कहा — ॥ २ ॥ ‘ओह, इन जंगली ग्वालों को इतना घमण्ड ! सचमुच यह धन का ही नशा है । भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला ॥ ३ ॥ जैसे पृथ्वी पर बहुत-से मन्दबुद्धि पुरुष भवसागर से पार जाने के सच्चे साधन ब्रह्मविद्या को तो छोड़ देते हैं और नाममात्र की टूटी हुई नाव से–कर्ममय यज्ञों से इस घोर संसार-सागर को पार करना चाहते हैं ॥ ४ ॥ कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है । वह स्वयं मृत्यु का ग्रास हैं । फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है ॥ ५ ॥ एक तो ये यों हीं धन के नशे में चूर हो रहे थे; दूसरे कृष्ण ने इनको और बढ़ावा दे दिया है । अब तुमलोग जाकर इनके इस धन के घमण्ड और हेकड़ी को धूल में मिला दो तथा उनके पशुओं का संहार कर डालो ॥ ६ ॥ मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ऐरावत हाथी पर चढ़कर नन्द के व्रज का नाश करने के लिये महापराक्रमी मरुद्गणों के साथ आता हूँ ॥ ७ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! इन्द्र ने इस प्रकार प्रलय के मेघों को आज्ञा दी और उनके बन्धन खोल दिये । अब वे बड़े वेग से नन्दबाबा के व्रज पर चढ़ आये और मूसलधार पानी बरसाकर सारे व्रज को पीड़ित करने लगे ॥ ८ ॥ चारों ओर बिजलियाँ चमकने लगीं, बादल आपस में टकराकर कड़कने लगे और प्रचण्ड आँधी की प्रेरणा से वे बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे ॥ ९ ॥ इस प्रकार जब दल-के-दल बादल बार-बार आ-आकर खंभे के समान मोटी-मोटी धाराएँ गिराने लगे, तब व्रजभूमि का कोना-कोना पानी से भर गया और कहाँ नीचा है, कहाँ ऊँचा — इसका पता चलना कठिन हो गया ॥ १० ॥ इस प्रकार मूसलधार वर्षा तथा झंझावात झपाटे से जब एक—एक पशु ठिठुरने और काँपने लगा, ग्वाल और ग्वालिने भी ठंड के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं, तब वे सब-के-सब भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में आये ॥ ११ ॥ मूसलधार वर्षा से सताये जाने के कारण सबने अपने-अपने सिर और बच्चों को निहुककर अपने शरीर के नीचे छिपा लिया था और वे काँपते-काँपते भगवान् की चरण-शरण में पहुँचे ॥ १२ ॥ और बोले — ‘प्यारे श्रीकष्ण ! तुम बड़े भाग्यवान् हो । अव तो कृष्ण ! केवल तुम्हारे ही भाग्य से हमारी रक्षा होगी । प्रभो ! इस सारे गोकुल के एकमात्र स्वामी, एकमात्र रक्षक तुम्हीं हो । भक्तवत्सल ! इन्द्र के क्रोध से अब तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो’ ॥ १३ ॥ भगवान् ने देखा कि वर्षा और ओलों की मार से पीड़ित होकर सब बेहोश हो रहे हैं । वे समझ गये कि यह सारी करतूत इन्द्र की है । उन्होंने ही क्रोधवश ऐसा किया हैं ॥ १४ ॥ वे मन-ही-मन कहने लगे — ‘हमने इन्द्र का यज्ञ- भङ्ग कर दिया है, इसी से वे व्रज का नाश करने के लिये बिना ऋतु के ही यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं ॥ १५ ॥ अच्छा, मैं अपनी योगमाया से इसका भली-भाँति जवाब दूंगा । ये मूर्खतावश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धन का घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूँगा ॥ १६ ॥ देवतालोग तो सत्त्वप्रधान होते हैं । इनमें अपने ऐश्वर्य और पद का अभिमान न होना चाहिये । अतः यह उचित ही हैं कि इन सत्त्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का में मान-भङ्ग कर दूँ । इससे अन्त में उन्हें शान्ति ही मिलेगी ॥ १७ ॥ यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इसका रक्षक हूँ । अतः मैं अपनी योगमाया से इसकी रक्षा करूँगा । संतों की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही हैं । अब उसके पालन का अवसर आ पहुँचा है’ ॥ १८ ॥ इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्द्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया ॥ १९ ॥ इसके बाद भगवान् ने गोपों से कहा — ‘माताजी, पिताजी और व्रजवासियो ! तुमलोग अपनी गौओं और सब सामग्रियों के साथ इस पर्वत के गड्ढे में आकर आराम से बैठ जाओ ॥ २० ॥ देखो, तुमलोग ऐसी शङ्का न करना कि मेरे हाथ से यह पर्वत गिर पड़ेगा । तुम लोग तनिक भी मत डरो । इस आंधी-पानी के डर से तुम्हें बचाने के लिये ही मैंने यह युक्ति रची हैं’ ॥ २१ ॥ जब भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सबको आश्वासन दिया — ढाढ़स बँधाया, तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रितों, पुरोहितों और भृत्यों को अपने अपने साथ लेकर सुभीते के अनुसार गोवर्द्धन के गड्ढे में आ घुसे ॥ २२ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने सब व्रजवासियों के देखते-देखते भूख-प्यास की पीड़ा, आराम-विश्राम की आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिन तक लगातार उस पर्वत को उठाये रखा । वे एक डग भी वहाँ से इधर-उधर नहीं हुए ॥ २३ ॥ श्रीकृष्णा की योगमाया का यह प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौचक्के से रह गये । इसके बाद उन्होंने मेघों को अपने-आप वर्षा करने से रोक दिया ॥ २४ ॥ जब गोवर्द्धनधारी भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयङ्कर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाश से बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब उन्होंने गोपों से कहा — ॥ २५ ॥ ‘मेरे प्यारे गोपो ! अब तुमलोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन तथा बच्चों के साथ बाहर निकल आओ । देखो, अब आँधी-पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया’ ॥ २६ ॥ भगवान् की ऐसी आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढों को साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ों पर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर निकल आये ॥ २७ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत् उसके स्थान पर रख दिया ॥ २८ ॥ व्रजवासियों का हृदय प्रेम के आवेग से भर रहा था । पर्वत को रखते ही वे भगवान् श्रीकृष्ण के पास दौड़ आये । कोई उन्हें हृदय से लगाने और कोई चूमने लगा । सबने उनका सत्कार किया । बड़ी-बूढ़ी गोपियों ने बड़े आनन्द और स्नेह से दही, चावल, जल आदि से उनका मङ्गल-तिलक किया और उन्मुक्त हृदय से शुभ आशीर्वाद दिये ॥ २९ ॥ यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा और बलवानों में श्रेष्ठ बलरामजी ने स्नेहातुर होकर श्रीकृष्ण को हृदय से लगा लिया तथा आशीर्वाद दिये ॥ ३० ॥ परीक्षित् ! उस समय आकाश में स्थित देवता, साध्य, सिद्ध, गन्धर्व और चारण आदि प्रसन्न होकर भगवान् की स्तुति करते हुए उन पर फूलों की वर्षा करने लगे ॥ ३१ ॥ राजन् ! स्वर्ग में देवतालोग शङ्ख और नौबत बजाने लगे । तुम्बुरु आदि गन्धर्वराज भगवान् की मधुर लीला का गान करने लगे ॥ ३२ ॥ इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने व्रज की यात्रा की । उनके बगल में बलरामजी चल रहे थे और उनके प्रेमी ग्वालबाल उनकी सेवा कर रहे थे । उनके साथ ही प्रेममयी गोपियाँ भी अपने हृदय को आकर्षित करनेवाले, उसमें प्रेम जगानेवाले भगवान् की गोवर्द्धनधारण आदि लीलाओं का गान करती हुई बड़े आनन्द से व्रज में लौट आयीं ॥ ३३ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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