April 23, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय ३५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय पैंतीसवाँ अध्याय युगलगीत श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण के गौओं को चराने के लिये प्रतिदिन वन में चले जाने पर उनके साथ गोपियों का चित्त भी चला जाता था । उनका मन श्रीकृष्ण का चिन्तन करता रहता और वे वाणी से उनकी लीलाओं का गान करती रहतीं । इस प्रकार वे बड़ी कठिनाई से अपना दिन बितातीं ॥ १ ॥ गोपियाँ आपस में कहती — अरी सखी ! अपने प्रेमीजनों को प्रेम वितरण करनेवाले और द्वेष करनेवालों तक को मोक्ष दे देनेवाले श्यामसुन्दर नटनागर जब अपने बायें कपोल को बायीं बाँह की ओर लटका देते हैं और अपनी भौंहें नचाते हुए बाँसुरी को अधरों से लगाते हैं तथा अपनी सुकुमार अंगुलियों को उसके छेदों पर फिराते हुए मधुर तान छेड़ते हैं, उस समय सिद्धपत्नियाँ आकाश में अपने पति सिद्धगणों के साथ विमानों पर चढ़कर आ जाती हैं और उस तान को सुनकर अत्यन्त ही चकित तथा विस्मित हो जाती हैं । पहले तो उन्हें अपने पतियों के साथ रहने पर भी चित्त की यह दशा देखकर लज्जा मालूम होती है; परंतु क्षणभर में ही उनका चित्त कामबाण से बिंध जाता है, वे विवश और अचेत हो जाती हैं । उन्हें इस बात की भी सुधि नहीं रहती कि उनकी नीवी खुल गयी है और उनके वस्त्र खिसक गये हैं ॥ २-३ ॥ अरी गोपियो ! तुम यह आश्चर्य की बात सुनो ! ये नन्दनन्दन कितने सुन्दर हैं ? जब वे हँसते हैं तब हास्यरेखाएँ हार का रूप धारण कर लेती हैं, शुभ्र मोती-सी चमकने लगती हैं । अरी वीर ! उनके वक्षःस्थल पर लहराते हुए हार में हास्य की किरणें चमकने लगती हैं । उनके वक्षःस्थल पर जो श्रीवत्स की सुनहली रेखा है, वह तो ऐसी जान पड़ती है, मानो श्याम मेघ पर बिजली ही स्थिररूप से बैठ गयी है । वे जब दुखीजनों को सुख देने के लिये, विरहियों के मृतक शरीर में प्राणों का सञ्चार करने के लिये बाँसुरी बजाते हैं, तब व्रज के झुंड-के-झुंड बैल, गौएँ और हरिन उनके पास ही दौड़ आते हैं । केवल आते ही नहीं, सखी ! दाँतों से चबाया हुआ घास का ग्रास उनके मुंह में ज्यों-का-त्यों पड़ा रह जाता है, वे उसे न निगल पाते और न तो उगल ही पाते हैं । दोनों कान खड़े करके इस प्रकार स्थिरभाव से खड़े हो जाते हैं, मानो सो गये हैं, या केवल भीत पर लिखे हुए चित्र हैं । उनकी ऐसी दशा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि यह बाँसुरी की तान उनके चित्त को चुरा लेती है ॥ ४-५ ॥ हे सखि ! जब वे नन्द के लाड़ले लाल अपने सिर पर मोरपंख का मुकुट बाँध लेते हैं, घुँघराली अलकों में फूल के गुच्छे खोंस लेते हैं, रंगीन धातुओं से अपना अङ्ग-अङ्ग रँग लेते हैं और नये-नये पल्लवों से ऐसा वेष सजा लेते हैं, जैसे कोई बहुत बड़ा पहलवान हो और फिर बलरामजी तथा ग्वालबालों के साथ बाँसुरी में गौओं का नाम ले-लेकर उन्हें पुकारते हैं; उस समय प्यारी सखियो ! नदियों की गति भी रुक जाती है । वे चाहती हैं कि वायु उड़ाकर हमारे प्रियतम के चरणों की धूलि हमारे पास पहुँचा दे और उसे पाकर हम निहाल हो जायँ, परंतु सखियो ! वे भी हमारे-ही-जैसी मन्दभागिनी हैं । जैसे नन्दनन्दन श्रीकृष्ण का आलिङ्गन करते समय हमारी भुजाएँ काँप जाती हैं और जड़ता रूप सञ्चारी-भाव का उदय हो जाने से हम अपने हाथों को हिला भी नहीं पातीं, वैसे ही वे भी प्रेम के कारण काँपने लगती हैं । दो चार बार अपनी तरङ्गरूप भुजाओं को काँपते-काँपते उठाती तो अवश्य हैं, परंतु फिर विवश होकर स्थिर हो जाती हैं, प्रेमावेश से स्तम्भित हो जाती हैं ॥ ६-७ ॥ अरी वीर ! जैसे देवता लोग अनन्त और अचिन्त्य ऐश्वर्यों के स्वामी भगवान् नारायण की शक्तियों का गान करते हैं, वैसे ही ग्वालबाल अनन्तसुन्दर नटनागर श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करते रहते हैं । वे अचिन्त्य ऐश्वर्य-सम्पन्न श्रीकृष्ण जब वृन्दावन में विहार करते रहते हैं और बाँसुरी बजाकर गिरिराज गोवर्धन की तराई में चरती हुई गौओं को नाम ले-लेकर पुकारते हैं, उस समय वन के वृक्ष और लताएँ फूल और फलों से लद जाती हैं, उनके भार से डालियाँ झुककर घरती छूने लगती हैं, मानो प्रणाम कर रही हों, वे वृक्ष और लताएँ अपने भीतर भगवान् विष्णु की अभिव्यक्ति सूचित करती हुई-सी प्रेम से फूल उठती हैं, उनका रोम-रोम खिल जाता है और सब-की-सब मधु-धाराएँ उड़ेलने लगती हैं ॥ ८-९ ॥ अरी सखी ! जितनी भी वस्तुएँ संसार में या उसके बाहर देखने योग्य हैं, उनमें सबसे सुन्दर, सबसे मधुर, सबके शिरोमणि हैं — ये हमारे मनमोहन । उनके साँवले ललाट पर केसर की खौर [ मस्तक पर लगे हुए चंदन का आड़ा या धनुषाकार तिलक । चंदन का आड़ा टीका । त्रिपुंड । विशेष—चंदन का मस्तक पर लेप करके उसपर उँगली से खरोंच कर चिह्न बनाते हैं । क्रि॰ प्र॰—देना ।—लगाना ।] कितनी फबती है—बस, देखती ही जाओ ! गले में घुटनों तक लटकती हुई वनमाला, उसमें पिरोयी हुई तुलसी की दिव्य गन्ध और मधुर मधु से मतवाले होकर झुंड-के-झुंड भौरे बड़े मनोहर एवं उच्च स्वर से गुंजार करते रहते हैं । हमारे नटनागर श्यामसुन्दर भौरों की उस गुनगुनाहट का आदर करते हैं और उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाकर अपनी बाँसुरी फूँकने लगते हैं । उस समय सखि ! उस मुनिजन-मोहन संगीत को सुनकर सरोवर में रहनेवाले सारस-हंस आदि पक्षियों का भी चित्त उनके हाथ से निकल जाता है, छिन जाता है । वे विवश होकर प्यारे श्यामसुन्दर के पास आ बैठते हैं तथा आँखें मुँद, चुपचाप, चित्त एकाग्र करके उनकी आराधना करने लगते हैं — मानों कोई विहङ्गमवृत्ति के रसिक परमहंस ही हों, भला कहो तो यह कितने आश्चर्य की बात है ॥ १०-११ ॥ अरी व्रजदेवियो ! हमारे श्यामसुन्दर जब पुष्पों के कुण्डल बनाकर अपने कानों में धारण कर लेते हैं और बलरामजी के साथ गिरिराज के शिखरों पर खड़े होकर सारे जगत् को हर्षित करते हुए बाँसुरी बजाने लगते हैं — बाँसुरीं क्या बजाते हैं, आनन्द में भरकर उसकी ध्वनि के द्वारा सारे विश्व का आलिङ्गन करने लगते हैं — उस समय श्याम मेघ बाँसुरी की तान के साथ मन्द-मन्द गरजने लगता है । उसके चित्त में इस बात की शङ्का बनी रहती है कि कहीं मैं जोर से गर्जना कर उठूँ और वह कहीं बाँसुरी की तान के विपरीत पड़ जाय, उसमें बेसुरापन ले आये, तो मुझसे महात्मा श्रीकृष्ण का अपराध हो जायगा । सखी ! वह इतना ही नहीं करता; वह जब देखता है कि हमारे सखा घनश्याम को घाम लग रहा है, तब वह उनके ऊपर आकर छाया कर लेता है, उनका छत्र बन जाता हैं । अरी वीर ! वह तो प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उनके ऊपर अपना जीवन ही निछावर कर देता है — नन्हीं-नन्हीं फुहियों के रूप में ऐसा बरसने लगता है, मानो दिव्य पुष्पों की वर्षा कर रहा हो । कभी-कभी बादलों की ओट में छिपकर देवतालोग भी पुष्पवर्षा कर जाया करते हैं ॥ १२-१३ ॥ सतीशिरोमणि यशोदाजी ! तुम्हारे सुन्दर कुँवर ग्वालबालों के साथ खेल खेलने में बड़े निपुण हैं । रानीजी ! तुम्हारे लाड़ले लाल सबके प्यारे तो हैं ही, चतुर भी बहुत हैं । देखो, उन्होंने बाँसुरी बजाना किसी से सीखा नहीं । अपने ही अनेकों प्रकार की राग-रागिनियाँ उन्होंने निकाल लीं । जब वे अपने बिम्बा फल सदृश लाल-लाल अधरों पर बाँसुरी रखकर ऋषभ, निषाद आदि स्वरों की अनेक जातियां बजाने लगते हैं, उस समय वंशी की परम मोहिनी और नयी तान सुनकर ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्र आदि बड़े बड़े देवता भी — जो सर्वज्ञ हैं — उसे नहीं पहचान पाते । वे इतने मोहित हो जाते हैं कि उनका चित्त तो उनके रोकने पर भी उनके हाथ से निकलकर वंशीध्वनि में तल्लीन हो ही जाता है, सिर भी झुक जाता हैं, और वे अपनी सुध-बुध खोकर उसमें तन्मय हो जाते हैं ॥ १४-१५ ॥ अरी वीर ! उनके चरणकमलों में ध्वजा, वज़, कमल, अङ्कुश आदि के विचित्र और सुन्दर-सुन्दर चिह्न हैं । जब व्रजभूमि गौओं के खुर से खुद जाती हैं, तब वे अपने सुकुमार चरणों से उसकी पीड़ा मिटाते हुए गजराज के समान मन्दगति से आते हैं और बाँसुरी भी बजाते रहते हैं । उनकी वह वंशीध्वनि, उनकी वह चाल और उनकी वह विलासभरी चितवन हमारे हृदय में प्रेम के मिलन की आकांक्षा का आवेग बढ़ा देती है । हम उस समय इतनी मुग्ध, इतनी मोहित हो जाती हैं कि हिल-डोल तक नहीं सकतीं, मानो हम जड़ वृक्ष हों ! हमें तो इस बात का भी पता नहीं चलता कि हमारा जूड़ा खुल गया है या बँधा है, हमारे शरीर पर का वस्त्र उतर गया है या है ॥ १६-१७ ॥ अरी वीर ! उनके गले में मणियों की माला बहुत ही भली मालूम होती हैं । तुलसी की मधुर गन्ध उन्हें बहुत प्यारी है । इसी से तुलसी की माला को तो वे कभी छोड़ते ही नहीं, सदा धारण किये रहते हैं । जब वे श्यामसुन्दर उस मणियों की माला से गौओं की गिनती करते-करते किसी प्रेमी सखा के गले में बाँह डाल देते हैं और भाव बता-बताकर बाँसुरी बजाते हुए गाने लगते हैं, उस समय बजती हुई उस बाँसुरी के मधुर स्वर से मोहित होकर कृष्णसार मृगों की पत्नी हरिनियाँ भी अपना चित्त उनके चरणों पर निछावर कर देती हैं और जैसे हम गोपियाँ अपने घर-गृहस्थी की आशा-अभिलाषा छोड़कर गुणसागर नागर नन्दनन्दन को घेरे रहती हैं, जैसे ही वे भी उनके पास दौड़ आती हैं और वही एकटक देखती हुई खड़ी रह जाती हैं. लौटने का नाम भी नहीं लेती ॥ १८-१९ ॥ नन्दरानी यशोदाजी ! वास्तव में तुम बड़ी पुण्यवती हो । तभी तो तुम्हें ऐसे पुत्र मिले हैं । तुम्हारे वे लाड़ले लाल बड़े प्रेमी हैं, उनका चित्त बड़ा कोमल हैं । वे प्रेमी सखाओं को तरह-तरह से हास-परिहास के द्वारा सुख पहुँचाते हैं । कुन्दकली का हार पहनकर जब वे अपने को विचित्र वेष में सजा लेते हैं और ग्वालबाल तथा गौओं के साथ यमुनाजी के तट पर खेलने लगते हैं, उस समय मलयज चन्दन के समान शीतल और सुगन्धित स्पर्श से मन्द-मन्द अनुकूल बहकर वायु तुम्हारे लाल की सेवा करती है और गन्धर्व आदि उपदेवता वंदीजनों के समान गा-बजाकर उन्हें सन्तुष्ट करते हैं तथा अनेकों प्रकार की भेंट देते हुए सब ओर से घेरकर उनकी सेवा करते हैं ॥ २०-२१ ॥ अरी सखी ! श्यामसुन्दर व्रज की गौओं से बड़ा प्रेम करते हैं । इसीलिये तो उन्होंने गोवर्धन धारण किया था । अब वे सब गौओं को लौटाकर आते ही होंगे; देखो, सायङ्काल हो चला है । तब इतनी देर क्यों होती हैं । सखी ? रास्ते में बड़े-बड़े ब्रह्मा आदि वयोवृद्ध और शङ्कर आदि ज्ञानवृद्ध उनके चरणों की वन्दना जो करने लगते हैं । अब गौओं के पीछे-पीछे बाँसुरी बजाते हुए वे आते हीं होंगे । ग्वालबाल उनकी कीर्ति का गान कर रहे होंगे । देखो न, यह क्या आ रहे हैं । गौओं के खुरों से उड़-उड़कर बहुत-सी धूल वनमाला पर पड़ गयी है । वे दिन भर जंगलों में घूमते-घूमते थक गये हैं । फिर भी अपनी इस शोभा से हमारी आँखों को कितना सुख, कितना आनन्द दे रहे हैं । देखो, ये यशोदा की कोख से प्रकट हुए सबको आह्लादित करनेवाले चन्द्रमा हम प्रेमीजनों की भलाई के लिये, हमारी आशा-अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिये ही हमारे पास चले आ रहे हैं ॥ २२-२३ ॥ सखी ! देखो कैसा सौन्दर्य है ! मदभरी आँखें कुछ चढ़ी हुई हैं । कुछ-कुछ ललाई लिये हुए कैसी भली जान पड़ती है । गले में वनमाला लहरा रही है । सोने के कुण्डलों की कान्ति से वे अपने कोमल कपोल को अलङ्कृत कर रहे हैं । इसी से मुंह पर अधपके बेर के समान कुछ पीलापन जान पड़ता है और रोम-रोम से विशेष करके मुखकमल से प्रसन्नता फूटी पड़ती है । देखो, अब वे अपने सखा ग्वालबालों का सम्मान करके उन्हें विदा कर रहे हैं । देखो, देखो सखी ! व्रजविभूषण श्रीकृष्ण गजराज के समान मदभरी चाल से इस सन्ध्या वेला में हमारी ओर आ रहे हैं । अब व्रज में रहनेवाली गौओं का, हमलोगों का दिनभर का असह्य विरह-ताप मिटाने के लिये उदित होनेवाले चन्द्रमा की भाँति ये हमारे प्यारे श्यामसुन्दर समीप चले आ रहे हैं ॥ २४-२५ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! बड़भागिनी गोपियों का मन श्रीकृष्ण में ही लगा रहता था । वे श्रीकृष्णमय हो गयी थी । जब भगवान् श्रीकृष्ण दिन में गौओं को चराने के लिये वन में चले जाते, तब वे उन्हीं का चिन्तन करती रहतीं और अपनी-अपनी सखियों के साथ अलग-अलग उन्हीं की लीलाओं का गान करके उसमें रम जातीं । इस प्रकार उनके दिन बीत जाते ॥ २६ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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