April 24, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय ३८ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय अड़तीसवाँ अध्याय अक्रूरजी की व्रज-यात्रा श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! महामति अक्रूरजी भी वह रात मथुरापुरी में बिताकर प्रातःकाल होते ही रथ पर सवार हुए और नन्दबाबा के गोकुल की ओर चल दिये ॥ १ ॥ परम भाग्यवान् अक्रूरजी व्रज की यात्रा करते समय मार्ग में कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण की परम प्रेममयी भक्ति से परिपूर्ण हो गये । वे इस प्रकार सोचने लगे — ॥ २ ॥ ‘मैंने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्र को ऐसा कौन-सा महत्त्वपूर्ण दान दिया है, जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन करूँगा ॥ ३ ॥ मैं बड़ा विषयी हूँ । ऐसी स्थिति में, बड़े-बड़े सात्त्विक पुरुष भी जिनके गुणों का ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पाते — उन भगवान् के दर्शन मेरे लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं, ठीक वैसे ही, जैसे शूद्रकुल के बालक के लिये वेदों का कीर्तन ॥ ४ ॥ परंतु नहीं, मुझ अधम को भी भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन होंगे ही । क्योंकि जैसे नदी में बहते हुए तिनके कभी-कभी इस पार से उस पार लग जाते हैं, वैसे ही समय के प्रवाह से भी कहीं कोई इस संसार-सागर को पार कर सकता हैं ॥ ५ ॥ अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये । आज मेरा जन्म सफल हो गया । क्योंकि आज मैं भगवान् के उन चरणकमलों में साक्षात् नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी-यतियो के भी केवल ध्यान के ही विषय हैं ॥ ६ ॥ अहो ! कंस ने तो आज मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की है । उसी कंस के भेजने से मैं इस भूतल पर अवतीर्ण स्वयं भगवान् के चरणकमलों के दर्शन पाऊँगा । जिनके नखमण्डल की कान्ति का ध्यान करके पहले युगों के ऋषि-महर्षि इस अज्ञानरूप अपार अन्धकार राशि को पार कर चुके हैं, स्वयं वही भगवान् तो अवतार ग्रहण करके प्रकट हुए हैं ॥ ७ ॥ ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलों की उपासना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षण के लिये भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तों के साथ बड़े-बड़े ज्ञानी भी जिनकी आराधना में संलग्न रहते हैं — भगवान् के वे ही चरण-कमल गौओं को चराने के लिये ग्वालबालों के साथ वन-वन में विचरते हैं । वे ही सुर-मुनि-वन्दित श्रीचरण गोपियों के वक्षःस्थल पर लगी हुई केसर से रँग जाते हैं, चिह्नित हो जाते हैं ॥ ८ ॥ मैं अवश्य-अवश्य उनका दर्शन करूँगा । मरकतमणि के समान सुस्निग्ध कान्तिमान् उनके कोमल कपोल हैं, तोते की ठोर (पुं० [सं० तुंड] पक्षियों की चोंच) के समान नुकीली नासिका है, होठों पर मन्द-मन्द मुसकान, प्रेमभरी चितवन, कमल-से-कोमल रतनारे लोचन और कपोलों पर घुँघराली अलकें लटक रहीं हैं । मैं प्रेम और मुक्ति के परम दानी श्रीमुकुन्द के उस मुखकमल का आज अवश्य दर्शन करूँगा । क्योंकि हरिन मेरी दायीं ओर से निकल रहे हैं ॥ ९ ॥ भगवान् विष्णु पृथ्वी का भार उतारने के लिये स्वेच्छा से मनुष्य की-सी लीला कर रहे हैं । वे सम्पूर्ण लावण्य के धाम हैं । सौन्दर्य की मूर्तिमान् निधि हैं । आज मुझे उन्हीं का दर्शन होगा ! अवश्य होगा ! आज मुझे सहज में ही आँखों का फल मिल जायगा ॥ १० ॥ भगवान् इस कार्य-कारणरूप जगत् के द्रष्टामात्र हैं, और ऐसा होने पर भी द्रष्टापन का अहङ्कार उन्हें छू तक नहीं गया है । उनकी चिन्मयी शक्ति से अज्ञान के कारण होनेवाला भेद-भ्रम अज्ञान-सहित दूर से ही निरस्त रहता है । वे अपनी योगमाया से ही अपने-आपमें भ्रू-विलास-मात्र से प्राण, इन्द्रिय और बुद्धि आदि सहित अपने स्वरूपभूत जीवों की रचना कर लेते हैं और उनके साथ वृन्दावन की कुञ्जों (लता-झाड़ियों से घिरा हुआ मंडप।) में तथा गोपियों के घरों में तरह-तरह की लीलाएँ करते हुए प्रतीत होते हैं ॥ ११ ॥ जब समस्त पापों के नाशक उनके परम मङ्गलमय गुण, कर्म और जन्म की लीलाओं से युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गान से संसार में जीवन की स्फूर्ति होने लगती है, शोभा का सञ्चार हो जाता है, सारी अपवित्रताएँ धुलकर पवित्रता का साम्राज्य छा जाता है; परंतु जिस वाणी से उनके गुण, लीला और जन्म की कथाएँ नहीं गायी जाती, वह तो मुर्दों को ही शोभित करनेवाली है, होने पर भी नहीं के समान — व्यर्थ है ॥ १२ ॥ जिनके गुणगान का ही ऐसा माहात्म्य है, वे ही भगवान स्वयं यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं । किसलिये ? अपनी ही बनायीं मर्यादा का पालन करनेवाले श्रेष्ठ देवताओं का कल्याण करने के लिये । वे ही परम ऐश्वर्यशाली भगवान् आज व्रज में निवास कर रहे हैं और वहाँ से अपने यश का विस्तार कर रहे हैं । उनका यश कितना पवित्र है ! अहो, देवतालोग भी उस सम्पूर्ण मङ्गलमय यश का गान करते रहते हैं ॥ १३ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि आज मैं अवश्य ही उन्हें देखूँगा । वे बड़े-बड़े संतों और लोकपालों के भी एकमात्र आश्रय हैं । सबके परम गुरु हैं और उनका रूप-सौन्दर्य तोनों लोकों के मन को मोह लेनेवाला है । जो नेत्रवाले हैं, उनके लिये वह आनन्द और उसकी चरम सीमा है । इससे स्वयं लक्ष्मीजी भी, जो सौन्दर्य की अधीश्वरी हैं, उन्हें पाने के लिये ललकती रहती हैं । हाँ, तो मैं उन्हें अवश्य देखूँगा । क्योंकि आज मेरा मङ्गल-प्रभात है, आज मुझे प्रातःकाल से ही अच्छे-अच्छे शकुन दीख रहे हैं ॥ १४ ॥ जब मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्ण के चरणों में नमस्कार करने के लिये तुरंत रथ से कूद पडूँगा । उनके चरण पकड़ लूँगा । ओह ! उनके चरण कितने दुर्लभ हैं । बड़े-बड़े योगी-यति आत्म-साक्षात्कार के लिये मन-ही-मन अपने हृदय में उनके चरणों की धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊँगा और लोट जाऊँगा उन पर । उन दोनों के साथ ही उनके वनवासी सखा एक-एक ग्वालबाल के चरणों की भी वन्दना करूँगा ॥ १५ ॥ मेरे अहोभाग्य ! जब मैं उनके चरणकमलों में गिर जाऊँगा, तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिर पर रख देंगे ? उनके वे करकमल उन लोगों को सदा के लिये अभयदान दे चुके हैं, जो कालरूपी साँप के भय से अत्यन्त घबड़ाकर उनकी शरण चाहते और शरण में आ जाते हैं ॥ १६ ॥ इन्द्र तथा दैत्यराज बलि ने भगवान् के उन्हीं करकमलों में पूजा की भेंट समर्पित करके तीनों लोकों का प्रभुत्व — इन्द्रपद प्राप्त कर लिया । भगवान् के उन्हीं करकमलों ने, जिनमें से दिव्य कमलकी-सी सुगन्ध आया करती हैं, अपने स्पर्श से रासलीला के समय व्रजयुवतियों की सारी थकान मिटा दी थीं ॥ १७ ॥ मैं कंस का दूत हूँ । उसी के भेजने से उनके पास जा रहा हूँ । कहीं वे मुझे अपना शत्रु तो न समझ बैठेंगे ? राम-राम ! ऐसा कदापि नहीं समझ सकते । क्योंकि वे निर्विकार हैं, सम हैं, अच्युत हैं, सारे विश्व के साक्षी हैं, सर्वज्ञ हैं, वे चित्त के बाहर भी हैं और भीतर भी । वे क्षेत्रज्ञ रूप से स्थित होकर अन्तःकरण की एक-एक चेष्टा को अपनी निर्मल ज्ञानदृष्टि के द्वारा देखते रहते हैं ॥ १८ ॥ तब मेरी शङ्का व्यर्थ हैं । अवश्य ही मैं उनके चरणों में हाथ जोड़कर विनीतभाव से खड़ा हो जाऊँगा । वे मुसकराते हुए दयाभरी स्निग्ध दृष्टि से मेरी ओर देखेंगे । उस समय मेरे जन्म-जन्म के समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो जायेंगे और मैं निःशङ्क होकर सदा के लिये परमानन्द में मग्न हो जाऊँगा ॥ १९ ॥ मैं उनके कुटुम्ब का हूँ और उनका अत्यन्त हित चाहता हूँ । उनके सिवा और कोई मेरा आराध्यदेव भी नहीं हैं । ऐसी स्थिति में वे अपनी लंबी-लंबी बाँहों से पकड़कर मुझे अवश्य अपने हृदय से लगा लेंगे । अहा ! उस समय मेरी तो देह पवित्र होगी ही, वह दूसरों को पवित्र करनेवाली भी बन जायगी और उसी समय-उनका आलिङ्गन प्राप्त होते ही मेरे कर्ममय बन्धन, जिनके कारण मैं अनादिकाल से भटक रहा हूँ, टूट जायँगे ॥ २० ॥ जब वे मेरा आलिङ्गन कर चुकेंगे और मैं हाथ जोड़, सिर झुकाकर उनके सामने खड़ा हो जाऊँगा, तब वे मुझे ‘चाचा अक्रूर !’ इस प्रकार कहकर सम्बोधन करेंगे ! क्यों न हो, इसी पवित्र और मधुर यश का विस्तार करने के लिये ही तो वे लीला कर रहे हैं । तब मेरा जीवन सफल हो जायगा । भगवान् श्रीकृष्ण ने जिसको अपनाया नहीं, जिसे आदर नहीं दिया — उसके उस जन्म को, जीवन को धिक्कार है ॥ २१ ॥ न तो उन्हें कोई प्रिय हैं और न तो अप्रिय । न तो उनका कोई आत्मीय सुहृद् है और न तो शत्रु । उनकी उपेक्षा का पात्र भी कोई नहीं हैं । फिर भी जैसे कल्पवृक्ष अपने निकट आकर याचना करनेवालों को उनकी मुँह-माँगी वस्तु देता है, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण भी, जो उन्हें जिस प्रकार भजता है, उसे उसी रूप में भजते हैं — वे अपने प्रेमी भक्तों से ही पूर्ण प्रेम करते हैं ॥ २२ ॥ मैं उनके सामने विनीत भाव से सिर झुकाकर खड़ा हो जाऊँगा और बलरामजी मुसकराते हुए मुझे अपने हृदय से लगा लेंगे और फिर मेरे दोनों हाथ पकड़कर मुझे घर के भीतर ले जायेंगे । वहाँ सब प्रकार से मेरा सत्कार करेंगे । इसके बाद मुझसे पूछेंगे कि ‘कंस हमारे घरवालों के साथ कैसा व्यवहार करता है ?’ ॥ २३ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! श्वफल्क-नन्दन अक्रूर मार्ग में इसी चिन्तन में डूबे-डूबे रथ से नन्दगाँव पहुँच गये और सूर्य अस्ताचल पर चले गये ॥ २४ ॥ जिनके चरणकमल की रज का सभी लोकपाल अपने किरीटों के द्वारा सेवन करते हैं, अक्रूरजी ने गोष्ठ [गोष्ठ संज्ञा पुं॰ [सं॰] १. गौओं के रहने का स्थान । गोशाला । २. किसी जाति के पशुओं के रहने का स्थान । जैसे,—महिष गोष्ठ] में उनके चरणचिह्नों के दर्शन कि ये। कमल, यव, अङ्कुश आदि असाधारण चिह्नों के द्वारा उनकी पहचान हो रही थी और उनसे पृथ्वी की शोभा बढ़ रही थी ॥ २५ ॥ उन चरणचिह्नों के दर्शन करते ही अक्रूरजी के हृदय में इतना आह्लाद हुआ कि वे अपने को सँभाल न सके, विह्वल हो गये । प्रेम के आवेग से उनका रोम-रोम खिल उठा, नेत्रों में आँसू भर आये और टप-टप टपकने लगे । वे रथ से कूदकर उस धूलि में लोटने लगे और कहने लगे — ‘अहो ! यह हमारे प्रभु के चरणों की रज है’ ॥ २६ ॥ परीक्षित् ! कंस के सन्देश से लेकर यहाँ तक अकूरजी के चित्त की जैसी अवस्था रही है, यही जीवों के देह धारण करने का परम लाभ हैं । इसलिये जीवमात्र का यही परम कर्तव्य है कि दम्भ, भय और शोक त्यागकर भगवान् की मूर्ति (प्रतिमा, भक्त आदि) चिह्न, लीला, स्थान तथा गुणों के दर्शन-श्रवण आदि के द्वारा ऐसा ही भाव सम्पादन करें ॥ २७ ॥ व्रज में पहुँचकर अक्रूरजी ने श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाइयों को गाय दुहने के स्थान में विराजमान देखा । श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण पीताम्बर धारण किये हुए थे और गौरसुन्दर बलराम नीलाम्बर । उनके नेत्र शरत्कालीन कमल के समान खिले हुए थे ॥ २८ ॥ उन्होंने अभी किशोर-अवस्था में प्रवेश ही किया था । वे दोनों गौर-श्याम निखिल सौन्दर्य की खान थे । घुटनों का स्पर्श करनेवाली लंबी-लंबी भुजाएँ, सुन्दर बदन, परम मनोहर और गजशावक के समान ललित चाल थी ॥ २९ ॥ उनके चरणों में ध्वजा, वज्र, अङ्कुश और कमल के चिह्न थे । जब वे चलते थे, उनसे चिह्नित होकर पृथ्वी शोभायमान हो जाती थी । उनकी मन्द-मन्द मुसकान और चितवन ऐसी थी, मानो दया बरस रही हो । वे उदारता की तो मानो मूर्ति ही थे ॥ ३० ॥ उनकी एक-एक लीला उदारता और सुन्दर कला से भरी थी । गले में वनमाला और मणियों के हार जगमगा रहे थे । उन्होंने अभी-अभी स्नान करके निर्मल वस्त्र पहने थे और शरीर में पवित्र अङ्गराग तथा चन्दन का लेप किया था ॥ ३१ ॥ परीक्षित् ! अक्रूर ने देखा कि जगत् के आदिकारण, जगत् परमपति, पुरुषोत्तम ही संसार की रक्षा के लिये अपने सम्पूर्ण अंशों से बलरामजी और श्रीकृष्ण के रूप में अवतीर्ण होकर अपनी अङ्गकान्ति से दिशाओं का अन्धकार दूर कर रहे हैं । वे ऐसे भले मालूम होते थे, जैसे सोने से मढे हुए मरकतमणि और चाँदी के पर्वत जगमगा रहे हों ॥ ३२-३३ ॥ उन्हें देखते ही अकूरजी प्रेमावेग से अधीर होकर रथ से कूद पड़े और भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलराम के चरणों के पास साष्टाङ्ग लोट गये ॥ ३४ ॥ परीक्षित् ! अगवान् के दर्शन से उन्हें इतना आह्लाद हुआ कि उनके नेत्र आँसू से सर्वथा भर गये । सारे शरीर में पुलकावली छा गयी । उत्कण्ठावश गला भर आने के कारण वे अपना नाम भी न बतला सके ॥ ३५ ॥ शरणागतवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण उनके मन का भाव जान गये । उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से चक्राङ्कित हाथों के द्वारा उन्हें खींचकर उठाया और हृदय से लगा लिया ॥ ३६ ॥ इसके बाद जब वे परम मनस्वी श्रीबलरामजी के सामने विनीत भाव से खड़े हो गये, तब उन्होंने उनको गले लगा लिया और उनका एक हाथ श्रीकृष्ण ने पकड़ा तथा दूसरा बलरामजी ने । दोनों भाई उन्हें घर ले गये ॥ ३७ ॥ घर ले जाकर भगवान् ने उनको बड़ा स्वागत-सत्कार किया । कुशल-मङ्गल पूछकर श्रेष्ठ आसन पर बैंठाया और विधिपूर्वक उनके पाँव पखारकर मधुपर्क (शहद मिला हुआ दही) आदि पूजा की सामग्री भेंट कीं ॥ ३८ ॥ इसके बाद भगवान् ने अतिथि अक्रूरजी को एक गाय दी और पैर दबाकर उनकी थकावट दूर की तथा बड़े आदर एवं श्रद्धा से उन्हें पवित्र और अनेक गुणों से युक्त अन्न का भोजन कराया ॥ ३९ ॥ जब वे भोजन कर चुके, तब धर्म के परम मर्मज्ञ भगवान् बलरामजी ने बड़े प्रेम से मुखवास (पान-इलायची आदि) और सुगन्धित माला आदि देकर उन्हें अत्यन्त आनन्दित किया ॥ ४० ॥ इस प्रकार सत्कार हो चुकने पर नन्दरायजी ने उनके पास आकर पूछा — ‘अक्रूरजी ! आपलोग निर्दयी कंस के जीते-जी किस प्रकार अपने दिन काटते हैं ? अरे ! उसके रहते आपलोगों की वहीं दशा हैं, जो कसाई द्वारा पाली हुई भेड़ों की होती हैं ॥ ४१ ॥ जिस इन्द्रियाराम पापी ने अपनी बिलखती हुई बहन के नन्हे-नन्हे बच्चों को मार डाला । आपलोग उसकी प्रजा हैं । फिर आप सुखी हैं, यह अनुमान तो हम कर ही कैसे सकते हैं ?’ ॥ ४२ ॥ अक्रूजी ने नन्दबाबा से पहले ही कुशल-मङ्गल पूछ लिया था । जब इस प्रकार नन्दबाबा ने मधुर वाणी से अक्रूजी से कुशल-मङ्गल पूछा और उनका सम्मान किया तब अक्रूरजी के शरीर में रास्ता चलने की जो कुछ थकावट थी, वह सब दूर हो गयी ॥ ४३ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अष्टात्रिंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related